भ्रमरगीत-सार/९०-नँदनंदन मोहन सों मधुकर! है काहे की प्रीति
नँदनंदन मोहन सों मधुकर! है काहे की प्रीति?
जौ कीजै तौ है जल, रवि औ जलधर की सी रीति॥
जैसे मीन, कमल, चातक की ऐसे ही गइ बीति।
तलफत, जरत, पुकारत सुनु, सठ! नाहिंन है यह रीति॥
मन हठि परे, कबंध-जुद्ध ज्यों, हारेहू भइ जीति।
बँधत न प्रेम-समुद्र सूर बल कहुँ बारुहि की भीति॥९०॥