जाको सुनत रहे हरि के ढिग स्यामसखा यह सो री!
कहा कहत री! मैं पत्यात[२] री नहीँ सुनी कहनावत।
हमको जोग सिखावन आयो, यह तेरे मन आवत?
करनी भली भलेई जानै, कपट कुटिल की खानि।
हरि को सखा नहीँ री माई! यह मन निसचय जानि॥
कहाँ रास-रस कहाँ जोग-जप? इतनो अँतर भाखत।
सूर सबै तुम कत भइँ बौरी याकी पति[३] जो राखत॥६७॥