बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ २११ से – २१२ तक
सखी री! मो मन धोखे जात। ऊधो कहत, रहत हरि मधुपुरि, गत आगत[१] न थकात॥
इत देखौं तौ आगे मधुकर मत्त-न्याय सतरात[२]। फिरि चाहौं[३] तौ प्राननाथ उत सुनत कथा मुसकात॥ हरि साँचे ज्ञानी सब झूठे जे निर्गुन-जस गात[४]। सूरदास जेहि सब जग डहक्यो[५] ते इनको डहकात॥३४५॥