भ्रमरगीत-सार/२८५-सखी री हरिहि दोष जनि देहु

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १८९

 

राग आसावरी

सखी री! हरिहि दोष जनि देहु।
जातें इते मान दुख पैयत हमरेहि कपट सनेहु॥
विद्यमान अपने इन नैनन्ह सूनो देखति गेहु।
तदपि सूल-ब्रजनाथ-बिरह तें भिदि न होत बड़ बेहु[]
कहि कहि कथा-पुरातन ऊधो! अब तुम अंत न लेहु।
सूरदास तन तो यों ह्वै है ज्यों फिरि फागुन मेहु[]॥२८५॥

  1. बेहु=बेध, छेद।
  2. फागुन मेहु=जलरहित, जीवनरहित।