भ्रमरगीत-सार/२५१-मधुकर के पठए तें तुम्हरी व्यापक न्यून परी

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १७५ से – १७६ तक

 

मधुकर के पठए तें तुम्हरी व्यापक[] न्यून परी।
नगरनारि[]-मुखछबि-तन निरखत द्वै बतियाँ बिसरीं॥
ब्रज को नेह, अरु आप पूर्नता एकौ ना उबरी।
तीजो पंथ प्रगट भयो देखियत जब भेंटी कुबरी॥
यह तौ परम साधु तुम डहक्यो, इन यह मन न धरी।
जो कछु कह्यो सुनि चल्यो सीस धरि जोग-जुगुति-गठरी॥

सूरदास प्रभुता का कहिए प्रीति भली पसरी!
राजमान सुख रहै कोटि पै घोष न एक घरी॥२५१॥

  1. व्यापक=व्यापकता।
  2. नगरनारि=मथुरा की नागरी स्त्रियों की।