मधुकर के पठए तें तुम्हरी व्यापक[१] न्यून परी।
नगरनारि[२]-मुखछबि-तन निरखत द्वै बतियाँ बिसरीं॥
ब्रज को नेह, अरु आप पूर्नता एकौ ना उबरी।
तीजो पंथ प्रगट भयो देखियत जब भेंटी कुबरी॥
यह तौ परम साधु तुम डहक्यो, इन यह मन न धरी।
जो कछु कह्यो सुनि चल्यो सीस धरि जोग-जुगुति-गठरी॥
सूरदास प्रभुता का कहिए प्रीति भली पसरी!
राजमान सुख रहै कोटि पै घोष न एक घरी॥२५१॥