भ्रमरगीत-सार/२४-जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहैं

भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ९८

 

जोग ठगौरी[] ब्रज न बिकैहै।

यह ब्योपार तिहारो ऊधो ऐसोई फिरि जैहै॥
जापै लै आए हौ मधुकर ताके उर न समैहै।
दाख छांड़ि कै कटुक निंबौरी[] को अपने मुख खैहै?
मूरी के पातन के केना[] को मुक्ताहल दैहै।
सूरदास प्रभु गुनहिं छांड़ि कै को निर्गुन निरबैहै? ॥२४॥

  1. ठगौरी=ठगपने का सौदा।
  2. निबौरी=नीम का फल।
  3. केना=सौदा। छोटा मोटा साग मूली आदि का बदला।