बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १५८
कैसे होय प्रतीति क्रूर सुनि ये बातैं जु सहत हैं॥
बासर-रैनि कठिन बिरहानल अंतर प्रान दहत है।
प्रजरि प्रजरि[१] पचि निकसि धूम अब नयनन नीर बहत है॥
अधिक अवज्ञा होत, देह दुख मर्यादा न गहत है।
कहि! क्यों मन मानै सूर प्रभु इन बातनि जु कहत है॥२०१॥