भ्रमरगीत-सार/१७७-जौ पै ऊधो हिरदय माँझ हरी

भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १५१ से – १५२ तक

 

राग मलार
जौ पै ऊधो! हिरदय माँझ हरी।

तौ पै इती अवज्ञा उनपै कैसे सही परी?

तबहिं दवा[] द्रुम दहन न पाये, अब क्यों देह जरी?
सुन्दरस्याम निकसि उर तें हम सीतल क्यों न करी?
इंद्र रिसाय बरस नयनन मग, घटत न एक घरी।
भीजत सीत भीत तन काँपत रहे, गिरि क्यों न धरी।
कर कंकन दर्पन लै दोऊ अब यहि अनख[] मरी।
एतो मान सूर सुनि योग जु बिरहिनि बिरह धरी॥१७७॥

  1. दवा=बन की आग।
  2. अनख=रिस, कुढ़न, बोध।