बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १५०
जौ लगि नाहिं गोपालहिं देखति बिरह दहति मेरी छाती॥
निमिष एक मोहिं बिसरत नाहिंन सरद-समय की राती।
मन तौ तबही तें हरि लीन्हों जब भयो मदन बराती॥
पीर पराई कह तुम जानौ तुम तो स्याम-सँघाती।
सूरदास स्वामी सों तुम पुनि कहियो ठकुरसुहाती[१]॥१७४॥