भ्रमरगीत-सार/१६९-मधुकर! भली सुमति मति खोई

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १४९

 

राग सारंग
मधुकर! भली सुमति मति खोई।

हाँसी होन लगी या ब्रज में जोगै राखौ गोई[]
आतमराम लखावत डोलत घटघट व्यापक जोई।
चापे[] काँख फिरत निर्गुन को, ह्याँ गाहक नहिं कोई॥
प्रेम-बिथा सोई पै जानै जापै बीती होई।
तू नीरस एती कह जानै? बूझि देखिबे ओई॥
बड़ो दूत तू, बड़े ठौर को, कहिए बुद्धि बड़ोई।
सूरदास पूरीषहि[] षटपद! कहत फिरत है सोई॥१६९॥

 

  1. गोई राखहु=छिपा रखो।
  2. चापे=दबाए हुए।
  3. पूरीष=पुरीष, मल।