हाँसी होन लगी या ब्रज में जोगै राखौ गोई[१]॥
आतमराम लखावत डोलत घटघट व्यापक जोई।
चापे[२] काँख फिरत निर्गुन को, ह्याँ गाहक नहिं कोई॥
प्रेम-बिथा सोई पै जानै जापै बीती होई।
तू नीरस एती कह जानै? बूझि देखिबे ओई॥
बड़ो दूत तू, बड़े ठौर को, कहिए बुद्धि बड़ोई।
सूरदास पूरीषहि[३] षटपद! कहत फिरत है सोई॥१६९॥