बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १४४
निरखि निरखि मग कमलनयन को प्रेममगन भए भारे॥ ता दिन तें नींदौ पुनि नासी, चौंकि परत अधिकारे। सपन तुरी[१] जागत पुनि सोई जो हैं हृदय हमारे॥ यह निगुन लै ताहि बतावो जो जानैं याके सारे। सूरदास गोपाल छाँड़ि कै चूसैं टेटी[२] खारे॥१५६॥