भ्रमरगीत-सार/१५४-मधुकर! जौ तुम हितू हमारे
तौ या भजन-सुधानिधि में जनि डारौ जोग-जल खारे॥
सुनु सठ रीति, सुरभि पयदायक[१] क्यों न लेत हल फारे[२]?
जो भयभीत होत रजु[३] देखत क्यों बढ़वत अहि कारे॥
निज कृत बूझि, बिना दसनन हति तजत धाम नहिं हारे[४]।
सो बल अछत निसा पंकज में दल-कपाट नहिं टारे॥
रे अलि, चपल मोदरस-लंपट! कतहि बकत बिन काज?
सूर स्याम-छबि क्यों बिसरत है नखसिख अंग बिराज?॥१५४॥