भ्रमरगीत-सार/१०६-ऊधो! जाके माथे भोग

भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १२७

 

राग सोरठ
ऊधो! जाके माथे भोग

कुबजा को पटरानी कीन्हों, हमहिं देत वैराग॥
तलफत फिरत सकल ब्रजबनिता चेरी चपरि[] []*सोहाग।
बन्यो बनायो संग सखी री! वै रे! हंस वै काग॥
लौंडी के घर डौंड़ी बाजी स्याम राग अनुराग।
हाँसी, कमलनयन-संग खेलति बारहमासी फाग॥
जोग की बेलि लगावन आए काटि प्रेम को बाग।
सूरदास प्रभु ऊख छाँड़ि कै चतुर चिचोरत आग[]॥१०६॥

  1. चपरि=चुपड़कर, संयुक्त करके।
  2. इसका अर्थ 'एकबारगी' होता है। तुलसी ने इसका कई स्थानों पर प्रयोग किया है।
  3. आग=आक, मदार।