भ्रमरगीत-सार/१०४-ऊधो! कही सो बहुरि न कहियो
ऊधो! कही सो बहुरि न कहियो।
जौ तुम हमहिं जिवायो चाहौ अनबोले[१] ह्वै रहियो॥
हमरे प्रान अघात होत हैं, तुम जानत हौ हाँसी।
या जीवन तें मरन भलो है करवट लैबो कासी[२]॥
जब हरि गवन कियौ पूरब लौं तब लिखि जोग पठायो।
यह तन जरिकै भस्म ह्वै निबर्यौ[३] बहुरि मसान जगायो॥
कै रे! मनोहर आनि मिलायो, कै लै चलु हम साथे।
सूरदास अब मरन बन्यो है, पाप तिहारे माथे॥१०४॥