भ्रमरगीत-सार/१०४-ऊधो! कही सो बहुरि न कहियो

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १२६

 

राग सोरठ
ऊधो! कही सो बहुरि न कहियो।

जौ तुम हमहिं जिवायो चाहौ अनबोले[] ह्वै रहियो॥
हमरे प्रान अघात होत हैं, तुम जानत हौ हाँसी।
या जीवन तें मरन भलो है करवट लैबो कासी[]
जब हरि गवन कियौ पूरब लौं तब लिखि जोग पठायो।
यह तन जरिकै भस्म ह्वै निबर्‌यौ[] बहुरि मसान जगायो॥
कै रे! मनोहर आनि मिलायो, कै लै चलु हम साथे।
सूरदास अब मरन बन्यो है, पाप तिहारे माथे॥१०४॥

  1. अनबोले=चुप।
  2. काशी करवट लेना=पहले योग मुक्ति की इच्छा से काशी में अपने को आरे से चिरवा डालते थे, उसी को करवट लेना कहते थे। करवट=करपत्र, आरा।
  3. भस्म ह्वै निबर्‌यौ=भस्म ही हो कर रहा।