भ्रमरगीत-सार/१०१-ऊधो! तुम हौ अति बड़भागी

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १२५

 

राग मलार
ऊधो! तुम हौ अति बड़भागी।

अपरस[] रहत सनेहतगा तें, नाहिंन मन अनुरागी॥
पुरइनि-पात रहत जल-भीतर ता रस देह न दागी[]
ज्यों जल माँह तेल की गागरि बूँद न ताके लागी॥
प्रीति-नदी में पावँ न बोस्यो, दृष्टि न रूप परागी।
सूरदास अबला हम भोरी गुर चींटी ज्यों पागी॥१०१॥

  1. अपरस=अनासक्त, दूर।
  2. देह न दागी=देह में दाग नहीं लगाया।