बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १२५
अपरस[१] रहत सनेहतगा तें, नाहिंन मन अनुरागी॥ पुरइनि-पात रहत जल-भीतर ता रस देह न दागी[२]। ज्यों जल माँह तेल की गागरि बूँद न ताके लागी॥ प्रीति-नदी में पावँ न बोस्यो, दृष्टि न रूप परागी। सूरदास अबला हम भोरी गुर चींटी ज्यों पागी॥१०१॥