भ्रमरगीत-सार/वक्तव्य
हिन्दुओं के स्वातन्त्र्य के साथ ही साथ वीर-गाथाओं की परम्परा भी काल के अँधेरे में जा छिपी। उस हीनदशा के बीच वे अपने परोक्रम के गीत किस मुँह से गाते और किन कानों से सुनाते? जनता पर गहरी उदासी छा गई थी। राम और रहीम को एक बतानेवाली बानी मुरझाए मन को हरा न कर सकी; क्योंकि उसके भीतर उस कट्टर एकेश्वरवाद का सुर मिला हुआ था, जिसका ध्वंसकारी स्वरूप लोग नित्य अपनी आँखों देख रहे थे। सर्वस्व गँवाकर भी हिंदू जाति अपनी स्वतन्त्र सत्ताः बनाए रखने की वासना नहीं छोड़ सकी थी। इससे उसने अपनी सभ्यता, अपने चिर-संचित संस्कार आदि की रक्षा के लिए राम और कृष्ण का आश्रय लिया; और उनकी भक्ति का स्रोत देश के एक कोने से दूसरे कोने तक फैल गया। जिस प्रकार वंग देश में कृष्ण चैतन्य ने उसी प्रकार उत्तर भारत में वल्लभाचार्यजी ने परम भाव की उस आनन्दविधायिनी कला का दर्शन कराकर जिसे प्रेम कहते हैं जीवन में सरसता का संचार किया। दिव्य प्रेम-संगीत की धारा में इस लोक का सुखद पक्ष निखर आया और जमती हुई उदासी या खिन्नता बह गई।
जयदेव की देववाणी स्निग्ध पीयूष-धारा, जो काल की कठोरता में दब गई थी, अवकाश पाते ही लोक-भाषा की सरसता में परिणत होकर मिथिला की अमराइयों में विद्यापति के कोकिल-कंठ से प्रकट हुई और आगे चलकर व्रज के करील कुंजोँ के बीच फैल मुरझाए मनों को सींचने लगी। आचार्यों की छाप लगी हुई आठ वीणाएँ श्रीकृष्ण की प्रेम-लीला का कीर्त्तन करने उठीं, जिनमें सबसे ऊँची, सुरीली और मधुर झनकार अंधे कवि सूरदास की वीणा की थी। ये भक्त-कवि सगुण उपासना का रास्ता साफ करने लगे। निर्गुण उपासना की नीरसता और अग्राह्यता दिखाते हुए ये उपासना का हृदयग्राही स्वरूप सामने लाने में लग गए। इन्होंने भगवान् का प्रेममय रूप ही लिया; इससे हृदय की कोमल वृत्तियों के ही आश्रय और आलंबन खड़े किए। आगे जो इनके अनुयायी कृष्ण-भक्त हुए वे भी उन्हीं वृत्तियों में लीन रहे। हृदय की अन्य वृत्तियों [उत्साह आदि] के रंजनकारी रूप भी यदि वे चाहते तो कृष्ण में ही मिल जाते; पर उनकी ओर वे न बढ़े। भगवान् यह व्यक्त स्वरूप यद्यपि एक-देतंय था––केवल प्रेममय था––पर उस समय नैराश्य के कारण जनता के हृदय में जीवन की ओर से एक प्रकार की जो अरुचि सी उत्पन्न हो रही थी उसे हटाने में उपयोगी हुआ। मनुष्यता के सौंदर्यपूर्ण और माधुर्य्यपूर्ण पक्ष को दिखाकर इन कृष्णोपासक वैष्णव कवियों ने जीवन के प्रति अनुराग जगाया, या कम से कम जीने की चाह बनी रहने दी।
बाल्य-काल और यौवन-काल कितने मनोहर हैं! उनके बीच नाना मनोरम परिस्थितियों के विशद चित्रण द्वारा सूरदासजी ने जीवन की जो रमणीयता सामने रखी उससे गिरे हुए हृदय नाच उठे। 'वात्सल्य' और 'श्रृंगार' के क्षेत्रों का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बंद आँखों से किया उतना किसी और कवि ने नहीं। इन क्षेत्रों का कोना-कोना वे झाँक आए। उक्त दोनों रसों के प्रवर्त्तक रति-भाव के भीतर की जितनी मानसिक वृत्तियों और दशाओं का अनुभव और प्रत्यक्षीकरण सूर कर सके उतनी का और कोई नहीं। हिन्दी-साहित्य में श्रृंगार का रसराजत्व यदि किसी ने पूर्ण रूप से दिखाया तो सूर ने।
उनकी उमड़ती हुई वाग्धारा उदाहरण रचनेवाले कवियों के समान गिनाए हुए संचारियों से बँधकर चलनेवाली न थी। यदि हम सूर के केवल विप्रलंभ श्रृंगार को ही लें, अथवा इस भ्रमरगीत को ही देखें, तो न जाने कितने प्रकार की मानसिक दशाएँ। ऐसी मिलेंगी जिनके नामकरण तक नहीं हुए हैं। मैं इसी को कवियों की पहुँच कहता हूँ। यदि हम मनुष्य-जीवन के संपूर्ण क्षेत्र को लेते हैं तो सूरदासजी की दृष्टि परिमित दिखाई पड़ती है। पर यदि उनके चुने हुए क्षेत्रों (शृंगार और वात्सल्य) को लेते हैं, तो उनके भीतर उनकी पहुँच का विस्तार बहुत अधिक पाते हैं। उन क्षेत्रों में इतना अंतर्दृष्टिविस्तार और किसी कवि का नहीं। बात यह है कि सूर को, 'गीतकाव्य' की जो परंपरा (जयदेव और विद्यापति की) मिली वह शृंगार की ही थी। इसी से सूर के संगीत में भी उसी की प्रधानता रही। दूसरी बात है-उपासना का स्वरूप। सूरदासजी वल्लभाचार्यजी के शिष्य थे, जिन्होंने भक्तिमार्ग में भगवान् का प्रेममय स्वरूप प्रतिष्ठित करके उसके आकर्षण द्वारा 'सायुज्य मुक्ति' का मार्ग दिखाया था। भक्ति-साधना के इस चरम लक्ष्य या फल (सायुज्य) की ओर सूर ने कहीं-कहीं संकेत भी किया है; जैसे––
सीत उषन सुख दुख नहिं माने, हानि भए कछु सोच न राँचै।
जाय समाय सूर वा निधि में वहुरि न उलटि जगत में नाँचै॥
जिस प्रकार ज्ञान की चरम सीमा ज्ञाता और ज्ञेय की एकता है उसी प्रकार प्रेम-भाव की चरम सीमा आश्रय और आलंबन की एकता है। अतः भगवद्भक्ति की साधना के लिए इसी प्रेमतत्त्व को वल्लभाचार्य ने सामने रखा और उनके अनुयायी कृष्णभक्त कवि इसी को लेकर चले। गो० तुलसीदासजी की दृष्टि व्यक्तिगत साधना के अतिरिक्त लोक-पक्ष पर भी थी; इसी से वे मर्यादा पुरुषोत्तम के चरित को लेकर चले और उसमें लोकरक्षा के अनुकूल जीवन की ओर और वृत्तियों का भी उन्होंने उत्कर्ष दिखाया और अनुरंजन किया।
उक्त प्रेमतत्त्व की पुष्टि में ही सूर की वाणी मुख्यतः प्रयुक्त जान पड़ती है। रति-भाव के तीनों प्रबल और प्रधान रूप-भगवद्विपयक रति, वात्सल्य और दाम्पत्य रति—सूर ने लिए हैं। यद्यपि पिछले दोनों प्रकार के रति-भाव भी कृष्णोन्मुख होने के कारण तत्त्वतः भगवत्प्रेम के अन्तर्भूत ही हैं पर निरूपण-भेद से और रचना- विभाग की दृष्टि से वे अलग रखे गए हैं। इस दृष्टि से विभाग करने से विनय के जितने पद हैं वे भगव्दिपयक रति के अन्तर्गत आवेंगे; बाललीला के पद वात्सल्य के अंतर्गत और गोपियों के प्रेम-संबंधी पद दाम्पत्य रति-भाव के अन्तर्गत होंगे। हृदय से निकली हुई प्रेम की इन तीनों प्रबल धाराओं से सूर ने बड़ा भारी सागर भरकर तैयार किया है।
कवि-कर्म्म-विधान के दो पक्ष होते हैं––विभाव पक्ष और भाव पक्ष। कवि एक ओर तो ऐसी वस्तुओं का चित्रण करता है जो मन में कोई भाव उठाने या उठे हुए भाव को और जगाने में समर्थ होती हैं और दूसरी ओर उन वस्तुओं के अनुरूप भावों के अनेक स्वरूप शब्दों द्वारा व्यक्त करता है। एक विभाव-पक्ष है, दूसरा भाव-पक्ष। कहने की आवश्यकता नहीं कि काव्य में ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं, अतः दोनों रहते हैं। जहाँ एक ही पक्ष का वर्णन रहता है वहाँ भी दूसरा पक्ष अव्यक्त रूप में रहता है। जैसे, नायिका के रूप या नखशिख का कोरा वर्णन लें तो उसमें भी आश्रय का रति-भाव अव्यक्त रूप में वर्तमान रहता है। भाव-पक्ष में सूर की पहुँच का उल्लेख ऊपर हो चुका है। सूरदासजी ने श्रृंगार और वात्सल्य ये ही दो रस लिए हैं। अतः विभाव-पक्ष में भी उनका वर्णन उन्हीं वस्तुओं तक परिमित है जो उक्त दोनों रसों के आलंबन या उद्दीपन के रूप में आ सकती हैं; जैसे राधा और कृष्ण के नाना रूप, वेश और चेष्टाएँ तथा करील-कुंज, उपवन, यमुना, पवन, चन्द्र, ऋतु इत्यादि
विभाव-पक्ष के अन्तर्गत भी वस्तुएँ दो रूपों में लाई जाती हैं–– वस्तु रूप में और अलंकार-रूप में; अर्थात् प्रस्तुत रूप में और अप्रस्तुत रूप में। मान लीजिए कि कोई कवि कृष्ण का वर्णन कर रहा है। पहले वह कृष्ण के श्याम या नील वर्ण शरीर को, उस पर पड़े हुए पीतांबर को, त्रिभंगी मुद्रा को, स्मित आनन को, हाथ में ली हुई मुरली को, सिर के कुंचित केश और मोर-मुकुट आदि को सामने रखता है। यह विन्यास वस्तु-रूप में हुआ। इसी प्रकार का विन्यास यमुना-तट, निकुंज की लहराती लताओं, चन्द्रिका, कोकिल-कूजन आदि का होगा। इनके साथ ही यदि कृष्ण के शोभा-वर्णन में घन और दामिनी, सनाल कमल आदि उपमान के रूप में वह लाता है तो यह विन्यास अलंकार रूप में होगा। वर्ण्य विषय की परिमित के कारण वस्तु-विन्यास का जो संकोच 'सूर' की रचना में दिखाई पड़ता है उसकी बहुत कुछ कसर अलंकार-रूप में लाए हुए पदार्थों के प्राचुर्य्य द्वारा पूरी हो जाती है। कहने का तात्पर्य यह कि प्रस्तुत रूप में लाए हुए पदार्थों की संख्या सूर में कम, पर अलंकार-रूप में लाए हुए पदार्थों की संख्या बहुत अधिक है। यह दूसरे प्रकार की (आलंकारिक) रूप-योजना या व्यापार-योजना किसी और (प्रस्तुत) रूप के प्रभाव को बढ़ाने के लिए ही होती है, अतः इसमें लाए हुए रूप या व्यापार ऐसे ही होने चाहिए जो प्रभाव में उन प्रस्तुत रूपों या व्यापार के समान हों। सूर अलंकार-योजना के लिए अधिकतर ऐसे ही पदार्थ लाए हैं।
सारांश यह कि यदि हम बाह्य सृष्टि से लिए रूपों और व्यापारों के संबंध में सूर की पहुँच का विचार करते हैं तो यह बात स्पष्ट देखने में आती है कि प्रस्तुत रूप में लिए हुए पदार्थों और व्यापारों की संख्या परिमित है। उन्होंने कृष्ण और राधा के अंग-प्रत्यंग, मुद्राओं और चेष्टाओं, यमुना-तट, वंशीवट, निकुंज, गोचारण, वन-विहार, बाल-लीला, चोरी, नटखटी तथा कवि-परिपाटी में परिगणित ऋतु-सुलभ वस्तुओं तक ही अपने को रखा है।
इसके कारण दो हैं––पहली बात तो यह है कि इनकी रचना 'गीत-काव्य' है जिसमें मधुर ध्वनि-प्रवाह के बीच कुछ चुने हुए पदार्थों और व्यपारों की झलक भर काफी होती है। गोस्वामी तुलसीदासजी के समान सूरसागर प्रबंध-काव्य नहीं है जिसमें कथाक्रम से अनेक पदार्थों और व्यापारों की श्रृंखला जुड़ती चली चलती है। सूरदासजी ने प्रत्येक लीला या प्रसंग पर फुटकर पद कहे हैं; एक पद दूसरे पद से संबद्ध नहीं है। प्रत्येक पद स्वतन्त्र है। इसीसे किसी एक प्रसंग पर कहे हुए पदों को यदि हम लेते हैं तो एक ही घटना से संबंध रखनेवाली एक ही बात भिन्न-भिन्न रागिनियों में कुछ फेरफार के साथ बहुत से पदों में मिलती है जिससे पढ़नेवाले का जी कभी-कभी ऊब सा जाता है। यह बात प्रकृत प्रबंध-काव्य में नहीं होती।
परिमित का दूसरा कारण पहले ही कहा जा चुका है कि सूर- दासजीने जीवन की वास्तव में दो ही वृत्तियाँ ली हैं––बाल-वृत्ति और यौवन-वृत्ति। इन दोनों के अंतर्गत आए हुए व्यापार क्रीड़ा, उमंग और उद्रेक के रूप में ही हैं। प्रेम भी घटनापूर्ण नहीं है। उसमें किसी प्रकार का प्रयत्न-विस्तार नहीं है जिसके भीतर नई-नई वस्तुओं और व्यापारों का संनिवेश होता चलता है। लोक-संघर्ष से उत्पन्न विविध व्यापारों की योजना सूर का उद्देश्य नहीं है। उनकी रचना जीवन की अनेकरूपता की ओर नहीं गई है; बाल- क्रीड़ा, प्रेम के रंग-रहस्य और उसकी अतृप्त वासना तक ही रह गई है। जीवन की गंभीर समस्याओं से तटस्थ रहने के कारण उसमें वह वस्तु-गांभीर्य्य नहीं है जो गोस्वामी जी की रचनाओं में है। परिस्थिति की गंभीरता के अभाव से गोपियोँ के वियोग में भी वह गंभीरता नहीं दिखाई पड़ती जो सीता के वियोग में है। उनका वियोग खाली बैठे का काम सा दिखाई पड़ता है। सीता अपने प्रिय से वियुक्त होकर कई सौ कोस दूर दूसरे द्वीप में राक्षसों के बीच पड़ी हुई थीं। गोपियों के गोपाल केवल दो-चार कोस दूर के एक नगर में राजसुख भोग रहे थे। सूर का वियोग-वर्णन वियोग-वर्णन के लिए ही है, परिस्थिति के अनुरोध से नहीं। कृष्ण गोपियों के साथ क्रीड़ा करते-करते किसी कुंज या झाड़ी में जा छिपते हैं; या यों कहिए कि थोड़ी देर के लिए अंतर्द्वान हो जाते हैं। बस गोपियाँ मूर्छित होकर गिर पड़ती हैं। उनकी आँखों से आँसुओं की धारा उमड़ चलती है। पूर्ण वियोग-दशा उन्हें आ घेरती है। यदि परिस्थिति का विचार करें तो ऐसा विरह-वर्णन असंगत प्रतीत होगा। पर जैसा कहा जा चुका है सूरसागर प्रबंध- काव्य नहीं है जिसमें वर्णन की उपयुक्तता या अनुपयुक्तता के निर्णय में घटना या परिस्थिति के विचार का बहुत कुछ योग रहता है।
पारिवारिक और सामाजिक जीवन के बीच हम सूर के बाल-कृष्ण को ही थोड़ा बहुत देखते हैं। कृष्ण के केवल बाल-चरित्र का प्रभाव नंद, यशोदा आदि परिवार के लोगों और पड़ोसियों पर पड़ता दिखाई देता हैं। सूर का बाललीला-वर्णन ही पारिवारिक जीवन से संबद्ध है। कृष्ण के छोटे-छोटे पैरों से चलने, मुँह में मक्खन लिपटाकर भागने या इधर-उधर नटखटी करने पर नंद बाबा और यशोदा मैया का कभी पुलकित होना, कभी खीझना, कभी पड़ोसियों का प्रेम से उलाहना देना आदि बातें एक छोटे से जन-समूह के भीतर आनन्द का संचार करती दिखाई गई हैं। इसी बाल-लीला के भीतर कृष्णचरित का लोकपक्ष अधिकतर आया है; जैसे कंस के भेजे हुए असुरों के उत्पात से गोपों को बचाना, काली नाग को नाथकर लोगों का भय छुड़ाना। इंद्र के कोप से डूबती हुई बस्ती की रक्षा करने और नंद को वरुण-लोक से लाने का वृत्तांत यद्यपि प्रेमलीला आरंभ होने के पीछे आया है पर उससे संबद्ध नहीं है। कृष्ण के चरित में जो यह थोड़ा बहुत लोकसंग्रह दिखाई पड़ता है उसके स्वरूप में सूर की वृत्ति लीन नहीं हुई है। जिस शक्ति से उस बाल्यावस्था में ऐसे प्रबल शत्रुओं का दमन किया गया उसके उत्कर्ष का अनुरंजनकारी और विस्तृत वर्णन उन्होंने नहीं किया है। जिस ओज और उत्साह से तुलसी- दासजी ने मारीच, ताड़का, खरदूपण आदि के निपात का वर्णन किया है उस ओज और उत्साह से सूरदासजी ने वकासुर, अघा- सुर, कंस आदि के वध और इंद्र के गर्व-मोचन का वर्णन नहीं किया है। कंस और उसके साथी असुर भी कृष्ण के शत्रु के रूप में ही सामने आते हैं, लोक-शत्रु या लोक-पीड़क के रूप में नहीं। रावण के साथी राक्षसों के समान वे ब्राह्मणों को चबा-चबाकर उनकी हड़ियोँ का ढेर लगानेवाले या स्त्री चुरानेवाले नहीं दिखाई पड़ते। उनके कारण वैसा हाहाकार नहीं सुनाई पड़ता। उनका अत्याचार 'सभ्य अत्याचार' जान पड़ता है। शक्ति, शील और सौंदर्य भगवान् की इन तीन विभूतियोँ में से सूर ने केवल सौंदर्य तक ही अपने को रखा है जो प्रेम को आकर्षित करता है। शेष दो विभूतियोँ को भी लेकर भगवान् ने लोक-रंजनकारी स्वरूप की पूर्ण प्रतिष्ठा हमारे हिंदी-साहित्य में गो० तुलसीदासजी ने की। श्रद्धा या महत्त्व बुद्धि पुष्ट करने के लिए कृष्ण की शक्ति या लौकिक महत्त्व की प्रतिष्ठा में आग्रह न दिखाने के कारण ही सूर की उपासना सख्य भाव की कही जाती है।
पारिवारिक और सामाजिक जीवन के साथ सूरदास द्वारा वर्णित कृष्णचरित्र का जो थोड़ा बहुत संबंध दिखाई पड़ता है उसका सम्यक् स्फुरण नहीं हुआ है। रहा प्रेम-पक्ष; वह ऐकांतिक है। सूर का प्रेम-पक्ष लोक से न्यारा है। गोपियोँ के प्रेम-भाव की गंभीरता आगे चलकर उद्धव का ज्ञान-गर्व मिटाती हुई दिखाई पड़ती है। वह भक्ति की एकांत साधना का आदर्श प्रतिष्ठित करती हुई जान पड़ती है, लोकधर्म के किसी अंग का नहीं। सूरदास सच्चे प्रेम-मार्ग के त्याग और पवित्रता को ज्ञान-मार्ग के त्याग और पवित्रता के समकक्ष रखने में खूब समर्थ हुए हैं; साथ ही उन्होंने उस त्याग को रागात्मिका वृत्ति द्वारा प्रेरित दिखाकर भक्ति मार्ग या प्रेम-मार्ग की सुगमता भी प्रतिपादित की है।
तुलसी के समान लोकव्यापी प्रभाव वाले कर्म और लोक-व्यापिनी दशाएँ सूर ने वर्णन के लिए नहीं ली हैं। असुरोँ के अत्याचार से दुखी पृथ्वी की प्रार्थना पर भगवान् का कृष्णावतार हुआ, इस बात को उन्होंने केवल एक ही पद में कह डाला है। इसी प्रकार कागासुर, बकासुर, शकटासुर आदि को हम लोक-पीड़कों के रूप में नहीं पाते हैं। केवल प्रलंब और कंस के वध पर देवताओं का फूल बरसाना देखकर उक्त कर्म के लोकव्यापी प्रभाव का कुछ आभास मिलता है। पर वह वर्णन विस्तृत नहीं है। सूर- दास का मन जितना नंद के घर की आनंद-बधाई, बाल-क्रीड़ा, मुरली की मोहिनी तान, रास-नृत्य, प्रेम के रंग-रहस्य और संयोग वियोग की नाना दशाओं में लगा है उतना ऐसे प्रसंगों में नहीं। ऐसे प्रसंगों को उन्होंने किसी प्रकार चलता कर दिया है। कुछ लोग रामचरितमानस में राम के प्रत्येक कर्म पर देवताओं का फूल बरसाना देखकर ऊबते से हैं। उन्हें समझना चाहिए कि गोस्वामीजी ने राम के प्रत्येक कर्म को ऐसे व्यापक प्रभाव का चित्रित किया है जिस पर तीनों लोकों की दृष्टि लगी रहती थी। कृष्ण का गोचारण और रास-लीला आदि देखने को भी देवगण एकत्र हो जाते हैं, पर केवल तमाशबीन की तरह।
सूरदासजी को मुख्यतः श्रृंगार और वात्सल्य का कवि समझना चाहिए, यद्यपि और रसों का भी एकाध जगह अच्छा वर्णन मिल जाता है; जैसे, दावानल के इस वर्णन में भयानक रस का––
भहरात झहरात दावानल आयो।
घेरि चहुँ ओर, करि सोर अंदोर वन धरनि आकास चहुँ पास छायो।
बरत बन-बाँस, थरहरत कुस-कास, जरि उक्त बहु साँझ. अति प्रवल धायो।
झपटि झपटत लपट, फूल फूटत पटकि, चटकि लट लटकि द्रुम फटि नवायो।
अति अगिनि झार भंभार धुंधार करि उचटि अंगार झंमार छायो।
बरत बनपात, भहरात, झहरात, अररात तरु महा धरनी गिरायो।
पर जैसा कहते आ रहे हैं, मुख्यता श्रृंगार और वात्सल्य की ही है। पर इसमें संदेह नहीं कि इन दोनों रसों के वे सबसे बड़े कवि हैं।
यहाँ तक तो सूर की रचना की सामान्य दृष्टि से समीक्षा हुई।
अब इन महाकवि की उन विशेषताओं का थोड़ा बहुत दिग्दर्शन होना चाहिए जिनके कारण हिंदी-साहित्य में इनका स्थान इतना ऊँचा है। ध्यान देने की सबसे पहली बात यह है कि चलती हुई ब्रजभाषा में सबमें पहली साहित्यिक कृति इन्हींकी मिलती है, जो अपनी पूर्णता के कारण आश्चर्य में डाल देती है। पहली साहित्यिक रचना और इतनी प्रचुर, प्रगल्भ और काव्यांगपूर्ण कि अगले कवियों की शृंगार और वात्सल्य की उक्तियाँ इनकी जूठी जान पड़ती हैं। यह बात हिंदी-साहित्य का इतिहास लिखनेवालों को
उलझन में डालनेवाली होगी। सूरसागर किसी पहले से चली आती हुई परंपरा का-चाहे वह मौखिक ही रही हो-पूर्ण विकास सा जान पड़ता है, चलनेवाली परम्परा का मूल रूप नहीं।
यदि भाषा को लेकर देखते हैं, तो वह ब्रज की चलती बोली होने पर भी एक साहित्यिक भाषा के रूप में मिलती है, जो और प्रांतों के कुछ प्रचलित शब्दों और प्रत्ययों के साथ ही साथ पुरानी काव्य-भाषा अपभ्रंश के शब्दों को लिए हुए है। सूर की भाषा बिल्कुल बोलचाल की ब्रजभाषा नहीं है। 'जाकोँ', 'तासोँ', 'वाकोँ, चलती ब्रजभाषा के इन रूपों के समान ही 'जेहि', 'तेहि' आदि पुराने रूपों का प्रयोग बराबर मिलता है, जो अवधी की बोलचाल में तो अब तक हैं, पर ब्रज की बोलचाल में सूर के समय में भी नहीं थे। पुराने निश्चयार्थक 'पै' का व्यवहार भी पाया जाता है; जैसे, 'जाहि लगै सोई पै जानै प्रेम-बान अनियारों'। 'गोड़', 'आपन' 'हमार' आदि पूरबी प्रयोग भी बराबर पाए जाते हैं। कुछ पंजाबी प्रयोग भी मौजूद हैं; जैसे, मँहगी के अर्थ में 'प्यारी' शब्द। ये सब बातें एक व्यापक काव्य-भाषा के अस्तित्व की सूचना देती हैं। अब हम संक्षेप में उन प्रसंगों को लेते हैं जिनमें सूर की प्रतिभा पूर्णतया लीन हुई है। कृष्ण-जन्म की आनंद-बधाई के उपरांत ही बाल-लीला का आरंभ हो जाता है। जितने विस्तृत और विशद रूप में वाल्य-जीवन का चित्रण इन्होंने किया है उतने विस्तृत रूप में और किसी कवि ने नहीं किया। शैशव से लेकर कौमार अवस्था तक के क्रम से लगे हुए न जाने कितने चित्र मौजूद हैं। उनमें केवल बाहरी रूपों और चेष्टाओं का हो विस्तृत और सूक्ष्म वर्णन नहीं है; कवि ने बालकों को अंतःप्रकृति में भी पूरा प्रवेश किया है और अनेक वाल्य भावों की सुंदर स्वाभाविक व्यंजना की है। देखिए, 'स्पर्ध्दा' का भाव, जो बालकों में स्वाभाविक होता है, इन वाक्यों से किस प्रकार व्यंजित हो रहा है––
मैया कवहिं बढै़गी चोटी?
किती वार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।
तू जो कहति 'बल' की बेनी ज्यों ह्वैहै लाँबी मोटी॥
बाल-चेष्टा के स्वाभाविक मनोहर चित्रोंँ का इतना बड़ा भांडार और कहीं नहीं है जितना बड़ा सूरसागर में है। दो-चार चित्र देखिए––
(१) कत हौ आरि करत मेरे मोहन यों तुम आँगन लोटी?
जो माँगहु सो देहुँ मनोहर, यहै बात तेरी खोटी।
सूरदास को ठाकुर ठाढ़ो हाथ लकुटि लिए छोटी।
(२) शोभित कर नवनीत लिए।
घुटरुन चलत, रेनु तन मंडित, मुख दधि-लेप किए॥
(३) सिखवत चलन जसोदा मैया।
अरवराय करि पानि गहावत, डगमगाय धरै पैयाँ॥
(४) पाहुनी करि दै तनक मह्यौ।
आरि करै मनमोहन मेरो, अंचल आनि गह्मो।
व्याकुल मथत मथनियाँ रीती, दधि भ्वैं ढरकिं रह्यो॥
हार-जीत के खेल में बालकों के 'क्षोभ' के कैसे स्वाभाविक वचन सूर ने रखे हैं––
खेलत मैं को काको गोसैयाँ।
हरि हारे, जीते श्रीदामा, बरबस ही कत करत रिसैयाँ॥
जाति-पाँति हमतें कछु नाहि, न बसत तुम्हारी छैयाँ॥
अति अधिकार जनावत यातें अधिक तुम्हारे हैं क्छु गैयाँ॥
अब यहाँ पर थोड़ा इसका भी निर्णय हो जाना चाहिए कि इन बाल-चेष्टाओं का काव्य-विधान में क्या स्थान होगा। वात्सल्य रस के अनुसार बालक कृष्ण आलंबन होंगे और नंद या यशोदा आश्रय। अतः ये चेष्टाएँ अनुभाव के अंतर्गत आती हैं; पर आलंबनगत चेष्टाएँ उद्दीपन के ही भीतर आ सकती हैं। इससे यह स्पष्ट है कि ऐसी चेष्टाओं का स्थान भाव-विधान के भीतर है। उन्हें अलंकार-विधान के भीतर घसीटकर 'स्वभावोक्ति' अलंकार कहना मेरी समझ में ठीक नहीं।
बाल-लीला के आगे फिर उस गोचारण का मनोरम दृश्य सामने आता है जो मनुष्य जाति की अत्यंत प्राचीन वृत्ति होने के कारण अनेक देशों में काव्य का प्रिय विषय रहा है। यवन देश (यूनान) के 'पशु-चारण काव्य' (Pastoral Poetry) का मधुर संस्कार युरोप की कविता पर अब तक कुछ न कुछ चला ही जाता है। कवियों को आकर्षित करनेवाली गोप-जीवन की सबसे बड़ी विशेषता है प्रकृति के विस्तृत क्षेत्र में विचरने के लिए सबसे अधिक अवकाश। कृषि, वाणिज्य आदि और व्यवसाय जो आगे चलकर निकले, वे अधिक जटिल हुए––उनमें उतनी स्वछंदता न रही। कवि श्रेष्ठ कालिदास ने अपने रघुवंश काव्य के आरंभ में दिलीप को नंदिनी के साथ वन-वन फिराकर इसी मधुर जीवन का आभास दिखाया है। सूरदासजी ने जमुना के कछारोंँ के बीच गोचारण के बड़े सुंदर-सुंदर दृश्य का विधान किया है। यथा––
मैया री! मोहिं दाऊ टेरत।
मोकों वनफल तोरि देत हैं, आपुन गैयन घेरत।
यमुना-तट पर किसी बड़े पेड़ की शीतल छाया में बैठकर कभी सब सखा कलेऊ बाँटकर खाते हैं, कभी इधर-उधर दौड़ते हैं। कभी कोई चिल्लाता है––
द्रुम चढ़ि काहे न टेरत, कान्हा, गैयाँ दूरि गई।
धाई जाति सवन के आगे जे वृषभान दई॥
'जे वृषभान दई' कहकर सूर ने पशु-प्रकृति का अच्छा परि- चय दिया है। नए खूँटे पर आई हुई गाएँ बहुत दिनों तक चंचल रहती हैं और भागने का उद्योग करती हैं। इसी से वृषभानु की दी हुई गाएँ चरते समय भी भाग खड़ी होती हैं और कुछ दूसरी गाएँ भी स्वभावानुसार उनके पीछे दौड़ पड़ती हैं।
वृंदावन के उसी सुखमय जीवन के हास-परिहास के बीच गोपिंयों के प्रेम का उदय होता है। गोपियाँ कृष्ण के दिन-दिन खिलते हुए सौंदर्य और मनोहर चेष्टाओं को देख मुग्ध होती चली जाती हैं और कृष्ण कौमार अवस्था की स्वाभाविक चपलता-वश उनसे छेड़छाड़ करना आरंभ करते हैं। हास-परिहास और छेड़छाड़ के साथ प्रेम-व्यापार का अत्यंत स्वाभाविक आरंभ सूर ने दिखाया है। किसी की रूप-चर्चा सुन, या अकस्मात किसी की एक झलक पाकर हाय-हाय करते हुए इस प्रेम का आरम्भ नहीं हुआ है। नित्य अपने बीच चलते-फिरते, हँसते बोलते, वन में गाय चराते, देखते देखते गोपियाँ कृष्ण में अनुरक्त होती हैं और कृष्ण गोपियों में। इस प्रेम को हम जीवनोत्सव के रूप में पाते हैं; सहसा उठ खड़े हुए तूफान या मानसिक विप्लव के रूप में नहीं, जिसमें अनेक प्रकार के प्रतिबंधों और विघ्न-बाधाओं को पार करने की लंबी चौड़ी कथा खड़ी होती है। सूर के कृष्ण और गोपियाँ पक्षियों के समान स्वच्छंद हैं। वे लोक-बंधनों से जकड़े हुए नहीं दिखाए गए हैं। जिस प्रकार के स्वच्छंद समाज का स्वप्न अँगरेज कवि शेली देखा करते थे उसी प्रकार का यह समाज सूर ने चित्रित किया है।
सूर के प्रेम की उत्पत्ति में रूप-लिप्सा और साहचर्य्य दोनों का योग है। बाल-क्रीड़ा के सखा सखी आगे चलकर यौवन-क्रीड़ा के सखा-सखी हो जाते हैं। गोपियों ने उद्धव से साफ कहा है–– "लरिकाई को प्रेम कहौ, अलि कैसे छूटै"। केवल एक साथ रहते रहते भी दो प्राणियोँ में स्वभावतः प्रेम हो जाता है। कृष्ण एक तो बाल्यावस्था से ही गोपियाँ के बीच रहे, दूसरे सुंदरता में भी अद्वितीय थे। अतः गोपियाँ के प्रेम का क्रमशः विकास दो प्राकृतिक शक्तियोँ के प्रभाव से होने के कारण बहुत ही स्वाभाविक प्रतीत होता है। बाल-क्रीड़ा इस प्रकार क्रमशः यौवन-क्रीड़ा के रूप में परिणत होती गई है कि संधि का पता ही नहीं चलता। रूप का आकर्षण बाल्यावस्था से ही आरंभ हो जाता है। राधा और कृष्ण के विशेष प्रेम की उत्पत्ति सूर ने रूप के आकर्षण द्वारा ही कही है।
(क) खेलन हरि निकसे ब्रज-खोरी।
गए स्याम रबि-तनया के तट, अंग लसति चन्दन की खोरी॥
औचक ही देखी तहँ राधा, नैन विसाल, भाल दिए रोरी।
सूर स्याम देखत ही रीझे, नैन नैन मिति परी ठगोरी॥
रही। कवि श्रेष्ठ कालिदास ने अपने रघुवंश काव्य के आरंभ में दिलीप को नंदिनी के साथ वन-वन फिराकर इसी मधुर जीवन का आभास दिखाया है। सूरदासजी ने जमुना के कछारोंँ के बीच गोचारण के बड़े सुंदर-सुंदर दृश्य का विधान किया है। यथा––
मैया री! मोहिं दाऊ टेरत।
मोकों बनफल तोरि देत हैं, आपुन गैयन घेरत।
यमुना-तट पर किसी बड़े पेड़ की शीतल छाया में बैठकर कभी सब सखा कलेऊ बाँटकर खाते हैं, कभी इधर-उधर दौड़ते हैं। कभी कोई चिल्लाता है––
द्रुम चढ़ि काहे न टेरत, कान्हा, गैयाँ दूरि गईं।
धाई जाति सवन के आगे जे वृषभान दईं॥
'जे वृषभान दईं' कहकर सूर ने पशु-प्रकृति का अच्छा परिचय दिया है। नए खूँटे पर आई हुई गाएँ बहुत दिनों तक चंचल रहती हैं और भागने का उद्योग करती हैं। इसी से वृषभानु की दी हुई गाएँ चरते समय भी भाग खड़ी होती हैं और कुछ दूसरी गाएँ भी स्वभावानुसार उनके पीछे दौड़ पड़ती हैं।
वृंदावन के उसी सुखमय जीवन के हास-परिहास के बीच गोपियों के प्रेम का उदय होता है। गोपियाँ कृष्ण के दिन-दिन खिलते हुए सौंदर्य और मनोहर चेष्टाओं को देख मुग्ध होती चली जाती हैं और कृष्ण कौमार अवस्था की स्वाभाविक चपलता-वश उनसे छेड़छाड़ करना आरंभ करते हैं। हास-परिहास और छेड़छाड़ के साथ प्रेम-व्यापार का अत्यंत स्वाभाविक आरंभ सूर ने दिखाया है। किसी की रूप-चर्चा सुन, या अकस्मात किसी की एक झलक पाकर हाय-हाय करते हुए इस प्रेम का आरम्भ नहीं हुआ है। नित्य अपने बीच चलते-फिरते, हँसते बोलते, वन में गाय चराते, देखते देखते गोपियाँ कृष्ण में अनुरक्त होती हैं और कृष्ण गोपियों में। इस प्रेम को हम जीवनोत्सव के रूप में पाते हैं; सहसा उठ खड़े हुए तूफान या मानसिक विप्लव के रूप में नहीं, जिसमें अनेक प्रकार के प्रतिबंधों और विघ्न-बाधाओं को पार करने की लंबी चौड़ी कथा खड़ी होती है। सूर के कृष्ण और गोपियाँ पक्षियों के समान स्वच्छंद हैं। वे लोक-बंधनों से जकड़े हुए नहीं दिखाए गए हैं। जिस प्रकार के स्वच्छंद समाज का स्वप्न अँगरेज कवि शेली देखा करते थे उसी प्रकार का यह समाज सूर ने चित्रित किया है।
सूर के प्रेम की उत्पत्ति में रूप-लिप्सा और साहचर्य्य दोनों का योग है। बाल-क्रीड़ा के सखा सखी आगे चलकर यौवन-क्रीड़ा के सखा-सखी हो जाते हैं। गोपियों ने उद्धव से साफ कहा है––"लरिकाई को प्रेम कहौ, अलि कैसे छूटै"। केवल एक साथ रहते रहते भी दो प्राणियोँ में स्वभावतः प्रेम हो जाता है। कृष्ण एक तो बाल्यावस्था से ही गोपियाँ के बीच रहे, दूसरे सुंदरता में भी अद्वितीय थे। अतः गोपियोँ के प्रेम का क्रमशः विकास दो प्राकृतिक शक्तियोँ के प्रभाव से होने के कारण बहुत ही स्वाभाविक प्रतीत होता है। बाल-क्रीड़ा इस प्रकार क्रमशः यौवन-क्रीड़ा के रूप में परिणत होती गई है कि संधि का पता ही नहीं चलता। रूप का आकर्षण बाल्यावस्था से ही आरंभ हो जाता है। राधा और कृष्ण के विशेष प्रेम की उत्पत्ति सूर ने रूप के आकर्षण द्वारा ही कही है।
(क) खेलन हरि निकसे ब्रज-खोरी।
गए स्याम रबि-तनया के तट, अंग लसति चन्दन की खोरी॥
औचक ही देखी तहँ राधा, नैन बिसाल, भाल दिए रोरी।
सूर स्याम देखत ही रीझे, नैन नैन मिलि परी ठगोरी॥
(ख) बूझत स्याम, कौन तू, गोरी!
"कहाँ रहति, काकी तू बेटी? देखी नाहिं कहुँ ब्रज खोरी"॥
"काहे कों हम ब्रज तन आवति? खेलति रहति आपनी पौरी।
सुनति रहति श्रवनन नँद-ढोटा करत रहत माखन-दधि चोरी"॥
"तुम्हरी कहा चोरि हम लैहैं? खेलन चलौ संग मिलि जोरी"।
सूरदास प्रभु रसिक-सिरोमनि बातन भुरइ राधिका भोरी"॥
इस खेल ही खेल में इतनी बड़ी बात पैदा हो गई है जिसे प्रेम कहते हैं। प्रेम का आरंभ उभय पक्ष में सम है। आगे चलकर कृष्ण के मथुरा चले जाने पर उसमें कुछ विषमता दिखाई पड़ती है। कृष्ण यद्यपि गोपियोँ को भूले नहीं हैं, उद्धव के मुख से उनका वृत्तांत सुनकर वे आँखोँ में आँसू भर लेते हैं, पर गोपियोँ ने जैसा वेदनापूर्ण उपालंभ दिया है उससे अनुराग की कमी ही व्यंजित होती है।
पहले कहा जा चुका है कि श्रृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में सूर की समता को और कोई कवि नहीं पहुँचा है। श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनोँ पक्षोँ का इतना प्रचुर विस्तार और किसी कवि में नहीं मिलता। वृंदावन में कृष्ण और गोपियोँ का संपूर्ण जीवन क्रीड़ामय है और वह सम्पूर्ण क्रीड़ा संयोगपक्ष है। उसके अन्तर्गत विभावोँ की परिपूर्णता कृष्ण और राधा के अंग-प्रत्यंग की शोभा के अत्यन्त प्रचुर और चमत्कार पूर्ण वर्णन में तथा वृंदावन के करील-कुंजों, लोनी लताओं, हरे भरे कछारों, खिली हुई चाँदनी, कोकिल-कूजन आदि में देखी जाती है। अनुभावोँ और संचारियोंँ का इतना बाहुल्य और कहाँ मिलेगा? सारांश यह कि संयोग-सुख के जितने प्रकार के क्रीड़ा-विधान हो सकते हैं वे सब सूर ने लाकर इकट्ठे कर दिए हैं। यहाँ तक कि कुछ ऐसी बातें भी आ गई हैं––जैसे, कृष्ण के कंधे पर चढ़कर फिरने का राधा का आग्रह––जो कम रसिक लोगों को अरुचिकर स्त्रैणता प्रतीत होंगी।
सूर का संयोग-वर्णन एक क्षणिक घटना नहीं है, प्रेम-संगीतमय जीवन की एक गहरी चलती धारा है, जिसमें अवगाहन करनेवाले को दिव्य माधुर्य्य के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं दिखाई पड़ता। राधा-कृष्ण के रंग-रहस्य के इतने प्रकार के चित्र सामने आते हैं कि सूर का हृदय प्रेम की नाना उमंगों का अक्षय भंडार प्रतीत होता है। प्रेमोदय काल की विनोद-वृत्ति और हृदय-प्रेरित हावों की छटा चारों ओर छलकी पड़ती है। राधा और कृष्ण का गाय चराते समय वन में भी साथ हो जाता है, एक दूसरे के घर आने जाने भी लगे हैं, इसलिए ऐसी ऐसी बातें नित्य न जाने कितनी हुआ करती हैं––
(क) करि ल्यो न्यारी, हरि, आपनि गैयाँ।
नहिं न वसात लाल कछु तुम सों, सवै ग्वाल इक ठैयाँ॥
(ख) धेनु दुहत अति ही रति वाढ़ी।
एक धार दोहनि पहुँचावत, एक धार जहँ प्यारी ठाढ़ी।
मोहन कर तें धार चलति पय, मोहनि-मुख अति ही छवि वाढी़॥
(ग) तुम पै कौन दुहावै गैया?
इत चितवत, उत धार चलावत, एहि सिखयो है मैया?
यशोदा के इस कथन का कि बार बार तू यहाँ क्यों उत्पात मचाने आती है राधा जो उत्तर देती है उसमें प्रेम के आविर्भाव की कैसी सीधी सादी और भोली भाली व्यँजना है––
बार बार तू ह्याँ जनि आवै।
"में कहा करौं सुतहिं नहिं बरजति, घर तें मोहिं बुलावै॥
मोसों कहत तोहिं बिनु देखें रहत न मेरो प्रान।
छोह लगत मोकों सुनि बानी; महरि! तिहारी आन"॥
कहने का सारांश यह कि प्रेम नाम की मनोवृत्ति का जैसा विस्तृत और पूर्ण परिज्ञान सूर को था, वैसा और किसी कवि को नहीं। इनका सारा संयोग-वर्णन लंबी चौड़ी प्रेमचर्या है जिसमें आनंदोल्लास के न जाने कितने स्वरूपों का विधान है। रासलीला, दानलीला, मानलीला इत्यादि सब उसी के अन्तर्भूत हैं। पीछे देव कवि ने एक 'अष्टयाम' रचकर प्रेमचर्या दिखाने का प्रयत्न किया; पर वह अधिकतर एक घर के भीतर के भोग-विलास की कृत्रिम दिनचर्या के रूप में है। उसमें न तो वह अनेकरूपता है और न प्राकृतिक जीवन की वह उमंग।
आलंबन की रूप-प्रतिष्ठा के लिए कृष्ण के अंग प्रत्यंग का सूर ने जो सैकड़ों पदों में वर्णन किया है, वह तो किया ही है, आश्रय-पक्ष में नेत्र-व्यापार और उसके अद्भुत प्रभाव पर एक दूसरी ही पद्धति पर बड़ी ही रम्य उक्तियाँ बहुत अधिक हैं। रूप को हृदय तक पहुँचानेवाले नेत्र ही हैं। इससे हृदय की सारी आकुलता, अभिलाषा और उत्कंठा का दोष इन्हीं रूपवाहकों के सिर मढ़कर सूर ने इनके प्रभाव-प्रदर्शन के लिए बड़े अनूठे ढंग निकाले हैं। कहीं इनकी न बुझनेवाली प्यास की परेशानी दिखाई हैं; कहीं इनकी चपलता और निरंकुशता पर इन्हें कोसा है। पीछे बिहारी, रामसहाय, गुलाम नबी और रसनिधि ने भी इस पद्धति का बहुत कुछ अनुकरण किया, पर यहाँ तो भांडार भरा हुआ है। इस प्रकार के नेत्र व्यापार-वर्णन आश्रय-पक्ष और आलंबन-पक्ष दोनों में होते हैं। सूर ने आश्रय-पक्ष में ही इस प्रकार के वर्णन किए हैं; जैसे–– मेरे नैना बिरह को बेलि बई।
सींचत नीर नैन के सजनी मूल पताल गई॥
बिगसति लता सुभाय आपने, छाया सघन भई।
अब कैसे निरुवारौं, सजनी! सब: तन पसरि छई॥
आलंबन-पक्ष में सूर के नेत्र-वर्णन उपमा उत्प्रेक्षा आदि से भरी रूप चित्रण की शैली पर ही हैं; जैसे––
देखि, री! हरि के चंँचल नैन।
खँजन मीन मृगज चपलाई नहिंँ पटतर एक सैन॥
राजिवदल इँदीवर, सतदल कमल, कुसेसय जाति।
निसि मुद्रित, प्रातहि वै बिगसत, ये बिगसत दिन राति॥
अरुन असित सित झलक पलक प्रति को वरनै उपमाय।
मनौ सरस्वति गंग जमुन मिलि आगम कीन्हों आय॥
आलँबन में स्थित नेत्र क्या क्या करते हैं, इसका वर्णन सूर ने बहुत ही कम किया है। पिछले कुछ कवियों ने इस पक्ष में भी चमत्कार-पूर्ण उक्तियाँ कही हैं। जैसे, सूर ने तो "अरुन, असित सित झलक" पर गंगा यमुना और सरस्वती की उत्प्रेक्षा की है, पर गुलाम नबी (रसलीन) ने उसी झलक की यह करतूत दिखाई है––
अमिय, हलाहल, मद भरे, स्वेत, स्याम, रतनार।
जियत, मरत, झुकि झुकि परत, जेहि चितवत इक बार॥
मुरली पर कही हुई उक्तियाँ भी ध्यान देने योग्य हैं, क्योंकि उनसे प्रेम की सजीवता टपकती है। यह वह सजीवता है, जो भरे हुए हृदय से छलक कर निर्जीव वस्तुओं पर भी अपना रंग चढ़ाती है। गोपियों की छेड़छाड़ कृष्ण ही तक नहीं रहती, उनकी मुरली तक भी––जो जड़ और निर्जीव है––पहुँचती है। उन्हें वह मुरली कृष्ण के संबंध से कभी इठलाती, कभी चिढ़ाती और कभी प्रेमगर्व दिखाती जान पड़ती है। उसी संबंध-भावना से वे उसे कम फटकारती हैं, कभी उसका भाग्य सराहती हैं और कभी उससे ईर्ष्या प्रकट करती हैं––
(क) माई री! मुरली अति गर्व काहू बदति नहिं आज।
हरि के मुख-कमल देखु पायो सुखराज॥
(ख) मुरली तऊ गोपालहि भावति।
सुन, री सखी! जदपि नँदनंदहि नाना भाँति नचावति।
राखति एक पायँ ठाढ़े करि, अति अधिकार जनावति॥
आपुन पौढ़ि अधर-सज्जा पर कर पल्लव सों पदप लुटावति।
भृकुटी कुटिल, कोप नासांपुट हम पर कोपि कुपावति॥
हृदय के पारखी सूर ने संबंध-भावना की शक्ति का अच्छा प्रसार दिखाया है। कृष्ण के प्रेम ने गोपियों में इतनी सजीवता भर दी है कि कृष्ण क्या, कृष्ण की मुरली तक से छेड़छाड़ करने को उनका जी चाहता है। हवा से लड़नेवाली स्त्रियाँ देखी नहीं, तो कम से कम सुनी बहुतों ने होंगी, चाहे उनकी जिंदादिली की क़द्र न की हो। मुरली के संबंध में कहे हुए गोपियों के वचन से दो मानसिक तथ्य उपलब्ध होते हैं––आलंबन के साथ किसी वस्तु की संबंध-भावना को प्रभाव तथा अत्यंत अधिक या फालतू उमंग के स्वरूप। मुरली संबंधिनी उक्तियों में प्रधानता पहली बात की है, यद्यपि दूसरे तत्त्व का भी मिश्रण है। फालतू उमंग के बहुत अच्छे उदाहरण उस समय देखने में आते हैं, जब कोई स्त्री अपने प्रिय को कुछ दूर पर देख कभी ठोकर खाने पर कंकड़ पत्थर को दो चार मीठी गालियाँ सुनाती है, कभी रास्ते में पड़ती हुई पेड़ की टहनी पर भ्रूभंग सहित झुँझलाती है और कभी अपने किसी साथी को यों ही ढकेल देती है। यह सूचित करने की आवश्यकता तो कदाचित् न हो कि रूप पर मोहित होना, दर्शन के लिए आकुल रहना, वियोग में तड़पना आदि गोपियों के पक्ष में जितना कहा गया है, उतना कृष्ण पक्ष में नहीं। यह यहाँ के श्रृंगारी कवियों की––विशेषतः फुटकर पद्य रचनेवालों की––सामान्य प्रवृत्ति ही रही है। तुल्यानुराग होने पर भी स्त्रियों की प्रेम-दशा या काम-दशा का वर्णन करने में ही यहाँ के कवियों का मन अधिक लगा है। पुराने प्रबंध काव्यों में तो यह भेद उतना लक्षित नहीं होता, पर पीछे के काव्यों में यह स्पष्ट झलकता है। वाल्मीकिजी ने रामायण में सीता हरण के उपरांत राम और सीता दोनों के वियोग-दुःख-वर्णन में प्रायः समान ही शब्द-व्यय किया है। कालिदास ने मेघदूत का आरंभ यक्ष की विरहावस्था से करके उत्तर-मेघ में यक्षिणीं के विरह का वर्णन किया है। उनके नाटकों में भी प्रायः यही बात पाई जाती है। अतः मेरी समझ में श्रृंगार में नायिका की प्रेम दशा या विरह दशा का प्राधान्य श्रीमद्भागवत और ब्रह्मवैवर्त्तपुराण की कृष्णलीला के अधिकाधिक प्रचार के साथ हुआ, जिसमें एक ओर तो अनंत सौंदर्य की स्थापना की गई और दूसरी ओर स्वाभाविक प्रेम का उदय दिखाया गया। पुरुष आलंबन हुआ और स्त्री आश्रय। जनता के बीच प्रेम के इस स्वरूप ने यहाँ तक प्रचार पाया कि क्या नगरों में, क्या ग्रामों में, सर्वत्र प्रेम के गीतों के नायक कृष्ण हुए और नायिका राधा। 'बनवारी' या 'कन्हैया' नायक का एक सामान्य नाम सा हो गया। दिल्ली के पिछले बादशाह मुहम्मद शाह रँगीले तक को होली के दिनों में 'कन्हैया' बनने का शौक़ हुआ करता था।
और देशों को फुटकर श्रृंगारी कविताओं में प्रेमियों के ही विरह आदि के वर्णन की प्रधानता देखी जाती है। जैसे एशिया के अरब, फ़ारस आदि देशों में वैसे ही युरोप के इटली आदि काव्य- संगीत-प्रिय देशों में भी यही पद्धति प्रचलित रही। इटली में पीट्रार्क की श्रृंगारी कविता एक प्रेमिका के हृदय का उद्गार है। भारत में कृष्ण-कथा के प्रभाव से नायक के आकर्षक रूप में प्रतिष्ठित होने से पुरुषों की प्राधान्य-वासना की अधिक तृप्ती हुई। आगे चलकर पुरुषत्व पर इसका कुछ बुरा प्रभाव भी पड़ा। बहुतेरे शौर्य्य, परा- क्रम आदि पुरुषोचित गुणों से मुँह मोड़ 'चटक मटक लटक' लाने में लगे––बहुत जगह तो माँग-पट्टी, सुरमे, मिस्सी तक की नौबत पहुँची! युरोप में, जहाँ स्त्री प्रधान आकर्षक के रूप में प्रतिष्ठित हुई, इसका उलटा हुआ। वहाँ स्त्रियों के बनाव सिंगार और पहनावे के खर्च के मारे पुरुषों के नाकों दम हो गया।
सूर के संयोग-वर्णन की बात हो चुकी । इनका विप्रलंभ भी ऐसा ही विस्तृत और व्यापक है। वियोग की जितनी अंतर्दशाएँ हो सकती हैं, जितने ढंगों से उन दशाओं का साहित्य में वर्णन हुआ है और सामान्यतः हो सकता है, वे सब उसके भीतर मौजूद हैं। आरंभ वात्सल्य रस के वियोग-पक्ष से हुआ है। कृष्ण के मथुरा से न लौटने पर नंद और यशोदा दुःख के सागर में मग्न हो गए हैं। अनेक दुःखात्मक भावतरंगें उनके हृदय में उठती हैं। कभी यशोदा नंद से खीझकर कहती हैं––
छाँड़ि सनेह चले मथुरा, कत दौरि न चीर गह्यो।
फाटि न गई बज्र की छाती, कत यह सूल सह्यो॥
इस पर नंद यशोदा पर उलट पड़ते हैं––
तब तू मारिबोई करति।
रिसनि आगे कहै जो आवत, अब लै भाँडे़ भरति॥
रोस कै देकर दाँवरी लै; फ़िरति-घर घर धरति।
कठिन हिय करि तब जो बाँध्यों,अब वृथा करि मरति॥
यह 'झुंँझलाहट' वियोग-जन्य है, प्रेम-भाव के ही अन्तर्गत है और कितनी स्वाभाविक है! सुख-शांति के भंग का कैसा यथातथ्य चित्र है! आगे देखिए, गहरी 'उत्सुकता' और 'अधीरता' के बीच 'विरक्ति' (निर्वेद) और तिरस्कार-मिश्रित-'खिझलाहट' का यह मेल कैसा अनूठा उतरा है। यशोदा नंद से कहती हैं––
नंद! ब्रज लीजै ठोंकि-बजाय।
देहु बिदा मिलि जाहिं मधुपुरी जहँ गोकुल के राय॥
'ठोंकि बजाय' में कितनी व्यंजना है! 'तुम अपना ब्रज अच्छी तरह सँभालो; तुम्हें इसका गहरा लोभ है; मैं तो जाती हूँ'। एक एक वाक्य के साथ हृदय लिपटा हुआ आता दिखाई दे रहा है। एक वाक्य दो दो तीन तीन भावों से लदा हुआ है। श्लेष आदि कृत्रिम विधानों से मुक्त ऐसा ही भाव-गुरुत्व हृदय को सीधे जाकर स्पर्श करता है। इसे भाव-शवलता कहें या भाव-पंचामृत; क्योंकि एक ही वाक्य "नंद! ब्रज लीजै ठोंकि बजाय" में कुछ निर्वेद, कुछ तिरस्कार और कुछ अमर्ष इन तीनों की मिश्र व्यंजना––जिसे शवलता ही कहने से संतोष नहीं होता––पाई जाती है। शवलता के प्रदत्त उदाहरणों में प्रत्येक भाव अलग शब्दों या वाक्यों द्वारा निर्दिष्ट किया जा सकता है; पर उक्त वाक्य में यह बात नहीं है।
ग्वाल सखाओं की भी यही दशा हो, रही है। कभी वे व्याकुल और अधीर होते हैं, कभी कृष्ण की निष्ठुरता पर क्षुब्ध होकर कहते हैं–– भए हरि मधुपुरी-राजा, बड़े बंस कहाय।
सूत मागध बदत बिरुदहि बरनि बसुद्यौ तात॥
राजभूषन अंग भ्राजत, अहिर कहत लजात॥
वियुक्त प्रिय पुत्र के सुख के अनिश्चय की 'शंका' तक न पहुँचती हुई भावना, 'दीनता' और क्षोभ-जन्य 'उदासीनता' किस प्रकार इन वचनों से टपक रही है––
सँदेसो देवकी सों कहियो।
हौं तो धाय तिहारे सुत की, कृपा करति ही रहियो॥
तुम तो टेव जानतिहि ह्वैहौ तऊ मोहिं कहि आवै।
प्रात उठत मेरे लाल-लड़ैतहि माखन रोटी भावै॥
कृष्ण राजभवन में जा पहुँचे हैं, यह जानते हुए भी यशोदा के प्रेमपूर्ण हृदय में यह बात जल्दी नहीं बैठती कि कृष्ण के सुख का ध्यान जितना वे रखती थीं उतना संसार में और भी कोई रख सकता है। रसमग्न हृदय ही ऐसी दशाओं का अनुभव कर सकता है। केवल उदाहरण की लीक पीटनेवालों के भाग्य में यह बात कहाँ!
आगे चलकर गोपियों की वियोग-दशा का जो धारा प्रवाह वर्णन है उसका तो कहना ही क्या है। न जाने कितनी मानसिक दशाओं का सँचार उसके भीतर है। कौन गिना सकता है? संयोग और वियोग दो अंग होने से श्रृङ्गार को व्यापकता बहुत अधिक है। इसी से वह रसराज कहलाता है। इस दृष्टि से यदि सूरसागर को हम रससागर कहें तो वेखटके कह सकते हैं। कृष्ण के चले जाने पर सायं प्रभात तो उसी प्रकार होते हैं, पर "मदन गोपाल बिना या तन की सबै बात बदली"। ब्रज में पहले सायंकाल में जो मनोहर दृश्य देखने में आया करता था वह अब बाहर नहीं दिखाई पड़ता; पर.मन से उसकी 'स्मृति' नहीं जाती––
एहि बेरियाँ बन तें ब्रज आवते।
दूरहिं तें वह बेनु अधर धरि वारंबार वजावते॥
संयोग के दिनों में आनंद की तरंगें उठानेवाले प्राकृतिक पदार्थों को वियोग के दिनों में देखकर जो दुःख होता है उसकी व्यंजना के लिए कवियों में उपालंभ की चाल बहुत दिनों से चली आती है। चंद्रोपालंभ-संबंधिनी बड़ी सुंदर कविताएँ संस्कृत-साहित्य में हैं। देखिए, सागर-मंथन के समय चंद्रमा को निकालनेवालों तक, इस उपालंभ में, किस प्रकार गोपियाँ अपनी दृष्टि दौड़ाती हैं––
या बिनु होत कहा अब सूनो?
लै किन प्रकट कियो प्राची दिसि, बिरहिनि को दुख दूनो?
सब निरदय सुर, असुर, सैल, सखि! सायर सर्प समेत॥
धन्य कहौं वर्षा ऋतु, तमचुर औ कमलन को हेत।
जुग जुग जीवै जरा वापुरी मिलै राहु अरु केत।
इसी पद्धति के अनुसार वे वियोगिनी गोपियाँ अपने उजड़े हुए नीरस जीवन के मेल में न होने के कारण वृंदावन के हरे भरे पेड़ों को कोसती हैं––
मधुबन! तुम कत रहत हरे?
विरह-वियोग स्यामसुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे!
तुम हौ निलज, लाज नहिं तुमको, फिर सिर पुहुप धरे।
ससा स्यार औ बन के पखेरू धिक धिक सबन करे।
कौन काज ठाढ़े रहे बन में, काहे न उकठि परे!
इसी प्रकार रात उन्हें साँपिन सी लग रही है। साँपिन की पीठ काली और पेट सफेद होता है। ऐसा प्रसिद्ध है कि वह काट–– कर उलट जाती है, जिससे सफेद भाग ऊपर हो जाता है। बरसात की अँधेरी रात में कभी कभी बादलों के हट जाने से जो चाँदनी फैल जाती है वह ऐसी ही लगती है––
पिया बिनु साँपिनि कारी राति।
कबहुँ जामिनी होत जुन्हैया डसि उलटी ह्वै जाति॥
इस पद पर न जाने कितने लोग लट्टू हैं!
सूरदासजी का विहार-स्थल जिस प्रकार घर की चार-दीवारी के भीतर तक ही न रहकर यमुना के हरे भरे-कछारों, करील के कुंजों और वनस्थलियों तक फैला है उसी प्रकार उनका विरह-वर्णन भी "बैरिन भइँ रतियाँ" और "साँपिन भइ सेजिया" तक ही न रहकर प्रकृति के खुले क्षेत्र के बीच दूर दूर तक पहुँचता है। मनुष्य के आदिम वन्य जीवन के परंपरागत मधुर संस्कार को उद्दीप्त करनेवाले इन शब्दों में कितना माधुर्य्य है––"एक बन ढूँढ़ि सकल बन ढूँढ़ौं, कतहुँ न स्याम लहौं"। ऋतुओं का आना जाना उसी प्रकार लगा है। प्रकृति पर उनका रंग वैसा ही चढ़ता उतरता दिखाई पड़ता है। भिन्न-भिन्न ऋतुओं की वस्तुएँ देख जैसे गोपियों के हृदय में मिलने की उत्कंठा उत्पन्न होती है वैसे ही कृष्ण के हृदय में क्यों नहीं उत्पन्न होती? जान पड़ता है कि ये सब-उधर जाती ही नहीं, जिधर कृष्ण बसते हैं। सब वृन्दावन में ही आ आ कर अपना अड्डा-जमाती हैं––
मानौ, माई! सबन्ह इतै ही भावत।
अब वहि देस नंदनंदन को कोठ न समौ जनावत॥
धरत न वन नवपत्र, फूल, फल, पिक बसंत नहिं गावत।
मुदित न सर सरोज अलि गुंँजत, पवन पराग उड़ावत॥
पावस बिबिध बरन बर बादर उठि नहिं अंबर छावत।
चातक मोर चकोर सोर करैं, दामिनि रूप दुरावत॥
अपनी अंतर्दशा को ऋतु-सुलभ, व्यापारों के बीच बिंब-प्रति- बिंब रूप में देखना भाव-मग्न अंतःकरण की एक विशेषता है। इसके वर्णन में प्रस्तुत अप्रस्तुत का भेद मिट सा जाता है। ऐसे वर्णन पावस के प्रसंग में सूर ने बहुत अच्छे किए हैं। "निसि दिन बरसत नैन हमारे" बहुत प्रसिद्ध पद है। विरहोन्माद में भिन्न-भिन्न प्रकार की उठती हुई भावनाओं से रंजित होकर एक ही वस्तु कभी किसी रूप में दिखाई पड़ती है, कभी किसी रूप में। उठते हुए बादल कभी तो ऐसे भीषण रूप में दिखाई पड़ते हैं––
देखियत चहुँ दिसि ते घन घोरे।
मानौ मत्त मदन के हथियन बल करि बंधन तोरे॥
कारे तन अति चुवत गंड मद, वरसत थोरे थोरे।
रुकत न पवन-महावत हू पै, मुरत न अंकुस मोरे॥
कभी अपने प्रकृत लोक-सुखदायक रूप में ही सामने आते हैं और कृष्ण की अपेक्षा कही दयालु और परोपकारी लगते हैं––
बरु ये बदराऊ बरसन आए।
अपनी अवधि जानि, नँदनंदन! गरजि गगन धन छाए॥
कहियत है सुरलोक बसत, सखि! सेवक सदा पराए॥
चातक कुल की पीर जानि कै, तेउ तहाँ तें घाए॥
तृण किए हरित, हरषि बेली मिलि, दादुर मृतक जिवाए॥
'बदराऊ' के 'ऊ' और 'बरु' में कैसी व्यंजना है! 'बादल तक'––जो जड़ समझे जाते हैं––आश्रितों के दुःख से द्रवीभूत होकर आते हैं! प्रिय के साथ कुछ रूप-साम्य के कारण वे ही मेघ कभी प्रिय लगने लगते हैं––
आजु घन स्याम की अनुहारि।
उनै आए साँवरे ते सजनी! देखि, रूप की आरि॥
इँद्रधनुष मनो नवल बसन छवि, दामिनि दसन बिचारि।
जनु वग-पाँति माल मोतिन की, चितवत हितहि निहारि॥
इसी प्रकार पपीहा कभी अपनी बोली के द्वारा प्रिय का स्मरण कराकर दुःख बढ़ाता हुआ प्रतीत होता है और यह फटकार सुनता है––
हौं तो मोहन के बिरह जरी, रे! तू कत जारत?
रे पापी तू पंखि पपीहा! 'पिउ पिउ पिउ, अधिराति पुकारत॥
सब जग सुखी, दुखी तू जल बिनु, तऊ न तन की बिथहि बिचारत।
सूर स्याम बिनुब्रज पर बोलत, हठि अगिलोऊ जनम बिगारत॥
और कभी सम दुःख-भोगी के रूप में अत्यंत सुहृद जान पड़ता है और समान प्रेम व्रत-पालन के द्वारा उनका उत्साह बढ़ाता प्रतीत होता है––
बहुत दिन जीवौ, पपिहा प्यारो।
वासर रैनि नाँव लै बोलत, भयो बिरह-जुर कारो॥
आपु दुखित पर दुखित जानि जिय चातक[१]* नाम तिहारो।
देखौ सकल बिचारि, सखी! जिय बिछुरन को दुख न्यारों॥
जाहि लगै सोई पै जानै प्रेम-बान अनियारो।
सूरदास प्रभु स्वाति-बूंँद लगि, तज्यो सिंधु करि खारो॥
काव्य जगत् की रचना करनेवाली कल्पना इसी को कहते हैं। किसी भावोद्रेक द्वारा परिचालित अंतर्वृत्ति जब उस भाव के पोषक स्वरूप गढ़कर या काट छाँटकर सामने रखने लगती है तब हम उसे सच्ची कवि-कल्पना कह सकते हैं। यों ही सिरपच्ची करके––बिना किसी भाव में मग्न हुए––कुछ अनोखे रूप खड़े करना या कुछ को कुछ कहने लगना या तो बावलापन है, या दिमागी कसरत; सच्चे कवि की कल्पना नहीं। वास्तव के अतिरिक्त या वास्तव के स्थान पर जो रूप सामने लाए गए हों उनके संबंध में यह देखना चाहिए कि वे किसी भाव की उमंग में उस भाव को सँभालनेवाले या बढ़ानेवाले होकर आ खड़े हुए हैं या यों ही तमाशा दिखाने के लिए––कुतूहल उत्पन्न करने के लिए––ज़वरदस्ती पकड़ कर लाए गए हैं। यदि ऐसे रूपों की तह में उनके प्रवर्त्तक या प्रेषक भाव का पता लग जाय तो समझिए कि कवि के हृदय का पता लग गया और वे रूप हृदय-प्रेरित हुए। अँगरेज़ कवि कालरिज ने, जिसने कवि-कल्पना पर अच्छा विवेचन किया है, अपनी एक कविता*[२] में ऐसे रूपावरण को आनंद-स्वरूप आत्मा से निकला हुआ कहा है, जिसके प्रभाव से जीवन में रोचकता रहती है। जब तक यह रूपावरण (कल्पना का) जीवन में साथ लगा चलता है तब तक दुःख की परिस्थिति में भी आनंदस्वप्न नहीं टूटता। पर धीरे-धीरे यह दिव्य आवरण हट जाता है और मन गिरने लगता है। भावोद्रेक और कल्पना में इतना घनिष्ठ संबंध है कि एक काव्य मीमांसक ने दोनों को एक ही कहना ठीक समझ कर कह दिया है––"कल्पना आनंद है" (Imagination is joy)†[३]
सच्चे कवियों की कल्पना की बात जाने दीजिए, साधारण
व्यवहार में भी लोग जोश में आकर कल्पना का जो व्यवहार
बराबर किया करते हैं वह भी किसी पहाड़ को 'शिशु' और 'पांडव' कहनेवाले कवियों के व्यवहार से, कहीं उचित होता है। किसी निष्ठुर कर्म करनेवाले को यदि कोई 'हत्यारा' कह देता है, तो वह सच्ची कल्पना का उपयोग करता है; क्योंकि विरक्ति या घृणा के अतिरेक से प्रेरित होकर ही उसकी अंतर्वृत्ति हत्यारे का रूप सामने करती है, जिससे भाव की मात्रा के अनुरूप आलंबन खड़ा हो जाता है। 'हत्यारा' शब्द का लाक्षणिक प्रयोग ही विरक्ति की अधिकता का व्यंजक है। उसके स्थान पर यदि कोई उसे 'बकरा' कहे, तो या तो किसी भाव की व्यंजना न होगी या किसी ऐसे भाव की होगी जो प्रस्तुत विषय के मेल में नहीं। कहलानेवाला कोई भाव अवश्य चाहिए और उस भाव को प्रस्तुत वस्तु के अनुरूप होना चाहिए। भारी मूर्ख को लोग जो 'गदहा' कहते हैं वह इसी लिए कि 'मूर्ख' कहने से उनका जी नही भरता––उनके हृदय में उपहास अथवा तिरस्कार का जो भाव रहता है उसकी व्यंजना नहीं होती।
कहने की आवश्यकता नहीं कि अलंकार-विधान में उपयुक्त उपमान लाने में कल्पना ही काम करती है। जहाँ वस्तु, गुण या क्रिया के पृथक् पृथक् साम्य पर ही कवि की दृष्टि रहती है वहाँ वह उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि का सहारा लेता है और जहाँ व्यापार-समष्टि या पूर्ण प्रसंग का साम्य अपेक्षित होता है वहाँ दृष्टांत, अर्थान्तरन्यास और अन्योक्ति का। उपर्युक्त विवेचन से यह प्रकट हैं कि प्रस्तुत के मेल में जो अप्रस्तुत रखा जाय––चाहे वह वस्तु, गुण या क्रिया हो अथवा व्यापार-समष्टि––वह प्राकृतिक और चित्ताकर्षक हो तथा उसी प्रकार का भाव जगानेवाला हो जिस प्रकार का प्रस्तुत। व्यापार समष्टि के समन्वय में कवि की सहृदयता का जिस पूर्णता के साथ हमें दर्शन होता है उस पूर्णता के साथ वस्तु, क्रिया आदि के पृथक् पृथक् समन्वय में नहीं। इसी से सुंदर अन्योक्तियाँ इतनी मर्मस्पशिणी होती हैं। चुना हुआ अप्रस्तुत व्यापार जितना ही प्राकृतिक होगा––जितना ही अधिक मनुष्य जाति के आदिम जीवन में सुलभ दृश्यों के अंतर्गत होगा––उतना ही रमणीय और अनुरंजनकारी होगा। सूरदासजी ने कई स्थलों पर अपनी कल्पना के बल से प्रस्तुत प्रसंग के मेल में अत्यंत मनोरम व्यापार-समष्टि की योजना की है। कोई गोपिका या राधा स्वप्न में श्रीकृष्ण के दर्शनों का सुख प्राप्त कर रही थी कि उसकी नींद उचट गई। इस व्यापार के मेल में कैसा प्रकृति-व्यापी और गूढ़ व्यापार सूर ने रखा है, देखिए––
हमको, सपनेहू में सोच।
जा दिन तें बिछुरे नंदनंदन ता दिन तें यह पोच॥
मनौ गोपाल आए मेरे घर, हँसि करि भुजा गही।
कहा करौं वैरिनि भइ निंदिया, निमिष न और रही॥
ज्यों चकई प्रतिबिंब देखि कै आनंदी पिय जानि।
सूर पवन मिलि निठुर विधाता चपल कियो जल आनि॥
स्वप्न में अपने ही मानस में किसी का रूप देखने और जल में अपना ही प्रतिबिंब देखने का कैसा गूढ़ और सुंदर साम्य है। इसके उपरान्त पवन द्वारा प्रशांत जल के हिल जाने से छाया का मिट जाना कैसा भूतव्यापी व्यापार स्वप्नभंग के मेल में लाया गया है!
इसी प्रकार प्राकृतिक चित्रों द्वारा सूर ने कई जगह पूरे प्रसंग की व्यंजना की है। जैसे, गोपियाँ मथुरा से कुछ ही दूर पर पड़ी विरह से तड़फड़ा रही हैं, पर कृष्ण राज-सुख के आनंद में फूले नहीं समा रहे हैं। यह बात वे इस चित्र द्वारा कहते हैं––
सागर-कूल मीन तरफत है, हुलसि होत जल पीन।
जैसा ऊपर कहा गया है, जिसे निर्माण करनेवाली––सृष्टि खड़ी करने वाली––कल्पना कहते हैं उसकी पूर्णता किसी एक प्रस्तुत वस्तु के लिए कोई दूसरी अप्रस्तुत वस्तु––जो कि प्रायः कवि-परंपरा में प्रसिद्ध हुआ करती है––रख देने में उतनी नहीं दिखाई पड़ती जितनी किसी एक पूर्ण प्रसंग के मेल का कोई दूसरा प्रसंग––जिसमें अनेक प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों की नवीन योजना रहती है––रखने में देखी जाती है। सूरदासजी ने कल्पना की इस पूर्णता का परिचय जगह जगह दिया है, इसका अनुमान ऊपर उद्धृत पदों से हो सकता है। कबीर, जायसी आदि कुछ रहस्यवादी कवियों ने इस जीवन का मार्मिक स्वरूप तथा परोक्ष जगत् की कुछ धुँधली सी झलक दिखाने के लिए इसी अन्योक्ति की पद्धति का अवलंबन किया है; जैसे––
हँसा प्यारे! सरवर तजि कहँ जाय!
जेहि सरवर बिच मोती चुनते, बहुविधि केलि कराय॥
सूख ताल, पुरइनि जल छोड़ें, कमल गयो कुँभिलाय।
कह कबीर जो अब की बिछुरै, बहुरि मिलै कब आय॥
रहस्यवादी कवियों के समान सूर की कल्पना भी कभी कभी इस लोक का अतिक्रमण करके आदर्श लोक की ओर संकेत करने लगती है; जैसे––
चकई री! चलि चरन-सरोवर जहाँ न प्रेम-वियोग।
निसि दिन राम राम की वर्षा, भय रुज़ नहिं दुख सोग॥
जहाँ सनक से मीन, हँस सिब, मुनि-जन नख-रवि-प्रभा-प्रकास।
प्रफुलित कमल, निमिष नहिं ससि डर, गुँजत निगम सुबास॥
जेहि सर सुभंग मुक्ति मुक्ता-फल,सुकृत अमृत रस पीजै।
सो सर छाँड़ि कुबुद्धि बिहंगम! इहाँ कहा रहि कीजै?॥
पर एक व्यक्तवादी सगुणोपासक कवि की उक्ति होने के कारण इस चित्र में वह रहस्यमयी अव्यक्तता या धुंँधलापन नहीं है। कवि अपनी भावना को स्पष्ट और अधिक व्यक्त करने के लिए जगह जगह आकुल दिखाई पड़ता है। इसी से अन्योक्ति का मार्ग छोड़ जगह जगह उसने रूपक का आश्रय लिया है। इसी अन्योक्ति का दीनदयालगिरि जी ने अच्छा निर्वाह किया है:––
चल चकई! वा सर विषम जहँ नहिं रैनि बिछोह।
रहत एकरस दिवस ही सुहृद हंस-संदोह॥
सुहृद हंस-संदोह कोह अरु द्रोह न जाके।
भोगत सुख-अंबोह, मोह दुख होय न ताके॥
बरनै दीनदयाल भाग्य बिनु जाय न सकई।
पिय-मिलाप नित रहै ताहि सर चल तू चकई॥
इसी अन्योक्ति-पद्धति को कवींद्र रवींद्र ने आज कल अपने विस्तृत प्रकृति-निरीक्षण के बल से और अधिक पल्लवित करके जो पूर्ण और भव्य स्वरूप प्रदान किया है वह हमारे नवीन हिंदी-साहित्य-क्षेत्र में 'गाँव में नया नया आया ऊँट' हो रहा है। बहुत से नवयुवकों को अपना एक नया ऊँट छोड़ने का हौसला हो गया है। जैसे भाँवों या तथ्यों की व्यंजना के लिए श्रीयुत रवींद्र प्रकृति के क्रीड़ास्थल से ले कर नाना मूर्त्त स्वरूप खड़ा करते हैं वैसे भावों को ग्रहण करने तक की क्षमता न रखनेवाले बहुतेरे ऊटपटाँग चित्र ख़ड़ा करने और कुछ असंबद्ध प्रलाप करने को ही 'छायावाद' की कविता समझ अपनी भी कुछ करामात दिखाने के फेर में पड़ गए हैं। चित्रों के द्वारा बात कहना बहुत ठीक है, पर कहने के लिए कोई बात भी तो हो। कुछ तो काव्य-रीति से सर्वथा अनभिज्ञ, छंद, अलंकार आदि के ज्ञान से बिल्कुल कोरे देखे जाते हैं। बड़ी भारी बुराई यह है कि अपने को एक 'नए सम्प्रदाय' में समझ अहंकारवश वे कुछ सीखने का कभी नाम भी नहीं लेना चाहते और अपनी अनभिज्ञता को एक चलते नाम की ओट में छिपाना चाहते हैं। मैंने कई एक से उन्हीं को रचना लेकर कुछ प्रश्न किए, पर उनका मानसिक विकास बहुत साधारण कोटि का––कोई गंभीर तत्त्व ग्रहण करने के अनुपयुक्त––पाया। ऐसों के द्वारा काव्य-क्षेत्र में भी, राजनीतिक क्षेत्र के समान, पाखँड के प्रचार को आशँका है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि रहस्यवाद का प्रकृत स्वरूप और उसका इतिहास आदि साहित्य सेवियों के सामने रखा जाय तथा पुराने और नए रहस्यवादी कवियों की रचनाओं की सूक्ष्म परीक्षा द्वारा रहस्यवाद की कविता के साहित्यक स्वरूप की मीमांसा की जाय। इस विषय पर अपने विचार मैं किसी दूसरे समय प्रकट करुँगा ; इस समय जो इतना कह गया, उसी के लिए क्षमा चाहता हूँ।
यहाँ तक तो सूर की सहृदयता की बात हुई। अब उनकी साहित्यिक निपुणता के संबंध में भी दो चार बातें कहना आवश्यक है। किसी कवि की रचना के विचार के सुबीते के लिए हम दो पक्ष कर सकते हैं––हृदय-पक्ष और कला-पक्ष। हृदय-पक्ष का कुछ दिग्दर्शन हो चुका। अब सूर की कला निपुणता के, काव्य के बाह्यांग के, संबंध में यह समझ रखना चाहिए कि वह भी उनमें पूर्ण रूप से वर्त्तमान है। यद्यपि काव्य में हृदय-पक्ष ही प्रधान है, पर बहिरंग भी कम आवश्यक नहीं है। रीति, अलंकार, छंद ये सब बहिरंग विधान के अन्तर्गत हैं, जिनके द्वारा काव्यात्मा की अभिव्यक्ति में सहायता पहुंचती है। सूर, तुलसी, बिहारी आदि कवियों में दोनों पक्ष प्रायः सम हैं। जायसी में हृदय-पक्ष की प्रधानता है, कला-पक्ष में (अलँकारों का बहुत कुछ व्यवहार होते हुए भी) त्रुटि और न्यूनता है। केशव में कला पक्ष ही प्रधान है, हृदय-पक्ष न्यून है।
यह तो आरम्भ में ही कहा जा चुका है कि सूर की रचना जयदेव और विद्यापति के गीत-काव्यों की शैली पर है, जिसमें सुर और लय के सौंदर्य या माधुर्य का भी रस-परिपाक में बहुत कुछ योग रहता है। सूरसागर में कोई राग या रागिनी छूटी न होगी, इससे वह संगीत-प्रेमियों के लिए भी वड़ा भारी खज़ाना है। नाद-सौंदर्य के साधनों में अनुप्रास आदि शब्दालंकार भी हैं। संस्कृत के गीत-गोविंद में कोमल-कांत-पदावली और अनुप्रास की ओर बहुत कुछ ध्यान है। विद्यापति की रचना में कोमल पदावली का आग्रह तो है, पर अनुप्रास का उतना नहीं। सूर में चलती भाषा की कोमलता है, वृत्ति-विधान और अनुप्रास की ओर झुकाव कम है। इससे भाषा की स्वाभाविकता में बाधा नहीं पड़ने पाई है। भावुक सूर ने अपना 'शब्द-शोधन' दूसरी ओर दिखाया है। उन्होंने चलते हुए वाक्यों, मुहावरों और कहीं कहीं कहावतों का बहुत अच्छा प्रयोग किया है। कहने का तात्पर्य यह कि सूर की भाषा बहुत चलती हुई और स्वाभाविक है। काव्य-भाषा होने से यद्यपि उसमें कहीं कहीं संस्कृत के पद, कवि के समय से पूर्व के परंपरागत प्रयोग तथा ब्रज से दूर दूर के प्रदेशों के शब्द भी आ मिले हैं, पर उनकी मात्रा इतनी नहीं है कि भाषा के स्वरूप में कुछ अन्तर पड़े या कृत्रिमता आवे। श्लेष और यमक कूट पदों में ही अधिकतर पाए जाते हैं।
अर्थालंकारों की अलबल पूर्ण प्रचुरता है, विशेषतः उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि सादृश्य-मूलक अलंकारों की। यद्यपि उपमान अधिकतर साहित्य-प्रसिद्ध और परंपरागत ही हैं, पर स्वकल्पित नए नए उपमानों की भी कमी नहीं है। कहीं कहीं तो जो प्रसिद्ध उपमान भी लिए गए हैं, वे प्रसंग के बीच बड़ी ही अनूठी उद्भावना के साथ बैठाए गए हैं। स्फटिक के आँगन में बालक कृष्ण घुटनों के बल चल रहे हैं और उनके हाथ पैर का प्रतिबिंब पड़ता चलता है। इस पर कवि की उत्प्रेक्षा देखिये––
फटिक-भूमि पर कर-पग-छाया यह शोभा अति राजति।
करि करि प्रति पद प्रतिमनि बसुधा कमल बैठ की साजति॥
रूप या अगों की शोभा के वर्णन में उपमा, उत्प्रेक्षा की भरमार बराबर मिलेगी। इनमें बहुत सी तो पुरानी और बँधी हुई हैं और कुछ नवीन भी हैं। उपमा, उत्प्रेक्षा की सबसे अधिकता 'हरिजू की बाल छवि' के वर्णन में पाई जाती है; यों तो जहाँ जहाँ रूपवर्णन है सर्वत्र ये अलंकार भरे पड़े हैं। उपमान सब तरह के हैं, पृथ्वी पर के भी और पृथ्वी के बाहर के भी––सामान्य प्राकृतिक व्यापार भी और पौराणिक प्रसंग भी। पिछले प्रकार के उपमानों के उदाहरण इस प्रकार के हैं––
(क) नील स्वेत पर पीत लाल मनि लटकन माल रुराई।
सनि, गुरु, असुर, देवगुरु मिलि मनो भौम सहित समुदाई॥
(ख) हरि कर राजत माखन रोटी।
मनो बराह भूधर सह पृथिवी धरी दसनन की कोटी॥
अंग शोभा और वेश भूषा आदि के वर्णन में सूर को उपमा देने की झक सी चढ़ जाती है और वे उपमा पर उपमा, उत्प्रेक्षा- पर उत्प्रेक्षा कहते चले जाते हैं। इस झक में कभी कभी परिमिति या मर्यादा का विचार (Sense of proportion) नहीं रह जाता; जैसे, ऊपर के उदाहरण (ख) में कहाँ मक्खन लगी हुई छोटी सी रोटी और कहाँ गोल पृथ्वी! हाँ, जहाँ ईश्वरत्व या देवत्व की भावना से किसी छोटे व्यापार द्वारा अत्यन्त बृहद् व्यापार की ओर सँकेत मात्र किया है वहाँ ऐसी बात नहीं खटकती; जैसे इस पद में––
मथत दधि मथनी टेकि रह्यो।
आरि करत मटकी गहि मोहन वासुकि संभु डरयो॥
मंदर डरत, सिंधु पुनि काँपत फिरि जनि मथन करै।
प्रलय होय जनि गहे मथानी, प्रभु मर्याद टरै॥
पर उक्त दोनों उदाहरणों के संबंध में तो इतना बिना कहे नहीं रहा जाता कि ऐसे उपमान बहुत काव्योपयोगी नहीं जंँचते। काव्य में ऐसे ही उपमान अच्छी सहायता पहुँचाते हैं जो सामान्यतः प्रत्यक्ष रूप में परिचित होते हैं और जिनकी भव्यता, विशालता या रमणीयता आदि का संस्कार जनसाधारण के हृदय पर पहले से जमा चला आता है। न शनि का कोयले सा कालापन ही किसी ने आँखों देखा है, न बराह भगवान् का दाँत की नोक पर पृथ्वी उठाना। यह बात दूसरी है कि केशव ऐसे कुछ प्रसिद्ध कवियों ने भी "भानु मनो सनि अंक लिए" ऐसी उत्प्रेक्षा की ओर रुचि दिखाई है।
हमारे कहने का यह तात्पर्य नहीं कि ज्ञान विज्ञान के प्रसार से जो सूक्ष्म से सूक्ष्म और बृहत् से बृहत् क्षेत्र मनुष्य के लिए खुलते जाते हैं उनके भीतर के नाना रमणीय और अद्भुत रूपों और व्यापारों का––जो सर्वसाधारण को प्रत्यक्ष नहीं हैं––काव्य में उपयोग करके उसके क्षेत्र का विस्तार न किया जाय। उनका प्रयोग किया जाय, कवि की प्रतिभा द्वारा वे गोचर रूप में सामने लाए जायँ, पर दूसरे प्रकार की रचनाओँ में लाए जायँ, केवल अंग, आभूषण आदि की उपमा के लिए नहीं। ज्योतिर्विज्ञान द्वारा खगोल के बीच न जाने कितने चक्कर खाते, बनते बिगड़ते, रंग- बिरंग के पिंडों, अपार ज्योतिःसमूहों आदि का पता लगा है जिनके सामने पृथ्वी किसी गिनती में नहीं। कोई विश्व-व्यापिनी ज्ञान-दृष्टिवाला कवि यदि विश्व की कोई गंभीर समस्या लेकर उसे काव्य रूप में रखना चाहता है तो वह इन सबको हस्तामलक बनाकर सामने ला सकता है।
सूरदासजी में जितनी सहृदयता और भावुकता है, प्रायः उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता (Wit) भी है। किसी बात को कहने के न जाने कितने टेढ़े सीधे ढंग उन्हें मालूम थे। गोपियों के वचन में कितनी विदग्धता और वक्रता भरी है। वचनरचना की उस वक्रता के संबंध में आगे विचार किया जायगा। यहाँ पर हम वैदग्ध्य के उस उपयोग का उल्लेख करना चाहते हैं जो आलंकारिक कुतूहल उत्पन्न करने के लिए किया गया है। साहित्य-प्रसिद्ध उपमानों को लेकर सूर ने बड़ी बड़ी क्रीड़ाएँ की हैं। कहीं उनको लेकर रूपकातिशयोक्ति द्वारा "अद्भुत एक अनूपम बाग" लगाया है; कहीं, जब जैसा जी चाहा है, उन्हें संगत सिद्ध करके दिखा दिया है कहीं असंगत। गोपियाँ वियोग में कुढ़कर एक स्थान पर कृष्ण के अंगों के उपमानों को लेकर उपमा को इस प्रकार न्याय-संगत ठहराती हैं।
ऊधो! अब यह समुझि भई।
नंदनँदन के अंग अंग प्रति उपमा न्याय-दई॥
कुंतल कुटिल भँवर भरि भाँवरि मालति भुरै लई।
तजत न गहरु कियो कपटी जब जानी निरस गई॥
आनन इँदुबरन संमुख तजि करखे तें न नई।
निरमोही नहिं नेह, कुमुदिनी अन्तहि हेम हई॥
तन घनस्याम सेइ निसिबासर, रटि रसना छिजई।
सूर विवेक-हीन चातक-मुख बूँदौ तौ न सई॥
इसी प्रकार दूसरे स्थान पर वे अपने नेत्रों के उपमानों को अनुपयुक्त ठहराती हैं––
उपमा एक न नैन गही।
कविजन कहत कहत चलि आए, सुधि करि करि काहू न कही॥
कहे चकोर, मुख-विधु बिनु जीवन; भँवर न, तहँ उड़ि जात।
हरिमुख-कमलकोस बिछुरे ते ठाले क्यों ठहरात?
खंजन मनरंजन जन जौ पै, कबहुँ नाहि सतरात।
पंख पसारि न उड़त, मंद ह्वै समर समीप बिकात॥
आए बधन व्याध ह्वै अधो, जौ मृग क्यों न पलाय।
देखत भागि बसै घन वन में जहँ कोउ संग न धाय॥
ब्रजलोचन बिनु लोचन कैसे? प्रति छिन अति दुख बाढ़त।
सूरदास मीनता कछू इक, जल भरि संग न छाँड़त॥
दोनों उदाहरणों में उपमानों की उपयुक्तता और अनुपयुक्तता का जो आरोप किया गया है, वह हृदय के क्षोभ से उत्पन्न है, इसी से उसमें सरसता है, काव्य की योग्यता है। यदि कोई कठ हुज्जती इन्हीं उपमानों को लेकर कहने लगे––"वाह! नेत्र भ्रमर कैसे हो सकते हैं? भ्रमर होते तो उड़ न जाते। मृग कैसे हो सकते हैं? मृग होते तो ज़मीन पर चौकड़ी न भरते"। तो उसके कथन में कुछ भी काव्यत्व न होगा। उपमानों की आनंद-दशा का वर्णन करके इसी प्रकार सूर ने 'अप्रस्तुत-प्रशंसा' द्वारा राधा के अंगों और चेष्टाओं का विरह से द्युतिहीन और मंद होना व्यंजित किया है––
तब तें इन सबहिन सचु पायो।
जब तें हरि संदेस तिहारो सुनत ताँवरो आयो॥
फूले ब्याल दुरे तें प्रगटे, पवन पेट भरि खायो।
ऊँचे बैठि बिहग-सभा बिच कोकिल मंगल गायो॥
निकसि कँदरा तें केहरिहू माथे पूँछ हिलायो।
बनगृह तें गजराज निकसि कै अँग अँग गर्व जनायो॥
चेष्टाओं और अंगों का मंद और श्रीहीन होना कारण है, और उपमानों का आनंदित होना कार्य है। यहाँ अप्रस्तुत कार्य के वर्णन द्वारा प्रस्तुत कारण की व्यंजना की गई है। गोस्वामी तुलसीदास- जी ने जानकी के न रहने पर उपमानों का प्रसन्न होना राम के मुख से कहलाया है––
कुंँदकली, दाड़िम, दामिनी! कमल, सरदससि, अहि-भामिनी॥
श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं। नेकु न संक सकुच मन माहीं॥
सुनु जानकी! तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू॥
पर यहाँ उपमानों के आनंद से केवल सीता के न रहने की व्यंजना होती है। सूर की 'अप्रस्तुत-प्रशंसा' में उक्ति का चमत्कार भी कुछ विशेष है और रसात्मकता भी।
दूर की सूझ या ऊहावाले चमत्कार-प्रधान पद भी सूर ने बहुत से कहे हैं; जैसे––
(क) दूर करहु बीना कर धरिबो।
मोहे मृग नाहीं रथ हाँक्यो, नाहिं न होत चंद को हरियो॥
(ख) मन राखन को वेनु लियो कर, मृग थाके उडुपति न चरै।
अति आतुर ह्वै सिंह लिख्यो कर जेहि भामिनि को करुन टरै॥
राधा मन बहलाने के लिए, किसी प्रकार रात बिताने के लिए, वीणा लेकर बैठीं। उस वीणा या वेणु के स्वर से मोहित होकर चंद्रमा के रथ का हिरन अड़ गया और चंद्रमा के रुक जाने से रात और भी बढ़ गई। इस पर घबरा कर वे सिंह का चित्र बनाने लगी जिससे मृग डरकर भाग जाय। जायसी की 'पदमावत' में भी यह उक्ति ज्यों की त्यों आई है––
गहै बीन मकु रैनि बिहाई। ससि-बाहन तहँ रहै ओनाई॥
पुनि धनि सिंह उरेहै लागै। ऐसिहि विथा रैनि सब जागै॥
जायसी की पदमावत विक्रम संवत् १५९७ में बनी और सूरसागर संवत् १६०७ के लगभग बन चुका था। अतः जायसी की रचना कुछ पूर्व की ही मानी जायगी। पूर्व की न सही, तो भी किसी एक ने दूसरे से यह उक्ति ली हो, इसकी संभावना नहीं। उक्ति सूर और जायसी दोनों से पुरानी है। दोनों ने स्वतंत्र रूप में इसे कवि-परंपरा द्वारा प्राप्त किया।
कहीं कहीं सूर ने कल्पना को अधिक बढ़ाकर, या यों कहिए कि ऊहा का सहारा लेकर––जैसा पीछे बिहारी ने बहुत किया–– वर्णन कुछ अस्वाभाविक कर दिया है। चन्द्र की दाहकता से चिढ़कर एक गोपी राधा से कहती है––
कर धनु लै किन चंदहि मारि?
तू हरुबाय जाय मंदिर चढ़ि ससि संमुख दर्पन विस्तारि।
याही भाँति बुलाय, मुकुर महि अति वल खंड खंड करि डारि॥
गोपियों का विरहोन्माद कितना ही बढ़ा हो, पर उनकी बुद्धि बिल्कुल बच्चों की सी दिखाना स्वाभाविक नहीं जँचता। कविता में दूर की सूझ या चमत्कार ही सब कुछ नहीं है।
पावस के घन-गर्जन आदि वियोगिनी को संतापदायक होते हैं, यह तो एक बँधी चली आती हुई बात है। सूर ने एक प्रसंग कल्पित करके इस बात को ऐसी युक्ति से रख दिया है कि इसमें एक अनूठापन आ गया है। वे कहते हैं कि पावस आने पर सखियाँ राधा को मालूम ही नहीं होने देतीं कि पावस आया है। वे और और बातें बताकर उन्हें बहकाती रहती हैं––
बात बूझत यों बहरावति।
सुनहु स्याम! वै सखी सयानी पावस ऋतु राधहि न सुनावति।
घन गरजत तौ कहत कुसलमति गूंजत गुहा सिंह समझावति॥
नहिं दामिनि, द्रम-दवा सैल चढ़ी,फिरि बयारि उलटी झर लाबति।
नाहिं न मोर बकत पिक दादुर, ग्वाल-मँडली खगन खेलावति॥
सूर को वचन-रचना की चतुराई और शब्दों की क्रीड़ा का भी पूरा शौक़ था। बीच बीच में आए हुए कूट पद इस बात के प्रमाण है, जिनमें या तो अनेकार्थवाची शब्दों को लेकर या किसी एक वस्तु को सूचित करने के लिये अनेक शब्दों की लंबी लड़ी जोड़कर खेलवाड़ किया गया है। सूर की प्रकृति कुछ क्रीड़ाशील थी। उन्हें कुछ खेल-तमाशे का भी शौक़ था। लीलापुरुषोत्तम के उपासक कवि में यह विशेषता होनी ही चाहिए। तुलसी के गंभीर मानस में इस प्रवृत्ति का आभास नहीं मिलता। अपनी इस शब्द कौशल की प्रवृत्ति के कारण सूर ने व्यवहार के कुछ पारिभाषिक शब्दों को लेकर भी एक आध जगह उक्तियाँ बाँधी हैं; जैसे––
साँचो सो लिखवार कहावै।
काया-ग्राम मसाहत करि कै, जमा बाँधि ठहरावै।
मन्मथ करै कैद अपनी में, जान जहतिया लावै॥
काव्य में इस प्रकार की उक्तियाँ ठीक नहीं होतीं। आचार्यों ने 'अप्रतीत्व' दोष के अंतर्गत इस बात का संकेत किया है। सूर भी एक ही आध जगह ऐसी उक्तियाँ लाए हैं; पर वे 'प्रेम फौजदारी' ऐसी पुस्तकों के लिए नमूने का काम दे गई हैं।
यहाँ तक तो सूरदासजी की कुछ विशेषताओं का अनुसंधान हुआ। अब उनकी पूर्ण रचना के संबंध में कुछ सामान्य मत स्थिर करना चाहिए। पहले तो यह समझ रखना चाहिए कि सूरसागर वास्तव में एक महासागर है जिसमें हर एक प्रकार का जल आकर मिला है। जिस प्रकार उसमें मधुर अमृत है उसी प्रकार कुछ खारा, फीका और साधारण जल भी। खारे, फीके और साधारण जल से अमृत को अलग करने में विवेचकों को प्रवृत्त रहना चाहिए। सूरसागर में बहुत से पद बिल्कुल साधारण श्रेणी के मिलेंगे। एक ही पद में भी कुछ चरण तो अनूठे और अद्वितीय मिलेंगे और कुछ साधारण, और कभी कभी तो भरती के। कई जगह वाक्य-रचना अव्यवस्थित मिलेगी और छंद या तुकांत में खपाने के लिए शब्द भी कुछ विकृत किए हुए, तोड़े मरोड़े हुए, पाए जायँगे; जैसे 'रहत' के लिए 'राहत', 'जितेक' के लिए 'जितेत', 'पानी' के लिए 'पान्यों' इत्यादि। व्याकरण के लिए लिंग आदि का विपर्यय या अनियम भी कहीं कहीं मिल जाता है। जैसे, 'सूल' शब्द कहीं पुल्लिंग आया है, कहीं स्त्रीलिंग। सारांश यह कि यदि हम भाषा पर सामान्यतः विचार करते हैं तो वह सर्वत्र तुलसी की सी गठी हुई, सुव्यवस्थित और अपरिवर्त्तनीय न मिलेगी। कहीं कहीं किसी वाक्य या किसी चरण तक को हम बदलदें तो कोई हानि न होगी। किसी किसी पद में कुछ वाक्य कुछ विशेष अर्थ-शक्ति नहीं रखते, चरण की पूर्ति करने का हो काम देते जान पड़ते हैं। बात यह है कि नित्य कुछ न कुछ पद बनाना उनका नियम था। उन्होंने बहुत अधिक पद कहे हैं । फुटकर पद कहते चले गए हैं; इससे एक ही भाववाले बहुत से पद भी आ गए हैं और कहीं कहीं भाषा भी शिथिल हो गई है। अंधे होने के कारण लिखे पदों को सामने रखकर काटने छाँटने या हरताल लगाने का उन्हें वैसा मौका न था जैसा तुलसीदास को।
उपासना-पद्धति के भेद के कारण सूर और तुलसी की रचना में जो भेद कहा जाता है उस पर भी थोड़ा ध्यान देना चाहिए। तुलसी की उपासना सेव्य-सेवक भाव से कही जाती है और सूर की सख्य भाव से। यहाँ तक कि भक्तों में सूरदासजी श्रीकृष्ण के सखा उद्धव के अवतार कहे जाते हैं। यहाँ पर हमें केवल यह देखना है कि इस उपासना-भेद का सूर की रचना के स्वरूप पर क्या प्रभाव पड़ा है। यदि विचार करके देखा जाय तो सूर में जो कुछ संकोच का अभाव या प्रगल्भता पाई जाती है वह गृहीत विषय के कारण। इन्होंने वात्सल्य और श्रृंगार ही वर्णन के लिए चुने हैं। जिसे बालक्रीड़ा और श्रृंगारक्रीड़ा का अत्यंत विस्तृत वर्णन करना है वह यदि संकोच भाव छोड़ लड़कों की नटखटी, यौवन-सुलभ हास परिहास आदि का वर्णन न करेगा तो काम कैसे चलेगा? कालिदास ने भी कुमार-संभव में पार्वती के अंग-प्रत्यंग का श्रृंगारी वर्णन किया है। तो क्या उनकी शंकर की उपासना भी सख्य भाव की हुई और उनका वह वर्णन उसी सख्य भाव के कारण हुआ? थोड़ा सा ध्यान देने से ही यह जाना जा सकता है कि आरंभ में सूर ने जो बहुत दूर तक विनय के पद कहे हैं, वे दीन सेवक या दासं के रूप ही कहे हैं मिलान करने पर सूर की विनयावली और तुलसी की विनय-पत्रिका में सखा और सेवक का कोई भेद न पाया जायगा। विनय में सूर भी ऐसा ही कहते पाए जायँगे––"प्रभु! हौं सब पतितन को टीको"। यों तो तुलसी भी प्रेम-भाव में मग्न हो सामीप्य और घनिष्ठता अनुभव करते हुए 'पूतरा बाँधने' के लिए तैयार होकर गए हैं और शबरी आदि को तारने पर कहते हैं––"तारेहु का रही सगाई?"
इसी सांप्रदायिक प्रवाद से प्रभावित होकर कुछ महानुभावों ने सूर और तुलसी में प्रकृति-भेद बताने का प्रयत्न किया है और सूर को खरा तथा स्पष्टवादी और तुलसी को सिफारशी, खुशामदी या लल्लो-चप्पो करनेवाला कहा है। उनकी राय में तुलसी कभी राम की निंदा नहीं करते; पर सूर ने "दो चार स्थानों पर कृष्ण के कामों की निंदा भी की है; यथा––
(क) तुम जानत राधा है छोटी।
हम सों सदा दुरावति है यह, बात कहै मुख चोटी पोटी॥
नँदनंदन याही के बस हैं, विवस देखि वेंदी छबि चोटी।
सूरदास प्रभु वै अति खोटे, यह उनहूँ तें अति ही खोटी॥
(ख) सखी री! स्याम कहा हित जानै।
सूरदास सर्वस जौ दीजै कारो कृतहि न मानै"॥
पर यह कथन कहाँ तक ठीक है, इसका निर्णय इस प्रश्न के उत्तर द्वारा झटपट हो सकता है। "सूरदास प्रभु वै अति खोटे" "कारो कृतहि न मानै" इन दोनों वाक्यों में वाच्यार्थ के अतिरिक्त संलक्ष्य असंलक्ष्य किसी प्रकार का व्यंग्यार्थ भी है या नहीं? यदि किसी प्रकार का व्यंग्य नहीं है तो उक्त कथन ठीक हो सकता है। पर किसी प्रकार का व्यंग्यार्थ न होने पर ये दोनों वाक्य रसात्मक भाग्य को,सराहा है। यह भी याद ही दिलाना है कि कृष्ण परमेश्वर हैं।
सूरदास जी अपने भाव में मग्न रहनेवाले थे, अपने चारों ओर की परिस्थिति की आलोचना करनेवाले नहीं। संसार में क्या हो रहा है, लोक की प्रवृत्ति क्या है, समाज किस ओर जा रहा है, इन बातों कीं ओर उन्होंने अधिक ध्यान नहीं दिया है तुलसीदासजी लोक की गति के सूक्ष्म पर्यालोचक थे। वे उसके बीच पैदा होनेवाली बुराइयों को तीव्र दृष्टि से देखनेवाले थे जिस प्रकार उन्होंने अपने समय की जनता की दुःख दशा और दुर्वृत्ति तथा मर्यादा के ह्रास पर दृष्टिपात किया है, उसी प्रकार लोक-मर्यादा के ह्रास में सहायता पहुँचानेवाली प्रच्छन्न शक्तियों को भी पहचाना है। किस प्रकार उन्होंने कबीर, दादू आदि के लोक-विरोधी स्वरूप को पहचान कर उनके उद्धत व्यक्तिवाद के विरुद्ध घोषणा की, यह हम गोस्वामीजी की आलोचना में दिख चुके हैं[४]।* सूरदासजी अपने भाव-भजन और मंदिर के नृत्य गीत में ही लीन रहते थे; इन सब अंदेशों से बहुत दुबले नहीं रहते थे। पर "निर्गुन बानी" की जो हवा बह रही थी, उसकी ओर उनके कान अवश्य थे।
तुलसी की आलोचना में हम सूचित कर चुके हैं कि तुलसी का ब्रजभाषा और अवधी दोनों काव्य-भाषाओं पर तुल्य अधिकार था और उन्होंने जितनी शैलियों की काव्य-रचना प्रचलित थी उन सब पर बहुत उत्कृष्ट रचना की है। यह बात सूर में नहीं है। सूरसागर की पद्धति पर वैसी ही मनोहारिणी और सरस रचना तुलसी की 'गीतावली' मौजूद है; पर, रामचरितमानस और कवितावली की शैली की सूर की कोई कृति नहीं है। इसके अति- रिक्त मनुष्य-जीवन की जितनी अधिक दशाएँ, जितनी अधिक वृत्तियाँ, तुलसी ने दिखाई हैं, उतनी सूर ने नहीं। तुलसी ने अपने चरित्र चित्रण द्वारा जैसे विविध प्रकार के ऊँचे आदर्श खड़े किए हैं वैसे सूर ने नहीं। तुलसी की प्रतिभा सर्वतोमुखी है और सूर की एकमुखी। पर एकमुखी होकर उसने अपनी दिशा में जितनी दूर तक की दौड़ लगाई है उतनी दूर तक की तुलसी ने भी नहीं; और किसी कवि की तो बात ही क्या है। जिस क्षेत्र को सूर ने चुना है उस पर उनका अधिकार अपरिमित है, उसके वे सम्राट् हैं।
सूर की विशेषताओं के इस संक्षिप्त दिग्दर्शन को समाप्त करने के पहले इतना और कह देने को जी चाहता है कि सूर में सांप्र- दायिकता की छाप तुलसी की अपेक्षा अधिक है। अष्टछाप में वे थे ही। उन्होंने अनन्य उपासना के अनुसार कृष्ण या हरि को छोड़ और देवताओं की स्तुति नहीं की है। ग्रंथारंँभ में भी प्रथानुसार गणेश या सरस्वती को याद नहीं किया है। पर तुलसीदासजी की बँदना कितनी विस्तृत है, यह रामचरितमानस और विनय-पत्रिका के पढ़नेवाल मात्र जानते हैं। उनमें लोक-संग्रह का भाव पूरा पूरा था। उनकी दृष्टि लोक-विस्तृत थी। जन-समाज के बीच या कम से कम हिंदू-समाज के बीच––परस्पर सहानुभूति और संमान का भाव तथा सुखद व्यवस्था स्थापित देखने का अभिलाप भी उनमें बहुत कुछ थी। शिव और राम को एक दूसरे का उपा- सक बनाकर उन्होंने शैवों और वैष्णवों में भेदबुद्धि रोकने का प्रयत्न किया था। पर सूरदासजी का इन सब बातों की ओर ध्यान नहीं था। जो तुलसीदासजी के ग्रंथों को पढ़ता है वह उन्हें देवताओं से उदासीन भी नहीं समझता; उनका शत्रु और द्रोही समझना तो दूर रहा। इतने पर भी कुछ लोगों ने वनवास के करुण-प्रसंग के भीतर अथवा राम के महत्त्व आदि की भावना में लीन करने वाले किसी पद में "सुर स्वारथी" आदि शब्द देखकर यह कहना बहुत जरूरी समझा है कि "सूर ने तुलसी के समान देवताओं को गालियाँ नहीं दी हैं"। इस पर यही समझ कर रह जाना पड़ता है कि यह मत-वैलक्षण्य के प्रदर्शन का युग है।
सूर की विशेषताओं पर स्थूल रूप से इतना विचार करने के उपरांत अब हम उनकी उस संगीत-भूमि में थोड़ा प्रवेश करते हैं जो 'भ्रमरगीत' के नाम से प्रसिद्ध है और जिसमें वचन की भाव प्रेरित वक्रता द्वारा प्रेम-प्रसूत न जाने कितनी अंतर्वृत्तियों का उद्घाटन परम मनोहर है। 'भ्रमरगीत' का प्रसंग इस प्रकार आया है। श्रीकृष्ण अक्रूर के साथ कंस के निमंत्रण पर मथुरा गए और वहाँ कंस को मारकर अपने पिता वसुदेव का उद्धार किया। इसी बीच में कुब्जा नाम की कंस की एक दासी को उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उन्होंने अपने प्रेम की अधिकारिणी बनाया। जब अवधि बीत जाने पर भी वे लौटकर गोकुल न आए तब नंद, यशोदा तथा सारे ब्रजवासी बड़े दुखी हुए। उन गोपियों के विरह का क्या कहना है जिनके साथ उन्होंने इतनी क्रीड़ाएँ की थीं। बहुत दिनों पीछे श्रीकृष्ण ने ज्ञानोपदेश द्वारा गोपियों को समझाने बुझाने के लिए अपने सखा उद्धव को ब्रज में भेजा। उद्धव ही को क्यों भेजा? कारण यह था कि उद्धव को अपने ज्ञान का बड़ा गर्व था, प्रेम या भक्ति-मार्ग की वे उपेक्षा करते थे। कृष्ण का उन्हें गोपियों के पास भेजने में यह अभिप्राय था कि वे उनकी प्रीति की गूढ़ता और तन्मयता देखकर शिक्षा ग्रहण करें और सगुण भक्ति- मार्ग की सरसता और सुगमता के सामने उनका ज्ञान-गर्व दूर हो––
जदुपति जानि उद्धव-रीति।
जेहि प्रगट निज सखा कहियत करत भाव अनीति॥
विरह-दुख जहँ नाहिं जामत, नाहिं उपजत प्रेम।
रेख, रूप न बरन जाके यह धरयो वह नेम॥
त्रिगुन तन करि लखत हमकों, ब्रह्म मानत और।
बिना गुन क्यों पुहुमि उधरै, यह करत मन डौर॥
बिरह-रस के मंत्र कहिए क्यों चलै संसार।
कछु कहत यह एक प्रगटत, अति भरयो हंकार॥
प्रेम भजन न नेकु याके, जाय क्यों समझाय?
सूर प्रभु मन यहै आनी, ब्रजहि देहुँ पठाय॥
"त्रिगुन तन करि लखत हमकों, ब्रह्म मानत और" इसी भ्रम का निवारण कृष्ण चाहते थे। जगत् से ब्रह्म को सदा अलग मानना, जगत् की नाना विभूतियों में उसे न स्वीकार करना भक्ति मार्गियों के निकट बड़ी भारी भ्रांति है। 'अहमात्मा गुडाकेश, सर्वभूताशयस्थितः" इस भगवद्वाक्य को मन में बैठाए हुए भक्त- जन गीता के इस उपदेश के अनुसार भगवान् के व्यक्त स्वरूप की ओर आकर्षित रहते हैं––
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासतचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दु:खं देहवद्भिरवांप्यते॥
उद्धव बात बात में "एक प्रगटत"––अद्वैतवाद का राग अलापते थे। पर "विरह-रस के मंत्र कहिए क्यों चलै संसार ?"–रस-विहीन उपदेशसे लोक व्यवहार कैसे चल सकता है? रसविहीन उपदेश किस प्रकार असर नहीं करते, यहीं दिखाने को भ्रमरगीत की रचना हुई है। उद्धव के ब्रज में दिखाई पड़ते ही सारे ब्रजवासी उन्हें घेर लेते हैं। वे नंद यशोदा से सँदेसा कह चुकने के उपरांत गोपियों की ओर फिर कर कृष्ण के संदेश के रूप में ज्ञान-चर्चा छेड़ते हैं। इसी बीच में एक भौंरा उड़ता उड़ता गोपियों के पास आकर गुनगुनाने लगता है––
यहि अंतर मधुकर इक आयो।
निज सुभाव अनुसार निकट होइ सुन्दर शब्द सुनायो॥
पूछन लागी ताहि गोपिका "कुबजा तोहिं पठायो।
कैधौं सूर स्यामसुन्दर को हमैं सँदेसो लायो?"॥
फिर तो गोपियाँ मानो उसी भ्रमर को संबोधन करके जो जो जी में आता है, खरी खोटी, उलटी सीधी, सब सुना चलती हैं। इसी से इस प्रसंग का नाम 'भ्रमरगीत' पड़ा है। कभी गोपियाँ उद्धव का नाम लेकर कहती हैं, कभी उसी भ्रमर को संबोधन करके कहती हैं––विशेषतः जब परुष और कठोर वचन मुँह से निकालना होता है। श्रृंगार रस का ऐसा सुन्दर 'उपालंभ काव्य' दूसरा नहीं है।
उद्धव को देखते ही गोपियों को संबंघ-भावना के कारण कृष्ण के मिलने का सा सुख हुआ––
ऊधो! पा लागौं भले आए।
तुम देखे जनु माधव देखे, तुम त्रय ताप नसाए॥
प्रिय के संबंध से बहुत सी वस्तुएँ प्रिय लगने लगती है।
यही बात यहाँ अपने स्वाभाविक रूप में दिखाई गई है। इसी को बढ़ाकर विहारी कुछ और दूर तक ले गए हैं। उनकी नायिका को नायक के भेजे हुए पंखे की हवा लगने से उलटा और पसीना
होता है। यह एक तमाशे की बात जरूर हो गई है–– हित करि तुम पठयो, लगे वा बिजना की बाय।
टरी तपनि तन की तऊ चली पसीने न्हाय॥
सूर ने भी प्रिय की वस्तु पाकर 'सात्त्विक' होना दिखाया है, पर तमाशे के रूप में नहीं, अत्यंत स्वाभाविक और मर्मस्पर्शी रूप में तथा अत्यंत अर्थ-प्राचुर्य के साथ। उद्धव के हाथ से श्याम की पत्री राधा अपने हाथ में लेती हैं और––
निरखत अंक स्यामसुन्दर के बार बार लावति छाती।
लोचन-जल कागद-मसि मिलिकै ह्वै गइ स्याम स्याम की पाती॥
आँसुओं से भींगकर स्याही के फैलने से सारी चिट्ठी काली हो गई, इससे कृष्ण-संबंध की भावना के कारण प्रबल प्रेमोद्रेक सूचित हुआ। आगे देखिए तो इस प्रेमोद्रेक की तीव्रता व्यंजित करने के लिए 'अंक' और 'स्याम' शब्दों में श्लेष कैसा काम कर रहा है। पत्री पाकर वैसा ही प्रेम उमड़ा जैसा कृष्ण को पाकर उमड़ता। कृष्ण की पत्री ही उनके लिए कृष्ण हो गई। जैसे वे कृष्ण के अंक (गोद अर्थात् शरीर) को पाकर आलिंगन करतीं वैसे ही कृष्ण के लिखे अंक (अक्षर) देखकर वे पत्री को बार बार हृदय से लगाती हैं। यहाँ भावाधिपति सूर ने भाव का और आधिक्य व्यंजित करने के लिए शब्दसाम्य की सहायता ऐसे कौशल से ली है कि एक बार शब्दों का साधारण अर्थ (अक्षर और काला) लेने से जिस भाव की अधिकता सूचित हुई फिर आगे उनका श्लिष्ट अर्थ (गोद और श्रीकृष्ण) लेने से उसी भाव की और अधिकता व्यंजित हुई। इससे जो लाघव हुआ है––मज़मून में जो चुस्ती आई है––वह तो है ही, साथ ही प्रेम के अन्तर्भूत एक मानसिक दशा के चित्र का रंग कैसा चटकोला हो गया है! शब्दसाम्य को उपयोग में लानेवाला सच्चा कवि-कौशल यही है। यदि केशवदास के ढंग पर सूर भी यहाँ उक्त शब्दसाम्य को लेकर 'कृष्ण' और 'पत्री' की तुलना पर ज़ोर देने लगते—कहते कि पत्री मानो कृष्ण ही है, क्योंकि वह भी श्याम है और उसके भी अङ्क (वक्षस्थल) है—तो काव्य की रमणीयता कुछ भी न आती। राधा को वह पत्री जो कृष्ण के समान लग रही है, वह सादृश्य या साधर्म्य के कारण नहीं, बल्कि संबंध-भावना के कारण, कृष्ण के हाथ की लिखी होने के कारण। केवल शब्दात्मक साम्य को लेकर यदि हम किसी पहाड़ को कहें कि यह बैल है क्योंकि इसे भी 'श्रृंग' हैं, तो यह काव्यकला तो न होगी, और कोई कला हो तो हो। क्या ज़रूरत है कि शब्दों की जितनी कलाबाजियाँ हों, सब काव्य ही कहलावें?
गोपियाँ कहती हैं कि हम ने इतने सँदेसे भेजे हैं कि शायद उनसे मथुरा के कूएँ भर गए होंगे; पर जो सँदेसा लेकर जाता है वह लौटता नहीं—
सँदेसनि मधुबन कूप भरे।
जो कोउ पथिक गए हैं ह्याँ तें फिरि नहिं गवन करे॥
कै वै स्याम सिखाय समोधे, के वै बीच मरे?
अपने नहिं पठवत नन्द-नन्दन हमरेउ फेरि धरे॥
मसि खूँटी, कागर जल भीजे, सर दव लागि जरे।
प्रिय से संबंध रखनेवाले व्यक्तियों या वस्तुओं का प्रिय लगना ऊपर दिखा आए हैं। इस पद में प्रेमाभिलाप की पूर्ति में जो वस्तुएँ बाधक होती हैं, सहायक नहीं होती या उपयोग में नहीं आतीं, उनके ऊपर बड़ी सुन्दर झल्लाहट स्त्रियों की स्वाभाविक बोली में प्रकट की गई है। पथिक सँदेसा लेकर गए, पर न लौटे; न जाने कहाँ मर गए! कोई चिट्ठी भी नहीं आती है। मथुरा भर में स्याही ही चुक गई, या कागज भींगकर गल गए अथवा सरकंडों में (जिनकी क़लम बनती है) आग लग गई, वे जल गए ?
जो कोई पथिक उधर से होकर निकलता है उसे रोककर गोपियाँ अपना सँदेसा कहने लगती हैं। अब तो यह दशा है कि इसी डर से पथिकों ने उधर से होकर जाना ही छोड़ दिया है––
सूरदास संदेसन के डर पथिक न वा मग जात।
ज्यों ही उद्धव अपना ज्ञान-संदेश सुनाना आरंभ करते हैं त्यों ही गोपियाँ चकपका कर पूछने लगती हैं––
हम सों कहत कौन की बातें?
सुनि, ऊधो! हम समझति नाहिं, फिरि बूझति हैं तातें॥
को नृप भयो, कंस किन मारयो, को बसुद्यौ-सुत आहि?
यहाँ हमारे परम मनोहर जीजत हैं मुख चाहि॥
गोपियों को यह 'चकपकाहट' उद्धव की बात की असंगति पर होती है। जिसने ऐसा संदेसा भेजा है वह न जाने कौन है। परम प्रेमी कृष्ण तो हो नहीं सकते। इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे सचमुच उद्धव को कृष्ण का दूत नहीं समझ रही हैं। वे केवल विश्वास करने की अपनी अतत्परता और आश्चर्य मात्र व्यंजित कर रही हैं। कृष्ण के संबंध से उद्धव भी गोपियों को प्रिय और अनोखे लग रहे हैं। इसी से बीच बीच में वे उन्हें बनाने और उनसे परिहास करने लगती हैं। वे कृष्ण पर भी फवती छोड़ती हैं और उद्धव को भी बनाती हैं––
अधो! जान्यो ज्ञान तिहारो।
जानै कहा राजगति-लीला अंत अहीर बेचारो॥
आवत नाहीं लाज के मारे, मानहु कान्ह खिसान्यो।
हम सबै अयानी, एक सयानी कुबजा सों मन मान्यो॥
ऊधो जादु बाहँ धरि ल्याओ सुन्दर स्याम पियारो।
ब्याहौ लाख, धरौ दस कुबरी, अंँतहि कान्ह हमारो॥
परिहास के अतिरिक्त अन्तिम चरण में प्रेम की उच्च दशा के 'औदार्य्य' की कैसी साफ़ झलक है।
उद्धव कहते जाते हैं, पर गोपियाँ के मन में यह बात समाती ही नहीं कि यह कृष्ण का संदेसा है। कभी वे कहती हैं–– "ऊधो! जाय बहुरि सुनि आबहु कहा कह्यो है नंदकुमार"; कभी कहती हैं––"स्याम तुम्हैं ह्याँ नाहिं पठाए, तुम हौ बीच भुलाने"। जब उद्धव बकते ही जाते हैं तब वे और भी बनाती हैं; कहती हैं कि जरा अपने होश की दवा करो––
ऊधो। तुम अपनो जतन करौ।
हित की कहत कुहित की लागै, किन बेकाज ररौ?
जाय करौ उपचार आपनो, हम जो कहत हैं जी की।
कछू कहत कछुवै कहि डारत धुन देखियत नहिं नीकी॥
बीच-बीच में वे खिझला भी उठती हैं और कहती हैं कि तुम्हारे मुँह कौन लगे, तुम तो सनक गए हो। वहाँ सिर खाने लगे थे तभी तुम्हें यहाँ भेजकर श्रीकृष्ण ने अपना पल्ला छुड़ाया––
साधु होय तेहि उत्तर दीजै तुम सों मानी हारि।
याही तें तुम्हैं नन्दनन्दन जू यहाँ पठाए टारि॥
फिर चित्त में कुछ विनोद-वृत्ति के आ जाने पर वे कहती है–– "भाई! खूब आए! इस दुःख-दशा में भी अपनी बेढब बातों से एक बार लोगों को हँसा दिया––
ऊधो! भली करी तुम आए।
ये बातें कहि कहि या दुख में ब्रज के लोग हँसाए"॥
प्रेम के जिस हास-क्रीड़ामय स्वरूप को सूर ने लिया है, विप्रलंभ दशा के अश्रु और दीर्घ निश्वास के बीच-बीच में भी बराबर उसकी क्षणिक और क्षीण रेखा झलक जाती है। श्याम गोपियों के पास नहीं हैं; उनके सखा ही संयोग से उनके बीच आ फँसे हैं जो सदा उनके पास रहते हैं। बस यही संबंध-भावना कृष्ण के संदेश की विलक्षणता की भावना के साथ मिलते ही रह रहकर थोड़ी देर के लिए वृत्ति को विनोदमयी कर देती है––
ऊधो हम आज भई बड़भागी।
बिसरे सब दुख देखत तुमकों, स्यामसुन्दर हम लागीं।
ज्यों दर्पन मधि दृग निरखत जहँ हाथ तहाँ नहिं जाई।
त्यों ही सूर हम मिलो साँवरे बिरह-बिथा बिसराई॥
मध्यस्थ द्वारा संयोग-सूत्र का कैसा सुंदर स्पष्टीकरण सूर ने किया है! जो संबंध-भावना बीच बीच में गोपियों की वृत्ति विनोदमयी कर देती है वह कभी कभी स्पष्ट शब्दों में निर्दिष्ट होकर सामने आ जाती है और पाठक उसे पहचान सकते हैं; जैसे––
मधुकर! जानत है सब कोऊ।
जैसे तुम औ मीत तुम्हारे, गुननि निपुन हौ दोऊ॥
पाके चोर, हृदय के कपटी, तुम कारे औ बोऊ।
उद्धव को जो 'पक्के चोर और कपटी' प्रेम के ये संबोधन "मिल रहे हैं वह कृष्ण के संसर्ग के प्रसाद से।
ऐसेई जन दूत कहावत।
ऐसी परकृति परति छाहँ की जुबतिन जोग बुझावत॥
गोपियाँ कहती हैं कि बैठे बैठे योग और ज्ञान का संदेसा भेजनेवाले कैसे हैं यह हम अच्छी तरह जानती हैं––
हम तौ निपट अहीरि बाबरी जोग दीजिए ज्ञानिन।
कहा कथत मामी के आगे जानत नानी नानन॥
विलग जनि मानहु, ऊधो प्यारे!
वह मथुरा काजर की कोठरि जे आवहिं ते कारे॥
तुम कारे, सुफलक सुत कारे, कारे धुप भँवारे।
गोपियाँ कहती हैं––'तुम्हारा दोष नहीं। वह स्थान ही ऐसा हो रहा है जहाँ से तुम आ रहे हो। एक कृष्ण से वहाँ ऐसी कृष्णता छा रही है कि तुम काले हो; अक्रूर जो आए थे वे भी ऐसे ही काले थे; और यह घूमता हुआ भौंरा भी (जो बहुत दिन वहाँ न रहा होगा, घूमता फिरता कभी जा पड़ा होगा) वैसा ही काला है।
उद्धव अपने ज्ञानोपदेश की भूमिका ही बाँध रहे थे कि गोपियों के तन में कुछ कुछ 'शंका' होने लगी––
मधुकर! देखि स्याम तन तेरो।
हरिमुख कौ सुनि मीठी बातैं डरपत हैं मन मेरो॥
अब लौं कौन हेतु गावत है हम्ह आगे यह गीत।
सूर इते सों गारि कहा है जौ पै त्रिगुन-आतीत॥
'त्रिगुणातीत' होंगे, हमें इससे क्या? तू क्यों बार बार यह कहता है? कुछ भेद जान नहीं पड़ता।
उद्धव को कभी एक भोलाभाला आदमी ठहराकर गोपियाँ अनुमान करती हैं कि कहीं श्रीकृष्ण ने यह संदेसा इनके हाथ भेजकर हँसी न की हो और ये इसे ठीक मानकर वक वक कर रहे हों। यही पता लगाने के लिए वे उद्धव से पूछती है––"अच्छा, यह तो बताओ कि जब वे तुम्हें संदेश कहकर भेजने लगे थे तब कुछ मुस्कराए भी थे?" उधो! जाहु तुम्हैं हम जाने।
साँच कहौ तुमको अपनी सौं, बूझत बात निदाने॥
सूर स्याम जब तुम्हैं पठाए तब नेकहु मुसकाने?
यह अनुमान या 'वितर्क' रागात्मिका वृत्ति से सर्वथा निलिप्त शुद्ध बुद्धि की क्रिया नहीं है। संचारी 'मति' के समान यह भी भावप्रेरित है; हृदय की रागद्वेष वृत्ति से संबंध रखता है। किसी बात को मानने न मानने की भी रुचि हुआ करती है। कृष्ण के प्रेम को गोपियाँ छोड़ना नहीं चाहती; अतः यह बात मानने को उनका जी नहीं करता कि कृष्ण ने ऐसा अप्रिय संदेश भेजा होगा। जिस बात को कोई मानना नहीं चाहता उसको न मानने के वह हज़ार रास्ते ढूँढ़ता है। बस, गोपियों के अन्तःकरण की यही स्थिति ऊपर के पद में दिखाई गई है।
उद्धव के ज्ञान-योग की गोपियाँ कितनी क़द्र करती हैं, अब थोड़ा यह भी देखिए। जो ऐसी चीज़ ढोए फिरता है जिसे बहुत से लोग बिल्कुल निकम्मी समझ रहे हैं उसे वे बेवकूफ़ समझकर ही नहीं रह जाते, बल्कि बनाने में भी कभी कभी पूरी कल्पना खर्च करते हैं। बेवकूफ़ी पर हँसने का रिवाज बहुत पुराना है। लोग बना बनाया बेवकूफ़ पाकर हँसते भी हैं और हँसने के लिए बेवकूफ़ बनाते भी हैं। हास की प्रेरणा ही कल्पना को मूर्ख का स्वरूप जोड़ने और वाणी को कुछ शब्द-रचना करने में तत्पर करती है। गोपियाँ कुछ कुछ इसी प्रेरणावश उद्धव से नीचे लिखी बात उस समय कहती हैं जब वे घबराकर उठने को तैयार होते हैं––
उद्धव। जोग विसरि जानि जहु।
बाँघहु गाँठ, कहूँ जनि छुटै, फिरि पाछे पछिताहु॥
ऐसी वस्तु अनूपम, मधुकर! मरम न जानै और।
ब्रजवासिन के नाहिं काम की, तुम्हरे ही है ठौर॥
"देखना, अपना योग कहीं भूल न जाना। गाँठ में बाँध रखो; कहीं छूट जाय तो फिर पीछे पछताओ। ऐसी वस्तु जिसका मर्म सिवा तुम्हारे या तुम्हारे ऐसे दो चार फालतू दिमाग़वालों के और कोई जान ही नहीं सकता, ब्रजवासियों के किसी काम की नहीं। ऐसी फालतू चीज़ के लिए तुम्हारे ही यहाँ जगह होगी, यहाँ नहीं है", जिसके सखा के दर्शन से विरह से मुरझाई हुई गोपियों में इतनी चपलता आ गई कि वे लड़कों की तरह चिढ़ाने को तैयार हो गईं उसके दर्शन से उनमें कितनी सजीवता आती, यह समझने की बात है। ज्ञानयोग पर भी कैसी मीठी चुटकी है। जिसे केवल एक आध आदमी समझते हैं वह वस्तु सबके काम की नहीं हो सकती। उद्धव जब उसे गले लगाते हैं तब गोपियों का भाव बद- लता है और वे उन्हें सीधे सादे बेवकूफ़ नहीं लगते, बल्कि एक ठग या धूर्त के रूप में दिखाई पड़ते हैं। यह भावांतर उनकी कल्पना को कैसा चित्र खड़ा करने में लगाता है, देखिए––
(क) आयो घोष बड़ो व्यापारी।
लादि खेप यह ज्ञान-जोग की व्रज में आय उतारी॥
फाटक दै कर हाटक माँगत भोरी निपट सु धारी।
(ख) ऊधो। ब्रज में पैंठ करी।
यह निर्गुन निर्मूल गाठरी अब किन करहु खरी॥
नफ़ा जानिकै ह्याँ लै आए सबै वस्तु अकरी।
उदाहरण (ख) में 'निर्मूल' शब्द कितना अर्थ-गर्भित है। साधारण दृष्टि से तो यही अर्थ दिखाई पड़ता है कि 'बिना जड़ पत्ते की वस्तुवाली' अर्थात् जिसमें कुछ भी नहीं है, शून्य है! पर साथ ही इस अर्थ का भी पूरा संकेत मिलता है––"जिसमें कुछ मूलधन या पास की पूँजी नहीं लगी हैं" अर्थात् वह (ज्ञान-गठरी) केवल किसी के मुँह से सुनकर इकट्ठी कर ली गई है, उसमें हृदय नहीं लगा है––लग ही नहीं सकता––जो मनुष्य की असल पूँजी है। सूर ने यहाँ जिस बात को इस मार्मिक ढंग से कहा है उसी को गोस्वामी तुलसीदासजी ने दार्शनिक निरूपण के ढंग पर 'स्वानुभूति' और 'वाक्य-ज्ञान' का भेद बताकर कहा है––
वाक्य-ज्ञान अत्यँत निपुन भव पार न पावै कोई।
जिमि गृह मध्य दीप की वातन तम निवृत्त नहिं होई॥
पूर्ण तत्त्वाभास केवल कोरी बुद्धि की क्रिया से नहीं हो सकता, यह बात शंकराचार्य्य ऐसे प्रचंड बुद्धि के दार्शनिक को भी माननी पड़ी थी। पारमार्थिक सत्ता के बोध की संभावना उन्होंने बहुत कुछ स्वानुभूति द्वारा कही है, केवल शब्दबोध या तर्क द्वारा नहीं। वर्त्तमान समय का सबसे आगे बढ़ा हुआ दार्शनिक बर्गसन (Bergson) भी कोरी बुद्धि-क्रिया को एकांगी, भ्रांति-जनक और असमर्थ बताकर स्वानुभूति (Intution) की ओर संकेत कर रहा है। एडवर्ड कार्पेटर ने भी अपनी प्रसिद्ध अँगरेजी पुस्तक Civilization, its Causes and Cure में वर्त्तमान समय की उस वैज्ञानिक प्रवृत्ति का विरोध किया है जिसमें बुद्धि-क्रिया ही सब कुछ मानी गई है मनुष्य के हृदय-पक्ष तथा स्वानुभूति-पक्ष का एक दम तिरस्कार कर दिया है। उसने 'शब्दबोध की प्रणाली' को 'अज्ञान प्रणाली' कहा है। वर्त्तमान काल के प्रसिद्ध उर्दू शायर अकबर ने भी 'बुद्धि-रोग' से छुटकारा, पाने पर खुशी ज़ाहिर की है––"मैं मरीज़े होश था मस्ती ने अच्छा कर दिया"। यही पक्ष तुलसी, सूर आदि भक्तों का भी रहा है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने स्पष्ट कह दिया है कि अज्ञान ही के द्वारा––शब्दबोध के ही सहारे––तो ज्ञान की बातें कही जाती हैं। वे ललकारकर कहते हैं––"ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, सो गुरु, तुलसीदास"।
जब उद्धव की बकवाद बंद नही होती, वे ऐसी बातें बकते ही जाते हैं जो गोपियों को बे सिर पैर की लगती हैं, जिनका कुछ स्पष्ट अर्थ नहीं जान पड़ता, तब वे ऊबकर झुँझला उठती हैं। कहती हैं––"तुझसे कौन सिरपच्ची करे–'ऐसी को ठाली बैठी है तोसों मूड़ खपावै' कह दिया कि तेरा सिर पटकना व्यर्थ है'।
"कत श्रम करत; सुनत को ह्याँ है? होत ज्यों बन को रोयो।
सूर इते पै समझत नाहीं, निपट दई को खोयो।"
"निपट दई को खोयो"––स्त्रियों की झुँझलाहट के कैसे स्वाभाविक वचन हैं! अंँत में वे उद्धव पर इस प्रकार झल्ला उठती हैं––
(क) ऊधो! राखति हौं पति तेरी।
ह्याँतें जाहु, दुरहु आगे तैं, देखति आँखि वरति हैं मेरी॥
ते तौ तैसेइ दोउ बने हैं, वै अहीर, वह कंस की चेरी।
(ख) रहु रे मधुकर मधु मतवारे!
कहा करौं निर्गुन लैकै हौं! जीवहु कान्ह हमारे॥
क्या यह कहने की आवश्यकता है कि इस सारी 'झुँझलाहट' और 'झल्लाहट' (उग्रता) की तह में प्रेम की एक अखंड धारा बह रही है?
यह झल्लाहट बराबर नहीं रहती। थोड़ी देर में शांत भाव आ जाता है और 'मति' का उदय दिखाई पड़ता है––
(क) अधो! जो तुम इमहिं सुनायो।
सो हम निपट कठिनई करिकै या मन को समझायो॥
जुगुति जतन करि हमहुँ ताहि गहि सुपथ-पंथ लौं लायो।
भटकि फिर्यो बोहित के खग ज्यों, पुनि फिरि हरि पै आयो॥
ख) मधुकर! हम जो कहौ करैं।
पठयो है गोपाल कृश कै, आयसु तें न टरैं॥
रसना बारि फेरि नव खँड कै दैं निरगुन के साथ।
इतनी तनक बिलग जनि मानहु, अखियाँ नाही हाथ॥
ध्यान रखना चाहिए कि यह 'मति' संचारी भाव है, बुद्धि की स्वतंत्र निर्लिप्त क्रिया नहीं है। यह कृष्ण के प्रेम का आधार लेए हुए हैं। उद्धव का उपदेश गोपियों के मन में बैठा हो, यह बात नहीं है। वे बड़ी मुश्किल से उसे मानने का जो प्रयत्न कर रही हैं, वह केवल इस खयाल से कि कृष्ण ने कहलाया है और उनके ख़ास दोस्त कह रहे हैं। यह ख़याल आते ही फिर तो वे अपनी विवशता का अनुभव मात्र सामने रखती हैं। वे कहती हैं कि ज़बान तो कहो हम अभी 'निर्गुण' के हवाले कर दें; तुम्हारी तरह मुँह से 'नर्गुण निर्गुण' बका करें, या ज़बान ही कटा डालें- सब दिन के लिए मौन हो जायँ। पर आँखों से हम लाचार हैं; वे दर्शन की लालसा नहीं छोड़ सकतीं।
कभी कभी उनकी वृत्ति अत्यंत दीन और नम्र हो जाती है और उनके मुँह से ऐसे वचन निकलते हैं––
(क) ऊधो! हम हैं तुम्हरी दासी।
काहे को कटु बचन कहत हौ, करत आपनी हाँसी॥
(ख) अपने मन सुरति करत रहिबी।
अधो! इतनी बात स्याम सों समय पाय कहिली।
घोष बसत की चूक हमारी कछू न जिय गहिबी॥
कहाँ वह 'उग्रता' और कहाँ यह अदव से भरी 'दीनता'! ऐसी ही दशा के बीच राधा अपनी सखी से अपनी उस विह्वलता या 'मोह' की बात कहती हैं जिसके कारण उद्धव के आगे कुछ कहते नहीं बनता––
सँदेसो कैसे कै अब कहौं?
इन नैनन्ह या तन को पहरो कब लौं देति रहौं?
जो कछु विचार होय उर अन्तर रचि पचि सोचि गहौं।
मुख आनत, ऊधो तन चितवत न सो विचार, न हौं॥
इस प्रकार वे अपनी दुःख-दशा कहते कहते थक जाती हैं। फिर वे सोचती हैं कि हमारी दशा पर कृष्ण कदाचित् उतना ध्यान न दें; इससे वे नन्द और यशोदा की व्याकुलता का वर्णन करती हैं; गायों का दुःख सुनाती हैं कि कदाचित् उन्हीं का खयाल करके वे एक बार आ जायँ––
ऊधो! इतनी कहियो जाय।
अति कृसगात भई हैं तुम, विनु बहुत दुखारी गाय॥
जल समूह बरसत अँखियन तें, हूँकति लीन्हें नावँ।
जहाँ जहाँ गोदोहन करते ढूँढति सोइ सोइ ठावँ॥
कृष्ण किसी प्रकार आवें, बस यहि अभिलाष सबके ऊपर है। वे किसी खयाल से आवें; आवें तो सही। बदले में कृष्ण भी वैसा ही प्रेम रखें, इतनी बड़ी बात की आशा गोपियों से अब नहीं करते बनती। अब तो वे वहुत थोड़े में संतुष्ट होने को तैयार हैं। केवल उनका दर्शन पा जायँ, बस। यह तोष-वृत्ति नैराश्य- जन्य है। नीचे के पद में जो 'क्षमा' या 'उदारता' है वह भी अभाव के दुःख की ही ओर से आती हुई जान पड़ती है––
ऊधो! कहियो यह संदेस।
लोग कहत कुबजा-रस माते, तातें, तुम सकुचौ जनि लेस॥
है उसके दोषों का ध्यान कैसा? वह,आवे, चाहे,दो चार और दोष भी साथ लगाता आवे। यह चीज़ की वह क़दर है जो उसके न रहने पर मालूम होती है। वियोग के अंतर्गत यह हृदय की बड़ी ही उदार दशा है। इसमें दृष्टि दोषों की ओर जाती ही नहीं। यह दशा दूसरे के दोषों को ही आँख के सामने से नहीं हटाती, बल्कि स्वयं अपने में भी दोष सुझाने लगती है। प्रेम द्वारा आत्म-शुद्धि का यह विधान कैसा अचूक़ है! राधा अपनी एक-एक त्रुटि का स्मरण या कल्पना करती हैं और व्याकुल होती हैं––
मेरे मन इतनी सूल रही।
वै बतियाँ छतियाँ लिखि राखीं जे नँदलाल कहीं॥
एक दिवस मेरे गृह आए, मैं ही मथति दही।
देखि तिन्हैं हौं मान कियो, सो हरि गुसा गही॥
कभी कभी उन्हें अपने प्रेम की ही कमी पर पछतावा होता है––
कहाँ लगि मानिए अपनी चूक।
बिनु गोपाल, ऊधो! मेरी छाती ह्वै न गई द्वै टूक॥
वियोग गोपियों के हृदय को कभी कभी कैसा कोमल, उदार और सहिष्णु कर देता है, इसकी कैसी अनुताप-मिश्रित सूचना इस पद में है––
फिर ब्रज बसहु, गोकुलनाथ!
बहुरि तुमहिं न जगाय पठवौं गोधनन के साथ॥
बरजौं न माखन खात कबहूँ, देहुँ देन लुटाय।
कबहूँ न दैहौं उराहनो जसुमति के आगे जाय॥
दौरि दाम न देहुँगी, लकुटि न जसुमति पानि।
चोरी न देहुँ उघारि, किए अवगुन न कहिहौं आनि॥
करिहौं न तुमसों मान हठ, हठिहौं न माँगत दान।
कहिहौं न मृदु मुरली बजावन, करन तुमसों गान॥
कहिहौं न चरनन देन जावक, गुहन बेनी फूल।
कहिहौं न करन सिंगार वट-तर बसन जमुना कूल॥
भुज भूषनन जुत कँध धरि कै रास नाहिं कराउँ।
हौं सँकेत निकुंज बसि कै दूति मुख न बुलाउँ॥
एक बार जो देहु दरसन प्रीति-पंथ बसाय।
करौं चौंर चढ़ाय आसन नैन अँग अँग लाय॥
देहु दरसन, नँदनँदन! मिलन हो की आस।
सूर प्रभु की कुँवर-छवि को मरत लोचन प्यास॥
इन मर्म-भरी भोली-भाली प्रतिज्ञाओं में जो अनुताप, अधीनता और त्याग के उद्गार हैं उनका यह प्रेम-गर्वसूचक वाक्य "कहिहौं न चरनन देन जावक" स्मर्यमाण विषय होने के कारण विरोधी नहीं होता। उक्त पद में ध्यान देने को सबसे बड़ी बात यह है कि प्रेम अब किस प्रकार चपल क्रीड़ा-वृत्ति छोड़ शांत आराधना के रूप में परिणत होने को तैयार हो गया है। यह प्रेम का भक्ति में पर्यसवान है। सुख-क्रीड़ा-त्याग रूप विरति पक्ष दिखाकर मानो सूर ने भक्ति-मार्ग के शांत रस का स्वरूप दिखाया है।
आत्मोत्सर्ग को पराकाष्टा वहाँ समझनी चाहिए जहाँ प्रेमी निराश होकर प्रिय के दर्शन का आग्रह भी छोड़ देता है। इस अवस्था में वह अपने लिए प्रिय से कुछ चाहना छोड़ देता है और उसका प्रेम इस अविचल कामना के रूप में आ जाता है कि प्रिय चाहे जहाँ रहे, सुख से रहे; उसका बाल भी बाँका न हो––
जहँ जहँ रहौ राज करौ तहँ तहँ, लेहु कोटि सिर भार।
यह असीस हम देतिं सूर सुनु 'न्हात खसै जनि बार॥
ऊधो! इतनी जाय कहौ।
सब वल्लभी कहतिं हरि सों 'ये दिन मधुपुरी रहौ॥
आज कालि तुमहू देखत हौ तपत तरनि सम चंद।
सुँदर स्याम परम कोमल तनु, क्यों सहिहैं नँदनँद॥
मधुर मोर पिक परुष प्रबल अति वन उपवन चढ़ि बोलत।
सिंह बृकन सम गाय वच्छ व्रज बीथिन बीथिन डोलत॥
तुम तौ परम साधु कोमलचित जानत हौ सब रीति।
सूर स्याम को क्यों बोलैं ब्रज बिन टारे यह ईति'॥
विरही घोर दुःख सहता हुआ भी यह कभी मन में नहीं लाता कि यह प्रेम दूर हो जाता तो अच्छा था। कोई मंत्रशास्त्री आकर कहे––'अच्छा, हम वह प्रेम हो मंत्रबल से उड़ाए देते हैं जो सारे बखेड़े की जड़ है' तो कोई वियोगी शायद ही तैयार होगा––चाहे वह दुनिया भर से कहता फिरे कि 'प्रीति करि काहू सुख न लह्यो'। और दुःखों से वियोग-दुःख में यही विशेषता है। वियोगी रस्सी जुड़ाकर प्रेम के बाड़े के बाहर नहीं भागना चाहता। गोपियाँ प्रेम-क्षेत्र के बाहर की किसी वस्तु के प्रति कैसी उपेक्षा या लापरवाई खकट करती हैं-
मधुकर! कौन मनायो मानै?
सिखवहु तिनहिं समाधि की बातैं जे हैं लोग सयाने।
हम अपने ब्रज ऐसेइ बसिहैं बिरह-बाय-बौराने।
वे उद्धव को उलटा समझाती हैं कि विरह से भी प्रेम की पुष्टि होती है, वह पक्का होता है––
ऊधो! बिरहौ प्रेम करै।
ज्यों बिनु पुट पट गहै न रंगहि, पुट गहे रसहि परै।
जौ आवौं घट दहत अनल तनु तौ पुनि अमिय भरै॥
इसे प्रेम-सिद्धांत का उपदेश मात्र समझ कर न छोड़िए, भाव के स्वरूप पर भी ध्यान दीजिए। यह प्रतिकूल स्थिति की अनि वार्य्यता से उत्पन्न 'आत्म-समाधान' की स्वाभाविक वृत्ति है। एक अफ़ीमची घोड़ी पर सवार कहीं जा रहे थे। जिधर उन्हें जाना था उधर का रास्ता छोड़ घोड़ी दूसरी ओर चलने लगी। जब बहुत मोड़ने पर भी वह न मुड़ी तब उन्होंने बाग ढीली करके कहा––"अच्छा, चल! इधर भी मेरा काम है"। इसी प्रकार की अंतर्वृत्ति इस वाक्य से भी झलकती है––
हम तौ दुहूँ भाँति फल पायो।
जौ व्रजनाथ मिलैं तो नीको, नातरु जग जस गायो।
यह तो 'आत्म-समाधान' हुआ। दूसरे की कोई बात न मानने पर मन में कुछ खटक सी रहती है कि इसे दुःख पहुँचा होगा अपनी इस खटक को मिटाने के लिए दूसरे के समाधान की प्रवृत्ति होती है; जैसे––
उधो? मनमाने की बात।
जरत पतंग दीप में जैसे औ फिरि फिरि लपटात।
रहत चकोर पुहुमि पर,मधुकर! ससि अकास भरमात॥
अब हमरे जिय बैट्यो यह, पद 'होनी होउ सो होऊ'।
मिटि गयो मान परेखो, ऊधो! हिरदय हतो सो होऊ॥
'भ्रमरगीत' में कुब्जा का नाम भी बार बार आया है। इसके कारण 'असूया' की बड़ी वक्रतापूर्ण व्यंजनाएँ मिलती हैं। जब उद्धव कृष्ण का संदेश कह कर अपनी ज्ञान-चर्चा छेड़ते हैं तभी गोपियाँ कहती हैं कि यह कृष्ण का संदेश नहीं जान पड़ता; यह तो उसी कुबड़ी पीठवाली की कारस्तानी मालूम पड़ती है––
मधुकर! कान्ह कही नहिं होहीं।
यह तौ नई सखी सिखई है निज अनुराग वरोही॥
सचि राखी कूबरी पीठ पै ये बातैं चकचोही।
फिर वे 'असूया' का भाव इन साफ शब्दों में प्रकट करती हैं कि इस समय कृष्ण की चहेती कुब्जा का ही जीवन सफल है––
जीवन मुँहचाही को नीको।
दरस परस दिन राति करति है कान्ह पियारै पी को॥
वे उद्धव से कहती हैं कि तुम अपनी ज्ञान-कथा वहीं रखो जहाँ इस समय खूब आनंद-मङ्गल हो रहा है; यहाँ जगह नहीं है––
या कहँ यहाँ ठौर नाहीं, लै राखो जहाँ सुचैन।
हम सब सखि गोपाल उपासिनि हमसों बातैं छाँड़ि।
सूर, मधुप! लै राखु मधुपुरी कुबजा के घर गाड़ि॥
'वहीं कुब्जा के घर गाड़ रखो' स्त्रियों के मुख के कैसे जले कटे
स्वाभाविक शब्द हैं! संदेश का उत्तर थोड़े ही में वे यह देतीं हैं कि यदि यह ज्ञानयोग ऐसी उत्तम वस्तु है तो इसे उस कुबड़ी को दो; हमारे सामने वह (कृष्ण का) रूप ही कर दो; हम अपना उसी को देखा करें–– पा लागौं कहियो मोहन सों जोग कूबरी दीजै।
सूरदास प्रभु-रूप निहारैं, हमरे संमुख कीजै॥
वे कृष्ण जिन्होंने इतनी गोपियों का मन चुराया, एक साधारण कुबड़ी दासी के प्रेम-जाल में फंँस गए, इस पर देखिए कैसी मीठी चुटकी और कैसा कुतूहलपूर्ण कृत्रिम संतोष प्रकाशित किया गया है––
बरु वै कुवजा भलो कियो।
सुनि सुनि समाचार, ऊधो! मो कछुक सिरात हियो॥
जाको गुन, गति, नाम, रूप हरि हास्यो फिरि न दियो।
तिन अपनो मन हरत न जान्यो, हँसि हँसि लोग जियो॥
क्षुब्ध हृदय को कैसी भाव-प्रेरित वचन-रचना है! इसी प्रकार की वाग्विदग्धता और वक्रता (वाँकपन) उद्धव के 'निराकार' शब्द पर आगे गोपियों की विलक्षण उक्ति में दिखाई पड़ती है। वे राधा को संबोधन करके कहती हैं––
मोहन माँग्यो अपनो रूप।
या ब्रज बसत अँचै तुम बैठी, ता विनु तहाँ निरूप॥
'कृष्ण का रूप तो तुम पी गई हो', वह तुम्हारे हृदय में रह गया है (तुम निरंतर उनके रूप का ध्यान करती रहती हो) इससे वे वहाँ 'निरूप'–– बिना आकार के––हो रहे हैं। उद्धव के द्वारा उन्होंने अपना वही रूप माँग भेजा है कि निराकारता मिटे। तुम जो रात दिन उनके रूप का ध्यान करती रहती हो उसे भी उद्धव छुड़ाने आए हैं, यह बात कितने टेढ़े ढंग से, किस वक्रता के साथ, प्रकट की गई है! वाणी ने यह वक्रता हृदय की प्रेरणा से, उठते हुए भावों की लपेट में, ग्रहण की है। इसकी तह में भाव स्रोत छिपा हुआ है। ऐसे ही बाँकपन के साथ वे कृष्ण के रूप का ध्यान हृदय से न निकलने का कारण बताती हैं––
उर में माखनचोर गड़े।
अब कैसहु निकसत नहिं, ऊधो! तिरछे ह्वै जो अड़े॥
जो लंबी चीज़ किसी बरतन में जाकर तिरछी हो जायगी वह बड़ी मुश्किल से निकलेगी। कृष्ण की मूर्ति का राधा जब ध्यान करने लगती हैं तब उनकी त्रिभंगी मूर्ति ही ध्यान में आती है, इसी से वह मन में अँटक-सी गई है, निकलती नहीं है।
वचन की जो वक्रता भाव-प्रेरित होती है, वही काव्य होती है। "वक्रोक्तिः काव्यजीवितम्" से यही वक्रता अभिप्रेत है, वक्रोक्ति अलंकार नहीं। भावोद्रेक से उक्ति में जो एक प्रकार का बाँकपन आ जाता है, तात्पर्य-कथन के सीधे मार्ग को छोड़कर वचन जो एक भिन्न प्रणाली ग्रहण करते हैं, उसी की रमणीयता काव्य की रसणीयता के भीतर आ सकती है। भाव-प्रसूत वचन-रचना में ही भाव या भावना तीव्र करने की क्षमता पाई जाती है। कोई मनुष्य किसी को बड़ा बहादुर कह रहा है। दूसरे से सुनकर रहा नहीं जाता; वह कहता है––"हाँ! तभी न बिल्ली देखकर गिर पड़े थे"। कहने वाला सीधी तरह से कह सकता था––"वह बहादुर नहीं, भारी डरपोक है; बिल्ली देखकर डर जाता है"। पर इस सीधे वाक्य से उसका संतोष नहीं हो सकता था। भीरु को वीर सुनकर जो उपहास की उमंग उसके हृदय में उठी उसने श्रोताओं को भी उपहासोन्मुख करने के लिए बिल्ली से डरने को बहादुरी के सबूत में पेश करा दिया। काव्य की उक्ति का लक्ष्य किसी वस्तु या विषय का बोध कराना नहीं, बल्कि उस वस्तु या विषय के संबंध में कोई भाव या रागात्मक स्थिति उत्पन्न करना होता है। तार्क़िक जिस प्रकार श्रोता को अपनी विचार-पद्धति पर लाना चाहता है उसी प्रकार कवि अपनी भाव-पद्धति पर।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि 'विदग्धता' वहीं तक काव्योपयोगी हो सकती है जहाँ तक वह भाव-प्रेरित हो––जहाँ तक उसका कारण कोई भाव या कम से कम कोई रागात्मक दशा हो। 'विदग्धा नायिका' की वचन-विदग्धता या क्रिया-विदग्धता में काव्य की रमणीयता इसीलिए होती है कि उसकी तह में रति भाव वर्त्तमान रहता है। किसी पुराने चोर या चाईं की विदग्धता का ब्योरेवार वर्णन काव्य के अंतर्गत नहीं आ सकता; क्योंकि उसमें रसात्मकता नहीं। सूर ने कई स्थलों पर बालक कृष्ण की वचन-विदग्धता दिखाई है; जैसे––
मैं अपने मंदिर के कोने माखन राख्यो जानि।
सोई जाय तुम्हारे ढोटा लीनो है पहिचानि॥
बूझी ग्वालिन घर में आयो, नेकु न संका मानी।
सूर स्याम यह उतर बनायो 'चीटी काढ़त पानी'॥
इस विदग्धता में जो रमणीयता है वह इसी कारण कि इससे बाल-प्रकृति का चित्रण होता है और यह भय प्रेरित है।
'अब सूर ने अपने सिद्धांत पक्ष का जो काव्यात्मक निरूपर किया है थोड़ा उसे भी दिखाकर इस प्रबंध को समाप्त करते हैं उद्धव के ज्ञानयोग का पूरा लेक्चर सुनकर और उसे अपने सीधे-सादे प्रेम मार्ग की अपेक्षा कहीं दुर्गम और दुर्बोध देखकर गोपियाँ कहती हैं––
काहे को रोकत मारग सूधो?
सुनहु मधुप! निर्गुन-कंटक तें राजपंथ क्यों रुँधो?
ताको कहा परेखो कीजै जानत छाँछ न दूधो।
सूर मूर अक्रूर गए लै ब्याज निबेरत ऊधो॥
हम अपने प्रेम या भक्ति के सीधे और चौड़े राजमार्ग पर जा रही हैं। उस मार्ग में तुम ये निर्गुण-रूपी काँटे क्यों बिछाते हो? हमारा रास्ता क्यों रोकते हो? जैसे तुम्हारे लिए रास्ता है वैसे ही हमारे लिए भी है। तुम अपने रास्ते चलो, हम अपने रास्ते। एक दूसरे का रास्ता रोकने क्यों जाय? भक्ति और ज्ञान के संबंध में सूर का यही मत समझिए। वे ज्ञान के विरोधी नहीं, भक्ति-विरोधी ज्ञान के विरोधी हैं। गोपियों से वे उद्धव की बातों के अंतिम उत्तर के रूप में कहलाते हैं––
बार बार ये बचन निवारो।
भक्ति-विरोधी ज्ञान तिहारो॥
मनुष्यत्व की पूर्ण अभिव्यक्ति रागात्मिका वृत्ति और बोध-वृत्ति दोनों के मेल में हैं। अतः इनमें किसी का निषेध उचित नहीं। कोई एक की ओर मुख्यतः प्रवृत्त रहता है, कोई दूसरे की ओर। कुछ ऐसे पूर्ण-प्रज्ञ भी होते हैं जिनमें हृदय-पक्ष और बुद्धि-पक्ष दोनों की पूर्णता रहती है। वल्लभाचार्यजी ऐसे ही थे।
सूरदासजी वल्लभाजार्यजी के शिष्यों में से थे। वल्लभाचार्यजी ज्ञान-मार्ग की ओर तो वेदांत की एक शाखा के प्रवर्त्तक थे और भक्ति-मार्ग की ओर एक अत्यंत प्रेमोपासक संप्रदाय के वल्लभाचार्यजी का अद्वैतवाद 'शुद्धाद्वैत' कहलाता है। रामानुजाचार्यजी ने अद्वैत को दो पक्षों (चित् और अचित्) से युक्त या विशिष्ट दिखाया था। वल्लभ ने यह विशिष्टता हटाकर ब्रह्म को फिर शुद्ध किया। उन्होंने निरूपित किया कि सत् चित् और आनंद स्वरूप ब्रह्म अपने इच्छानुसार इन तीनों स्वरूपों का आविर्भाव (विकास) स्त्रियों के कैसे स्वाभाविक हाव-भाव-भरे ये वचन हैं––"है, हम ठीक ठीक पूछती हैं, हँसी नहीं, कि तुम्हारा निगुर्ण-का रहनेवाला है"। कुछ विनोद, कुछ चपलता, कुछ भोलापन कुछ घनिष्ठता––कितनी बातें इस छोटे से वाक्य से टपकती हैं।
ज्ञान-मार्गी वेदांतियों और दार्शनिकों के सिद्धांतों की लो में अव्यवहार्यता तथा उनके वेडौल और भड़कीले शब्दों के अंतः की अस्पष्टता और दुर्बोधता आदि की ओर गोपियों की यह झुँझलाहट कैसा संकेत कर रही है––
याकी सीख सुनै व्रज क़ो, रे!
जाकी रहनि कहनि अनमिल अति, कहत समुझिं अति थोरे॥
'इसकी बात कौन सुने जो कहता कुछ है और करता कुछ है। तथा जो ऐसी बातें मुँह से निकालता है जिनको खुद बहुत ही कलंक समझता है'। पिछले कथन से सबके नहीं तो अधिकांश ब्रह्म-ज्ञान छाँटनेवालों के स्वरूप का चित्रण हो जाता है। वे बहुत से ऐसे बँधे हुए वाक्यों और शब्दों की झड़ी बाँधा करते हैं जिनके आगे की स्पष्ट धारणा उन्हें कुछ भी नहीं रहती। बिना समझी हुई बातें बककर वे लोगों के बीच बड़े समझदार बना करते हैं।
निर्गुण की नीरसता और सगुण की सरसता किस प्रकार अपने हृदय के सच्चे अनुभव के रूप में गोपियाँ उद्धव के सामने क्या, जगत् के सामने रखती हैं––
ऊनो कर्म कियो मातुल वधि मदिरा:मत्त प्रमाद।
सूरस्याम एते अबगुन में निर्गुन तें अति स्वाद॥
ज्ञान-मार्ग का गोपियों ने तिरस्कार तो किया, पर यह सोच कर कि कहीं उद्धव का जी न दुखा हो, वे उनका समाधान भी करती हैं। वे समझती हैं कि ज्ञान-मार्ग को हम बुरा नहीं कहती है, वह अत्यन्त श्रेष्ठं मार्ग है; पर अपनी रुचि को हम क्या करें ? वह हमारे अनुकूल नहीं पड़ता। रुचि-भिन्नता दो समान वस्तुओं में भी भेद करके एक की ओर आकर्षित करती है और दूसरी से दूर रखती है––
उधो! तुम अति चतुर सुजान।
द्वै लोचन जो विरद किए श्रुति गावत एक समान।
भेद चकोर कियो तिनहू में विधु प्रीतम, रिपु भान॥
उद्धव अपनी सी कहते जा रहे हैं कि बीच में कोयल बोल उठती है। गोपियाँ चट उद्धव का ध्यान उधर ले जाती हैं––
ऊधो! कोकिल कूजत कानन।
तुम हमको उपदेस रत कही भस्म लगावत आनन।
वह सुनो! कोयल कूक रही है। तुम तो हमें राख मलने को कह रहे हो; उधर प्रकृति क्या कह रही है, वह भी सुनो।
'भ्रमरगीत' की भूमिका के रूप में ही यहाँ सूर के संबंध में कुछ विचार संक्षेप में प्रकट किए गए हैं। आशा है विस्तृत आलोचना का अवसर भी कभी मिलेगा।
गुरुधाम, काशी श्रीपंचमी, १९८२ |
रामचन्द्र शुक्ल |