भाव-विलास  (1934) 
द्वारा देव

[ १३५ ] 

अधमा
दोहा

बिनु दोषहि रूठै तजै, बिना मनाये मानु।
जाको रिस रस हेतु बिन, अधमा ताहि बखानु॥

शब्दार्थ—रूठै—क्रोधित हो।

भावार्थ—जो नायिका बिना किसी दोष के अपने पति से रूठे और बिना किसी कारण के क्रोध करे उसे अधमा नायिका कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

आजु रिसोंही न सोहीं चितौति, कितौ न सखी प्रति प्रीति बढ़ावै।
पीठि दै बैठी अमैठी सी ठोठि कै, कोइन कोप की ओप कढ़ावै॥
नाह सो नेह कौ तातौ न नैक, ज ऊपर पाइ प्रतीति बढ़ावै।
तीर से तानि तिरीछी कटाच्छ, कमान सी भामिन भौहै चढ़ावै॥

शब्दार्थ—सोही—सामने। कोइन—आँख के कोए। ओप—आभा। तीर से—बाणों के सदृश। कमानसी—धनुष के समान।

सखी-भेद
दोहा

बहु विनोद भूषन रचै, करै जु चित्त प्रसन्न।
प्रियहि मिलावै उपदिसै, रहै सदा आसन्न॥
पति कों देइ उराहनो, करै बिरह अस्वास।
ऐसी सखी बखानिये, जाके जी बिस्वास॥

[ १३६ ]

शब्दार्थ—करै प्रसन्न—जो मन को प्रसन्न करती रहे। प्रियहि मिलावे—प्रेमी से मुलाकात करवावे। उपदिसै—उपदेश दे। रहै....आसन्न—हर समय निकट रहे। उराहनो—उलाहना जाके.....विस्वास—जिस पर अत्यन्त विश्वास हो।

भावार्थ—जो स्त्री सदा पास में रहे, भूषण आदि सजाने में सहायता दे, पति से मुलाकात करवावे, हर समय चित्त के प्रसन्न करने की चेष्टा करे, समय पड़ने पर उचित उपदेश देकर शान्ति करे, नायिका की ओर से पति को उलाहना दे, और जिस पर अत्यन्त विश्वास हो उसे सखी कहते है।

उदाहरण
सवैया

बालबधू के बिनोद बढ़ाइ, भली बिधि भूषन भेष बनावै।
चाइ सो चित्त प्रसन्न करै, रसरंग मैं संग सयानि सिखावै॥
उराहनो दोउन को मन राखि, कहे कवि देव दुहून मिलावै।
नाह सो नेह ततौ निबहै जब, भाग तें ऐसी सखी करि पावै॥

शब्दार्थ—चाइसों—प्रेम पूर्वक। रसरंग—काम क्रीड़ा।

दूती
दोहा

धाइ, सखी, दासी नटी, ग्वालि सिल्पनी नारि।
मालिनि नाइन बालिका, बिधवा बिधू बिचारि॥
सन्यासिन भिक्षुक बधू, सम्बन्धी की बाम।
एती होती दूतिका, दूतप्पन अभिराम॥

[ १३७ ]

शब्दार्थ—धाइ—धाय। सिल्पनी—दस्तकारिन।

भावार्थ—धाग, सखी, दासी, नटी, ग्वालिनी, दस्तकारिन, मालिन, नाइन, कन्या, विधवा, संन्यासिन, भिखारिन, और अपने किसी संबन्धी की स्त्री, ये स्त्रियाँ दूतपने (प्रेमी से प्रेमिका को मिलाने तथा संदेश आदि कहने) का कार्य अच्छा कर सकती है।

उदाहरण
कवित्त

देव जू की दूती वृषभानजू के भौंन जाइ,
राधिका बुलाइ बहु वातनि खिलाइ के।
हास रस सानी दुरि आङ्गन ते द्वार आनी।
हित को कहानी कहि, हिय सो हिलाइ कें॥
हरें हँसि कह्यो कैसे, सहौधों पर तुम्हे,
है जैहै नदनन्दु तौ बियोग सी बिलाइ कें।
बिरह बढ़ाइ, प्रेम पद्धति पढ़ाइ चित्त,
चोपहि चढ़ाइ दीनी मोहने मिला कें॥

शब्दार्थ—भौन—घर। सानी—पगी हुई। हिलाइ कें—मेल करके।

 

[ १३८ ]
 

चतुर्थ विलास

समाप्त