भाव-विलास/चतुर्थ विलास/नायक विचार

भाव-विलास  (1934) 
द्वारा देव

[ ९७ ] 

नायक नायिका विचार
दोहा

भाव सहित सिंगार कौ, जो कहियतु आधारु।
सो है नायक नायिका, ताको करत बिचारु॥

शब्दार्थ—आधारू–आधार।

भावार्थ—शृंगार रस के आधार नायक और नायिका माने गये हैं। अब यहाँ उन्हीं का वर्णन किया जाता है।

नायक भेद
दोहा

नायक कहियतु चारि बिधि, सुनत जात सब खेद।
चौरासी अरु तीन सै, कहत नायिका भेद॥
प्रथम होइ अनुकूल अरु, दक्षिन अरु सठ धृष्ट।
या बिधि नायक चारि बिधि, बरनत ज्ञान गरिष्ट॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—नायक के चार तथा नायिकाओं के ३८४ भेद होते हैं। नायकों के चार भेदों मे पहला अनुकूल, दूसरा दक्षिण, तीसरा शठ और चौथा धृष्ट है। [ ९८ ] 

१—अनुकूल
दोहा

निज नारी सनमुख सदा, विमुख बिरानी बाम।
नायक सो अनुकूल है, ज्यो सीता को राम॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—केवल अपनी स्त्री से ही प्रेम कर परस्त्री से विमुख रहनेवाला नायक अनुकूल कहलाता है। जैसे सीता के लिए राम।

२—दक्षिण
दोहा

सब नारिन अनुकूल सो, यही दक्ष की रीति।
न्यारी ह्वै सब सों मिलै, करै एकसी प्रीति॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—अनेक स्त्रियों पर एक समान प्रीति रखनेवाला नायक दक्षिण कहलाता है।

उदाहरण
सवैया

सौगुने सील सुभाइ भरे, जिनके जिय औगुन एक न पावै।
मेरिये बात सुनै समुझै, मनभावन मोहि महा मन भावै॥
देव को चित्त चितोनिन चंचल, चंचलनैनी कितौ चितवावै।
आँखिहू राखिहू नाखर के, हरि क्यों तिन्हे लीक अलीक लगावै॥

[ ९९ ] 

शब्दार्थ—जिय–हृदय, मन। मनभावन–पति, प्यारा। चितौनिन–चितवनि। चंचलनैनी–चंचल नेत्रवाली।

३—शठ
दोहा

आगे आपनु ह्वै रहै, पीछे करै चबाव।
दोष भरौ कपटी कुटिल, सठ को यही सुभाव॥

शब्दार्थ—आपनु–अपना। चबाव–निंदा

भावार्थ—छल कपट से अपने कार्य को साधनेवाला तथा मुँह पर चिकनी-चुपड़ी कहकर, पीछे चबाव करनेवाला नायक सठ कहलाता है।

उदाहरण
सवैया

राति रहै रति मानि कहूँ, अरु दोष भरो नित ही इत आवै।
जो कहिये कि कहा है कहौ, तब झूठी हजारुक बातें बनावै॥
और सी और के आगे कहे, कवि देवजू मेरी सी मोहि सुनावै।
या सठ कों हटको न भटू, उठि भोर की वार किवार खुलावै॥

शब्दार्थहजारुक-हजार तरह की, अनेक। और...सुनावै।–दूसरों के आगे उनको अच्छी लगनेवाली और मेरे आगे मुझे अच्छी लगनेवाली बातें कहता है। हटको–मना करो। भटू–सखी। भोर की वार–सुबह के वक्त, प्रातःकाल। किवार–किवाड़। [ १०० ] 

४—धृष्ट
दोहा

दोष भरो प्रत्यक्ष ही, सदा कर्मअपकृष्ट।
सहै मार गारी; रहै, निलज पाँइ परिधृष्ट॥

शब्दार्थ—अपकृष्ट–निन्दनीय, बुरे।

भावार्थ—दोषी, लज्जाहीन, अपमानित होने तथा भर्त्सना गालियाँ आदि सह कर पैरों पड़ के खुशामद कर बार बार अपराध करने वाले नायक को धृष्ट कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

द्वार तें दूरि करौं बहु बारनि, हारनि बाँधि मृनालनि मारो।
छाड़तु नाअपनो अपराधु, असाधु सुभाइ अगाधु निहारो॥
बैरिन मेरी हँसै सिगरी, जब पाँइ परै सु टरै नहिं टारो।
ऐसे अनीठ सों ईठ कहै यह ढीठ बसीठ नहीं को बिगारो॥

शब्दार्थ—बहु बारनि–अनेक बार। छाड़तु...अपराधु–अपना अपराध नहीं छोड़ता। सिगरी–सब। पाँइ परै–पैरों पड़ता है। टरै नहि टारौ–हटाये नहीं हटता। ढीठ–धृष्ट।

नर्म सचिव
दोहा

दूरि होइ जा बात मैं, मानवतिन को मान।
सोई सोई जौ कहे, पीठिमरद सु बखान॥

[ १०१ ] 

शब्दार्थ—मानवतिन–मान करने वालीं।

भावार्थ—जिन जिन बातों के कहने से मानिनी का मान दूर होता है उन उन बातों को कहनेवाला पीठ मर्द कहलाता है।

सवैया

देखि जिन्हे उमगै अनुराग, सु फूलि रहौ बन बाग चहूँ है।
मानु तजौरी पुकारि पिकी कहै, जोबन की करिबे न अहूँ है॥
सोर करें सब ओर अलीगन, कोप कठोर हिये अजहूँ है।
देखौ जू बूझि मने अपने हू को, ऐसो समो सपने हू कहूँ है॥

शब्दार्थ—उमगै अनुराग–प्रेम उत्पन्न हो। अहूँ–अहंकार, घमंड। अजहूँ–अबभी। सोर–शोर, कोलाहल। अलीगन–भौंरे। समौ–समय। सपने हूँ कहूँ है–कहीं सपने में भी है?

विट्
दोहा

बचन चातुरी कों रचै, जानै सकल कलानि।
ताही सों विट् सचिव कहि, कविवर कहत बखानि॥

शब्दार्थ—कलानि–कलाओं को।

भावार्थ—बातें करने में चतुर तथा सब कलाओं को जानने वाला विट् कहलाता है।

उदाहरण
सवैया

जाहि जपै त्रिपुरारि मुरारि, सबै असुरारि सुरारि हने हैं।
जाके प्रताप त्रिलोक तचै न, बचै मुनि सिद्धि समाधि सने हैं॥

[ १०२ ] 

ताहि डरै नहिं तू सजनी, उत आतुर वे कविदेव घने हैं।
मेरौ मनायो तू मानि लै मानिनि, मैन महीप के मान मने हैं॥

शब्दार्थ—जाहि–जिसके। जाके प्रताप–जिसके प्रभाव से। सजनी–सखी। आतुर–अधीर। मैन–कामदेव।

विदूषक
दोहा

अङ्ग भेष भाषानुकरि, करै अन्यथा भाइ।
ताहि विदूषक कहत जो, देइ हाँस के दाइ॥

शब्दार्थ—हाँस–हँसी।

भावार्थ—अनेक भाषाओं का जानकार तथा तरह तरह के वेष बनाने में चतुर, बात बात पर हँसा देनेवाला विदूषक कहलाता है।

उदाहरण
सवैया

ऊँक सो वो रहिहै अभई, ऊँ विलोकत भूमि पै धूमि गिरोंगी।
तीर सौ सीरौ समीर लगै, तें सरीर में पीर घनीये घिरोंगी॥
मेरो कह्यो किन मानती मानिन, आपही तें उतको उनिरोंगी।
भौन के भीतर हीं भ्रम भोरी लों, बौरी लों नैक मैं दौरी फिरोंगी॥

शब्दार्थ—अभई–अभी। तीर सौ–तीर के समान। सीरौ–ठंडा। समीर–हवा। पीर–पीड़ा। घनीये–अधिक। भौन–घर। बौरी लों–पागल की भाँति।