भारतवर्ष का इतिहास/४०—भारतवासियों और यूरोपवालों में बाणिज्य व्यवहार का आरम्भ होना

भारतवर्ष का इतिहास
ई॰ मार्सडेन

कलकत्ता, बंबई, मद्रास, लंदन: मैकमिलन एंड कंपनी लिमिटेड, पृष्ठ १९४ से – १९७ तक

 

४०—भारतवासियों और यूरोपवालों में बाणिज्य व्यवहार का आरम्भ होना।

१—आज कल भारतवर्ष ब्रिटिशराज का एक भाग है। इङ्गलैण्ड का बादशाह कै़सर हिन्द भी कहलाता है। पर हमको देखना चाहिये कि अङ्गरेजों ने भारतवर्ष में कब प्रबेश किया कैसे आये, उनके आने का कारण क्या था और भारतवर्ष ब्रिटिशराज में कैसे आगया। अब इस पुस्तक में इसी बात का वर्णन होगा।

२—लगभग ३०० बरस हुए, पहिले पहिल अंगरेज़ यहां बाणिज्य की अभिलाषा से आये थे। काली मिर्च, चावल, रूई, नील, अदरक, गरम मसाला, नारियल, पोस्ता जिससे अफ़ीम निकलती है, गन्ना जिससे खांड़ और शक्कर तैयार होती है इत्यादि बस्तु इङ्गलैड ऐसे शीत स्थान में नहीं उपजतीं। प्राचीन काल में भारतवर्ष की मलमल और रूई और रेशम के कपड़े इङ्गलैंड की अपेक्षा अच्छे बनते थे। अङ्गरेज़ सौदागर यह सब बस्तु यहां से विलायत ले जाते थे और विलायत से कपड़ा लोहे तांबे और फ़ौलाद का बहुत सा सामान लाते थे जो यहां प्राप्त नहीं होता था।

३—पहिले भारतवर्ष का माल थल राह से ऊंटों और खच्चरों पर लद कर विलायत जाता था। भारतवर्ष से जो कारवां चलते थे वह अफ़गानिस्तान, फ़ारस और ऐशिया कोचक होते हुए जाते थे। जब अरबों ने यह देश जीत लिये तो इस तरह का बाणिज्य बहुत कुछ बन्द हो गया। सैकड़ों बरस तक अरबों और ईसाइयों में युद्ध होता रहा इस कारण ईसाई सौदागर पुराने रास्ते माल अस्बाब नहीं ले जा सकते थे।

४—जब यूरोपवाले प्राचीन थल पथ से अस्बाब ले जाने में असमर्थ हुए तो उनको इस बात की चिन्ता हुई और यह सूझी कि कोई रास्ता समुद्र का निकालना चाहिये।

५—उनदिनों सब से सुगम समुद्र का रास्ता वह था जो अफ्रिका के पश्चिम और दक्षिण होता हुआ आता था। इसको पुर्तगालवालों ने ढूंढ निकाला था। समुद्र में जहाज़ छोड़ कर अफ्रिका के किनारे किनारे चले इसका फल यह हुआ कि दक्षिणीय तट पर पहुंच कर ज्यों पूर्व की दिशा में मुड़े त्यों हिन्द महासागर में जा निकले। होते होते एक प्रसिद्ध पुर्तगीज़ कप्तान वास्को डिगामा कुछ जहाज़ लेकर १४९८ ई॰ में भारतवर्ष के पश्चिमीय समुद्रतट पर आया और कालीकट नगर में उतरा।

६—कालीकट का राजा ज़मोरिन कहलाता था। उसने वास्को डिगामा को पुर्तगीज़ बादशाह के नाम एक पत्र दिया जिसका सारांश यह था, "मेरे राज्य में दारचीनी, लौंग, कालीमिर्च और अदरक अधिक होती है, मैं तुम्हारे देश से सोना चांदी मूंगा और क़रमज़ी मखमल चाहता हूं"।

७—अब से सौ बरस तक अर्थात् १५०० ई॰ से १६०० ई॰ तक भारतवर्ष का समुद्रीय व्यापार पुर्तगीज़ों के हाथ में रहा। उन्हों ने गोवा स्थान में एक बड़ा क़िला बना लिया था। आज तक यह स्थान उन्हीं के आधीन चला आता है।

८—यूरोप के और और देशवालों ने जो देखा कि पुर्तगीज़ भारत के व्यापार से बड़े धनी हुए जा रहे हैं तो उनके मुंह में

पानी भर आया और उन्हों ने सोचा कि कोई ऐसा उपाय करना चाहिये कि हमलोग भी इस व्यापार में साझी हों। निदान हालैंड, इङ्गलैंड, फ्रान्स, जर्मनी, डेनमार्क और स्वीडन के व्यापारियों ने अपने अपने जहाज़ भेजने आरम्भ किये। पर कुछ सफलता हुई तो केवल हालैंड, इङ्गलैंड और फ्रान्सवालों को। और किसी को कुछ लाभ न हुआ और उन्हों ने कुछ दिन में भारतवर्ष के साथ व्यापार करना बन्द कर दिया।

८—पुर्तगीज़ के पीछे भारतवर्ष में डच आये। यह यूरोप के उस छोटे देश के रहनेवाले थे जिसे हालैंड कहते हैं। अब यह लोग बल और पौरुष में बहुत घट गये हैं पर अब से ३०० बरस पहिले यह यूरोप की जहाज़ी क़ौमों में सब से चढ़े बढ़े थे और जहाज़ भी इन्हीं के सब से अच्छे होते थे। यह लोग पुर्तगीज़ से अधिक शक्तिमान थे; इस कारण इन्हों ने पुर्तगीज़ों को गोवा छोड़ और सब स्थानों से निकाल दिया और १६०० ई॰ से १७०० ई॰ तक गरम मसाले का व्यापार अपने हाथ से न जाने दिया। इनकी कोठियां कोचीन, जावा, लंका और सुमात्रा के टापुओं में भी थीं।