भारतवर्ष का इतिहास/३५—अकबर
(सन् १५५६ ई॰ से सन् १६०६ ई॰ तक)
१—भारत में जितने मुसलमान बादशाह हो गये हैं अकबर सब से अच्छा था। उसका पूरा नाम जलालुद्दीन महम्मद था।
उसके पिता हुमायूं ने उसके जन्म के समय उसे अकबर की पदवी दी थी। अकबर का अर्थ है, सब से बड़ा, और बास्तव में यह बादशाह और सब बादशाहों से ज़बर्दस्त हुआ है। उसने पचास बरस राज किया। जिस समय महारानी इलीजबेथ इंगलिस्तान की मलका थी अकबर उसी समय भारत में राज करता था। तीन सौ बरस बीते कि यह दोनों एक ही समय में इस लोक से परलोक को सिधारे थे।
२—पिता की मृत्यु के समय अकबर की आयु कुल तेरह बरस की थी। चारों ओर बैरी ही बैरी दिखाई देते थे परन्तु उसका सेनापति बैरम खां बड़ा राज-भक्त था। वह एक तुर्की सरदार था और सोलह बरस की अवस्था से उसके बाप के दरबार में नौकर था और उसकी बुआ के साथ ब्याहा था। पहिले पहिल उसको हेमू से युद्ध करना पड़ा था। हेमू अपने को महाराजा विक्रमादित्य कहने लगा था। उसने जो सुना कि बैरम खां अकबर के साथ लाहौर में है तो सेना लेकर दिल्ली को आधीन करने के लिये बिहार से चला और आगरा और दिल्ली जीतता हुआ लाहौर की ओर बढ़ा। बैरम खां उसके सम्मुख आया। पानीपत पर घमसान युद्ध हुआ, हेमू बीरता के साथ लड़ा परन्तु उसकी सेना हार गई। हेमू घायल हुआ और क़ैद करके अकबर के सम्मुख लाया गया। बैरम खां ने अकबर से कहा कि इसका सिर अपनी तलवार से आप अलग कर दीजिये परन्तु अकबर ने उस दुर्बल और घायल बैरी पर हाथ चलाना ठीक न समझा तब बैरम खां ने उसको अपने हाथ से मारा। इसके पीछे पांच बरस तक बैरम खां ने बड़ी सावधानी और रोब दाब के साथ राज काज किया।
३—इस समय मोग़ल राज में केवल दिल्ली और पंजाब के देश थे। बंगाल, बिहार, जौनपूर, सिन्ध, गुजरात, मालवा और खानदेश में पठानों को जबरदस्त रियासतें थीं; राजपूताने में राजपूत राज करते थे।
४—अब अकबर की आयु अठारह बरस की थी। बैरम खां के कठोर व्यवहार से वह, उसकी मां, और सारे कम उमर दरबारी चिढ़े हुए थे।सब ने अकबर को यही सम्मति दी कि अब आप राज काज अपने हाथ में ले लें। बैरम खां इस बात पर राज़ी न था परन्तु बादशाह बिचार का पक्का था और अन्त में बैरम को आधीनता स्वीकार करनी पड़ी। बैरम खां मन में जल रहा था। इस कारण कुछ दिनों में उसने कुछ सेना इकट्ठी कर ली और पंजाब पर चढ़ाई कर दी। अकबर की आयु कम थी परन्तु बैरम खां के सम्मुख आपही पहुंचा। बैरम खां पराजित हुआ और पहाड़ की ओर भागा। अन्त को गले में पगड़ी डाले अभय प्रार्थना करने के लिये राज-सभा में उपस्थित हुआ। अकबर को उसके जन्म भर की स्वामि-भक्ति और नौकरी का ध्यान था। अपने हाथों से उसे उठाया और राज-सभा के सब सभासदों से ऊपर बिठाकर पूछा कि क्या तुम किसी प्रान्त की सूबेदारी पसंद करते हो अथवा राज-सभा में किसी ऊंचे पद पर नियत होना चाहते हो? जो हज करने का बिचार हो तो अच्छा वेतन नियत कर दिया जाय और साथ जानेवालों का प्रबंध किया जाय। बैरम खां ने मक्के जाना पसन्द किया परन्तु राह में एक अफ़ग़ान ने जिसके बाप को उसने कुछ बरस पहिले मार डाला था उसको परलोक पहुंचा दिया।
५—अब अकबर स्वतन्त्र हो गया; जो चाहता कर सकता था। बाल्यावस्था में काबुल में रहने के कारण वह हृष्ट पुष्ट हो गया था। वह बुद्धिमान था और बहुत सोच बिचार कर काम करता था। उसने देखा कि जब तक हिन्दुओं को राज-भक्त न बनाऊंगा मेरा राज दृढ़ न होगा, और जी में ठान ली कि जातिपांत के भेद को दूर करके कुल भारतवासियों को अपना बनाना है। परन्तु इस बिचार के पूरा होने से पहिले इस बात की आवश्यकता थी कि अपने सूबेदारों को आधीन करके दिल्ली के राज को पुष्ट कर ले।
६—बैरम खां के छूटते ही तीन सूबेदारों के जी में यह बात समाई कि अकबर केवल अठारह बरस का बालक है। उसको जीत लेना सहज है। ऐसा बिचार कर तीनों अपने अपने प्रान्तों के पूरे अख़तियार के मालिक बन बैठे। इनमें से एक जिसका नाम खानज़मा था जौनपूर का सूबेदार था, दूसरा आदम खां मालवे का, और तीसरा आसफ़ खां कड़े का हाकिम था। परन्तु अकबर ने दिखा दिया कि उसकी अवस्था तो कम थी पर उसमें युद्ध और राज करने की योग्यता जन्मही से थी। चलते चलते जब अकबर ने देखा कि अब खानज़मा दूर नहीं है तो सारी सेना पीछे छोड़ दी और एक हज़ार सवार लेकर आधी रात के समय गंगा के पार होगया और रातों रात तीस मील का कूच कर सबेरे बैरी पर टूट पड़ा। किसी को यह बात न मालूम थी कि अकबर पास है। दो बरस में अपनी बीरता के कारण अकबर ने अपने तीनों सूबेदारों को दबालिया और इक्कीस बरस की अवस्था में दिल्ली सम्राज्य का बेखटके सम्राट हो गया।
७—इसके पीछे राजपूतों से युद्ध आरम्भ हुआ। इस समय भारत में कम से कम सौ राजपूत राजा थे। अकबर यह चाहता था कि उनको अपना मित्र बनाकर उनकी सहायता से उत्तरीय भारत के पठान बादशाहों को आधीन करे। इस कारण एक भारी सेना लेकर राजपूताने में घुस गया और सब से बली राजाओं से लड़ना आरम्भ किया। उन्हों ने देखा कि अकबर धीर बीर और शक्तिमान बादशाह है। उसकी शक्ति से वह डरे और उसकी बीरता से प्रसन्न हुए क्योंकि वह आप भी बीर होते हैं और बीरों का मान करते हैं। अकबर की जीत हुई। उसने उनके साथ मेहरबानी का बर्ताव किया। उनके देश उन्हीं को दे दिये; केवल इतना बचन ले लिया कि उसको अपना सम्राट मानते रहेंगे।
८—परन्तु राना सांगा का बेटा उदयसिंह जो मेवाड़ का राजा था अकबर को डोला देकर सन्धि करने पर राज़ी न हुआ। अकबर ने उसकी राजधानी चित्तौड़ पर चढ़ाई की। उदय सिंह अरवली पहाड़ में चला गया और एक बीर और जवान क्षत्रिय को जिसका नाम जयमल था चित्तौड़ की रक्षा के लिये छोड़ गया। चित्तौड़ गढ़ सारे राजपूताने की नाक थी और सब से बलिष्ठ गढ़ था। इसमें जाने की एक ही राह है। यह राह पहाड़ को काट कर बनाई गई है इसमें एक के ऊपर एक चार फाटक हैं। पहले पहल १३०३ ई॰ में अलाउद्दीन ख़िलजी ने इसको पराजित किया था, और फिर १५३३ ई॰ में बहादुर शाह गुजरात के सुलतान ने। अकबर कई महीने इसको घेरे पड़ा रहा; कोई उपाय विजय करने का न दिखाई दिया। अन्त में एक रात अकबर की दृष्टि गढ़ की दीवार पर पड़ी तो उसने देखा कि जयमल उसपर खड़ा हुआ अपने सैनिकों से एक सेंध बन्द करा रहा है जो उसमें हो गई थी।
अकबर ने तत्काल अपनी सब से अच्छी बन्दूक मंगाई और एक ऐसा निशाना लगाया कि गोली जयमल के माथे पर बैठी जयमल गिरतेही परलोक सिधारा। राजपूत निराश हो गये। उन्हों ने प्राचीन नीति के अनुसार जौहर करके स्त्रियों और बालकों को अपने हाथ से मार दिया और फिर केसरिया बस्त्र धारण कर हाथों में तलवार ले गढ़ से निकल पड़े और ऐसे कट कट कर मरे कि आठ हज़ार में एक भी न बचा।
९—उदय सिंह ने अकबर की आधीनता स्वीकार न की। उसके पुत्र प्रताप ने भी जीते जी उसके आगे सिर न नवाया। राना प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक चित्तौड़ न ले लूंगा चांदी सोने के बरतनों में भोजन न करूंगा न फूस के बिछौने के सिवा किसी और बिछौने पर सोऊंगा, न दाढ़ी को बल देकर चढ़ाऊंगा। यह लड़ता लड़ता मर गया पर चित्तौर न ले सका। इस कारण इसने एक और नगर बसाया और उसका नाम बाप के नाम पर उदयपुर रखा। उदयपुर के राना आज तक न दाढ़ी चढ़ाते हैं न चांदी सोने के बरतनों में बिना पत्ता बिछाये भोजन करते हैं न सेज पर बिना फूस बिछाये सोते हैं। ऐसा अनुमान किया जाता है कि इस वंश में सोलहों आने राजपूती अंश भरा है। राजपूतों का एक यह वंश है जो यह अभिमान करता है कि हमने मुसलमान सम्राटों की आधीनता नहीं की न उनको डोले दिये।
१०—मेवाड़ के राज्य में उदय सिंह का एक और बड़ा दृढ़ गढ़ था। इसका नाम रन्थम्भोर था। राजा सुर्जन यहां का अधिकारी था। उसकी चढ़ाई में भी अकबर को बहुत समय लग गया और अब भी गढ़ के टूटने की कोई आशा न दिखाई दी। राजपूतों की यह रीति थी कि चढ़ाई के दिनों में रात्रि के समय कभी कभी युद्ध बन्द करके दोनों ओर के लोग आपस में मिलते और बातचीत किया करते थे। एक राति को अकबर के सेनापति मानसिंह सुर्जन से भेंट करने को गढ़ में गया और अकबर असाबर्दार का भेस बदल कर उसके साथ गया। सुर्जन ताड़ गया उसने अकबर के हाथ से असा ली और उसको अपनी जगह पर बैठाया। अकबर ने मुस्कारा कर कहा कि राजा सुर्जन अब क्या किया जाय। मानसिंह ने तुरंत कहा कि मेवाड़ के राना का साथ छोड़ दो, गढ़ सम्राट को सौंप दो और उनकी आधीनता स्वीकार कर लो। अकबर ने कहा कि जो तुम मुझको अपना सम्राट मानकर मेरी आधीनता स्वीकार करो तो एक क्या पचास रजवाड़ों का अधिकारी बना दूंगा और तुम उनमें राज करना। मानसिंह ने यह भी कहा कि बादशाह ने तुम्हारे साथ कैसा अच्छा व्यवहार किया है और राजपूत राजाओं का कैसा आदर करता है। सुर्जन मान गया और गढ़ की कुंजियां सम्राट को सौंप दीं।
११—अकबर ने राजपूत राजाओं की कन्याओं से बिवाह कर लिया और उनके बाप भाइयों को अपनी सेना का अफ़सर बना दिया। अब वह उसके मित्र और नातेदार हो गये। अकबर की एक मलका जयपुर के राजा बिहारीमल की बेटी थी। बिहारीमल का बेटा भगवानदास अकबर के बड़े सेनापतियों में था। भगवानदास का गोद लिया हुआ बेटा मानसिंह एक और बड़ा सुप्रसिद्ध सेनापति हुआ है। अकबर का बड़ा बेटा सलीम इसी स्त्री से था। सलीम बड़ा हुआ तो अकबर ने उसका बिवाह जोधपुर के राजा की कन्या जोधबाई से कर दिया। सात वर्ष के समय में अकबर राजपूताने का मालिक और राना उदयपूर को छोड़कर सब राजपूत राजाओं का सम्राट बन गया।
१२—जब हिन्दू इसके सहायक और आज्ञाकारी बने तो राजपूतों की सहायता से अकबर ने भारत के पठानी राज एक एक करके सब ले लिये। बिहार, बंगाल, उड़ीसा, काशमीर, सिंध, मालवा, गुजरात, ख़ानदेश, काबुल और कंदहार सब जीत लिये। अपने राज के अंत में अकबर विन्ध्याचल के उत्तर में सारे भारत का, और दखिन में ख़ानदेश, अहमदनगर और बरार का सम्राट था। एक समय उसने दखिन जीतने का विचार किया। अहमदनगर के निज़ामशाही बादशाहों में से एक की मृत्यु पर चार मनुष्य राज के दावादार खड़े हुए। उनमें से एक ने अकबर से सहायता मांगी। अकबर ने अपने बेटे मुराद को उसकी सहायता के लिये भेजा। अहमदनगर के हाल में पहिले कहा जा चुका है कि चांद बीबी ने कैसी बीरता के साथ उसका सामना किया था। अंत को बरार का राज अकबर को मिल गया। सन् १५९९ ई॰ में अकबर आप दखिन गया और ख़ानदेश को अपने राज में मिला लिया। अहमदनगर और असीरगढ़ के गढ़ों को जीतने से उसको ख़ानदेश मिला। बीजापुर और गोलकुंडे के बादशाहों ने भेटें दे कर दूत भेजे और अकबर के चौथे पुत्र दानियाल का बिवाह बीजापुर के सुलतान की कन्या से हुआ।
१३—सन् १६०० ई॰ के लगभग बाप के ४५ बरस के लम्बे राज से घबड़ा कर सलीम ने राज सिंहासन पर अधिकार जमाने का बिचार किया। उसकी आयु तीस बरस की थी। यह अजमेर का हाकिम था; बंगाले का सूबेदार मानसिंह उसका सहायक था। मानसिंह को बंगाले के एक अफ़ग़ान उमराव के बिद्रोही हो जाने के कारण वहां जाना पड़ा था। राजा मानसिंह के जाते ही सलीम के सिरपर भूत चढ़ा। उसने सोचा कि पिता दक्षिण में हैं। उसके सेनापति दूर दूर प्रान्तों में अलग अलग पड़े हैं। इस बिचार से इलाहाबाद पहुंचा, अवध और बिहार पर अधिकार जमा लिया, जो कुछ धन सम्पत्ति वहां मिली सब ले लिया और अपने सम्राट होने का ढंढोरा पिटा दिया। यह कहता फिरता था कि अकबर मुसलमानों के पैग़म्बर का बैरी है वह अबुलफज़ल से मिल कर मुसलमानों से कुरान की शिक्षा छुड़ाना चाहता है। अब उसको सम्राट होने का कोई अधिकार नहीं है। धार्मिक मुसलमानों को चाहिये कि मेरा साथ दें। अकबर ने जब पुत्र के विद्रोह का हाल सुना तो स्नेह और करुणा से भरा हुआ एक पत्र लिखा और समझाया कि पुत्र, तुम अनजान हो और जो ठीक रास्ते पर आ जाओ तो मैं तुम्हारे अपराध क्षमा करूंगा। पत्र लिखने के पीछे ही वह कूच करता हुआ दिल्ली में आ उपस्थित हुआ। सलीम का कोई सहायक न हुआ और उसने जान लिया कि अभी उसके राज का समय नहीं आया है। सलीम ने अपना अपराध स्वीकार किया, अभय मांगी, और बंगाले और उड़ीसे का हाकिम नियत किया गया।
१४—सलीम ने देखाने को अभय प्रार्थना करली परन्तु जी में लज्जित न हुआ था। अब उसने ऐसा काम किया जिसके करने से वह जानता था कि पिता को अत्यंत शोक होगा। अबुलफ़जल कुछ थोड़ से सैनिकों के साथ किसी सरकारी काम पर गवालियर की ओर जा रहा था। सलीम ने बीरसिंह देव को जो बुन्देलखण्ड के एक छोटे से राज का अधिकारी था बहकाया कि अबुलफज़ल को रास्ते में मार डालो। अबुलफज़ल अच्छे स्वभाव का मनुष्य, विद्वान और राजभक्त था; अकबर अपने सब नौकरों से अधिक उसपर भरोसा करता था; और भाइयों की भांति उससे स्नेह करता था। अकबर ने जब उसके मरने का समाचार सुना तो बड़ा सोच किया और दो दिन तक न खाया न सोया। अभी तक वह यह न जानता था कि अबुलफज़ल को किसने मारा। सलीम ने जो अपना जीवनचरित्र लिखा है उसमें आपही कहता है कि मैंने अबुलफज़ल को मरवाया। केवल इतना ही नहीं, वह साफ़ साफ़ कहता है कि मैंने यह एक पुण्य किया है। जब अकबर ने यह समाचार सुना तो कहा कि सलीम को राज की अभिलाषा थी तो मुझे क्यों न मारा अबुलफ़जल को क्यों मारा?