प्रेम-द्वादशी/९ मुक्ति-मार्ग

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ १३४ से – १४४ तक

 

मुक्ति-मार्ग

सिपाही को अपनी लाल पगड़ी पर, सुंदरी को अपने गहनों पर और वैद्य को अपने सामने बैठे हुए रोगियों पर जो घमंड होता है, वही किसान को अपने खेतों को लहराते हुए देखकर होता है। झींगुर अपने ऊख के खेतों को देखता, तो उस पर नशा-सा छा जाता! तीन बीघे ऊख थी। इससे छः सौ रुपए तो अनायास ही मिल जायँगे। और जो कहीं भगवान् ने डाँड़ी तेज़ कर दी, तो फिर क्या पूछना। दोनो बैल बुड्ढे हो गये। अब की नई गोई बटेसर के मेले से ले आवेगा। कहीं दो बीघे खेत और मिल गये, तो लिखा लेगा। रुपयों की क्या चिंता है। बनिये अभी से उसकी खुशामद करने लगे थे। ऐसा कोई न था, जिसने उससे गाँव में लड़ाई न की हो। वह अपने आगे किसी को कुछ समझता ही न था।

एक दिन संध्या के समय वह अपने बेटे को गोद में लिये मटर की फलियाँ तोड़ रहा था। इतने में उसे भेंड़ों का एक कुंड अपनी तरफ़ आता दिखाई दिया। वह अपने मन में कहने लगा—इधर से भेड़ों के निकालने का रास्ता न था। क्या खेत की मेड़ पर से भेड़ों का झुंड नहीं जा सकता था? भेड़ों को इधर से लाने की क्या ज़रूरत? ये खेत को कुचलेंगी, चरेंगी। इसका डाँड कौन देगा? मालूम होता है, बुद्धू गड़ेरिया है। बचा को घमंड हो गया है; तभी तो खेतों के बीच से भेड़ें लिये चला आता है ज़रा इसकी ढिठाई तो देखो। देख रहा है, कि मैं खड़ा हूँ, फिर भी भेड़ों को लौटाता नहीं। कौन मेरे साथ कभी रियायत की है, कि मैं इसकी मुरौवत करूँ? अभी एक भेड़ा मोल माँगूँ, तो पाँच ही रुपए सुनावेगा। सारी दुनिया में चार-चार रुपए के कंबल बिकते हैं; पर वह पाँच रुपए से नीचे बात नहीं करता।

इतने में भेड़ें खेत के पास आ गईं। झींगुर ने ललकारकर कहा—अरे, ये भेड़ें कहाँ लिये आते हो। कुछ सूझता है, कि नहीं?

बुद्धू नम्र भाव से बोला—महतो, डाँड़ पर से निकल जायगी। घूमकर जाऊँगा, तो कोस भर का चक्कर पड़ेगा।

झींगुर—तो तुम्हारा चक्कर बचाने के लिए मैं अपना खेत क्यों कुचलाऊँगा? डाँड़े ही पर से ले जाना है, तो और खेतों के डाँड़ से क्यों नहीं ले गये? क्या मुझे कोई चुहड़-चमार समझ लिया है? या धन का घमंड हो गया है? लौटाओ इनको!

बुद्धू—महतो, आज निकल जाने दो। फिर कभी इधर से पाऊँ, तो जो चाहे सजा देना।

झींगुर—कह दिया, कि लौटाओ इन्हें। अगर एक भेड़ भी मेड़ पर आई, समझ लो, तुम्हारी खैर नहीं है।

बुद्धू—महतो, अगर तुम्हारी एक बेल भी किसी भेड़ के पैरों तले आ जाय, तो मुझे बिठाकर सौ गालियाँ देना।

बुद्धू बातें तो बड़ी नम्रता से कर रहा था; किन्तु लौटने में अपनी हेठी समझता था। उसने मन में सोचा—इसी तरह ज़रा-ज़रा-सी धमकियों पर भेड़ों को लौटाने लगा, तो फिर मैं भेड़ें चरा चुका! आज लौट जाऊँ, तो कल को निकलने का रास्ता ही न मिलेगा। सभी रोब जमाने लगेंगे।

बुद्धू भी पोढ़ा आदमी था। बारह कोड़ी भेड़ें थीं। उन्हें खेतों में बिठाने के लिए फी रात आठ आने कोड़ी मजदूरी मिलती थी। इसके उपरांत दूध बेचता था; ऊन के कम्बल बनाता था। सोचने लगा—इतने गरम हो रहे हैं, मेरा कर ही क्या लेंगे? कुछ इनका दबैल तो हूँ नहीं। भेड़ों ने जो हरी-हरी पक्षियाँ देखीं; तो अधीर हो गईं। खेत में घुस पड़ीं। बुद्धू उन्हें डंडों से मार-मारकर खेत के किनारे से हटाता था और वे इधर-उधर से निकल कर खेत में जा पड़ती थीं। झींगुर ने आग होकर कहा—तुम मुझसे हेकड़ी जनाने चले हो, तो तुम्हारी सारी हेकड़ी निकाल दूँगा।

बुद्धू—तुम्हें देखकर चौंकती हैं। तुम हट जाओ, तो मैं सब को निकाल ले जाऊँ।

झींगुरी ने लड़के को तो गोद से उतार दिया और अपना डण्डा सँभालकर भेड़ों पर पिल पड़ा। धोबी इतनी निर्दयता से अपने गधे को न पीटता होगा। किसी भेड़ की टाँग टूटी, किसी की कमर। सबने बें-बें का शोर मचाना शुरू किया। बुद्धू चुपचाप खड़ा अपनी सेना का विध्वंस अपनी आँखों से देखता रहा। वह न भेड़ों को हाँकता था, न झींगुर से कुछ कहता था। बस, खड़ा तमाशा देखता रहा। दो मिनट में झींगुर ने इस सेना को अपने अमानुषिक पराक्रम से मार भगाया। मेष-दल का संहार करके विजय-गर्व से बोला—अब सीधे चले जाओ। फिर इधर से आने का नाम न लेना।

बुद्ध ने आहत भेड़ों की ओर देखते हुए कहा—झींगुर, तुमने यह अच्छा काम नहीं किया। पछताओगे!

(२)

केले को काटना भी इतना आसान नहीं, जितना किसान से बदला लेना। उसकी सारी कमाई खेतों में रहती है, या खलिहानों में। कितनी ही दैविक और भौतिक आपदाओं के बाद कहीं नाज घर में आता है और जो कहीं इन आपदाओं के साथ विद्रोह ने भी सन्धि कर ली, तो बेचारा किसान कहीं का नहीं रहता। झींगुर ने घर आकर दूसरों से इस संग्राम का वृत्तांत कहा, तो लोग समझाने लगे—झींगुर, तुमने बड़ा अनर्थ किया। जानकर अनजान बनते हो! बुद्धू को जानते नहीं कितना झगड़ालू आदमी है। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा। जाकर उसे मना लो। नहीं तो तुम्हारे साथ सारे गाँव पर आफत आ जायगी। झींगुर की समझ में बात आई। पछताने लगा, कि मैंने कहाँ-से-कहाँ उसे रोका। अगर भेड़ें थोड़ा बहुत चर ही जातीं, तो कौन मैं उजड़ जाता था। वास्तव में हम किसानों का कल्याण दबे रहने में है। ईश्वर को भी हमारा सिर उठाकर चलना अच्छा नहीं लगता। जी तो बुद्धू के घर जाने को न चाहता था; किन्तु दूसरों के आग्रह से मजबूर होकर चला। अगहन का महीना था, कुहरा पड़ रहा था। चारों ओर अंधकार छाया हुआ था। गाँव से बाहर निकला ही था, कि सहसा अपने ऊख के खेत की ओर अग्नि की ज्वाला देखकर चौंक पड़ा। छाती धड़कने लगी। खेत में आग लगी हुई थी। बेतहाशा दौड़ा। मनाता जाता था, कि मेरे खेत में न हो; पर ज्यों-ज्यों समीप पहुँचता था, यह आशामय भ्रम शांत होता जाता था। वह अनर्थ हो ही गया, जिसके निवारण के लिए घर से चला था। हत्यारे ने आग लगा ही दी, और मेरे पीछे सारे गाँव को चौपट किया। उसे ऐसा जान पड़ता था, कि वह खेत आज बहुत समीप आ गया है, मानो बीच के परती खेतों का अस्तित्व ही नहीं रहा। अन्त में जब वह खेत पर पहुँचा, तो आग प्रचण्ड रूप धारण कर चुकी थी। झींगुर ने 'हाय-हाय' मचाना शुरू किया। गाँव के लोग दौड़ पड़े, और खेतों से अरहर के पौधे उखाड़-उखाड़कर आग को पीटने लगे। अग्नि-मानव संग्राम का भीषण दृश्य उपस्थित हो गया। एक पहर तक हाहाकार मचा रहा। कभी एक पक्ष प्रबल होता था, कभी दूसरा। अग्नि-पक्ष के योद्धा मर-मरकर जी उठते थे, और द्विगुण शक्ति से, रणोन्मत्त होकर, शस्त्र प्रहार करने लगते थे। मानव-पक्ष में जिस योद्धा की कीर्ति सबसे उज्जवल थी, वह बुद्धू था। बुद्धू कमर तक धोती चढ़ाये, प्राण हथेली पर लिये, अग्नि-राशि में कूद पड़ता था, और शत्रुओं को परास्त करके, बाल-बाल बचकर, निकल आता था। अंत में मानव-दल की विजय हुई; किन्तु ऐसी विजय, जिसपर हार भी हँसती। गाँव-भर की ऊख जलकर भस्म हो गई, और ऊख के साथ सारी अभिलाषाएँ भी भस्म हो गईं।

(३)

आग किसने लगाई, यह खुला हुआ भेद था; पर किसी को कहने का साहस न था। कोई सबूत नहीं। प्रमाण-हीन तर्क का मूल्य ही क्या? झींगुर को घर से निकलना मुश्किल हो गया। जिधर जाता, ताने सुनने पड़ते। लोग प्रत्यक्ष कहते थे—यह आग तुमने लगवाई। तुम्हीं ने हमारा सर्वनाश किया। तुम्हीं मारे घमंड के धरती पर पैर न रखते थे। आप-के-आप गये, अपने साथ गाँव-भर को डुबो दिया। बुद्धू को न छेड़ते, तो आज क्यों वह दिन देखना पड़ता? झींगुर

को अपनी बरबादी का इतना दुख न था, जितना इन जली-कटी बातों का। दिन भर घर में बैठा रहता। पूस का महीना आया। जहाँ सारी रात कोल्हू चला करते थे, गुड़ की सुगन्ध उड़ती रहती थी, भट्ठियाँ जलती रहती थीं, और लोग भट्ठियों के सामने बैठे हुक्का पिया करते थे, वहाँ सन्नाटा छाया हुआ था। ठंड के मारे लोग साँझ ही से किवाड़े बन्द करके पड़ रहते, और झींगुर को कोसते। माघ और भी कष्टदायक था। ऊख केवल धनदाता ही नहीं, किसानों की जीवनदाता भी है। उसी के सहारे किसानों का जाड़ा कटता है। गरम रस पीते हैं, ऊख की पत्तियाँ तापते, उसके अगोड़े पशुओं को खिलाते हैं। गाँव के सारे कुत्ते, जो रात को भट्ठियों की राख में सोया करते थे, ठंड से मर गये। कितने ही जानवर चारे के अभाव से चल बसे। शीत का प्रकोप हुआ, और सारा गाँव खाँसी—बुखार में ग्रस्त हो गया। और यह सारी विपत्ति झींगुर की करनी थी—अभागे, हत्यारे झींगुर की!

झींगुर ने सोचते-सोचते निश्चय किया, कि बुद्धू की दशा भी अपनी ही-सी बनाऊँगा। उसके कारण मेरा सर्वनाश हो गया, और वह चैन की बंसी बजा रहा है! मैं भी उसका सर्वनाश करूँगा!

जिस दिन इस घातक कलह का बीजारोपण हुआ, उसी दिन से बुद्धू ने इधर आना छोड़ दिया था। झींगुर ने उससे रब्त-ज़ब्त बढ़ाना शुरू किया। वह बुद्धू को दिखाना चाहता था, कि तुम्हारे ऊपर मुझे बिलकुल सन्देह नहीं है। एक दिन कंबल लेने के बहाने गया, फिर दूध लेने के बहाने। बुद्धू उसका खूब आदर-सत्कार करता। चिलम तो आदमी दुश्मन को भी पिला देता है, वह उसे बिना दूध और शर्बत पिलाये न आने देता। झींगुर आजकल एक सन लपेटनेवाली कल में मज़दूरी करने जाया करता। बहुधा कई-कई दिनों की मज़दूरी इकट्ठी मिलती थी। बुद्धू ही की तत्परता से झींगुर का रोजाना खर्च चलता था। अतएव झींगुर ने खूब रब्त-ज़ब्त बढ़ा लिया। एक दिन बुद्धू ने पूछा—क्यों झींगुर, अगर अपनी ऊख जलानेवाले को पा जाओ, तो क्या करो? सच कहना! झींगुर ने गंभीर भाव से कहा—मैं उससे कहूँ, भैया, तुमने जो कुछ किया, बहुत अच्छा किया। मेरा घमंड तोड़ दिया; मुझे आदमी बना दिया।

बुद्धू—मैं जो तुम्हारी जगह होता, तो बिना उसका घर जलाये न मानता।

झींगुर—चार दिन की ज़िन्दगानी में बैर-विरोध बढ़ाने से क्या फ़ायदा? मैं तो बरबाद हुआ ही, अब उसे बरबाद करके क्या पाऊँगा?

बुद्धू—बस, यही तो आदमी का धर्म है; पर भाई, क्रोध के बस होकर बुद्धि उलटी हो जाती है।

(४)

फागुन का महीना था। किसान ऊख बोने के लिए खेतों को तैयार कर रहे थे। बुद्धू का बाज़ार गरम था। भेड़ों की लूट मची हुई थी। दो-चार आदमी नित्य द्वार पर खड़े खुशामदें किया करते। बुद्धू किसी से सीधे मुँह बात न करता। भेड़ रखने की फ़ीस दूनी कर दी थी। अगर कोई एतराज़ करता, तो बेलाग कहता—तो भैया, भेड़ें तुम्हारे गले तो नहीं लगाता हूँ। जी न चाहे मत रखो; लेकिन मैंने जो कह दिया है, उससे एक कौड़ी भी कम नहीं हो सकती। ग़रज़ थी, लोग इस रुखाई पर भी उसे रहते थे, मानो पंडे किसी यात्री के पीछे पड़े हों।

लक्ष्मी का आकार तो बहुत बड़ा नहीं, और वह भी समयानुसार छोटा-बड़ा होता रहता है। यहाँ तक कि कभी वह अपना विराट आकार समेटकर उसे काग़ज़ के चन्द अक्षरों में छिपा लेती हैं। कभी-कभी तो मनुष्य की जिह्वा पर जा बैठती हैं; आकार का लोप हो जाता है; किंतु उनके रहने को बहुत स्थान की ज़रूरत होती है। वह आई, और घर बढ़ने लगा। छोटे घर में उनसे नहीं रहा जाता। बुद्धू का घर भी बढ़ने लगा। द्वार पर बरामदा डाला गया, दो की जगह छः कोठरियाँ बनवाई गईं। यों कहिये, कि मकान नये सिरे से बनने लगा। किसी किसान से लकड़ी माँगी, किसी से खपरों का आँवा लगाने के लिए उपले, किसी से बाँस और किसी से सरकंडे। दीवार की उठवाई देनी पड़ी। वह भी नकद नहीं, भेड़ों के बच्चों के रूप में। लक्ष्मी का यह प्रताप है। सारा काम बेगार में हो गया। मुफ़्त में अच्छा-खासा घर तैयार हो गया। गृहप्रवेश के उत्सव की तैयारियाँ होने लगीं।

इधर झींगुर दिन-भर मज़दूरी करता, तो कहीं आधे पेट अन्न मिलता। बुद्धू के घर कंचन बरस रहा था। झींगुर जलता था, तो क्या बुरा करता था? यह अन्याय किससे सहा जायगा?

एक दिन वह टहलता हुआ चमारों के टोले की तरफ चला गया। हरिहर को पुकारा। हरिहर ने आकर राम-राम की, और चिलम भरी। दोनो पीने लगे। यह चमारों का मुखिया बड़ा दुष्ट आदमी था। सब किसान इससे थर-थर काँपते थे।

झींगुर ने चिलम पीते-पीते कहा—आजकल फाग-वाग नहीं होता क्या? सुनाई नहीं देता।

हरिहर–फाग क्या हो, पेट के धंधे से छुट्टी ही नहीं मिलती। कहो, तुम्हारी आजकल कैसी निभती है?

झींगुर—क्या निभती है। नकटा जिया बुरे हवाल! दिन-भर कल में मजदूरी करते हैं, तो चूल्हा जलता है। चाँदी तो आजकल बुद्धू की है। रखने का ठौर नहीं मिलता। नया घर बना, भेड़ें और ली हैं। अब गृहीपरवेस की धूम है। सातों गाँवों में सुपारी जायगी।

हरिहर—लक्ष्मी मैया आती हैं, तो आदमी की आँखों में सील आ जाता है; पर उसको देखो, धरती पर पैर नहीं रखता। बोलता है, तो ऐंठकर बोलता है।

झींगुर—क्यों न ऐंठे, इस गाँव में कौन है उसकी टक्कर का? पर यार, यह अनीति तो नहीं देखी जाती। भगवान् दे, तो सिर झुकाकर चलना चाहिये। यह नहीं, कि अपने बराबर किसी को समझे ही नहीं। उसकी डींग सुनता हूँ, तो बदन में आग लग जाती है। कल का बाग़ी आज का सेठ। चला है हमी से अकड़ने! अभी कल लँगोटी लगाये खेतों में कौए हँकाया करता था, आज उसका आ सामान में दिया जलता है। हरिहर--कहो, तो कुछ उताजोग करूँ ?

झींगुर--क्या करोगे ? इसी डर से तो वह गाय-भैंस नहीं पालता।

हरिहर--भेड़ें तो हैं ?

झींगुर--क्या बगला मारे पखना हाथ ।

हरिहर-फिर तुम्हीं सोचो।

झींगुर--ऐसी जुगुत निकालो, कि फिर पनपने न पावे ।

इसके बाद फुस-फुस करके बात होने लगी। यह एक रहस्य है, कि भलाइयों में जितना द्वेष होता है, बुराइयों में उतना ही प्रेम । विद्वान् विद्वान् को देखकर, साधु साधु को देखकर और कवि कवि को देखकर जलता है । एक दूसरे की सूरत नहीं देखना चाहता ; पर जुआरी जुआरी को देखकर, शराबी शराबी को देखकर, चोर चोर को देखकर सहानुभूति दिखाता है, सहायता करता है। एक पण्डित अगर अँधेरे में ठोकर खाकर गिर पड़े, तो दूसरे पंडितजी उन्हें उठाने के बदले दो ठोकरें और लगावेंगे, कि वह फिर उठ ही न सके ; पर एक चोर पर अाफ़त आई देख, दूसरा चोर उसकी आड़ कर लेता है। बुराई से सब घृणा करते हैं; इसलिये बुरों में परस्पर प्रेम होता है । भलाई की सारा संसार प्रशंसा करता है ; इसलिए भलों में विरोध होता है । चोर को मारकर चोर क्या पावेगा ? घृणा । विद्वान् का अपमान करके विद्वान् क्या पावेगा ? यश ।

झींगुर और हरिहर ने सलाह कर ली ;षड्यन्त्र रचने की विधि सोची गई । उसका स्वरूप, समय और क्रम ठीक किया। झींगुर चला, तो अकड़ा जाता था । मार लिया दुश्मन को, अब कहाँ जाता है !

( ५ )

दूसरे दिन झींगुर काम पर जाने लगा, तो पहले बुद्धू के घर पहुँचा। बुद्धू ने पूछा-क्यों, आज नहीं गये क्या ?

झींगुर--जा तो रहा हूँ। तुमसे यही कहने पाया था, कि मेरी बछिया को अपनी भेड़ों के साथ क्यों नहीं चरा दिया करते ? बेचारी खूँटे से बँधी-बंधी मरी जाती है । न घास, न चारा । क्या खिलावे ?

बुद्धू--भैया, मैं गाय-भैंस नहीं रखता । चमारों को जानते हो एक ही हत्यारे होते हैं । इसी हरिहर ने मेरी दो गउएँ मार डाली । न जाने क्या खिला देता है । तब से कान पकड़े, कि अब गाय-भैंस पालूँगा ; लेकिन तुम्हारी एक ही बछिया है, उसका कोई क्या करेगा । जब चाहो पहुँचा दो।

यह कहकर बुद्धू अपने गृहोत्सव का सामान उसे दिखाने लगा। घी, शकर, मैदा, तरकारी सब मँगा रखा था। केवल 'सत्यनारायण की कथा' को देर थी। झींगुर की आँखें खुल गई। ऐसी तैयारी न उसने स्वयं कभी को थी, और न किसी को करते देखी थी। मज़दूरी करके घर लौटा, तो सबसे पहला काम जो उसने किया, वह अपनी बछिया को बुद्धू के घर पहुँचाना था । उसी रात को बुद्धू के यहाँ 'सत्यनारायण की कथा' हुई । ब्रह्मभोज भी किया गया। सारी रात विनों की आगत- स्वागत करते गुज़री । भेड़ों के मुण्ड में जाने का अवकाश ही न मिला। प्रातःकाल भोजन करके उठा ही था ( क्योंकि रात का भोजन सवेरे मिला.), कि एक आदमी ने आकर खबर दी-बुद्ध तुम यहाँ बैठे हो, उधर भेड़ों में बछिया मरी पड़ी है । भले अादमी, उसकी पगहिया भी नहीं खोली थी ?

बुद्ध ने सुना, और मानो ठोकर लग गई । झींगुर भी भोजन करके वहीं बैठा था । बोला-हाय मेरी बछिया ! चलो, जरा देखू तो, मैंने ' तो पगहिया नहीं लगाई थी। उसे भेड़ों में पहुँचाकर अपने घर चला गया। तुमने यह पगहिया कब लगा दी ?

बुद्ध--भगवान् जानें, जो मैंने उसकी पगहिया देखी भी हो। मैं तो तब से भेड़ों में गया ही नहीं।

झींगुर--जाते न तो पगहिया कौन लगा देता ? गये होगे, याद न आती होगी।

एक ब्राह्मण--मरी तो भेड़ों में ही न ? दुनिया तो यही कहेगी, कि बुद्ध की असावधानी से उसकी मृत्यु हुई, पगहिया किसी की हो ।

हरिहर--मैंने कल साँझ को इन्हें भेड़ों में बछिया को बाँधते देखा था। बुद्धू--मुझे !

हरिहर--तुम नहीं लाठी कंधे पर रखे बछिया को बाँध रहे थे ?

बुद्ध--बड़ा सच्चा है तू! तूने मुझे बछिया को बाँधते देखा था ?

हरिहर--तो मुझ पर काहे को बिगड़ते हो भाई ? तुमने नहीं बाँधी, नहीं सही।

ब्राह्मण--इसका निश्चय करना होगा । गो-इत्या का प्रायश्चित्त करना पड़ेगा । कुछ हँसी-ठट्ठा है !

झींगुर--महाराज, कुछ जान बूझकर तो बाँधी नहीं।

ब्राह्मण--इससे क्या होता है ? हत्या इसी तरह लगती है ; कोई गऊ को मारने नहीं जाता।

झींगुर--हाँ, गऊओं को खोलना-बाँधना है तो जोखिम का काम !

ब्राह्मण--शास्त्रों में इसे महाराप कहा है। गऊ की हत्या ब्राह्मण की हत्या से कम नहीं।

झींगुर--हाँ, फिर गऊ तो ठहरी ही। इसी से न इसका मान होता सो गऊ ; लेकिन महाराज, चूक हो गई। कुछ ऐसा कीजिये, कि थोड़े में बिचारा निपट जाय ।

बुद्धू खड़ा सुन रहा था, कि अनायास मेरे सिर हत्या मढ़ी जा रही है । झींगुर की कूटनीति भी समझ रहा था। मैं लाख कहूँ, मैंने बछिया नहीं बाँधी, मानेगा कौन ? लोग यही कहेंगे कि प्रायश्चित्त से बचने के लिए ऐसा कह रहा है।

ब्राह्मण देवता का भी उसका प्रायश्चित कराने में कल्याण होता था। भला ऐसे अवसर पर कब चूकनेवाले थे । फल यह हुआ, कि बुद्धू को हत्या लग गई । ब्राह्मण भी उससे जले हुए थे । कसर निकालने की घात मिली । तीन मास का भिक्षा-दंड दिया, फिर सात तीर्थ-स्थानों की यात्रा, उसपर पांच सौ विप्रों का भोजन और पाँच गउओं का दान । बुद्धू ने सुना, तो बधिया बैठ गई । रोने लगा, तो दंड घटाकर दो मास का कर दिया । इसके सिवा कोई रियायत न हो सकी। न कहीं अपील न कहीं फरियाद ! बेचारे को यह दण्ड स्वीकार करना पड़ा। बुद्ध ने भेड़ें ईश्वर को सौंपी। लड़के छोटे थे । स्त्री अकेली क्या- क्या करेगी। जाकर द्वारों पर खड़ा होता, और मुँह छिपाये हुए कहता : गाय की बाछी दियो बनवास । भिक्षा तो मिल जाती ; किंतु भिक्षा के साथ दो-चार कठोर, अपमान-जनक शब्द भी सुनने पड़ते । दिन को जो कुछ पाता, वही शाम को किसी पेड़ के नीचे बनाकर खा लेता, और वहीं पर रहता । कष्ट की तो उसे परवा न थी, भेड़ों के साथ दिन भर चलता ही था, पेड़ के नीचे सोता ही था, भोजन भी इससे कुछ ही अच्छा मिलता था ; पर लज्जा थी भिक्षा माँगने की । विशेष करके जब कोई कर्कशा यह व्यंग कर देती थी, कि रोटी कमाने का अच्छा ढंग निकाला है, तो उसे हार्दिक वेदना होती थी ; पर करे क्या ?

दो महीने के बाद वह घर लौटा । बाल बढ़े हुए थे । दुर्बल इतना, मानो साठ वर्ष का बूढ़ा हो । तीर्थ-यात्रा के लिए रुपयों का प्रबंध करना था। गड़रियों को कौन महानन कर्ज़ दे ? भेड़ों का भरोसा क्या? कभी-कभी रोग फैलता है, तो रात-भर में दल-का-दल साफ हो जाता है। उस पर जेठ का महीना, जब भेड़ों से कोई आमदनी होने की आशा नहीं । एक तेली राज़ी भी हुआ, तो दो आना रुपया व्याज पर । आठ महीने में व्याज मूल के बराबर हो जायगा । यहाँ कर्ज़ लेने की हिम्मत न पड़ी, इधर दो महीनों में कितनी ही भेड़ें चोरी चली गई थीं। लड़के चराने ले जाते थे । दूसरे गाँववाले चुपके से एक-दो भेड़ें किसी खेत या घर में छिपा देते, और पीछे मारकर खा जाते । लड़के बेचारे एक तो पकड़ न सकते और जो देख भी लेते, तो लड़ें क्योंकर । सारा गाँव एक हो जाता था। एक महीने में तो भेड़ें श्राधी भी न रहेंगी। बड़ी विकट समस्या थी । विवश होकर बुद्धू ने एक बूचड़ को बुलाया, और सब भेड़ें उसके हाथ बेच डाली । पाच सौ रुपए हाथ लगे। उसमें से दो सौ रुपए लेकर वह तीर्थ यात्रा करने गया । शेष रुपए ब्रह्मभोज आदि के लिए छोड़ गया।

बुद्धू के जाने पर उसके घर में दो बार सेंध लगी ; पर यह कुंशल हुई, कि जगहग हो जाने के कारण रुपए बच गये ।