प्रेम-द्वादशी/२ बैंक का दिवाला

प्रेम-द्वादशी
प्रेमचंद
२. बैंक का दिवाला

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ १९ से – ४५ तक

 

बैंक का दिवाला

लखनऊ नेशनल बैंक के बड़े दफ्तर में लाला साईंदास आरामकुर्सी पर लेटे हुए शेयरों का भाव देख और सोच रहे थे, कि इस बार हिस्सेदारों को मुनाफ़ा कहाँ से दिया जायगा? चाय, कोयला या जूट के हिस्से खरीदने, चाँदी-सोने या रुई का सट्टा करने का इरादा करते; लेकिन नुक़सान के भय से कुछ तय न कर पाते थे। नाज के व्यापार में इस बार बड़ा घाटा रहा, हिस्सेदारों के दाढ़स के लिए हानि-लाभ का कल्पित ब्योरा दिखाना पड़ा और नफा पूँजी से देना पड़ा। इससे फिर नाज के व्यापार में हाथ डालते जी काँपता था।

पर रुपए को बेकार डाल रखना असम्भव था। दो-एक दिन में उसे कहीं-न-कहीं लगाने का उचित उपाय करना जरूरी था; क्योंकि डाइरेक्टरों की तिमाही बैठक एक ही सप्ताह में होनेवाली थी, और यदि उस समय कोई निश्चय न हुआ, तो आगे तीन महीने तक फिर कुछ न हो सकेगा, और छःमाही के मुनाफे के बँटवारे के समय फिर वही फरजी कार्रवाई करनी पड़ेगी, जिसका बार-बार सहन करना बैंक के लिए कठिन है। बहुत देर तक इस उलझन में पड़े रहने के बाद साईंदास ने घण्टी बजाई। इस पर बगल के दूसरे कमरे से एक बंगाली बाबू ने सिर निकालकर झाँका।

साईंदास—ताता-स्टील-कम्पनी को एक पत्र लिख दीजिये, कि अपना नया बैलेंस-शीट भेज दें।

बाबू—उन लोगों को रुपया का ग़रज़ नहीं। चिट्ठी का जवाब नहीं देता।

साईंदास—अच्छा, नागपुर की स्वदेशी मिल को लिखिये।

बाबू—इसका कारोबार अच्छा नहीं है। अभी उसके मज़दूरों ने हड़ताल किया था। दो महीना तक मिल बन्द रहा। साईंदास—अजी तो कहीं लिखो भी! तुम्हारी समझ में सारी दुनिया बेईमानों से भरी है।

बाबू—बाबा, लिखने को तो हम सब जगह लिख दें; मगर खाली लिख देने से तो कुछ लाभ नहीं होता।

लाला साईंदास अपनी कुल-प्रतिष्ठा और मर्यादा के कारण बैंक के मैनेजिंग डाइरेक्टर हो गये थे; पर व्यावहारिक बातों से अपरिचित थे। यही बंगाली बाबू इनके सलाहकार थे, और बाबू साहब को किसी कारखाने या कंपनी पर भरोसा न था। इन्हीं के अविश्वास के कारण पिछले साल बैंक का रुपया सन्दूक से बाहर न निकल सका था, और अब वही रंग फिर दिखाई देता था। साईंदास को इस कठिनाई से बचने का कोई उपाय न सूझता था। न इतनी हिम्मत थी, कि अपने भरोसे किसी व्यापार में हाथ डालें। बेचैनी की दशा में उठकर कमरे में टहलने लगे, कि दरबान ने आकर खबर दी—बरहल की महारानी की सवारी आई है।

(२)

लाला साईंदास चौंक पड़े। बरहल की महारानी को लखनऊ आये तीन-चार दिन हुए थे, और हर एक के मुँह से उन्हीं की चर्चा सुनाई देती थी। कोई उनके पहनावे पर मुग्ध था, कोई सुन्दरता पर, कोई उनकी स्वच्छंद वृत्ति पर। यहाँ तक कि उनकी दासियाँ और सिपाही आदि भी लोगों की चर्चा के पात्र बने हुए थे। रायल होटल के द्वार पर दर्शकों की भीड़-सी लगी रहती है। कितने ही शौक़ीन, बेफ़िकरे लोग इतर-फ़रोश, बजाज़ या तम्बाकूगर का वेष धरकर उनका दर्शन कर चुके थे। जिधर से महारानी की सवारी निकल जाती, दर्शकों के ठट लग जाते थे। वाह-वाह, क्या शान है! ऐसी इराकी जोड़ी लाट साहब के सिवा किसी राजा-रईस के यहाँ तो शायद ही निकले, और सजावट भी क्या खूब है! भई, ऐसे गोरे आदमी तो यहाँ भी नहीं दिखाई देते। यहाँ के रईस तो मृगांक, चन्द्रोदय और ईश्वर जाने, क्या-क्या ख़ाक-बला खाते हैं; पर किसी के बदन पर तेज या प्रकाश का नाम नहीं। ये लोग न जाने क्या भोजन करते और किस कूएँ का पानी पीते हैं, कि जिसे देखिये, ताज़ा सेब बना हुआ है। यह सब जल-वायु का प्रभाव है।

बरहल उत्तर दिशा में नेपाल के समीप, अंग्रेज़ी-राज्य में एक रियासत थी। यद्यपि जनता उसे बहुत मालदार समझती थीं; पर वास्तव में उस रियासत की आमदनी दो लाख से अधिक न थी। हाँ, क्षेत्रफल बहुत विस्तृत था। बहुत भूमि ऊसर और उजाड़ थी। बसा हुआ भाग भी पहाड़ी और बंजर था। ज़मीन बहुत सस्ती उठती थी।

लाला साईंदास ने तुरन्त अलगनी से रेशमी सूट उतार कर पहन लिया और मेज़ पर आकर इस शान से बैठ गये, मानो राजा-रानियों का यहाँ आना कोई साधारण बात नहीं। दफ्तर के क्लर्क भी सँभल गये। सारे बैंक में सन्नाटे की हलचल पैदा हो गई। दरबान ने पगड़ी सँभाली। चौकीदार ने तलवार निकाली, और अपने स्थान पर खड़ा हो गया। पंखा-कुली की मीठी नींद भी टूटी और बंगाली बाबू महारानी के स्वागत के लिए दफ़्तर से बाहर निकले।

साईंदास ने बाहरी ठाट तो बना लिया; किन्तु चित्त आशा और भय से चंचल हो रहा था। एक रानी से व्यवहार करने का यह पहला ही अवसर था; घबराते थे, कि बात करते बने या न बने। रईसों का मिज़ाज आसमान पर होता है। मालूम नहीं, मैं बात करने में कहाँ चूक जाऊँ। उन्हें इस समय अपने में एक कमी मालूम हो रही थी। वह राजसी नियमों से अनभिज्ञ थे। उनका सम्मान किस प्रकार करना चाहिये, उनसे बातें करने में किन बातों का ध्यान रखना चाहिये, उनकी मर्यादा-रक्षा के लिए कितनी नम्रता उचित है, इस प्रकार के प्रश्नों से वह बड़े असमंजस में पड़े हुए थे, और जी चाहता था, कि किसी तरह इस परीक्षा से शीघ्र छुटकारा हो जाय। व्यापारियों, मामूली जमींदारों या रईसों से वह रुखाई और सफ़ाई का बर्ताव किया करते थे, और पढ़े-लिखे सज्जनों से शील और शिष्टता का। उन अवसरों पर उन्हें किसी विशेष विचार की आवश्यकता न होती थी; पर इस समय बड़ी परेशानी हो रही थी। जैसे कोई लंका-बासी तिब्बत में आ गया हो, जहाँ के रस्म-रवाज और बातचीत का उसे ज्ञान न हो।

एकाएक उनकी दृष्टि घड़ी पर पड़ी। तीसरे पहर के चार बज चुके थे; परन्तु घड़ी अभी दोपहर की नींद में मग्न थी। तारीख की सूई ने दौड़ में समय को भी मात कर दिया था। वह जल्दी से उठे, कि घड़ी को ठीक कर दें, इतने में महारानी का कमरे में पदार्पण हुआ। साईंदास ने घड़ी को छोड़ा और महारानी के निकट जा बग़ल में खड़े हो गये। निश्चय न कर कर सके, कि हाथ मिलावें या झुककर सलाम करें। रानीजी ने स्वयं हाथ बढ़ाकर उन्हें इस उलझन से छुड़ाया।

जब लोग कुर्सियों पर बैठ गये, तो रानी के प्राइवेट-सेक्रेटरी ने व्यवहार की बातचीत शुरू की। बरहल की पुरानी गाथा सुनाने के बाद उसने उन उन्नतियों का वर्णन किया, जो रानी साहब के प्रयत्न से हुई थीं। इस समय नहरों की एक शाखा निकालने के लिए दस लाख रुपयों की आवश्यकता थी; परन्तु उन्होंने एक हिन्दुस्तानी बैंक से ही व्यवहार करना अच्छा समझा। अब यह निर्णय नेशनल बैंक के हाथ में था, कि वह इस अवसर से लाभ उठाना चाहता है; या नहीं?

बंगाली बाबू—हम रुपया दे सकता है; मगर काग़ज़-पत्तर देखे बिना कुछ नहीं कर सकता।

सेक्रेटरी—आप कोई ज़मानत चाहते हैं?

साईंदास उदारता से बोले–महाशय, ज़मानत के लिए आपकी ज़बान ही काफ़ी है।

बंगाली बाबू—आपके पास रियासत का कोई हिसाब-किताब है?

लाला साईंदास को अपने हेडक्लर्क का दुनियादारी का बर्ताव अच्छा न लगता था। वह इस समय उदारता के नशे में चूर थे। महारानी की सूरत ही पक्की ज़मानत थी। उनके सामने काग़ज़ और हिसाब का वर्णन करना बनियापन जान पड़ता था, जिससे अविश्वास की गंध आती है।

महिलाओं के सामने हम शील और संकोच के पुतले बन जाते हैं। साईंदास बंगाली बाबू की ओर क्रूर-कठोर दृष्टि से देखकर बोले—काग़ज़ों की जाँच कोई आवश्यक बात नहीं है, केवल हमको विश्वास होना चाहिये।

बंगाली बाबू—डाइरेक्टर लोग कभी न मानेगा।

साईंदास—हमको इसकी परवाह नहीं; हम अपनी जिम्मेदारी पर रुपए दे सकते हैं।

रानी ने साईंदास की ओर कृतज्ञता-पूर्ण दृष्टि से देखा। उनके होठों पर हल्की मुसकिराहट दिखलाई पड़ी।

(३)

परन्तु डाइरेक्टरों ने हिसाब-किताब, आय-व्यय देखना आवश्यक समझा, और यह काम लाला साईंदास के ही सिपुर्द हुआ; क्योंकि और किसी को अपने काम से फुर्सत न थी, कि वह एक पूरे दफ्तर का मुआइना करता। साईंदास ने नियम-पालन किया। तीन-चार दिन तक हिसाब जाँचते रहे, तब अपने इतमीनान के अनुकूल रिपोर्ट लिखी। मामला तय हो गया। दस्तावेज़ लिखा गया, रुपये दे दिये गये। नौ रुपये सैकड़े ब्याज ठहरा।

तीन साल तक बैंक के कारोबार में अच्छी उन्नति हुई। छठे महीने बिना कहे-सुने पैंतालीस हजार रुपयों की थैली दफ़्तर में आ जाती थी। व्यवहारियों को पाँच रुपये सैकड़े ब्याज दे दिया जाता था। हिस्सेदारों को सात रुपए सैकड़े लाभ था।

साईंदास से सब लोग प्रसन्न थे। सब लोग उनकी सूझ-बूझ की प्रशंसा करते थे। यहाँ तक कि बंगाली बाबू भी धीरे-धीरे उनके कायल होते जाते थे। साईंदास उनसे कहा करते—बाबूजी, विश्वास संसार से न कभी लुप्त हुआ है, और न होगा। सत्य पर विश्वास रखना प्रत्येक मनुष्य का धर्म है। जिस मनुष्य के चित्त से विश्वास जाता रहता है, उसे मृतक समझना चाहिये। उसे जान पड़ता है, मैं चारों ओर प्रेम-द्वादशी शत्रुओं से घिरा हुआ हूँ। बड़े-से-बड़े सिद्ध-महात्मा भी इसे रँगे-सियार जान पड़ते हैं। सच्चे-से-सच्चे देश-प्रेमी उसकी दृष्टि में अपनी प्रशंसा के भूखे ही ठहरते हैं। संसार उसे सीधे और छल से परिपूर्ण दिखाई देता है। यहाँ तक कि उसके मन से परमात्मा पर श्रद्धा और भक्ति लुप्त हो जाती है। एक प्रसिद्ध फिलॉस्फर का कथन है, कि प्रत्येक मनुष्य को, जब तक कि उसके विरुद्ध कोई प्रत्यक्ष प्रमाण न पाओ, भल मानस समझो। वर्तमान शासन-प्रथा इसी महत्त्व-पूर्ण सिद्धान्त पर गठित है। और, घृणा तो किसी से करनी ही न चाहिये। हमारी आत्माएँ पवित्र हैं। उनसे घृणा करना परमात्मा से घृणा करने के समान है। यह मैं नहीं कहता, कि संसार में कपट-छल है ही नहीं। है, और बहुत अधिकता से है; परन्तु उसका निवारण अविश्वास से नहीं, मानव-चरित्र ज्ञान से होता है, और यह एक ईश्वर-दत्त गुण है। मैं यह दावा तो नहीं करता; परन्तु मुझे विश्वास है, कि मैं मनुष्य को देखकर उसके आंतरिक भावों तक पहुँच जाता हूँ। कोई कितना ही वेष बदले, रंग रूप सँवारे; परन्तु मेरी अन्तर्दृष्टि को धोका नहीं दे सकता। यह भी ध्यान रखना चाहिये, कि विश्वास से विश्वास उत्पन्न होता है, और अविश्वास से अविश्वास। यह प्राकृतिक नियम है। जिस मनुष्य को आप शुरू से ही धूर्त, कपटी, दुर्जन समझ लेंगे, वह कभी आपसे निष्कपट व्यवहार न करेगा। वह एकाएक आपको नीचा दिखाने का यत्न करेगा। इसके बिपरीत आप एक चोर पर भी भरोसा करें, तो वह आपका दास हो जायगा। सारे संसार को लूटे; परन्तु आपको धोका न देगा। वह कितना ही कुकर्मी, अधर्मी क्यों न हो; पर श्राप उसके गले में विश्वास की जंजीर डालकर उसे जिस ओर चाहें ले जा सकते हैं। यहाँ तक कि वह आपके हाथों पुण्यात्मा भी बन सकता है।

बंगाली बाबू के पास इन दार्शनिक तर्कों का कोई उत्तर न था।

(४)

चौथे वर्ष की पहली तारीख थी। लाला साईंदास बैंक के दफ्तर में बैठे डाकिये की राह देख रहे थे। आज बरहल से पैंतालीस हज़ार रुपये आवेंगे। अबकी उनका इरादा था, कि कुछ सजावट के सामान और मोल ले लें। अब तक बैंक में टेलीफोन नहीं था। उसका भी तखमीना मँगा लिया था। आशा की आभा चेहरे से झलक रही थी। बंगाली बाबू से हँसकर कहते थे—इस तारीख को मेरे हाथों में अदबदा के खुजली होने लगती है। आज भी हथेली खुजला रही है। कभी दफ्तरी से कहते—अरे मियाँ शगकत, ज़रा सगुन तो विचारो; सिर्फ सूद-ही सूद आ रहा है, या दक्तरवालों के लिए नज़राना-शुकराना भी? आशा का प्रभाव कदाचित् स्थान पर भी होता है। बैंक आज भी खिला ही दिखाई पड़ता था।

डाकिया ठीक समय पर आया। साईंदास ने लापरवाही से उसकी ओर देखा। उसने अपनी थैली से कई रजिस्टरी लिफाफे निकाले। साईंदास ने उन लिफ़ाफ़ों को उड़ती निगाह से देखा। बरहल का कोई लिफ़ाफ़ा न था; न बीमा, न मुहर, न वह लिखावट। कुछ निराशा-सी हुई। जी में पाया, डाकिये से पूछें, कोई और रजिस्टरी रह तो नहीं गई? पर रुक गये। दफ्तर के क्लर्कों के सामने इतना अधैर्य अनुचित था; किन्तु जब डाकिया चलने लगा, तब उनसे न रहा गया। पूछ ही बैठे—अरे भाई कोई बीमा-लिफ़ाफ़ा रह तो नहीं गया? आज उसे आना चाहिये था। डाकिए ने कहा—सरकार, भला ऐसी बात हो सकती है! और कहीं भूल-चूक चाहे हो भी जाय; पर आपके काम में कहीं भूल हो सकती है। साईंदास का चेहरा उतर गया, जैसे कच्चे रंग पर पानी पड़ जाय। डाकिया चला गया, तो बंगाली बाबू से बोले—यह देर क्यों हुई? और तो कभी ऐसा न होता था!

बंगाली बाबू ने निष्ठुर भाव से उत्तर दिया—किसी कारण से देरी हो गया होगा। घबराने का कोई बात नहीं।

निराशा असंभव को सम्भव बना देती है। साईंदास को इस समय यह ख्याल हुआ, कि कदाचित् पारसल से रुपये आते हों। हो सकता है, तीन हज़ार अशर्फ़ियों का पारसल करा दिया हो; यद्यपि इस विचार को औरों पर प्रकट करने का उन्हें साहस न हुआ; पर उन्हें यह आशा उस समय तक बनी रही, जब तक पार्सलवाला डाकिया वापस नहीं गया। अन्त में संध्या को बह बेचैनी की दशा में उठकर घर चले गये। अब खत या तार का इन्तज़ार था। दो-तीन बार झुँझलाकर उठे, डाट कर पत्र लिखूँ और साफ़-साफ़ कह दूँ कि लेन-देन के मामले में वादा पूरा न करना विश्वासघात है। एक दिन की देर भी बैंक के लिए घातक हो सकती है। इससे यह होगा, कि फिर कभी ऐसी शिकायत करने का अवसर न मिलेगा; परन्तु फिर कुछ सोचकर न लिखा।

शाम हो गई थी, कई मित्र आ गये। गपशप होने लगी। इतने में पोस्टमैन ने शाम की डाक दी। यों वह पहले अखबारों को खोला करते; पर आज चिठ्ठियाँ खोली; किन्तु बरहल का कोई ख़त न था। तब बेमन हो एक अँगरेजी अखबार खोला। पहले ही तार का शीर्षक देखकर उनका खून सर्द हो गया। लिखा था—

'कल शाम बो बरहल की महारानी जी का तीन दिन की बीमारी के बाद देहान्त हो गया!'

इसके आगे एक संक्षिप्त नोट में यह लिखा हुया था—बरहल की महारानी की अकाल मृत्यु केवल इस रियासत के लिए ही नहीं; किंतु समस्त प्रान्त के लिए एक शोक-जनक घटना है। बड़े-बड़े भिषगाचार्य (वैद्यराज) अभी रोग की परख भी न कर पाये थे कि मृत्यु ने काम तमाम कर दिया। रानी जी को सदैव अपनी रियासत की उन्नति का ध्यान रहता था। उनके थोड़े-से राज्य-काल में ही उनसे रियासत को जो लाभ हुए हैं, वे चिरकाल तक स्मरण रहेंगे। यद्यपि यह मानी हुई बात थी, कि राज्य उनके बाद दूसरे के हाथ में जायगा, तथापि यह विचार कभी रानी साहब के कर्तव्य-पालन का बाधक नहीं बना। शास्त्रानुसार उन्हें रियासत की ज़मानत पर ऋण लेने का अधिकार न था; परन्तु प्रजा की भलाई के विचार से उन्हें कई बार इस नियम का उल्लंघन करना पड़ा। हमें विश्वास है, कि यदि वह कुछ दिन और जीवित रहतीं, तो रियासत को ऋण से मुक्त कर देतीं। उन्हें रात-दिन इसका ध्यान रहता था। परन्तु इस असामयिक मृत्यु ने अब यह फैसला दूसरों के अधीन कर दिया। देखना चाहिये, इन ऋणों का क्या परिणाम होता है। हमें विश्वस्त रीति से मालूम हुआ है, कि नये महाराज ने, जो आजकल लखनऊ में विराजमान हैं, अपने वकीलों की सम्मति के अनुसार मृतक महारानी के ऋण-सम्बन्धी हिसाबों के चुकाने से इनकार कर दिया है। हमें भय है कि इस निश्चय से महाजनी टोले में बड़ी हलचल पैदा होगी, और लखनऊ के कितने ही धन-सम्पत्ति के स्वामियों को यह शिक्षा मिल जायगी, कि ब्याज का लोभ कितना अनिष्टकारी होता है।'

लाला साईंदास ने अखबार मेज़ पर रख दिया, और आकाश की ओर देखा, जो निराशों का अन्तिम आश्रय है। अन्य मित्रों ने भी यह समाचार पढ़ा। इस प्रश्न पर वाद-विवाद होने लगा। साईंदास पर चारों ओर से बौछार पड़ने लगी। सारा दोष उन्हीं के सिर मढ़ा गया, और उनकी चिरकाल की कार्य कुशलता और परिणाम-दर्शिता मिट्टी में मिल गई। बैंक इतना बड़ा घाटा सहने में असमर्थ था। अब यह विचार उपस्थित हुआ, कि कैसे उसके प्राणों की रक्षा की जाय!

(५)

शहर में यह खबर फैलते ही लोग अपने रुपए वापस लेने के लिए आतुर हो गये। सुबह से शाम तक लेनदारों का ताँता लगा रहता था। जिन लोगों का धन चलतू हिसाब में जमा था, उन्होंने तुरन्त निकाल लिया, कोई उज्र न सुना। यह उसी पत्र के लेख का फल था, कि नेशनल-बैंक की साख उठ गई। धीरज से काम लेते, तो बैंक सँभल जाता; परन्तु आँधी और तूफान में कौन नौका स्थिर रह सकती है? अंत में ख़ज़ांची ने टाट उलट दिया। बैंक की नसों से इतनी रक्त-धाराएँ निकलीं, कि वह प्राण-रहित हो गया।

तीन दिन बीत चुके थे। बैंक के घर के सामने सहस्रों आदमी एकत्र थे। बैंक के द्वार पर सशस्त्र सिपाहियों का पहरा था। नाना प्रकार की अफ़वाहें उड़ रही थीं। कभी ख़बर उड़ती, लाला साईंदास ने विष-पानकर लिया। कोई उसके पकड़े जाने की सूचना लाता था। कोई कहता था—डाइरेक्टर हवालात के भीतर हो गये।

एकाएक सड़क पर से एक मोटर निकली, और बैंक के सामने आकर रुक गई। किसी ने कहा—बरहल के महाराज की मोटर है। इतना सुनते ही सैकड़ों मनुष्य मोटर की ओर घबराये हुए दौड़े, और उन लोगों ने मोटर को घेर लिया।

कुँअर जगदीशसिंह महारानी की मृत्यु के बाद वकीलों से सलाह लेने लखनऊ आये थे। बहुत कुछ सामान भी ख़रीदना था। वे इच्छाएँ, जो चिरकाल से ऐसे सुअवसर की प्रतीक्षा में थीं, बँधे पानी की भाँति राह पाकर उबली पड़ती थीं। यह मोटर आज ही ली गई थी। नगर में एक कोठी लेने की बातचीत हो रही थी। बहुमूल्य विलास-वस्तुओं से लदी एक गाड़ी बरहल के लिए चल चुकी थी। यहाँ भीड़ देखी, तो सोचा, कोई नवीन नाटक होनेवाला है, मोटर रोक दी। इतने में सैकड़ों आदमियों की भीड़ लग गई।

कुँअर साहब ने पूछा—यहाँ आप लोग क्यों जमा हैं? कोई तमाशा होनेवाला है क्या?

एक महाशय, जो देखने में कोई बिगड़े रईस मालूम होते थे, बोले—जी हाँ, बड़ा मज़ेदार तमाशा है।

कुँअर—किसका तमाशा है?

वह—तक़दीर का।

कुँअर महाशय को यह उत्तर पाकर आश्चर्य तो हुआ; परन्तु सुनते आये थे, कि लखनऊवाले बात-बात में बात निकाला करते हैं; अतः उसी ढंग से उत्तर देना आवश्यक हुआ। बोले—तक़दीर का खेल देखने के लिए यहाँ आना तो आवश्यक नहीं।

लखनवी महाशय ने कहा—आपका कहना सच है; लेकिन दूसरी जगह यह मज़ा कहाँ? यहाँ सुबह से शाम तक के बीच में भाग्य ने कितनों को धनी से निर्धन और निर्धन से भिखारी बना दिया। सवेरे जो लोग महलों में बैठे थे, उन्हें इस समय वृक्ष की छाया भी नसीब नहीं। जिनके द्वार पर सदावर्त ख़ुले थे, उन्हें इस समय रोटियों के लाले पड़े हैं। अभी एक सप्ताह पहले जो लोग काल-गति, भाग्य के खेल और समय के फेर को कवियों की उपमा समझते थे, इस समय उनकी आह और करुण-क्रन्दन वियोगियों को भी लज्जित करता है। ऐसे तमाशे और कहाँ देखने में आवेंगे?

कुँअर—जनाब, आपने तो पहेली को और गूढ़ कर दिया। देहाती हूँ, मुझसे साधारण तौर से बात कीजिए।

इस पर एक सज्जन ने कहा—साहब, यह नेशनल बैंक है। इसका दिवाला निकल गया है। आदाब-अर्ज़, मुझे पहचाना?

कुँअर साहब ने उसकी ओर देखा, तो मोटर से कूद पड़े, और उससे हाथ मिलाते हुए बोले—अरे मिस्टर नसीम? तुम यहाँ कहाँ? भाई, तुमसे मिलकर बड़ा आनन्द हुआ।

मिस्टर नसीम कुँअर साहब के साथ देहरादून-कॉलेज में पढ़ते थे। दोनों साथ-साथ देहरादून की पहाड़ियों पर सैर करने जाया करते थे; परन्तु जब से कुँअर महाशय ने घर के झंझटों से विवश होकर कॉलेज छोड़ा, तब से दोनों मित्रों से भेंट न हुई थी। नसीम भी उनके आने के कुछ समय पीछे अपने घर लखनऊ चले आये थे।

नसीम ने उत्तर दिया—शुक्र है, आपने पहचाना तो। कहिये, अब तो पौ-बारह हैं। कुछ दोस्तों की भी सुध है?

कुँअर—सच कहता हूँ, तुम्हारी याद हमेशा आया करती थी। कहो, आराम से तो हो? मैं रायल होटल में टिका हूँ, आज आओ, तो इतमीनान से बातचीत हो।

नसीम—जनाब, इतमीनान तो नेशनल-बैंक के साथ चला गया। अब तो रोज़ी की फिक्र सवार है। जो कुछ जमा-पूँजी थी, सब आपकी भेंट हुई। इस दिवाले ने फ़कीर बना दिया। अब आपके दरवाजे पर आकर धरना दूँगा।

कुँअर—तुम्हारा घर है। बेखटके आओ। मेरे साथ ही क्यों न चलो। क्या बतलाऊँ, मुझे कुछ भी ध्यान न था, कि मेरे इनकार करने का यह फल होगा। जान पड़ता है, बैंक ने बहुतेरों को तबाह कर दिया।

नसीम—घर-घर मातम छाया हुआ है। मेरे पास तो इन कपड़ों के सिवा और कुछ नहीं रहा।

इतने में एक तिलकधारी पंडितजी आ गये, और बोले—साहब आपके शरीर पर वस्त्र तो है, यहाँ तो धरती-आकाश कहीं ठिकाना नहीं है। मैं राघोजी पाठशाला का अध्यापक हूँ। पाठशाला का सब धन इसी बैंक में जमा था। पचास विद्यार्थी इसी के आसरे संस्कृत पढ़ते और भोजन पाते थे। कल से पाठशाला बन्द हो जायगी। दूर-दूर के विद्यार्थी हैं। वह अपने घर किस तरह पहुँचेंगे, ईश्वर ही जाने।

एक महाशय, जिनके सिर पर पंजाबी ढंग की पगड़ी थी, गाढ़े का कोट और चमरौधा जूता पहने हुए थे, आगे बढ़ आये और नेतृत्व के भाव से बोले—महाशय, इस बैंक के फेलियर ने कितने ही इंस्टीट्यूशनों को समाप्त कर दिया। लाला दीनानाथ का अनाथालय अब एक दिन भी नहीं चल सकता। उसके एक लाख रुपये डूब गये। अभी पन्द्रह दिन हुए मैं डेपुटेशन से लौटा, तो पन्द्रह हज़ार रुपये अनाथालय कोष में जमा किये थे; मगर अब कहीं कौड़ी का ठिकाना नहीं।

एक बूढ़े ने कहा—साहब, मेरी तो जिन्दगी-भर की कमाई मिट्टी में मिल गई! अब कफ़न का भी भरोसा नहीं।

धीरे-धीरे और लोग भी एकत्र हो गये, और साधारण बातचीत होने लगी। प्रत्येक मनुष्य अपने पासवाले को अपनी दुःख-कथा सुनाने लगा। कुँअर साहब आधे घंटे तक नसीम के साथ खड़े ये विपद-कथाएँ सुनते रहे। ज्यों ही मोटर पर बैठे और होटल की ओर चलने की आज्ञा दी, त्यों ही उनकी दृष्टि एक मनुष्य पर पड़ी, जो पृथ्वी पर सिर झुकाये बैठा था। यह एक अहीर था, लड़कपन में कुँअर साहब के साथ खेला था। उस समय उनमें ऊँच-नीच का विचार न था, साथ कबड्डी खेले, साथ पेड़ों पर चढ़े और चिड़ियों के बच्चे चुराये थे। जब कुँअरजी देहरादून पढ़ने गये, तब यह अहीर का लड़का शिवदास अपने बाप के साथ लखनऊ चला आया। उसने यहाँ एक दूध की दूकान खोल ली थी। कुँअर साहब ने उसे पहचाना और उच्च स्वर से पुकारा—अरे शिवदास, इधर देखो।

शिवदास ने बोली सुनी; परन्तु सिर ऊपर न उठाया। वह अपने स्थान पर बैठा ही कुँअर साहब को देख रहा था। बचपन के वे दिन याद आ रहे थे, जब वह जगदीरा के साथ गुल्ली-डण्डा खेलता था, जब दोनों बुड्ढे गफूर मियाँ का मुँह चिढ़ाकर घर में छिप जाते थे, जब वह इशारों से जगदीश को गुरु जी के पास से बुला लेता था, और दोनों रामलीला देखने चले जाते थे। उसे विश्वास था, कि कुँअरजी मुझे भूल गये होंगे, वे लड़कपन की बातें अब कहाँ? कहाँ मैं और कहाँ यह! लेकिन जब कुँअर साहब ने उसका नाम लेकर बुलाया, तो उसने प्रसन्न होकर मिलने के बदले उसने और भी सिर नीचा कर लिया, और वहाँ से टल जाना चाहा। कुँअर साहब की सहृदयता में अब यह साम्य-भाव न था; मगर कुँअर साहब उसे हटते देखकर मोटर से उतरे, और उसका हाथ पकड़कर बोले—अरे शिवदास, क्या मुझे भूल गये?

अब शिवदास अपने मनोवेग को रोक न सका। उसके नेत्र डबडबा आये। कुँअर के गले से लिपट गया, और बोला—भूला तो नहीं; पर आपके सामने आते लज्जा आती है।

कुँअर—यहाँ दूध की दूकान करते हो क्या? मुझे मालूम ही न था, नहीं तो अठवारों से पानी पीते-पीते जुकाम क्यों होता? आओ, इस मोटर पर बैठ जाओ। मेरे साथ होटल तक चलो। तुमसे बातें करने को जी चाहता है। तुम्हें बरहल ले चलूँगा, और एक बार फिर गुल्ली-डण्डे का खेल खेलेंगे।

शिवदास—ऐसा न कीजिए, नहीं तो देखने वाले हँसेंगे। मैं होटल में आ जाऊँगा॥ वही हज़रतगंजवाले होटल में ठहरे हैं न?

कुँअर—अवश्य आओगे न?

शिवदास—आप बुलावेंगे, और मैं न आऊँगा?

कुँअर—यहाँ कैसे बैठे हो? दूकान तो चल रही है न?

शिवदास—आज सबेरे तक तो चलती थी। आगे का हाल नहीं मालूम।

कुँअर—तुम्हारे रुपये भी बैंक में जमा थे क्या?

शिवदास—जब आऊँगा, तो बताऊँगा।

कुँअर साहब मोटर पर आ बैठे, और ड्राइवर से बोले—होटल की ओर चलो।

ड्राइवर—हुजूर ने ह्वाइटवे-कम्पनी की दूकान पर चलने की आज्ञा जो दी थी।

कुँअर—अब उधर न जाऊँगा।

ड्राइवर-जेकब साहब बारिस्टर के यहाँ भी न चलूँ?

कुँअर—(झुँझलाकर) नहीं, कहीं मत चलो। मुझे सीधे होटल पहुँचाओ।

निराशा और विपत्ति के इन दृश्यों ने जगदीश सिंह के चित्त में यह प्रश्न उपस्थित कर दिया था, कि अब मेरा क्या कर्तव्य है?

(६)

आज से सात वर्ष पूर्व, जब बरहल के महाराज ठीक युवावस्था में घोड़े से गिरकर मर गये थे, विरासत का प्रश्न उठा, तो महाराजा के कोई संतान न होने के कारण, वंश-क्रम मिलाने से उसके सगे चचेरे भाई ठाकुर रामसिंह को विरासत का हक पहुँचता था। उन्होंने दावा किया; लेकिन न्यायालयों ने रानी को ही हक़दार ठहराया। ठाकुर साहब ने अपीलें कीं, प्रिवी कौंसिल तक गये; परन्तु सफलता न हुई। मुकदमेबाज़ी में लाखों रुपए नष्ट हुए; अपने पास की मिलकियत भी हाथ से जाती रही; किन्तु हारकर भी वह चैन से न बैठे। सदैव विधवा रानी को छेड़ते रहे। कभी असामियों को भड़काते, कभी असामियों से रानी की बुराई कराते, कभी उन्हें जाली मुकदमों में फँसाने का उपाय करते; परन्तु रानी भी बड़े जीवट की स्त्री थी। वह भी ठाकुर साहब के प्रत्येक आघात का मुँहतोड़ उत्तर देती। हाँ, इस खींच-तान में उन्हें बड़ी-बड़ी रकमें अवश्य खर्च करनी पड़ती थीं। असामियों से रुपये न वसूल होते; इसलिए उन्हें बार-बार ऋण लेना पड़ता था; परन्तु कानून के अनुसार उन्हें ऋण लेने का अधिकार न था; इसलिए उन्हें या तो इस व्यवस्था को छिपाना पड़ता था, या सूद की गहरी दर स्वीकार करनी पड़ती थी।

कुँअर जगदीशसिंह का लड़कपन तो लाड़-प्यार से बीता था; परंतु जब ठाकुर रामसिंह मुकदमेबाज़ी से बहुत तंग आ गये और यह संदेह होने लगा, कि कहीं रानी की चालों से कुँअर साहब का जीवन संकट में न पड़ जाय, तो उन्होंने विवश हो कुँअर साहब को देहरादून भेज दिया। कुँअर साहब वहाँ दो वर्ष तक तो आनन्द से रहे; किन्तु ज्योंही कॉलेज की प्रथम श्रेणी में पहुँचे, कि पिता परलोकवासी हो गये। कुँअर साहब को पढ़ाई छोड़नी पड़ी। बरहल चले आये। सिर पर कुटुम्ब-पालन और रानी से पुरानी शत्रुता के निभाने का बोझ आ पड़ा। उस समय से महारानी के मृत्यु-काल तक उनकी दशा बहुत गिरी रही। ऋण या स्त्रियों के गहनों के सिवा और कोई आधार न था। उस पर कुल-मर्यादा की रक्षा की चिन्ता भी थी। ये तीन वर्ष उनके लिए कठिन परीक्षा के समय थे। आए-दिन साहूकारों से काम पड़ता था। उनके निर्दय वाणों से कलेजा छिद गया था। हाकिमों के कठोर व्यवहार और अत्याचार भी सहने पड़ते; परन्तु सबसे हृदय-विदारक अपने आत्मीयजनों का बर्ताव था; जो सामने बात न करके बग़ली चंटें करते थे, मित्रता और ऐक्य की बाड़ में कपट का हाथ चलाते थे। इन कठोर यातनाओं ने कुँअर साहब को अधिकार, स्वेच्छाचार और धन-सम्पत्ति का जानी-दुश्मन बना दिया था। वह बड़े भावुक पुरुष थे। सम्बन्धियों की अकृपा और देश-बन्धुओं की दुर्नीति उनके हृदय पर काला चिह्न बनाती जाती थी; साहित्य-प्रेम ने उन्हें मानव-प्रकृति का तत्त्वान्वेषी बना दिया था और जहाँ यह ज्ञान उन्हें प्रतिदिन सभ्यता से दूर लिये जाता था, वहाँ उनके चित्त में जन सत्ता और साम्यवाद के विचार पुष्ट करता जाता था। उन पर प्रकट हो गया था, कि यदि सद्व्यवहार जीवित है, तो वह झोपड़ों और ग़रीबी में ही। उस कठिन समय में, जब चारों ओर अन्धेरा छाया हुआ था, उन्हें कभी-कभी सच्ची सहानुभूति का प्रकाश यहीं दृष्टिगोचर हो जाता था। धनसम्पत्ति को वह श्रेष्ठ प्रसाद नहीं, ईश्वर का प्रकोप समझते थे, जो मनुष्य के हृदय से दया और प्रेम के भावों को मिटा देता है; यह वह मेघ है, जो चित्त के प्रकाशित तारों पर छा जाता है।

परन्तु महारानी की मृत्यु के बाद ज्यों ही धन-सम्पत्ति ने उन पर वार किया, बस, दार्शनिक तर्कों की यह ढाल चूर-चूर हो गई। आत्मनिदर्शन की शक्ति नष्ट हो गई। वे मित्र बन गये, जो शत्रु-सरीखे थे, और जो सच्चे हितैषी थे, वे विस्मृत हो गये। साम्यवाद के मनोगत विचारों में घोर परिवर्तन प्रारम्भ हो गया। हृदय में असहिष्णुता का उद्भव हुआ। त्याग ने भोग की ओर सिर झुका दिया; मर्यादा की बेड़ी गले में पड़ी। वे अधिकारी, जिन्हें देखकर उनके तेवर बदल जाते थे, अब उनके सलाहकार बन गये। दीनता और दरिद्रता को, जिनसे उन्हें सच्ची सहानुभूति थी, देखकर अब वह आँखें मूँद लेते थे।

इसमें सन्देह नहीं, कि कुँअर साहब अब भी साम्यवाद के भक्त थे; किन्तु उन विचारों के प्रकट करने में वह पहले की-सी स्वतन्त्रता न थी। विचार अब व्यवहार से डरता था। उन्हें कथन को कार्य रूप में परिणत करने का अवसर प्राप्त था; पर अब कार्य-क्षेत्र कठिनाइयों से घिरा हुआ जान पड़ता था। बेगार के वह जानी दुश्मन थे; परन्तु अब बेगार को बंद करना दुष्कर प्रतीत होता था। स्वच्छता और स्वास्थ्य-रक्षा के वह भक्त थे; किन्तु जब धन-व्यय का ध्यान न करके भी उन्हें ग्राम-वासियों की ही ओर से विरोध की शंका होती थी। असामियों से पोत उगाहने में कठोर बर्ताव को वह पाप समझते थे; मगर अब कठोरता के बिना काम चलता न जान पड़ता था। सारांश यह, कि कितने ही सिद्धान्त, जिन पर पहले उनकी श्रद्धा थी, अब असंगत प्रतीत होते थे।

परन्तु आज जो दुःखजनक दृश्य बैंक के हाते में नजर आये, उन्होंने उनके दया-भाव को जाग्रत कर दिया। उस मनुष्य की-सी दशा हो गई, जो नौका में बैठा सुरम्य तट की शोभा का आनन्द उठाता हुआ किसी श्मशान के सामने आ जाय, चिता पर लाशें जलती देखे, शोक-सन्तप्तों के करुण-क्रन्दन को सुने और नाव से उतरकर उनके दुःख में सम्मिलित हो जाय।

रात के दस बज गये थे। कुँअर साहब पलंग पर लेटे थे। बैंक के हाते का दृश्य आँखों के सामने नाच रहा था। वही विलाप-ध्वनि कानों में आ रही थी। चित्त में प्रश्न हो रहा था, क्या इस विडम्बना का कारण मैं ही हूँ? मैंने तो वही किया, जिसका मुझे कानूनन अधिकार था। यह बैंक के संचालकों की भूल है, जो उन्होंने बिना पूरी ज़मानत के इतनी बड़ी रक़म क़र्ज दे दी। लेनदारों को उन्हीं की गरदन नापनी चाहिये। मैं कोई खुदाई फ़ौजदार नहीं हूँ, कि दूसरों की नादानी का फल भोगूँ। फिर विचार पलटा, मैं नाहक इस होटल में ठहरा। चालिस रुपए प्रतिदिन भी व्यर्थ ही लिया। क्या आवश्यकता थी? मखमली गद्दे की कुर्सियों या शीशे के सामानों की सजावट से मेरा गौरव नहीं बढ़ सकता। कोई साधारण मकान पाँच रुपए किराये पर ले लेता, तो क्या काम न चलता? मैं और साथ के सब आदमी आराम से रहते। यही न होता, कि लोग निंदा करते। इसकी क्या चिंता। जिन लोगों के मत्थे यह ठाठ कर रहा हूँ, वे ग़रीब तो रोटियों को तरसते हैं। ये ही दस-बारह हज़ार रुपए लगाकर कुएँ बनवा देता, तो सहस्रों दीनों का भला होता। अब फिर लोगों के चकमें में न जाऊँगा। यह मोटरकार व्यर्थ है। मेरा समय इतना मँहगा नहीं है, कि घंटे-आध घंटे की किफायत के लिए दो सौ रुपये महीने का खर्च बढ़ा लूँ। फ़ाक़ा करनेवाले असामियों के सामने मोटर दौड़ाना उनकी छातियों पर मूँग दलना है। माना कि वे रोब में आ जायँगे, जिधर से निकल जाऊँगा, सैकड़ों स्त्रियाँ और बच्चे देखने के लिए खड़े हो जायँगे; मगर केवल इतने ही दिखावे के लिए इतना खर्च बढ़ाना मूर्खता है। यदि दूसरे रईस ऐसा करते हैं, तो करें, मैं उनकी बराबरी क्यों करूँ? अब तक दो हज़ार रुपए सालाने में मेरा निर्वाह हो जाता था। अब दो के बदले चार हज़ार बहुत हैं। फिर मुझे दूसरों की कमाई इस प्रकार उड़ाने का अधिकार ही क्या है? मैं कोई उद्योग-धंधा, कोई कारोबार नहीं करता, जिसका यह नफ़ा हो। यदि मेरे पुरुषों ने हठधर्मी और ज़बरदस्ती से इलाक़ा अपने हाथों में रख लिया, तो मुझे उनके लूट के धन में शरीक होने का क्या अधिकार है? जो लोग परिश्रम करते हैं, उन्हें अपने परिश्रम का पूरा फल मिलना चाहिये। राज्य उन्हें केवल दूसरों के कठोर हाथों से बचाता है, उसे इस सेवा का उचित मुआवज़ा मिलना चाहिये। बस मैं तो राज्य की ओर से यह मुआवज़ा वसूल करने के लिए नियत हूँ| इसके सिवा इन ग़रीबों की कमाई में मेरा और कोई भाग नहीं। ये बेचारे दीन हैं, मूर्ख हैं, बेज़बान हैं। इस समय हम इन्हें चाहे जितना सता लें। इन्हें अपने स्वत्व का ज्ञान नहीं। ये अपने महत्त्व को नहीं समझते; पर एक समय ऐसा अवश्य आवेगा, जब इनके मुँह में भी ज़बान होगी, इन्हें भी अपने अधिकारों का ज्ञान होगा। तब हमारी दशा बुरी होगी। ये भोग-विलास मुझे अपने असामियों से दूर किये देते हैं। मेरी भलाई इसी में है, कि इन्हीं में रहूँ, इन्हीं की भाँति जीवन निर्वाह और इनकी सहायता करूँ। हाँ, तो इस बैंक के बारे में क्या करूँ? कोई छोटी मोटी रकम होती, तो कहता, लाओ, जिस तरह सिर पर बहुत से भार हैं, उसी तरह यह भी सही। मूल के अलावा कई हज़ार रुपए सूद के अलग हुए। फिर महाजनों के भी तो तीन लाख रुपए हैं। रियासत की आमदनी डेढ़-दो लाख रुपए सालाना है, अधिक नहीं। मैं इतना बड़ा साहस करूँ भी, तो किस बिरते पर; हाँ यदि वैरागी हो जाऊँ, तो संभव है, मेरे जीवन में—यदि कहीं अचानक मृत्यु न हो जाय तो—यह झगड़ा पाक हो जाय। इस अग्नि में कूदना अपने संपूर्ण जीवन, अपनी उमंगों और अपनी आशाओं को भस्म करना है। आह! इस दिन की प्रतीक्षा में मैंने क्या-क्या कष्ट नहीं भोगे! पिताजी ने इसी चिन्ता में प्राण-त्याग किया। यह शुभ मुहुर्त्त हमारी अंधेरी रात के लिए दूर का दीपक था। हम इसी के आसरे जीवित थे। सोते-जागते सदैव इसी की चर्चा रहती थी। इससे चित्त को कितना संतोष और कितना अभिमान था। भूखे रहने के दिन भी हमारे तेवर मैले न होते थे। जब इतने धैर्य और संतोष के बाद अच्छे दिन आये, तो उससे कैसे विमुख हुआ जाय? और फिर अपनी ही चिंता तो नहीं, रियासत की उन्नति को कितनी ही स्कीमें सोच चुका हूँ। क्या अपनी इच्छाओं के साथ उन विचारों को भी त्याग दूँ? इस अभागी रानी ने मुझे बुरी तरह फँसाया। जब तक जीती रही, कभी चैन से न बैठने दिया। मरी तो मेरे सिर पर यह बला डाल दी; परंतु मैं दरिद्रता से इतना डरता क्यों हूँ? दरिद्रता कोई पाप नहीं है। यदि मेरा त्याग हज़ारों घरानों को कष्ट और दुरवस्था से बचाये, तो मुझे उससे मुँह न मोड़ना चाहिये। केवल सुख से जीवन व्यतीत करना ही हमारा ध्येय नहीं है? हमारी मान-प्रतिष्ठा और कीर्ति सुख-भोग ही से तो नहीं हुआ करती। राज-मन्दिरों में रहने वाले और विलास में रत राणा प्रताप को कौन जानता है? यह उनका आत्म-समर्पण और कठिन व्रत-पालन ही है, जिसने उन्हें हमारी जाति का सूर्य बना दिया है। श्रीरामचन्द्र ने यदि अपना जीवन सुख-भोग में बिताया होता, तो आज हम उनका नाम भी न जानते। उनके आत्मबलिदान ने ही उन्हें अमर बना दिया। हमारी प्रतिष्ठा धन और विलास पर अवलम्बित नहीं है। मैं मोटर पर सवार हुआ तो क्या, और टट्टू पर चढ़ा तो क्या, होटल में ठहरा तो क्या, और किसी मामूली घर में ठहरा तो क्या, बहुत होगा, ताल्लुकेदार लोग मेरी हँसी उड़ावेंगे। इसकी परवा नहीं। मैं तो हृदय से चाहता हूँ, कि उन लोगों से अलग-अलग रहूँ। यदि इतनी ही निन्दा से सैकड़ों परिवारों का भला हो जाय, तो मैं मनुष्य नहीं, जो प्रसन्नता से उसे सहन करूँ। यदि अपने घोड़े और फ़िटन, सैर और शिकार, नौकर-चाकर और स्वार्थ-साधक हित-मित्रों से रहित होकर मैं सहस्रों अमीर-गरीब कुटुम्बों का, विधवाओं और अनाथों का भला कर सकूँ, तो मुझे इसमें कदापि विलम्ब न करना चाहिये। सहस्रों परिवारों के भाग्य इस समय मेरी मुट्ठी में हैं। मेरा सुख-भोग उनके लिए विष और मेरा आत्म-संयम उनके लिए अमृत है। मैं अमृत बन सकता हूँ, तो विष क्यों बनूँ? और फिर इसे आत्म-त्याग समझना भी मेरी भूल है। यह एक संयोग है, कि मैं आज इस जायदाद का अधिकारी हूँ। मैंने उसे कमाया नहीं। उसके लिए रक्त नहीं बहाया, पसीना नहीं बहाया। यदि वह जायदाद मुझे न मिली होती, तो मैं सहस्रों दीन-भाइयों की भाँति आज जीविकोपार्जन में लगा रहता। मैं क्यों न भूल जाऊँ, कि मैं इस राज्य का स्वामी हूँ। ऐसे ही अवसरों पर मनुष्य की परख होती है। मैंने वर्षों पुस्तकावलोकन किया, वर्षों परोपकार-सिद्धान्तों का अनुयायी रहा। यदि इस समय उन सिद्धान्तों को भूल जाऊँ, और स्वार्थ को मनुष्यता और सदाचार से बढ़ने दूँ, तो वस्तुतः यह मेरी अत्यन्त कायरता और स्वर्थपरता होगी। भला स्वार्थ-साधन की; शिक्षा के लिए गीता, मिल, एमर्सन और अरस्तू का शिष्य बनने की क्या आवश्यकता थी? यह पाठ तो मुझे अपने दूसरे भाइयों से यों ही मिल जाता। प्रचलित प्रथा से बढ़कर और कौन गुरु था? साधारण लोगों की भाँति क्या मैं भी स्वार्थ के सामने सिर झुका दूँ? तो फिर विशेषता क्या रही? नहीं, मैं कानशंस (विवेक-बुद्धि) का खून न करूँगा। जहाँ पुण्य कर सकता हूँ, पाप न करूँगा। परमात्मन्, तुम मेरी सहायता करो, तुमने मुझे राजपूत-घर में जन्म दिया है। मेरे कर्म से इस महान् जाति को लज्जित न करो। नहीं, कदापि नहीं। यह गर्दन स्वार्थ के सम्मुख न झुकेगी। मैं राम, भीष्म और प्रताप का वंशज हूँ; शरीर-सेवक न बनूँगा।

कुँअर जगदीशसिंह को इस समय ऐसा ज्ञात हुआ, मानो वह किसी ऊँचे मीनार पर चढ़ गये हैं। चित्त अभिमान से पूरित हो गया। आँखें प्रकाशमान हो गईं; परन्तु एक ही क्षण में इस उमंग का उतार होने लगा, ऊँचे मीनार से नीचे की ओर आँखें गईं। सारा शरीर काँप उठा। उस मनुष्य की-सी दशा हो गई, जो किसी नदी के तट पर बैठा हुआ उसमें कूदने का विचार कर रहा हो।

उन्होंने सोचा, क्या मेरे घर के लोग मुझसे सहमत होंगे? यदि मेरे कारण वे सहमत भी हो जायँ, तो क्या मुझे अधिकार है, कि अपने साथ उनकी इच्छाओं का भी बलिदान करूँ? और तो और माताजी कभी न मानेंगी, और कदाचित भाई लोग भी अस्वीकार करें। रियासत की हैसियत को देखते हुए वे कम-से-कम दस हज़ार सालाना के हिस्सेदार हैं और मैं उनके भाग में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर सकता। मैं केवल अपना मालिक हूँ; परन्तु मैं भी तो अकेला नहीं हूँ। सावित्री स्वयं चाहे मेरे साथ आग में कूदने को तैयार हो; किन्तु अपने प्यारे पुत्र को इस आँच के समीप कदापि न आने देगी।

कुँअर महाशय और अधिक न सोच सके। वह एक विकल दशा में पलँग पर से उठ बैठे और कमरे में टहलने लगे। थोड़ी देर बाद उन्होंने जँगले से बाहर की ओर झाँका और किवाड़ खोलकर बाहर चले आये। चारों ओर अंधेरा था। उनकी चिन्ताओं की भाँति सामने अपार और भयंकर गोमती नदी बह रही थी। वह धीरे-धीरे नदी के तट पर चले गये और देर तक वहाँ टहलते रहे। आकुल-हृदय को जल-तरंगों से प्रेम होता है। शायद इसलिए कि लहरें व्याकुल हैं। उन्होंने अपने चंचल चित्त को फिर एकाग्र किया। यदि रियासत की आमदनी से ये सब वृत्तियाँ दी जायँगी, तो ऋण का सूद निकलना भी कठिन होगा। मूल का तो कहना ही क्या! क्या आय में वृद्धि नहीं हो सकती? अभी अस्तबल में बीस घोड़े हैं। मेरे लिये एक काफी है। नौकरों की संख्या सौ से कम न होगी। मेरे लिये दो भी अधिक हैं। यह अनुचित है, कि अपने ही भाइयों से नीच सेवाएँ कराई जायँ। उन मनुष्यों को मैं अपने सीर की ज़मीन दे दूँगा। सुख से खेती करेंगे, और मुझे आशीर्वाद देंगे। बगीचों के फल अब तक डालियो के भेंट हो जाते थे। अब उन्हें बेचूँगा, और सबसे बड़ी आमदनी तो बयाई की है। केवल महेशगंज के बाजार से दस हजार रुपए आते हैं। यह सब आमदनी महन्त जी उड़ा जाते हैं। उनके लिए एक हजार रुपये साल होना चाहिये। अब की इस बाजार का ठेका दूँगा। आठ हज़ार से कम न मिलेंगे। इन मदों से पचीस हज़ार रुपए की वार्षिक आय होगी। सावित्री और लल्ला (लड़के) के लिए एक हजार रुपया माहवार काफी हैं। मैं सावित्री से स्पष्ट कह दूँगा, कि या तो एक हज़ार रुपया मासिक लो और मेरे साथ रहो, या रियासत की आधी आमदनी ले लो, और मुझे छोड़ दो। रानी बनने की इच्छा हो, तो खुशी से बनो; परन्तु मैं राजा न बनूँगा।

अचानक कुँअर साहब के कानों में आवाज़ आई—'राम नाम सत्य है!' उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। कई मनुष्य एक लाश लिये आते थे। उन लोगों ने नदी-किनारे चिता बनाई और उसमें आग लगा दी। दो स्त्रियाँ चिग्घार कर रो रही थीं। इस विलाप का कुँअर साहब के चित्त पर कुछ प्रभाव न पड़ा। वह चित्त में लज्जित हो रहे थे, कि मैं कितना पाषाण-हृदय हूँ। एक दीन मनुष्य की लाश जल रही है, स्त्रियाँ रो रही हैं और मेरा हृदय तनिक भी नहीं पसीजता! पत्थर की मूर्ति की भाँति खड़ा हूँ! एकबारगी एक स्त्री ने रोते हुए कहा—'हाय मेरे राजा! तुम्हें विष कैसे मीठा लगा?' यह हृदय-विदारक विलाप सुनते ही कुँअर साहब के चित्त में एक घाव सा लग गया। करुणा सजग हो गई, और नेत्र अश्रु-पूर्ण हो गये। कदाचित् इस दुखिया ने विष पान करके प्राण दिये हैं। हाय! उसे विष कैसे मीठा लगा! इसमें कितनी करुणा है, कितना दुःख, कितना आश्चर्य! विष तो कड़वा पदार्थ है। वह क्यों कर मीठा हो गया! कटु विष के बदले जिसने अपने मधुर प्राण दे दिये, उस पर कोई बड़ी मुसीबत पड़ी होगी! ऐसी ही दशा में विष मधुर हो सकता है। कुँअर साहब तड़प गये। कारुणिक शब्द बार-बार उनके हृदय में गूँजते थे। अब उनसे वहाँ न खड़ा रहा गया। वह उन आदमियों के पास आये, और एक मनुष्य से पूछा—क्या बहुत दिनों से बीमार थे? इस मनुष्य ने कुँअर साहब की ओर आँसू भरे नेत्रों से देखकर कहा—नहीं साहब, कहाँ की बीमारी। अभी आज सन्ध्या तक भलीभाँति बातें कर रहे थे। मालूम नहीं, सन्ध्या को क्या खा लिया, कि खून की क़ै होने लगी। जब तक वैद्यराज के यहाँ जायँ, तब तक आँखें उलट गईं। नाड़ी छूट गई। वैद्यराज ने आकर देखा, तो कहा—अब क्या हो सकता है? अभी कुल बाईस-तेईस वर्ष की अवस्था थी। ऐसा पट्ठा सारे लखनऊ में नहीं था।

कुँअर—कुछ मालूम हुआ, विष क्यों खाया?

उस मनुष्य ने संदेह-दृष्टि से देखकर कहा—महाशय, और तो कोई बात नहीं हुई। जब से यह बड़ा बैंक टूटा है, बहुत उदास रहते थे। कई हज़ार रुपए बैंक में जमा किये थे। घी-दूध-मलाई की बड़ी दूकान थी। बिरादरी में मान था। वह सारी पूँजी डूब गई। हम लोग रोकते रहे, कि बैंक में रुपए मत जमा करो; किन्तु होनहार यह थी। किसी की नहीं सुनी। आज सवेरे स्त्री से गहने माँगते थे, कि गिरवी रखकर अहीरों को दूध के दाम दे दें। उससे बातों-बातों में झगड़ा हो गया। बस न जाने क्या खा लिया।

कुँअर साहब का हृदय काँप उठा। तुरन्त ध्यान आया—शिवदास तो नहीं है! पूछा—इनका नाम शिवदास तो नहीं था? उस मनुष्य ने विस्मय से देखकर कहा—हाँ, यही नाम था। क्या आप से जान-पहचान थी?

कुँअर—हाँ, हम और यह बहुत दिनों तक बरहल में साथ-साथ खेले थे। आज शाम को वह हमसे बैंक में मिले थे। यदि उन्होंने मुझसे तनिक भी चर्चा की होती, तो मैं यथाशक्ति उनकी सहायता करता। शोक!

उस मनुष्य ने अब ध्यान-पूर्वक कुँअर साहब को देखा, और जाकर स्त्रियों से कहा—चुप हो जाओ, बरहल के महाराजा आये हैं! इतना सुनते ही शिवदास की माता ज़ोर-ज़ोर से सिर पटकती और रोती हुई आकर कुँअर के पैरों पर गिर पड़ी। उसके मुख से केवल ये शब्द निकले—'बेटा, बचपन में जिसे तुम भैया कहा करते थे x x x' और गला रुँध गया।

कुँअर महाशय की आँखों से भी अश्रुपात हो रहा था। शिवदास की मूर्ति उनके सामने खड़ी यह कहती देख पड़ती थी, कि तुमने मित्र होकर मेरे प्राण लिये!

(७) भोर हो गया; परन्तु कुँअर साहब को नींद न आई। जब से वह गोमती-तीर से लौटे थे, उनके चित्त पर एक वैराग्य-सा छाया हुआ था। वह कारुणिक दृश्य उनके स्वार्थ के तर्कों को छिन्न-भिन्न किये देता था। सावित्री के विरोध, लल्ला के निराशा-युत हठ, और माता के कुछ शब्दों का अब उन्हें लेश-मात्र भी भय न था। सावित्री कुढ़ेगी, कुढ़े। लल्ला को भी संग्राम के क्षेत्र में कूदना पड़ेगा, कोई चिन्ता नहीं। माता प्राण देने पर तत्पर होगी, क्या हर्ज है। मैं अपनी स्त्री-पुत्र तथा हित-मित्रादि के लिए सहस्रों परिवारों की हत्या न करूँगा। हाय! शिवदास को जीवित रखने के लिए मैं ऐसी कितनी रियासतें छोड़ सकता हूँ। सावित्री को भूखों रहना पड़े, लल्ला को मजदूरी करनी पड़े, मुझे द्वारद्वार भीख माँगनी पड़े, तब भी दूसरों का गला न दबाऊँगा। अब विलम्ब का अवसर नहीं। न जाने आगे यह दिवाला और क्या क्या आपत्तियाँ खड़ी करे। मुझे इतना आगा-पीछा क्यों हो रहा है? यह केवल आत्म-निर्बलता है; वरना यह कोई ऐसा बड़ा काम नहीं, जो किसी ने न किया हो। आये-दिन लोग लाखों रुपये दान-पुण्य करते हैं। मुझे अपने कर्तव्य का ज्ञान है। उससे क्यों मुँह मोडूँ? जो कुछ हो, जो चाहे सिर पड़े, इसकी क्या चिन्ता? कुँअर ने घंटी बजाई। एक क्षण में अरदली आँखें मलता हुआ आया।

कुँअर साहब बोले—अभी जेकब साहब बारिस्टर के पास जाकर मेरा सलाम दो! जाग गये होंगे। कहना ज़रूरी काम है। नहीं, यह पत्र लेते जाओ। मोटर तैयार करा लो।

(८)

मिस्टर जेकब ने कुँअर साहब को बहुत समझाया, कि आप इस दलदल में न फँसे, नहीं तो निकलना कठिन होगा। मालूम नहीं, अभी कितनी ऐसी रक़में हैं, जिनका आपको पता नहीं है; परन्तु चित्त में दृढ़ हो जानेवाला निश्चय चूने का फर्श है, जिसको आपत्ति के थपेड़े और भी पुष्ट कर देते है। कुँअर साहब अपने निश्चय पर दृढ़ रहे। दूसरे दिन समाचार-पत्रों में छपवा दिया, कि मृत महारानी पर जितना कर्ज़ है वह हम सकारते हैं, और नियत समय के भीतर चुका देंगे।

इस विज्ञापन के छपते ही लखनऊ में खलबली पड़ गई। बुद्धिमानों की सम्मति में यह कुँअर महाशय की नितान्त भूल थी, और जो लोग क़ानून से अनभिज्ञ थे, उन्होंने सोचा, कि इसमें अवश्य कोई भेद है। ऐसे बहुत कम मनुष्य थे, जिन्हें कुँअर साहब की नीयत की सचाई पर विश्वास आया हो; परन्तु कुँअर साहब का बखान चाहे न हुआ हो, आशीर्वाद की कमी न थी। बैंक के हज़ारों ग़रीब लेनदार सच्चे हृदय से उन्हें आशीर्वाद दे रहे थे।

एक सप्ताह तक कुँअर साहब को सिर उठाने का अवकाश न मिला। मिस्टर जेकब का विचार सत्य सिद्ध हुआ। देना प्रतिदिन बढ़ता जाता था। कितने ही पुरनोट ऐसे मिले, जिनका उन्हें कुछ भी पता न था। जौहरियों और अन्य बड़े-बड़े दूकानदारों का लेना भी कम न था। अंदाजन तेरह-चौदह लाख का था। मीज़ान बीस लाख तक जा पहुँचा। कुँअर साहब घबराये। शंका हुई—ऐसा न हो, कि उन्हें भाइयों का गुज़ारा भी बंद करना पड़े, जिसका उन्हें कोई अधिकार नहीं था। यहाँ तक कि सातवें दिन उन्होंने कई साहूकारों को बुरा-भला कहकर सामने से दूर किया। जहाँ ब्याज की दर अधिक थी, उसे कम कराया और जिन रक़मों की मीयाद बीत चुकी थी, उनसे इनकार कर दिया।

उन्हें साहूकारों की कठोरता पर क्रोध आता था। उनके विचार में महाजनों को डूबते धन का एक भाग पाकर ही सन्तोष कर लेना चाहिये था। इतनी खींच-तान करने पर भी कुल देना उन्नीस लाख से कम न हुआ।

कुँअर साहब इन कामों से अवकाश पाकर एक दिन नेशनल-बैंक की ओर जा निकले। बैंक खुला हुआ था। मृतक शरीर में प्राण आ गये थे। लेनदारों की भीड़ लगी हुई थी। लोग प्रसन्न-चित्त लौटे जा रहे थे। कुँअर साहब को देखते ही सैकड़ों मनुष्य बड़े प्रेम से उनकी ओर दौड़े। किसी ने रो कर, किसी ने पैरों पर गिर कर और किसी ने सभ्यता-पूर्वक अपनी कृतज्ञता प्रकट की। वह बैंक के कार्यकर्ताओं से भी मिले। लोगों ने कहा—इस विज्ञापन ने बैंक को जीवित कर दिया। बंगाली बाबू ने लाला साईंदास की आलोचना की—वह समझता था, संसार में सब मनुष्य भलमानस है। हमको उपदेश करता था। अब उसका आँख खुल गया है! अकेला घर में बैठा रहता है। किसी को मुँह नहीं दिखाता। हम सुनता है, वह यहाँ से भाग जाना चाहता था; परन्तु बड़ा साहब बोला, भागेगा, तो तुम्हारा ऊपर वारंट जारी कर देगा।

अब साईंदास की जगह बंगाली बाबू मैनेजर हो गये थे।

इस के बाद कुँअर साहब बरहल आये। भाइयों ने यह वृत्तांत सुना, तो बिगड़े, अदालत की धमकी दी। माताजी को ऐसा धक्का पहुँचा, कि वह उसी दिन बीमार होकर और एक ही सप्ताह में इस संसार से विदा हो गईं। सावित्री को भी चोट लगी; पर उसने केवल सन्तोष ही नहीं किया, पति की उदारता और त्याग की प्रशंसा भी की। रह गये लाल साहब। उन्होंने जब देखा कि अस्तबल से घोड़े निकले जाते हैं, हाथी मकनपुर के मेले में बिकने के लिए भेज दिये गये हैं और कहार बिदा किये जा रहे हैं, तो व्याकुल हो पिता से बोले—बाबूजी, यह सब नौकर, घोड़े, हाथी कहाँ जा रहे हैं?

कुँअर—एक राजा साहब के उत्सव में।

लालजी—कौन से राजा?

कुँअर—उनका नाम राजा दीनसिंह है।

लालजी—कहाँ रहते हैं?

कुँअर—दरिद्रपुर।

लालजी—तो हम भी जायँगे।

कुँअर—तुम्हें भी ले चलेंगे; परन्तु इस बारात में पैदल चलनेबालों का सम्मान सवारों से अधिक होगा।

लालजी—तो हम भी पैदल चलेंगे।

कुँअर—वहाँ परिश्रमी मनुष्य की प्रशंसा होती है।

लालजी—तो हम सबसे ज्यादा परिश्रम करेंगे।

कुँअर साहब के दोनों भाई पाँच-पाँच हज़ार रुपए का गुज़ारा लेकर अलग हो गये। कुँअर साहब अपने और परिवार के लिए कठिनाई से एक हज़ार सालाना का प्रबन्ध कर सके; पर यह आमदनी एक रईस के लिए किसी तरह पर्याप्त नहीं थी। अतिथि-अभ्यागत प्रतिदिन टिके ही रहते थे। उन सब का भी सत्कार करना पड़ता था। बड़ी कठिनाई से निर्वाह होता था। इधर एक वर्ष से शिवदास के कुटुम्ब का भार भी सिर पर आ पड़ा; परन्तु कुँअर साहब कभी अपने निश्चय पर शोक नहीं करते। उन्हें कभी किसी ने चिंतित नहीं देखा। उनका मुख-मण्डल धैर्य और सच्चे अभिमान से सदैव प्रकाशित रहता है। साहित्य-प्रेम पहले से था। अब बाग़वानी से प्रेम हो गया है। अपने बाग़ में प्रातःकाल से शाम तक पौदों की देख-रेख किया करते हैं और लाल साहब तो पक्के कृषक होते दिखाई देते हैं। अभी नव-दस वर्ष से अधिक अवस्था नहीं है; लेकिन अँधेरे मुँह खेतों में पहुँच जाते हैं। खाने-पीने की भी सुध नहीं रहती।

उनका घोड़ा मौजूद है; परन्तु महीनों उस पर नहीं चढ़ते। उनकी यह धुन देखकर कुँअर साहब प्रसन्न रहते और कहा करते हैं—रियासत के भविष्य की ओर से निश्चिन्त हूँ। लाल साहब कभी इस पाठ को न भूलेंगे। घर में सम्पत्ति होती, तो सुख-भोग, शिकार और दुराचार के सिवा और क्या सूझता! संपत्ति बेचकर हमने परिश्रम और संतोष खरीदा, और यह सौदा बुरा नहीं। सावित्री इतनी संतोषी नहीं। वह कुँअर साहब के रोकने पर भी असामियों से छोटी-मोटी भेंट ले लिया करती है और कुल-प्रथा नहीं तोड़ना चाहती।