प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ३३ से – ३७ तक

 

नवां अध्याय

श्री शुकदेवजी बोले―हे राजा, एक दिन बसुदेवजी ने गर्ग मुनि को जो बड़े जोतिषी औ यदुबंसियों के परोहित थे, बुलाकर कहा कि तुम गोकुल जा लड़के का नाम रख आओ।

गई रोहनी गर्ग सो, भयो पूत है ताहि।
किती आयु कैसो बली, कहा नाम ता आहि॥

और नंदजी के पुत्र हुआ है सो भी तुम्हें बुलाय गये हैं। सुनते ही गर्ग मुनि प्रसन्न हो चले औ गोकुल के निकट आ पहुँचे। तिसी समै किसी ने नंदजी से आ कहा कि यदुबंसियो के परोहित गर्ग मुनि जी आते है। यह सुन नंदजी आनंद से ग्वाल बाल संग कर भेट ले उठ धाए और पाटंबर के पाँवड़े डालते बाजे गाजे से ले आए, पूजा कर आसन पर बैठाय चरनामृत ले स्त्री पुरुष हाथ जोड़ कहने लगे―महाराज, बड़े भाग हमारे जो अपने दया कर दरसन दे पबित्र किया। तुम्हारे प्रताप से दो पुत्र हुए हैं, एक रोहनी के एक हमारे, कृपा कर तिनका नाम धरिये। गर्ग मुनि बोले―ऐसे नाम रखना उचित नहीं, क्यो कि जो यह बात फैले कि गर्ग मुनि गोकुल में लड़को के नाम धरने गये हैं। औ कंस सुन पावे तो वह यही जानेगा कि देवकी के पुत्र को बसुदेव के मित्र के यहाँ कोई पहुँचाय आया है इसी लिये गर्ग परोहित गया है। यह समझ मुझे पकड़ मँगावेगा और न जानिये तुम पर भी क्यों उपाध लावे। इससे तुम फैलाव कुछ मत करो, चुपचाप घर में नाम धरवा लो। नंद बोले―गर्गजी, तुमने सच कहा। इतना कह घर के भीतर ले जाय बैठाया। तब गर्ग मुनि ने नंदजी से दोनों की जन्मतिथि औ समै पूछ लगन साध, नाम ठहराय कहा―सुनो नंदजी, वसुदेव की नारि रोहनी के पुत्र के तो इतने नाम होयँगे, संकर्पण, रेवनीरमण, बलदाऊ, बलराम, कालिदीभेदन, हलघर औ बलवीर, औ कृष्ण रूप जो तुम्हारा लड़का है विसके नाम तो अनगिनत है पर किसी समय वसुदेब के यहाँ जन्मा, इससे वासुदेव नाम हुआ औ मेरे विचार में आता है कि ये दोनों बालक तुम्हारे चारों युग में जब जन्मे हैं तब साथ ही जन्मे है।

नंदजी बोले―इनके गुन कहो। गर्ग मुनि ने उत्तर दिया―ये दूसरे विधाती हैं, इनकी गति कुछ जानी नहीं जाती, पर मैं यह जानता हूँ कि कंस को मार भूमि का भार उतारेगे। ऐसे कह गर्ग मुनि चुपचुपाते चले गये और बसुदेव को जो सब समाचोर कहे।

आगे दोनों बालक गोकुल में दिन दिन चढ़ने लगे और बाललीला कर कर नंद जसोदा को सुख देने। नीले पीले झगुले पहन माथे पर छोटी छोटी लटूरियाँ बिखरी हुई, साइत गंड़े बाँधे, कठले गले में डाले, खिलोने हाथों में लिये खेलते, ऑगन के बीच घुटनो चल चल गिर गिर पड़े और तोतली तोतली बाते करे। रोहनी औ जसोदा पीछे लगी फिरे, इसलिये कि मत कहीं लड़के किसी से डर ठोकर खा गिरे। जब छोटे छोटे बछड़ो और बछियाओं की पूँछ पकड़ पकड़ उठे और गिर गिर पड़े तब जसोदा और रोहनी अति प्यार से उठाय छाती से लगाय दूध पिलाय भाँति भाँति के लाड लड़ावे। जद श्रीकृष्ण बड़े भये तो एक दिन ग्वाल बाल साथ ले ब्रज में दधि माखन की चोरी को गये।

सूने घर में ढूँढे जाय, जो पावे सो देयँ लुटाय।

जिन्हें घर में सोते पावे तिनकी धरी ढकी दुहेड़ी उठा लावें। जहाँ छींके पर रक्बा देखे सहाँ पीढ़ी पर पटड़ा, पटड़े पै उलूखल धर साथी को खड़ा कर उसके ऊपर चढ़ उतार ले, कुछ खावे लुटावे औ लुढ़ाय दें। ऐसे गोपियों के घर घर नित चोरी कर आवे।

एक दिन सब ने मता किया और गेह में मोहन को आने दिया। जो घर भीतर पैठ चाहे कि माखन दहीं चुरावे तो जाय पकड़कर कहा―दिन दिन आते थे जिस ओर, अब कहाँ जावोगे माखनचोर। यो कह जब सब गोपी मिल कन्हैया को लिये जसोदा के पास उलाहना देने चलीं, तब श्रीकृष्ण ने ऐसा छल किया कि विसके लड़के का हाथ विसे पकड़ा दिया और आप दौड़ अपने ग्वाल बालो का संग लिया। वे चलीं चलीं नंदरानी के निकट आय, पाओं पड़ बोली―तुम बिलग न मानो तो हम कहै, जैसी कुछ उपाय कृष्ण ने ठानी है।

दूध दह्यो माखन मह्यो, बचे नहीं ब्रज माँझ।
ऐसी चोरी करतु है, फिरतु भोर अरु साँझ॥

जहाँ कही धरा ढेका पाते है तहाँ से निधड़क उठा लाते हैं, कुछ खाते हैं औ लुटाते हैं। जो कोई इनके मुख में दही लगी बतावे, विसे उलट कर कहते हैं—तूनेई तो लगाया है। इस भाँति नित चोरी कर आते थे, आज हमने पकड़ पाया सो तुम्हें दिखाने लाई हैं।

जसोदा बोलीं―वीर तुम किसका लड़की पकड़ लाईं, कल से तो घर के बाहर भी नहीं निकला मेरा कुँवर कन्हाई। ऐसाही सच बोलती हो। यह सुन औ अपना ही बालक हाथ में देख, वे हेस कर लजाय रहीं। तहाँ जसोदाजी ने कृष्ण को बुलाय के कहा―पुत्र, तुम किसू के यहाँ मत जाओ जो चहिये सो घर ने से ले खाओ।

सुन कै कान्ह कहत तुतुराय। मत मैया तू इन्हें पतियाय।
ये झूठी गोपी झूठौ बोले। मेरे पीछे लागी डोले।

कहीं दोहनी बछड़ा पकड़ाती हैं, कभी घर की दहल कराती हैं, मुझे द्वारे रखवाली बैठाय अपने काज को जाती हैं, फिर झूठमूठ आय तुमसे बातें लगाती है। यो सुना गोपी हरिमुख देख देख मुसकुरा कर चली गई।

आगे एक दिन कृष्ण बलराम सखाओं के संग बाखल में खेलते थे कि जो कान्ह ने मट्टी खाई तो एक सखा ने जसोदा से जा लगाई, वह क्रोध कर हाथ में छड़ी ले उठ धाई। मा को रिस भरी आती देख मुँह पीछ डरकर खड़े हो रहे। इन्होने जाते ही कहा―क्यों रे तूने माटी क्यों खाई। कृष्ण डरते कॉपते बोले, मा तुझसे किसने कहा।

ये बोलीं―तेरे सखा ने। तब मोहन ने कोप कर सखा से पूछा क्यो रे मैने भट्टी कब खाई है। वह भय कर बोला—भैया मैं तेरी बात कुछ नहीं जानता क्या कहूँगा। जो कान्ह सखा से बतराने लगे तो जसोदा ने उन्हें जा पकड़ा, तहाँ कृष्ण कहने लगे–मैया, तू मत रिसाय, कहीं मनुष भी मट्टी खाते है। वह बोली―मैं तेरी अटपटी बात नहीं सुनती, जो तू सच्चा है तो अपना मुख दिखा। जो श्रीकृष्ण ने मुख खोला तो उसमें तीनो लोक दृष्ट आए।
तद जसोदा को ज्ञान हुआ तो मन में कहने लगी कि मैं बड़ी मूरख हूँ जो त्रिलोकी के नार्थ को अपना सुत कर मानती हूँ।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेव राजा परिक्षित से बोले―हे राजा, जब नंदरानी ने ऐसा जाना तब हरि ने अपनी माया फैलाई। इतने में मोहन को जसोदा प्यार कर कंठ लगाय घर ले आई।