प्रेमसागर/८९ द्विंजकुमारहरण

प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ४१६ से – ४२१ तक

 
नवासीवाँ अध्याय

शुकदेवजी बोले कि महाराज, एक समैं सरस्वती के तीर सब ऋषि मुनि बैठे तप यज्ञ करते थे कि उनमें से किसीने पूछा कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीनो देवताओं में बड़ा कौन है सो कृपा कर कहो। इसमें किसीने कहा शिव, किसने कहा विष्णु, किसीने कहा ब्रह्मा, पर सबने मिल एक को बड़ा न बताया। तब कई एक बड़े बड़े मुनीशों ऋषीशो ने कहा कि हम यों तो किसीकी बात नहीं मानते पर हॉ जो कोई इन तीनों देवताओं की जाकर परीक्षा कर आवै औ धर्म सरूपी कहै तो उसका कहना सत्य मानें।

महाराज, यह बात सुन सबने प्रमान की औ ब्रह्मा के पुत्र भृगु को तीनो देवताओं की परीक्षा कर आने की आज्ञा दी। आज्ञा पाय भृगुमुनि प्रथम ब्रह्मलोक में गए औ चुपचाप ब्रह्मा की सभा में जा बैठे, न दंडवत की, न स्तुति, न परिक्रमा दी। राजा, पुत्र का अनाचार देख ब्रह्मा ने महा कोप किया औं चाहा कि श्राप हूँ पर पुत्र की ममता कर न दिया। उस काल भृगु ब्रह्मा को रजोगुन में आसक्त देख वहॉ से उठ कैलाश में गया औ जहाँ शिव पार्वती विराजते थे तहॉ जा खड़ा रहा। इसे देख शिवजी खड़े हो जो हाथ पसार मिलने को हुए तो यह बैठ गया, बैठते ही शिवजी ने अति क्रोध किया औ इसके मारने को त्रिशूल हाथ में लिया। उस समय श्रीपार्वतीजी ने अति बिनती कर पाओ पड़ महादेवजी को समझाया औ कहा कि यह तुम्हारा छोटा भाई है इसका अपराध क्षमा कीजै। कहा है―

बालक सो जो चूक कछु परै। साध न कबहूँ मन में धरै॥

महाराज, जब पार्वतीजी ने शिवजी को समझाकर ठंढा किया तब भृगु महादेवजी को तमोगुन में लीन देखे चल खड़े हुए। पुनि बैकुंठ मे गए जहाँ भगवान मनिमय कंचन के छपरखट पर फूलो की सेज में लक्ष्मी के साथ सोते थे। जाते ही भृगु ने भगवान के हृदै में एक लात ऐसी मारी कि वे नीद सै चौक पड़े। मुनि को देख लक्ष्मी को छोड़ छपरखट से उतर हरि भृगुजी का पाँव सिर ऑखों से लगाय लगे दाबने औ यों कहने कि हे ऋषिराय! मेरा अपराध क्षमा कीजे, मेरे हृदय कठोर की चोट तुम्हारे कोमल कमलचरन में अनजाने लगी यह दोष चित में न लीजे। इतना बचन प्रभु के मुख से निकलते ही भृगु जी अति प्रसन्न हो स्तुति कर विदा हो वहाँ आए, जहॉ सरस्वती तीर सब ऋषि मुनि बैठे थे। आतेही भृगुजी ने तीनों देवताओं का भेद सब जो का तों कह सुनाया कि―

ब्रह्मा राजस में लपटान्यो। महादेव तामस में सान्यो॥
विष्णु जु सात्विक मांहि प्रधान। तिनते बड़ो देव नहीं आने॥
सुनत ऋषिन को संसो गयो। सबही के मन आनंद भयौ॥
विष्णु प्रसंसा सब ने करी। अविचल भक्ति हृदै में धरी॥

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कही कि महाराज, मै अंतरकथा कहता हूँ तुम मन लगाय सुनौ। द्वारका पुरी में राजा उग्रसेन तो धर्मराज करते थे औ श्रीकृष्णचंद बलराम उनकी आज्ञाकारी। राजा के राज से सत्र लोग अपने अपने स्वधर्म में सावधान, काज कर्म में सज्ञान रहते औ आनंद चैन करते थे। तहॉ एक ब्राह्मन भी अति सुशील धरमिष्ट रहता ले राजा उग्रसेन के द्वार पर गया औ जो उसके मुँह में आया सो कहने लगा कि तुम बड़े अधर्मी दुष्कर्मी पापी हो, तुम्हारे ही कर्म धर्म से प्रजा दुख पाती हैं औ मेरा भी पुत्र तुम्हारे ही पाप से मरा।

महाराज, इसी भॉति की अनेक अनेक बाते कह मरा लड़का राजद्वार पर रख ब्राह्मन अपने घर आया। आगे उसके आठ बेटे हुए औ आठों को वह उसी रीति से राजद्वार पर रख आया। जब नवॉ पुत्र होने को हुआ तब वह ब्राह्मन फिर राजा उग्रसेन की सभा में जा श्रीकृष्णचंदजी के सनमुख खड़ा हो पुत्रो के मरने का दुख सुमिर सुमिर रो रो यो कहने लगा― धिक्कार है राजा औ इसके राज को, पुनि धिक्कार है उन लोगों को जो इस अधर्मी की सेवा करते हैं औ धिक्कार है मुझे जो इस पुरी में रहता हूँ। जो इन पापियो के देस में न रहता तो मेरे पुत्र बचते। इन्हीं के अधर्म से मेरे पुत्र मरे औ किसी ने उपराला न किया।

महाराज, इसी ढब की सभा के बीच खड़े हो ब्राह्मन ने रो रो बहुत सी बाते कहीं पर कोई कुछ न बोला। निदान श्रीकृष्णचंदे के पास बैठा सुन सुन घबराकर अर्जुन बोला कि हे देवता, तू किस के आगे यह बात कहे है औ क्यों इतना खेद कर रहे है। इस सभा में कोई धनुर्धर नहीं जो तेरा दुख दूर करे। आज कल के राजा आपकाजी हैं, परदुःखनिवारन नही जो प्रजा को सुख दे औ गौ ब्राह्मन की रक्षा करे। ऐसे सुनाय पुनि अर्जुन ने ब्राह्मन से कहा कि देवता, अब तुम जाय अपने घर निचिंत हो बैठो जब तुम्हारे लड़का होने का दिन आवे तब तुम मेरे पास आइयो, मैं तुम्हारे साथ चलूँगा औ लड़के को न मरने दूँगा। महाराज, इतनी बात के सुनते ही ब्राह्मन खिजलायके बोला कि मैं इस सभा के बीच श्रीकृष्ण बलराम प्रद्युम्न औ अनरुद्ध छुड़ाय ऐसा बलवान किंसीको नहीं देखता, जो मेरे पुत्र को काल के हाथ से बचावे। अर्जुन बोला कि ब्राह्मन, तू मुझे नहीं जानता कि मेरा नाम धनंजय हैं। मैं तुझसे प्रतिज्ञा करता हूँ कि जो मैं तेरा सुत काल के हाथ से न बचाऊँ तो तेरे मरे हुए लड़के जहाँ पाऊँ तहाँ से ले आय तुझे दिखाऊँ औ वे भी न मिले तो गांडीव धनुष समेत अपने तई अग्नि में जलाऊँ। महाराज, प्रतिज्ञा कर जब अर्जुन ने ऐसे कहा तब वह ब्राह्मन संतोष कर अपने घर गया। पुनि पुत्र होने के समै विप्र अर्जुन के निकट आया। उस काल अर्जुन धनुष बान ले उसके साथ उठ धाया। आगे वहाँ जाय विसका घर अर्जुन ने बानो से ऐसा छाया कि जिसमें पवन भी प्रवेश न कर सके औ आप धनुष बीन लिऐ उसके चारों ओर फिरने लगा।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, अर्जुन ने बहुत सा उपाय बालक को बचाने को किया पर न बचा, और दिन बालक होने के समै रोता था, उस दिन सॉस भी न लिया, बरन पेट ही से मरा निकला। भरे लड़के का होना सुन लज्जित हो अर्जुन श्रीकृष्णचंद के निकट औया औ उसके पीछे ब्राह्मन भी। महाराज, आतेही रो रो वह ब्राह्मन कहने लगा कि रे अर्जुन, धिक्कार है तुझे औ तेरे जीतव को जो मिथ्या बचन कह संसार में लोगो को मुख दिखाता है। अरे नपुंंसक जो मेरे पुत्र को काल से न बचा सकता था, तो तैने प्रतिज्ञा की थी कि मैं तेरे पुत्र को बचाऊँगा औ न बचा सकूँगा तो तेरे मरे हुए सब पुत्र ला दूँँगा।

महाराज, इतनी बात के सुनते ही अर्जून धनुष बान ले वहाँ से उठ चला चला संजमनी पुरी में धर्मराज के पास गया। इसे देख धर्मराज उठ खड़ा हुआ औ हाथ जोड़ स्तुति कर बोला कि महाराज, आपका आगमन यहाँ कैसे हुआ। अर्जुन बोला कि मैं अमुक ब्राह्मन के बालक लेने आया हूँ। धर्मराज ने कहा कि यहाँ वे बालक नहीं आए। महाराज, इतना बचन धर्मराज के मुख से निकलते ही अर्जुन वहाँ से विदा हो सब ठौर फिरा, पर उसने ब्राह्मन के लड़के को कहीं न पाया। निदान अछता पछता द्वारका पुरी में आया औ चिता बनाय धनुष बान समेत जलने को उपस्थित हुआ। आगे अग्नि जलाय अर्जुन जो चाहे कि चिता पर बैठे, तों श्रीमुरारी गर्वप्रहारी ने आय हाथ पकड़ा औ हँसके कहा कि हे अर्जुन, तू मत जलै, तेरी प्रतिज्ञा मैं पूरी करूँँगा। जहाँ उसे ब्राह्मन के पुत्र होगे तहॉ से ली दूँगा। महाराज, ऐसे कह त्रिलोकीनाथ रथ पर बैठ अर्जुन को साथ ले पूरब दिशा की ओर को चले औ सात समुद्र पार हो लोकालोक पर्वत के निकट पहुँचे। वहाँ जाय रथ से उतर एक अति अंधेरी कंदरा में पैंठे, उस समैं श्रीकृष्णचंदजी ने सुदरसन चक्र को आज्ञा की, वह कोटि सूर्य का प्रकाश किये प्रभु के आगे आगे महा अंधकार को टालता चला।

तम तज केतिक आगे गए। जल में तबै जु पैठत भए॥
महा तरंग तासु में लसे। मूँदि ऑख ये तामें धसे॥
पहुड़े हुए शेषजी जहॉ। कृष्ण अरु अर्जुन पहुँचे तहॉ॥

जाते ही ऑख खोलकर देखा कि एक बड़ा लंबा चौड़ा ऊँँचा कंचन का मनिमय मंदिर अति सुंदर है, तहाँ शेषजी के सीस पर रतन जटित सिंहासन धरा है। तिसपर स्यामघन रूप, सुंदर सरूप, चंदबदन, कॅवल नयन, किरीट कुंडल पहने, पीतबसन औढ़ै, पीतांबर काछे, बनमाला मुक्तमाल डाले आप प्रभु मोहनी मूरति बिराजे हैं औ ब्रह्मा रुद्र इंद्र आदि सब देवता सनमुख खड़े स्तुति करते हैं। महाराज, ऐसा सरूप देख अर्जुन औ श्रीकृष्णचंदजी ने प्रभु के सोहीं जाय, दंडवत कर हाथ जोड़ अपने जाने का सब क़ारन कहा। बात के सुनते ही प्रभु ने ब्राह्मन के बालक सब मँगाय दीने औ अर्जुन ने देख भाल प्रसन्न हो लीने। तब प्रभु बोले―

तुम दोऊ मेरी कला जु आहि। हरि अर्जुन देखौ चित चाहि॥
भार उतारन भुव पर गए। साधु संत कौ बहु सुख दए॥
असुर दैत्य तुम सब सँहारे। सुर नर मुनि के काज सँवारे॥
मेरे अंस जु तुम में द्वै हैं। पूरन काम तुम्हारे ह्वै हैं॥

इतना कह भगवान ने अर्जुन औ श्रीकृष्णजी को बिदा किया। ये बालक ले पुरी में आए, द्विज के पुत्र द्विज ने पाए, घर घर आनंद मंगल बधाए। इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज,

जे यह कथा सुने धर ध्यान। तिनके पुत्र होयँ कल्यान॥