प्रेमसागर/८७ नरनारायण-नारदसंवाद

प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ४१० से – ४१२ तक

 
सत्यासीवाँ अध्याय

इतनी कथा सुन राजा परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी से पूछा कि महाराज, आप जो आगे कह आए कि वेद ने परम ईश्वर की स्तुति की सो निगुन ब्रह्म की स्तुति वेद ने क्यौंकर की यह मुझे समझा कर कहो, जो मेरे मन का संदेह जाय। श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, सुनिये कि जिसने बुद्धि, इंद्री, मन, प्रान धर्म अर्थ काम मोक्ष को बनाया है, सो प्रभु सदा निर्गुन रूप रहता है, पर जब ब्रह्माण्ड रचता है तब सगुनसरूप होता है, इससे निर्गुन सगुन वही एक ईश्वर है।

इतना कह पुनि शुकदेव मुनि बोले कि राजा, जो प्रश्न तुमने किया सोई प्रश्न एक समय नारदजीने नरनारायन से किया था। राजा परीक्षित ने कहा कि महाराज, यह प्रसंग मुझे समझाकर कहिये जो मेरे मन का संदेह जाय। सुकदेवजी बोले कि राजा, सतयुग में एक समैं नारदजी ने सतलोक में जाय, जहॉ नरनारायन अनेक मुनियो के संग बैठे तप करते थे पूछा कि महाराज, निराकार ब्रह्म की स्तुति वेद किस भॉति करते हैं सो कृपा कर कहिये। नरनारायन बोले कि सुन नारद, जो संदेह तूने मुझसे पूछा यही संदेह एक समै जनलोक में जहॉ सनातनादि ऋषि बैठे तप करते थे हुआ था, तद सनंदन मुनि ने कथा कह सब का सदेह मिटाया। नारदजी बोले―महाराज, मै भी तो वहीं रहता हूँ, जो यह प्रसंग चलता तो मै भी सुनता। नरनारायण ने कहा―


*(क) में सरगुन और (ख) म सगुण है। नारदजी, जब तुम सेत दीप में भगवत दरसन को गए थे तभी प्रसंग चला था, इससे तुमने नहीं सुना।

इतनी बात सुन नारदजी ने पूछा― महाराज, वहाँ क्या प्रसंग चला था सो कृपाकर कहिये। नारायन बोले― सुन नारद, जद मुनियों ने यह प्रश्न किया तद सनंदन मुनि कहने लगे कि सुनो जिस समैं महाप्रलय होय चौदह ब्रह्मांड जलाकार हो जाते हैं, उस समैं पूरन ब्रह्य अकेले सोते रहते हैं। जब भगवान को सृष्टि करने की इच्छा होती है, तब उनके स्वास से वेद निकल हाथ जोड़ स्तुति करते हैं। ऐसे कि जैसे कोई राजा अपने स्थान पर सोता हो औ बंदीजन भोर ही उसका जस गाय गाय उसीको। जगावे, इस लिये कि चैतन्य हो शीघ्र अपने कार्य को करे।

इतना प्रसंग कह नरनारायन बोले कि सुन नारद, प्रभु के मुख से निकल वेद यह कहते हैं कि हे नाथ, बेग चैतन्य हो सृष्टि रचो औ जीवो के मन से अपनी माया दूर करो, क्योकि वे तुम्हारे रूप को पहचाने। माया तुम्हारी प्रबल है, यह सब जीवो को अज्ञान कर रखती है, जो इससे छूटे तो जीव को तुम्हारे समझने का ज्ञान हो। हे नाथ, तुम बिन इसे कोई बस नही कर सकता, जिसके हृदै में ज्ञान रूप हो तुम बिराजते हो, सोई इस माया को जीतता है, नहीं तो किसकी सामर्थ है जो माया के हाथ से बचे। तुम सबके करता हो, सब जीव तुम्ही से उत्पन्न हो तुम्हीं मे समाते हैं, ऐसे कि जैसे पृथ्वी से अनेक वस्तु हो पुंंनि पृथ्वी में मिल जाती हैं। कोई किसी देवता की पूजा स्तुति करे, पर वह तुम्हारी ही पूजा स्तुति होती है। ऐसे कि जैसे कोई कंचन के अनेक आभरन बनाय अनेक नाम धरे पर वह कंचन ही है, तिसी भॉति तुम्हारे अनेक रूप हैं और ज्ञान कर देखिये तो कोई कुछ नहीं। जिधर देखिये तिधर तुमही तुम दृष्ट आते हो। नाथ! तुम्हारी माया अपरंपार है, यही सत रज तम तीन गुन हो तीन सरूप धारन कर सृष्टि को उपजाय, पाल, नाश करती है, इसका भेद न किसीने पाया, न कोई पावेगा। इससे जीव को उचित है कि सब बासना छोड़ तुम्हारा ध्यान करे, इससे उसका कल्यान है। महाराज, इतना प्रसंग सुनाय नर, नारायन ने नारद से कहा कि हे नारद, जब सनंदन मुनि ने पुरातन कथा कह सबके मन का संदेह दूर किया, तब सनकादि मुनियो? ने वेद की विधि से सनंदन मुनि की पूजा की।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजा, यह नारायन नारद का संवाद् जो कोई सुनेगा सो निस्संदेह भक्ति पदारथ पाय मुक्त होगी। जो कथा पूरन ब्रह्म की वेद ने गाई सोई कथा सनंदन मुनि ने सनकादि मुनियों को सुनाई। धुनि वही कथा नरनारायन ने नारद के आगे गाई, नारद से व्यास ने पाई, व्यास ने मुझे पढ़ाई, सो मैने अब तुम्हैं सुनाई। इस कथा को जो जन सुने सुनावेगा, सो मन मानता फल पावेगा। जो पुन्य होता है तप यज्ञ दान व्रत तीरथ करने में सोई पुन्य होता है इस कथा के कहने सुनने मे।