प्रेमसागर/७५ शिशुपालमोक्ष

[ ३६४ ]
पचहत्तरवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा, जैसे यज्ञ राजा युधिष्ठिर ने किया औ सिसुपाल मारा गया तैसे मैं सब कथा कहता हूँ, तुम चित दे सुनो। बीस सहस्र अठि सौ राजाओ के जातेही चारो ओर के और जितने राजा थे, क्या सूर्यबंसी औ क्या चंद्रबंसी, तितने सब आय हस्तिनापुर में उपस्थित हुए। उस समय श्रीकृष्णचंद औ राजा युधिष्ठिर ने मिलकर सब राजाओं का सब भॉति शिष्टाचार कर समाधान किया औ हर एक को एक एक काम यज्ञ का सौपा। आगे कृष्णचंदजी ने राजा युधिष्ठिर से कहा कि महाराज, भीम, अर्जुन नकुल, सहदेव सहित हम पाचो भाई तो सब राजाओ को साथ ले ऊपर की टहल करैं और आप ऋषि मुनि ब्राह्मनो को बुलाय यज्ञ का आरंभ कीजै। महाराज, इतनी बात के सुनतेही राजा युधिष्ठिर ने सब ऋषि मुनि ब्राह्मनो को बुलाकर पूछा कि महाराजो, जो जो वस्तु यज्ञ में चाहिये, सो सो आज्ञा कीजे। महाराज, इस बात के कहतेही ऋषि मुनि ब्राह्मनो ने ग्रंथ देख देख यज्ञ की सब सामग्री एक पत्र पर लिख दी औ राजा ने वोही मँगवाय उनके आगे धरवा दी। ऋषि मुनि ब्राह्मनो ने मिले यज्ञ की बेदी रची। चारो वेद के सब ऋषि मुनि ब्राह्मन वेदी के बीच आसन बिछाय बिछाय जा बैठे। पुनि सुच होय स्त्री सहित गंठजोड़ा बॉध राजा युधिष्ठिर भी आय बैठे औ द्रोनाचार्य, कृपाचार्य, धृतराष्ट, दुर्योधन, सिसुपाल आदि जितने योधा औ बड़े बड़े राजा थे वे भी आन बैठे। ब्राह्मनों ने स्वस्ति[ ३६५ ]बाचन कर गणेश पुजवाय, कलश स्थापन कर प्रहस्थापन किया। राजा ने भरद्वाज, गौतम, वशिष्ठ, विश्वामित्र, बामदेव, परासर, व्यास, कस्यप आदि बड़े बड़े ऋषि मुनि ब्राह्मनों का बरन किया औ विन्होने बेद मंत्र पढ़ पढ़ सब देवताओं का आवाहन किया औ राजा से यज्ञ का संकल्प करवाय होम का आरम्भ।

महाराज, मंत्र पढ़ पढ़कर ऋषि मुनि ब्राह्मन आहुति देने लगे औ देवता प्रत्यक्ष हाथ बढ़ाय बढ़ाय लेनै। उस समय ब्राह्मन वेद पाठ करते थे औ सब राजा होमने की सामग्री लाला देते थे औ राजा युधिष्ठिर होमते थे कि इसमें निर्द्वंद यज्ञ पूरन हुआ औ राजा ने पूर्नाहुति दी। उस काल सुर नर मुनि सब राजा को धन्य धन्य कहने लगे औ यक्ष गंधर्व किन्नर बाजन बजाय बजाय, जस गाय गाय फूल बरसावने। इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, यज्ञ से निचिन्त हो राजा युधिष्ठिर ने सहदेवजी को बुलाय के पूछा―

पहले पूजा काकी कीजै। अक्षत तिलक कौन को दीजै॥
कौन बड़ो देवने कौ ईस। ताहि पूज हम नावे सीस॥

सहदेवजी बोले कि महाराज, सब देवों के देव है बासुदेव, कोई नही जानता इनका भेव। ये है ब्रह्मा रुद्र इन्द्र के ईस, इन्हीं को पहले पूज नवाइये सीस। जैसे तरवर की जड़ में जल देने से सब शाखा हरी होती है, वैसे हरि की पूजा करने से सब देवता सन्तुष्ट होते हैं। यही जगत के करता है औ येही उपजाते पालते मारते है। इनकी लीला है अनन्त, कोई नहीं जानता इनका अंत। येई हैं प्रभु अलख अगोचर अविनासी, इन्हींके चरनकँवल सदा [ ३६६ ] सेवती है कमला भई दासी। भक्तो के हेतु बार बार लेते हैं। अवतार, तनु धर करते है लोक ब्यौहार।

बन्धु कहन घर बैठे आवैं। अपनी माया मोहि भुलावैं॥
महा मोह हम प्रेम भुलाने। ईश्वर को भ्राता कर जाने॥
इनसे बड़ौ न दीसे कोई। पूजा प्रथम् इन्हींकी होई॥

महाराज, इस बात के सुनतेही सब ऋषि मुनि औ राजा बोल उठे कि,राजा, सहदेवजी ने सत्य कहा, प्रयम पूजन जोग हरिही है। तव तो राजा युधिष्ठिर ने श्रीकृष्णचंदजी को सिंहासन पर बिठाय, आठो पटरानियो समेत, चंदन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य कर पूजा। पुनि सब देवताओ ऋषियो मुनियो ब्राह्मन और राजाओं की पूजा की रंग रंग के जोड़े पहनाए, चंदन केसर की खौड़े की, फूलो के हार पहराए, सुगंध लगाय यथायोग्य राजाने सबकी मनुहार की। श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा,

हरि पूजत सब कौ सुख भयौ। सिसुपाल कौ सीस भूंं नयौ॥

कितनी एक बेर तक तो वह सिर झुकाए मनही मन कुछ सोच विचार करता रहा। निदान कालबस हो अति क्रोध कर सिहासन से उतर सभा के बीच निःसंकोच निडर हो बोला कि इस सभा मे धृतराष्ट्र, दुर्योधन, भीषम, कर्न, द्रोनाचार्य आदि सच बड़े बड़े ज्ञानी मानी हैं, पर इस समै सबकी गति मति मारी गई, बड़े बड़े मुनीस बैठे रहे औ नंद गोप के सुत की पूजा भई औ कोई कुछ न बोला। जिसने ब्रज में जन्म ले ग्वाल वालों की जूठी छाक खाई, तिसीकी इस सभा में भई प्रभुताई बड़ाई।

ताहि बड़ौ सब कहत अचेत। सुरपति को बलि कागहि देत॥

जिनने गोपी औ ग्वालनो से नेह किया, इस सभा ने तिसेही [ ३६७ ] सब से बड़ा साध बनाय दिया। जिसने दूध दही माखन घर घर चुराय खाया, उसी का जस सबने मिल गया। बाट घाट में जिनने लिया दान, विसी का ह्यॉ हुआ सनमान। परनारी से जिसने छल बल कर भोग किया, सब ने मता कर उसी को पहले तिलक दिया। ब्रज में से इंद्र की पूजा जिसने उठाई औ पर्वत की पूजा ठहराई, पुनि पूजा की सब सामग्री गिर के निकट लिवाय ले जाय मिस कर आपही खाई तो भी उसे लाज न आई। जिसकी जाति पाँति औ माता पिता कुल धर्म का नहीं ठिकाना, तिसीको अलख अविनासी कर सबने माना।

इतनी कथा सुनाय श्री शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, इसी भाँति से कालबस होय राजा सिसुपाल अनेक अनेक बुरी बाते श्रीकृष्णचंदजी को कहता था औ श्रीकृष्णचंदजी सभा के बीच सिहासन पर बैठे सुन सुन एक एक बात पर एक एक लकीर खैंचते थे। इस बीच भीष्म, कर्न, द्रोन औ बड़े बड़े राजा हरिनिदा सुन अति क्रोध कर बोले कि अरे मूर्ख, तू सभा में बैठा हमारे सनसुख प्रभु की निदा करता है, रे चंडाल, चुप रह नही अभी पछाड़ मार डालते हैं। महाराज, यह कह शस्त्र ले सब राजा सिसु पाले के मारने को उठ धाए। उस समय श्रीकृष्णचंद आनंदकद ने सबको रोककर कहा कि तुम इस पर शस्त्र मत करो, खड़े खड़े देखो, यह आपसे अप ही मारा जाता है। मै इसके सौ अपराध सहूँगा, क्योकि मैने वचन हारा है। सौ से बढ़ती न सहूँगा, इसलिए मै रेखा काढ़ता जाता हूँ।

महाराज, इतनी बात के सुनतेही सब ने हाथ जोड़ श्रीकृष्णुचंद से पूछा कि कृपानाथ, इसका क्या भेद है जो आप इसके [ ३६८ ] सौ अपराध क्षमा करिएगा, सो कृपा कर हमें समझाइये जो हमारे मन का संदेह जाय। प्रभु बोले कि जिस समय यह जन्मा था तिस समय इसके तीन नेत्र औ चार भुजा थीं। यह समाचार पाय इसके पिता राजा दमघोषने जोतिषियो औ बड़े बड़े पंडितो को बुलाय के पूछा कि यह लडका कैला हुआ। इसका विंचार कर मुझे उत्तर दो। राजा की बात सुनते ही पंडित औ जोतिषियो ने शास्त्र विचारके कहा कि महाराज, यह बड़ा बली औ प्रतापी होगा और यह भी हमारे विचार में आता है जिसके मिलने से इसकी एक आँख औ दो बॉह गिर पड़ेगी, यह उसी के हाथ मारा जायेगा। इतना सुन इसकी मा महादेवी, सूरसेन की बेटी, वसुदेव की बहन. हमारी फूफी अति उदास भई औ आठ पहर पुत्र ही की चिता में रहने लगी।

कितने एक दिन पीछे एक समै पुत्र जो लिये पिता के घर द्वारका में आई औ इसे सबसे मिलाया। जब यह मुझसे मिला औं इसकी एक ऑख औ दो बाँह गिर पड़ी, तब फूफू ने मुझे वचनबंध करके कहा कि इसकी मीच तुम्हारे हाथ है तुम इसे मत मारियो, मैं यह भीख तुमसे मॉगती हूँ। मैंने कहा―अच्छा सौ अपराध हम इसके न गिनेगे, इस उपरांत अपराध करेगा तो हनेंगे। हमसे यह बचन ले फूफू सबसे बिदा हो, इतना कह पुत्र सर्हित अपने घर गई, कि यह सौ अपराध क्यो करेगा जो कृष्ण के हाथ मरेगा।

महाराज, इतनी कथा सुनाय श्रीकृष्णजी ने सब राजाओं के मन का भ्रम मिटाय, उन लकीरो को गिना जो एक एक अपराध पर खैची थीं। गिनतेही सौ से बढ़ती हुई, तभी प्रभु ने सुदरसन [ ३६९ ] चक्र को आज्ञा दी, उसने झट सिसुपाल का सिर काट डाला। उसके धड़ से जो जोति निकली सो एक बार तो आकाश को धाई, फिर आय सबके देखते श्रीकृष्णचंद के मुख में समाई। यह चरित्र देख सुर नर मुनि जैजैकार करने लगे औ पुष्प बरसावने। उस काल श्रीमुरारि भक्तहितकारी ने उसे तीसरी मुक्ति दी औ उसकी क्रिया की।

इतनी कथा सुन राजा परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी से पूछा कि महाराज, तीसरी मुक्ति प्रभु ने किस भाँति दी सो मुझे समझायके कहिये। शुकदेवजी बोले कि राजा, एक बार यह हरनकस्यप हुँआ तब प्रभु ने नृसिंह अवतार ले तारा। दूसरी बेर रावन भया तो हरि ने रामावतार ले इसका उद्धार किया। अब तीसरी चिरियॉ यह है इसीसे तीसरी मुक्ति भई। इतना सुन राजा ने मुनि से कहा कि महाराज, अब आगे कथा कहिए। श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा, यज्ञ के हो चुकतेही राजा युधिष्ठिर ने सब राजाओ को स्त्री सहित बागे पहराय ब्राह्मनों को अनगिनत दान दिया। देने का काम यज्ञ में राजा दुर्योधन को था तिसने द्वेष कर एक की ठौर अनेक दिये, उसमें उसका जस हुआ तो भी वह प्रसन्न न हुआ।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, यज्ञ के पूर्ण होतेही श्रीकृष्णजी राजा युधिष्ठिर से बिदा हो सब सेना लें कुटु बसहित, हस्तिनापुर से चले चले द्वारकापुरी पधारे। प्रभु के पहुँचतेही घर घर मंगलाचार होने लगा औ सारे नगर में आनंद हो गया।