प्रेमसागर/७२ श्रीकृष्ण-हस्तिनापुरगमन

प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ३४९ से – ३५१ तक

 

बहत्तरवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, पहले तो श्रीकृष्णचंदजी ने उस ब्राह्मन को इतना कह बिदा किया, जो राजाओं को संदेसा लाया था, कि देवता तुम हमारी ओर से सब राजाओं से जाय कहो कि तुम किसी बात की चिता मत करो, हम बेग आय तुम्हें छुड़ाते हैं। महाराज, यह बात कह श्रीकृष्णचंद ब्राह्मन को विदा कर ऊधोजी को साथ ले राजा उग्रसेन सूरसेन की सभा में गये औ इन्होने सब समाचार उनके आगे कहे। वे सुन चुप हो रहे। इसमे ऊधोजी बोले कि महाराज, ये दोनों काज कीजे। पहले राजाओ को जरासंध से छुड़ा लीजे, पीछे चलकर यज्ञ सँवारिये क्यो कि राजसूय यज्ञ का काम बिन राजा और कोई नहीं कर सकता औ वहॉ बीस सहस्र नृप इकठे हैं। विन्हैं छुड़ाओगे तो वे सब गुन मान यज्ञ का काज बिन बुलाए जाकर करेंगे। महाराज, और कोई दसो दिस जीत आवेगा तो भी इतने राजा इकट्टे न पावेगा। इससे अब उत्तम यही है कि हस्तिनापुर को चलिये। पांडवो से मिल भता कर जो काम करना हो सो करिये।

महाराज, इतना कह पुनि ऊधोजी बोले कि महाराज, राजा जरासंध बड़ा दाता औ गौ ब्राह्मन को मानने औ पूजनेवाला हैं। जो कोई विससे जाकर जो मांगता है सो पाता है, जाचक उसके यहां से विमुख नही आता है। वह झूठ नहीं बोलता, जिससे बचनबंध होता है विससे निंबाहता हैं औ दस सहस्र हाथी का बल रखता है। उसके बल की समान भीमसेन का बल है। नाथ, जो तुम वहाँ चलो तो भीमसेन को भी अपने साथ ले चलो। मेरी बुद्धि में आता है कि उसकी मीच भीमसेन के हाथ है।

इतनी कथा कह श्रीसुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि राजा, जब ऊधोजी ने ये बात कही तभी श्रीकृष्णचदजी ने राजा उग्रसेन सूरसेन से बिदा हो सब जदुबंसियो से कहा कि हमारा कटक साजौ हम हस्तिनापुर को चलेगे। बात के सुनते ही सब जदुबंसी सेना साज ले आए औ प्रभु भी आठो पटरानियो समेत कटक के साथ हो लिए। महाराज, जिस काल श्रीकृष्णचंद कुटुव सहित सब सेना ले धौंसा दे द्वारका पुरी से हस्तिनापुर को चले, उस समय की शोभा कुछ बरनी नहीं जाती। आगे हाथियों का कोट, वाएँ दाहिने रथ घोड़ों की ओट, बीच मे रनवास औ पीछे सब सेना साथ लिए सबकी रक्षा किये श्रीकृष्णजी चले जाते थे। जहॉ डेरा होता था तहॉ के जोजन के बीच एक सुदर सुहावन नगर बन जाता था, देस देस के नरेस भय खाय आय आय भेट कर भेट धरते थे औ प्रभु विन्हे भयातुर देख तिनका सब भॉति समाधान करते थे।

निदान इसी धूमधाम से चले चले हरि सब समेत हस्तिना पुर के निकट पहुँँचे। इसमें किसी ने राजा युधिष्ठिर से जाय कहा कि महाराज, कोई नृपति अति सेना ले बड़ी भीड़ भाड़ से आपके देस पर चढ़ आया है, आप बेग उसे देखिये, नहीं तो उसे यहॉ पहुँचा जानिये। महाराज, इस बात के सुनते ही राजा युधिष्ठिर ने अति भय खाय, अपने नकुल सहदेव दोनो छोटे भाइयों को यह कह प्रभु के सनमुख भेजा कि तुम देखि आओ कि कौन राजा चढ़ा आता है। राजी की आज्ञा पातेही वे चले गये और

सहदेव नकुल देख फिर आये। राजा को ये बचन मुनाये॥
प्राणनाथ आये हैं हरी। सुनि राजा चिंता परिहरी॥

आगे अति आनंद कर राजा युधिष्ठिर ने भीम अर्जुन को बुलाय के कहा कि भाई तुम चारों भाई आगू जाय श्रीकृष्णचंद आनंदकंद को ले आओ। महाराज, राजा की आज्ञा पाय औ प्रभु की आना सुन वे चारो भाई अति प्रसन्न हो भेट पूजा की सामा औ बड़े अड़े पंडितो को साथ ले बाजे गाजे से प्रभु को लेने चले। निदान अति आदर मान से मिल, वेद की विधि से भेट पूजा कर- ये चारो भाई श्रीकृष्णजी को सब समेत पार्टबर के पावड़े डालते, चोआ, चदन, गुलाबनीर छिड़कते, चाँदी सोने के फूल बरसाते, धूप दीप नैवेद्य करते, बाजे गाजे से नगर में ले आये। राजा युधिष्ठिर ने प्रभु से मिल अति सुख माना औ अपना जीवन सुफल जाना। आगे बाहर भीतर सबने सबसे मिल जथाजोग्य परस्पर सनमान किया, औ नयनो को सुख दिया। घर बाहर सारे नगर में आनंद हो गया औ श्रीकृष्णचंद वहॉ रह सब को सुख देने लगे।