प्रेमसागर/६२ अनिरुद्धविवाह, रुक्मवध

प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ २७६ से – २८३ तक

 

बासठवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, सोलह सहस्र एक सौ आठ स्त्रियों को ले श्रीकृष्णचंद आनद से द्वारकापुरी में बिहार करने लगे। औ आठो पटरानियाँ आठौ पहर हरि की सेवा में है। नित उठ भोरही कोई मुख धुलावै, कोई उबटन लगाय न्हिलावे, कोई परस भोजन बनाय जिमावै, कोई अच्छे पान लोग, इलाइची, जावित्री, जायफल समेत पिय को बनाये बनाये खिलावै, कोई सुथरे वस्र औ रतनजटित आभूषन चुन बास औ बनाय प्रभु को पहनाती थी, कोई फूल माल पहराय गुलाबनीर छिड़क केसर चंदन चरचती थी, कोई पंखा डुलाती थी और कोई पाँव दाबती थी।

महाराज, इसी भाँति सब रानियाँ अनेक अनेक प्रकार से प्रभु की सदा सेवा करै औ हरि हर भाँति उन्हें सुख दें। इतनी कथा सुनयि श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, कई बरस के बीच

एक एक यदुनाथ की नारिन जाये पुत्र।
इक इक कन्या लक्ष्मी, दस दस पुत्र सुपुत्र॥
एक लाख इकसठ सहस, ऐसी बाढ़ इक सार।
भये कृष्ण के पुत्र थे, गुन बल रूप अपार॥

सब मेघबरन चंदमुख कँवलनयन लीले पीले झगुले पहने, गडे कठले ताइत गले में डाले, घर घर बालचरित्र कर कर मात पिता को सुख दे औ उनकी माएँ अनेक भाँति से लाड़ प्यार कर प्रतिपालन करें। महाराज, श्रीकृष्णचंदजी के पुत्रो को होना सुन रुक्म ने अपनी स्त्री से कहा कि अब मै अपनी कन्या चारुमती जो कृतवर्मा के बेटे को माँगी है, विसे न दूंगा, स्वयंबर करूँगा, तुम किसी को भेज मेरी बहन रुक्मिनी को पुत्र समेत बुलवा भेजो।

इतनी बात के सुनतेही रुक्म की नारी ने अति विनती कर ननद को पत्र लिख पुत्र समेत बुलाबाया एक ब्राह्मण के हाथ औ स्वयंबर किया। भाई भौजाई की चिट्ठी पातेही रुक्मिनीजी श्रीकृष्णचंदजी से आज्ञा ले विदा हो पुत्र सहित चली चली द्वारका से भोजकट में भाई के घर पहुँचीं।

देख रुक्म ने अति सुख पायौ। आदर कर नीचौ सिर नायौ॥
पायन पर बोली भौजाई। हरन भयौ तब से अब आई॥

यह कह फिर उसने रुक्मिनीजी से कहा कि ननद जो तुम आई हो तो हम पर दया भया कीजे और इस चारुमती कन्या को अपने पुत्र के लिये लीजे। इस बात को सुनतेही रुक्मिनीजी बोलीं कि भौजाई, तुम पति की गति जानती हो, मत किसीसे कलह करवाओ, भैया की बात कुछ कही नही जाती, क्या जानिये किस समय क्या करें, इससे कोई बात कहते करते भय लगता है। रुक्म बोला कि बहन, अब तुम किसी भांति न डरो, कुछ उपाध न होगी बेद की आज्ञा है कि दक्षिन देस मै कन्यादान भानजे को दीजे, इस कारन मै अपनी पुत्री चारुमती तुम्हारे पुत्र प्रद्युम्न को दूंगा, श्रीकृष्णजी से बैर भाव छोड़ नया संबंध करूँगा।

महाराज इतना कह जब रुक्म वहाँ से उठ सभा में गया, तबै प्रद्युम्नजी भी माता से आज्ञा ले, अनठन कर स्वयंबर के बीच गये तो क्या देखते हैं कि देस देस के नरेस भांति भांति के बस्त्र, शस्त्र, आभूषन पहने बांधे, बनाव किये, विवाह की अभिलाषा हिये में लिये सब खड़े हैं। और वह कन्या जैमाल कर लिये, चारो ओर दृष्टि किये बीच में फिरती है पर किसी पै दृष्ट उसकी नहीं ठहरती। इसमें जो प्रद्युम्नजी स्वयंबर के बीच गये तो देखतेही उस कन्या ने मोहित हो आ इनके गले में जैमाल डाली। सब राजा अछताय पछताय मुँह देखते अपना मुँह लिये खड़े रह गये और अपने मनही मन कहने लगे कि भला देखें हमारे आगे से इस कन्या को कैसे ले जायगा, हम बाटही में छीन लेगे।

महाराज, सब राजा तो यों कह रहे थे और रुक्म ने बर कन्या को मढ़े के नीचे ले जाय, बेद की विधि से संकल्प कर कन्यादान किया और उसके यौतुक में बहुतही धन द्रव्य दिया कि जिसका कुछ वारापार नहीं। आगे श्रीरुक्मिनीजी पुत्र को ब्याह भाई भौजाई से विदा हो बेटे बहू को ले रथ पर चढ़ जो द्वारका पुरी को चलीं, तो राजाओं ने आय मारग रोका, इसलिये कि प्रद्युम्न जी से लड़ कन्या को छीन ले।

उनकी यह कुमति देख प्रद्युम्नजी भी अपने अस्त्र शस्त्र ले युद्ध करने को उपस्थित हुए, कितनी बेर तक इनसे उनसे युद्ध रहा। निदान प्रद्युम्नजी उन सबों को मार भगाय आनंद मंगल से द्वारका पुरी पहुँचे। इनके पहुँचने के समाचार पाय सब कुटुंब के लोग या स्त्री या पुरुष पुरी के बाहर आय, रीति भाँति कर पाटंबर के पाँवड़े डालते बाजे गाजे से इन्हें ले गये। सारे नगर में मंगल हुआ औ ये राजमंदिर में सुख से रहने लगे।

इतनी कथा सुनाय श्री शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा-महाराज, कई बरष पीछे श्रीकृष्णचंद आनंदकंद के पुत्र प्रद्युम्नज़ी के पुत्र हुआ उस काल श्रीकृष्णजी ने जोतिषियों को बुलाय, सब कुटुंब के लोगो को बैठाय, मंगलाचार करवाय शास्त्र की रीति से नामकरन किया। जोतिषियो ने पत्रा देख बरष, मास, पक्ष, दिन, तिथि, घड़ी लग्न, नक्षत्र ठहराय उस लड़के का नाम अनरुद्ध रक्खा। उस काल

फूले अँग न समैँइ, दान दक्षिना द्विजन कौ।
देत न कृष्ण अघाँइ, प्रद्युम्न के बेटा भयौ॥

महाराज, नाती के होने का समाचार पाय पहले तो रुकने बहन बहनोई को अति हित कर यह पत्री में लिख भेजा कि तुम्हारे पोते से हमारी पोती का ब्याह हो तो बड़ा आनंद है और पीछे एक ब्राह्मन को बुलाय, रोली, अक्षत, रुपया, नारियल दे उसे समझायके कहा कि तुम द्वारकापुरी में जाय, हमारी ओर से अति बिनती कर, श्रीकृष्णजी का पौत्र अनरुद्ध जो हमारा दोहता है, तिसे टीका दे आओ। बात के सुनतेही ब्राह्मन टीका लग्न साथही ले चला चला श्रीकृष्णचंद् के पास द्वारका पुरी में गया। विसे देख प्रभु ने अति मान सनमान कर पूछा कि कहो देवता, आपका आना कहाँ से हुआ? ब्राह्मन बोला-महाराज, मै राजा भीष्मक के पुत्र रुक्म का पठाया उनकी पौत्री औ आपके पौत्र से संबंध करने को टीका औ लग्न ले आया हूँ।

इस बात के सुनतेही श्रीकृष्णजी ने दस भाइयो को बुलाय, टीका औ लग्न ले विस ब्राह्मन को बहुत कुछ दे विदा किया और आप बलरामजी के निकट जाय चलने का विचार करने लगे।

निदान वे दोनों भाई वहाँ से उठ, राजा उग्रसेन के पास जाय, सब समाचार सुनाय, उनसे विदा हो बाहर आय बरात की सब सामा मँगवाय भगवाय इकट्ठी करवाने लगे। कई एक दिन में जब सामान उपस्थित हो चुका, तब बड़ी धूमधाम से प्रभु बारात ले द्वारका से भोजकट नगर को चले।

उस काल एक झमझमाते रथ पर तो श्रीरुक्मिनीज पुत्र पत्र को लिये बैठी जाती थी औ एक रथ पर श्रीकृष्णचंद औ बलराम बैठे जाते थे। निदान कितने एक दिनों में सब समेत प्रभु वहाँ पहुँचे। महाराज, बरात के पहुँचतेही रुक्म केलिगादि सब देस देस के राजाओं को साथ ले नगर के बाहर जाय, अगौनी कर सर्बको बागे पहराय, अति आदर मान कर जनवासे में लिवाय लाया। आगे सबको खिलाय पिलाय मढ़ के नीचे लिवाय ले गया औ उसने बेद की विधि से कन्यादान किया। विसके यौतुक में जो दान दिया उसको मैं कहाँ तक कहूँ, वह अकथ है।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले—महाराज, व्याह के हो चुकतही राजा भीष्मक ने जनवासे मे जाये हाथ जोड़ अति बिनती कर, श्रीकृष्णचंदर्जी से चुपचुपाते कहा—महाराज, बिवाह हो चुका औ रस रहा, अब आप शीघ्र चलने का विचार कीजे क्यौकि-

भूप सगे जे रुक्म बुलाए। ते सब दुष्ट उपाधी आए॥
मत काहू सो उपजे रारि। याही ते हो कहत मुरारि॥

इतनी बात कह जो राजा भीष्मक गए तो ही श्री रुक्मिनीजी के निकट रुक्म आया।

कहत रुक्मिनी देर कर, किम घर पहुँचे जाय।
बैरी भूपति पाहुने, जुरे तिहारे आय॥
जौ तुम भैया चाहौ भलौ। हुमहि बेग पहुँचावन चलौ॥

नही तो रस में अनरस होता दीसे है। यह बचन सुन रुक्म बोला कि बहन, तुम किसी बात की चिन्ता मत करो, मैं पहले जो राजा देस के पाहुने आए हैं तिन्हें बिदा कर आऊँ पीछे जो तुम कहोगी सो मैं करूँगा। इतना कह रुक्म वहाँ से उठ जो राजा पाहुने आए थे उनके पास गया। वे सब मिलके कहने लगे कि रुक्म, तुमने कृष्ण बलदेव को इतना धन द्रव्य दिया और विन्होंने मारे अभिमान के कुछ भला न माना। एक तो हमे इस बात का पछतावा है और दूसरे उस बात की कसक हमारे मन से नहीं जाती कि जो बलराम ने तुम्हे अभरम किया था।

महाराज, इस बात के सुनतेही रुक्म को क्रोध हुआ, तब राजा कलिग बोला कि एक बात मेरे जी में आई है, कहो तो कहूँ। रुक्म ने कहा-कहो। फिर उसने कहा कि हमे श्रीकृष्ण से कुछ काम नहीं पर बलराम को बुला दो तो हम उससे चौपड़ खेल सब धन जीत ले और जैसा उसे अभिमान है तैसा यहाँ से रीते हाथ बिदा करें। जो कलिग ने यह बात कही तोही रुक्म वहाँ से उठ कुछ सोच विचार करता बलरामजी के निकट जा बोला कि महाराज, आपको सब राजाओ ने प्रनाम कर बुलाया है चौपड़ खेलने को।

सुन बलभद्र तबहि तहाँ आए। भूपनि उठकै सीस निवाए॥

आगे सब राजा बलरामजी का सिष्टाचार कर बोले कि आप को चौपड़ खेलने का बड़ा अभ्यास है, इसलिए हम आपके साथ खेला चाहते है। इतना कह उन्होने चौपड़ मँगवाय बिछाई और रुक्म से औ बलरामजी से होने लगी। पहले रुक्म दस बेर जीता तो बलदेवजी से कहने लगा कि धन तो सब बीता अब काहे से खेलोगे। इसमें राजा कलिंग बड़ी बात कह हँसा। यह चरित्र देख बलदेवजी नीचा सिर कर सोच विचार करने लगे, तब रुक्म ने दस करोड़ रुपये एक बार लगाए, सो बलरामजी ने जो जीतके उठाए तो सब धाँधलकर बोले कि यह रुक्म का पासा पड़ा तुम क्यौ रुपये समेटते हो।

सुनि बलराम फेर सब दीने। अर्व लगायौ पासे लीने॥

फिर हलधर जीते औ रुक्म हारा। उस समय भी रोगटी कर सब राजाओ ने रुक्म को जिताया और यो कह सुनाया-

जुआ खेल पासे का सार। यह तुम जानो कहा गँवार॥
जुआ युद्ध गति भूपति जाने। ग्वाल गोप गैयन पहचाने॥

इस बात के सुनते ही बलदेवजी का क्रोध यो बढ़ा कि जैसे पून्यौ को समुद्र की तरंग बढ़े। निदान जो तो कर बलरामजी ने क्रोध को रोक, मन को समझाय फिर सात सात अर्ब रुपये लगाये और चौपड़ खेलने लगे। फिर भी बलदेवजी जीते औ सबो ने कपट कर रुक्म ही को जीता कहा। इस अनीति के होते ही आकाश से यह बानी हुई कि हलधर जीते और रुक्म हारा। अरे राजाओ! तुमने क्यौं झूठ बचन उचारा। महराज, जब रुक्म समेत सब राजाओ ने आकाशबानी सुनी अनसुनी की, तब लो बलदेवजी महा क्रोध मे आय बोले-

करी सगाई बैर छाँड्यौ। हम सों फेर कलह तुम माँड्यौ।
मारौं तोहि अरे अन्याई। भलौ बुरौ मानहु भौजाई॥
अब काहूकी कान न करिहौ। आज प्रान कपटी के हरिहौं।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, निदान बलरामजीने सबके देखते रुक्म को मार डाला औ कलिंग को पछाड़ मारे घूसो के उसके दाँत उखाड़ डाले और कहा कि तू भी मुँह पसारके हँसा था। आगे सब राजाओ को मार भगाय, बलरामजी ने जनवासे में श्रीकृष्णचंदजी के पास आय, वहाँ का सब ब्योरा कह सुनाया।

बात के सुनतेही हरि ने सब समेत वहाँ से प्रस्थान किया और चले चले आनंद मंगल से द्वारका मे आन पहुँचे। इनके आतेही सारे नगर में सुख छाय गया, घर घर मंगलाचार होने लगा। श्रीकृष्णजी औ बलदेवजी ने उग्रसेन राजा के सनमुख जाय हाथ जोड़ कहा-महाराज, आपके पुन्य प्रताप से अनरुद्ध को ध्याह लाए औ महादुष्ट रुक्म को मारि आए।