प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ २३९ से – २४८ तक

 

अठावनवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, मनि के लिये जैसे सतधन्वा सत्राजीत को मार, मनि ले अक्रूर को दे द्वारका छोड़ भागा, तैसे मै कथा कहता हूँ तुम चित्त दे सुनो। एक समै हस्तिनापुर से आय किसीने बलराम सुखधाम श्री श्रीकृष्णचंद आनंदकंद से यह सँदेसा कहा, कि

पंडौ न्यौते अंधसुत, घर के बीच सुवाय।
अद्धेरात्र चहुँ ओर ते, दीनी आग लगाय॥

इतनी बात के सुतते ही दोनो भाई अति दुख पाय, घबराय, ततकाल दारक सारथी से अपना रथ मँगाय, तिसपर चढ़ हस्तिनापुर को गए औ रथ से उतर कौरों की सभा जा खड़े रहे। वहाँ देखते क्या है कि सब तन छीन मन मलीन बैठे है। दुर्योधन मनही मन कुछ सोचता है, भीष्म नैनो से जल मोचता है, धृतराष्ट्र बड़ा दुख करता है, द्रोनाचार्य की भी आँखो से पानी चलता है। विदूरथ जी ही जी पछताय, गँधारी बैठी उसके पास आय, और भी जो कौरो की स्त्रियाँ थी सो भी पाँडवो की सुध कर रो रही थी औ सारी सभा शोकमय हो रही थी। महाराज, वहाँ की यह दसा देख श्रीकृष्ण बलरामजी भी उनके पास जा बैठे औ इन्होने पाँडवो का समाचार पूछा पर किसीने कुछ भेद न कहा, सब चुप हो रहे।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, श्रीकृष्ण बलरामजी तो पाँडवो के जलने के समाचार पाय हस्तिनापुर को गये औ द्वारका में सतधन्वा नाम एक यादव था कि जिसे पहले सतिभामा माँगी थी तिसके यहाँ अक्रूर औ कृतवर्मा मिलकर गये और दोनों ने उससे कहा कि हस्तिनापुर को गये श्रीकृष्ण बलराम, अब आय पड़ा है तेरा दाँव सत्राजीत से तू अपना बैर ले, क्योकि विसने तेरी बड़ी चूक की, जो तेरी माँग श्रीकृष्ण को दी औ तुझे गाली चढ़ाई, अब यहाँ उसका कोई नहीं है सहाई। इतनी बात के सुनतेही सत्तधन्वा अति क्रोध कर उठा और रात्र समै सत्राजीत के घर जा ललकारा। निदान छल बल कर उसे मार वह मनि ले आया। तब सतधन्वा अग्ला घर में बैठ कुछ सोच विचार मनही मन पछताय कहने लगा-

मै यह बैर कृष्ण सो कियौ। अक्रूर को मतौ सुन लियौ॥
कृतवर्मा अक्रूर मिल, मतौ दियौ मोहि आय।
साध कहै जो कपट की तासो कहा बसाय॥

महाराज, इधर सतधन्वा तो इस भाँति पछताय, बार बार कहता था कि होनहार से कुछ न बसाय कर्म की गति किसीसे जानी नहीं जाय, और उधर सत्राजीत को मरा निहार, उसकी नारि रो रो कंत कंत कर उठी पुकार। उसके रोने की धुन सुन सब कुटुंब के लोग क्या वो क्या पुरुष अनेक अनेक भाँति की बाते कह कह रोने पीटने लगे औ सारे घर मे कुहराम पड़ गया। पिता का मरना सुन उसी समै आय, सतिभामाजी सबको समझाय बुझाय बाप की लोथ तेल में डलवाय, अपना रथ मँगवाय, तिसपर चढ़ श्रीकृष्णचंद आनंदकंद के पास चली औ रात दिन के बीच जा पहुँचीं।

देखतेही उठ बोले हरी। घर है कुशल क्षेम सुंदरी॥

सतिभामा कहि जोरे हाथ। तुम बिन कुशल कहाँ यदुनाथ॥
हमहि बिपत सतधन्वा दई। मेरो पिता हत्यौ मनि लई॥
घरे तेल मे सुसर तिहारे। करौ दूर सब सूल हमारे॥

इतनी बात कह सतिभामाजी श्रीकृष्ण बलदेवजी के सोही खड़ी हो हाय पिता हाय पिता कर धायमार रोने लगी। विनका रोना सुन श्रीकृष्ण बलरामजी ने भी पहले तो अति उदास हो रोकर लोक रीति दिखाई, पीछे सतिभामा को आसा भरोसा दे, ढाढ़स बँधाया वहाँ से साथ ले द्वारका मे आए। श्रीशुकदेवजी बाले कि महाराज, द्वारका में आते ही श्रीकृष्णचंद ने सतिभामा को महादुखी देख प्रतिज्ञा कर कहा कि सुंदर, तुम अपने मन में धीर धरो और किसी बात की चिंता मत करो। जो होना था सो तो हुआ पर अब मै सतधन्वा को मार तुम्हारे पिता का बैर लूँगा, तब मै और काम करूँगा।

महाराज, रामकृष्ण के आते ही सतधन्वा अति भय खाय घर छोड़ मनही मन यह कहता कि पराए कहे मैने श्रीकृष्णाजो से बैर किया, अब सरन किसकी लूँ, कृतबर्मा के पास आया और हाथ जोड़, अति विनती कर बोला कि महाराज, आप के कहे मैंने किया यह काम अब मुझपर कोपे है श्रीकृष्ण औ बलराम। इससे मै भागकर तुम्हारी सरन आया हूँ, मुझे कहीं रहने को ठौर बताइये। सतधन्वा से यह बात सुन कृतवर्मा बोला कि सुनो हमसे कुछ नही हो सकता। जिसका बैर श्रीकृष्णचंद से भया, सो नर सबही से गया। तू क्या नहीं जानता था कि हैं अति बली मुरारि, तिनसे बैर किये होगी हार। किसी के कहे से क्या हुआ, अपना बल बिचार काम क्यों न किया? संसार की रीति है कि बैर, ब्याह औ प्रीति समान ही से कीजे। तू हमारा भरोसा मत रख, हम श्रीकृष्णचंद आनंदकंद के सेवक है, विनसे बैर करना हमे नहीं सोभता। जहाँ तेरे सींग समाय तहाँ जा।

महाराज, इतनी बात सुन सतधन्वा निपट उदास हो वहाँ से चल अक्रूर के पास आया। हाथ बाँध सिर नाय, विनती कर हाहा खाय कहने लगा, कि प्रभु तुम हो यादव पति ईस, तुम्हे मानके सब निवावते है सीस। साध दयाल धरन तुम धीर, दुख सह आप हरते हो पर पीर। वचन कहे की लाज है तुम्हें, अपनी सरन रक्खो तुम हमे। मैने तुम्हारा ही कहा मान यह काम किया, अब तुम ही कृष्ण के हाथ से बचाओ।

इतनी बात के सुनते ही अकरजी ने सतधन्वा से कहा कि तू बड़ा मूरख है जो हमसे ऐसी बात कहता है, क्या तू नहीं जानता कि श्रीकृष्णचंद सबके करता दुखहरता है, उनसे बैर कर संसार वे कब कोई रह सकता है। कहनेवाले का क्या बिगड़ा, अब तो तेरे सिर आन पड़ी। कहा है, सुर नर मुनि की यही है रीति, अपने स्वारथ के लिए करते है प्रीति। और जगत मे बहुत भाँति के लोग है, सो अनेक अनेक प्रकार की बाते अपने स्वारथ की कहते है, इससे मनुष्य को उचित है किसी के कहे पर न जाय, जो काम करे तिसमे पहले अपना भला बुरा विचार ले, पीछे उस काज मे पाँव दे। तूने समझ बूझकर किया है काम, अब तुझे कहीं जगत मे रहने को नहीं है धाम। जिसने श्रीकृष्ण से बैर किया, वह फिर न जिया। जहाँ भागके रहा तहाँ मारा गया। मुझे मरना नही जो तेरा पक्ष करूँ, संसारमे जी सबको प्यारा है।

महाराज, अकरजी ने जब सतधन्वा को यो रूखे सूखे बचन सुनाये, तब तो वह निरास हो जाने की आस छोड़, मनि अक्रूरजी के पास रख, रथ पर चढ़, नगर छोड़ भागा और उसके पीछे रथ चढ़ श्रीकृष्ण बलरामजी भी उठ दौड़े चलते चलते इन्होंने उसे सौ योजन पर जाय लिया। इनके रथ की आहट पाय सतधन्वा अति घबराय रथ से उतर मिथिलापुरी में जा बढ़ा।

प्रभु ने उसे देख क्रोध कर सुदरसन चक्र को आज्ञा की-तू अभी सतधन्वा का सिर काट। प्रभु की आज्ञा पाते ही सुदरसन चक्र ने उसका सिर जा काटा। तब श्रीकृष्णचंद ने उसके पास जाय मनि ढूँढ़ी पर न पाई, फिर बलदेव जी से कहा कि भाई, सतधन्वा को मारा औ मनि न पाई। बलरामजी बोले कि भाई वह मनि किसी बड़े पुरुष ने पाई, तिसने लाय नही दिखाई। वह मनि किसी के पास छिपने की नहीं, तुम देखियो, निदान प्रगटेगी कही न कही।

इतनी बात कह बलदेवजी ने श्रीकृष्णचंद से कहा कि भाई, अब तुम तो द्वारकापुरी को सिधारो औ हम मनि के खोजने को जाते हैं, जहाँ पावेगे तहाँ से ले आवेंगे।

इतनी कथा कह श्री शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, श्रीकृष्णचंद आनंदकंद तो सतधन्वा को मार द्वारकापुरी पधारे श्री बलराम सुखधाम मनि के खोजने को सिधारे। देस देस नगर नगर गाँव गाँव मे ढूँढ़ते ढूँढ़ते बलदेवजी चले चले अजोध्यापुरी में जा पहुँचे। इनके पहुँचने के समाचार पाय अजोध्या का राजा दुरयोधन उठ धाया। आगे बढ़ भेटकर भेट दे प्रभु को बाजे गाजे से पाटंबर के पाँवड़े डालता निज मंदिर मे ले आया। सिंहासन पर बिठाय अनेक प्रकार से पूजा कर भोजन करवाय, अति बिनती कर सिर नाय हाथ जोड़ सनमुख खड़ा हो बोला-कृपासिंधु, आपका आना इधर कैसे हुआ सो कृपा कर कहिये।

महाराज, बलदेवजीने उसके मन की लगन देख मगन हो अपने जाने का सब भेद कह सुनाया। इनकी बात सुन राजा दुरयोधन बोला कि नाथ, वह मनि कही किसीके पास न रहेगी, कभी न कभी आपसे आप प्रकाश हो रहेगी। यो सुनाय फिर हाथ जोड़ कहने लगा कि दीनदयाल, मेरे बड़े भाग जो आपका दरसन मैने घर बैठे पाया और जन्म जन्म का पाप गँवाया। अब कृपा कर दास के मन की अभिलाषा पूरी कीजे और कुछ दिवस रह सिध्य कर गदा युद्ध सिखाय जग मे जस लीज, महाराज, दुरजोधन से इतनी बात सुन बलरामजी ने उसे सिष्य किया और कुछ दिन वहाँ रह सब गदा युद्ध की विद्या सिखाई पर मनि वहाँ भी सारे नगर मे खोजी औ न पाई। आगे श्रीकृष्णजी के पहुँचने के उपरांत कितने एक दिन पीछे बलरामजी भी द्वारका नगरी में आए, तो कृष्णचंदजी ने सब यादौ साथ ले सत्राजीत को तेल से निकाल अग्नि संस्कार किया औ अपने हाथो दाह किया।

जब श्रीकृष्णजी क्रियाकर्म से निचिन्त हुए तब अक्रूर औ कृतवर्मा कुछ आपस मे सोच बिचारकर, श्रीकृष्ण के पास आय, उन्हे एकांत ले जाय, मनि दिखाय कर बोले कि महाराज, यादव सब बहरमुख भए औ माया में मोह गए। तुम्हारा सुमरन ध्यान छोड़ धनांध हो रहे है, जो ये अब कुछ कष्ट पाये, तो ये प्रभु की सेवा में आवे। इसलिये हम नगर छोड़ मनि ले भागते है, जद हम इनसे आपका भजन सुमरन करावेंगे, तधी द्वारकापुरी में आवेंगे। इतनी बात कह अक्रूर औ कृतवर्मा सब कुटुंब समेत आधी रात को श्रीकृष्णचंद के भेद में द्वारकापुरी से भागे, ऐसे कि किसी ने न जाना कि किधर गये। भोर होते ही सारे नगर में यह चरचा फैली कि न जानिये रात की रात में अक्रूर औ कृतवर्मा कुटुँब समेत किधर गये और क्या हुए।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, इधर द्वारकापुरी मे तो नित घर घर यह चरचा होने लगी और उधर अक्रूर जी प्रथम प्रयाग मे जाय, मुडन करवाय, त्रिवेनी न्हाय, बहुत सा दान पुन्य कर, तहाँ हरि पैड़ी बंधवाय गया को गये। वहाँ भी फलगू नदी के तीर बैठ शास्त्र की रीति से श्राद्ध किया औ गयालियो को जिमाय बहुत ही दान दिया। पुनि गदाधर के दरसन कर तहाँ से चल काशीपुरी मे आए। इनके पाने का समाचार पाय इधर उधर के राजा सब आय आय भेटकर भेट धरने लगे औं ये वहाँ यज्ञ, दान, तप, व्रत कर रहने लगे।

इसमे कितने एक दिन बीते श्रीमुरारी भक्तहितकारी ने अक्रूर जी का बुलाना जी मे ठान, बलरामजी से आनके कहा कि भाई, अव प्रजा को कुछ दुख दीजे और अक्रूरजी को बुलवा लीजे। बलदेवजी बोले-महाराज, जो आपकी इच्छा मे आवै सो कीजे औ साधो को सुख दीजे। इतनी बात बलरामजी के मुख से निकलते ही, श्रीकृष्णचंदजी ने ऐसा किया कि द्वारकापुरी मे घर वर तप, तिजारी, मिरगी, क्षई, दाद, खाज, आधासीसी, कोढ़, महाकोढ़, जलंधर, भगंदर, कठंदर, अतिसार, आँव, मड़ोड़ा, खाँसी, सूल, अर्द्धांग, सीतांग, झोला, सन्निपात आदि व्याधि फैल गई।

और चार महीने वर्षा भी न हुई, तिससे सारे नगर के नदी, नाले, सरोवर सूख गये। तृन अन्न भी कुछ न उपजा, नभचर, जलचर, थलचर, जीव, जन्तु, पक्षी औ ढौर लगे व्याकुल हो सूख सूख मरने और पुरबासी मारे भूखो के त्राहि त्राहि करने। निदान सब नगर-निवासी महा ब्याकुल हो निपट घबराये। श्रीकृष्णचंद दुखनिकंद के पास आए औ अति गिड़गिड़ाय अधिक अधीनता कर हाथ जोड़ सिर नाय कहने लगे-

हम तौ सरन तिहारी रहैं। कष्ट महा अब क्योकर सहैं॥
मेघ न बरष्यौ पीड़ा भई। कहा बिधाता ने यह ठई॥

इतना कह फिर कहने लगे कि हे द्वारकानाथ दीनदयाल हमारे तो करता दुखहरता तुम हो, तुम्है छोड़ कहाँ जायँ औ किससे कहैं, यह उपाध बैठे बिठाए मे कहाँ से आई और क्यो हुई सो कृपा कर कहिये।

श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, इतनी बात के सुनते ही श्रीकृष्णचंदजी ने उनसे कहा कि सुनो जिस पुर सै साध जन निकल जाता है, तहाँ आपसे आप काल, दरिद्र, दुख आता है। जब से अक्रूरजी इस नगर से गये हैं तभी से यहाँ यह गति हुई है। जहाँ रहते हैं साध सतवादी औ हरिदास तहाँ होता है अशुभ, अकाल, बिपत का नास। इंद्र रखता है हरिभक्तों से सनेह, इसी लिये उसे नगर में भली भाँति बरसाता है मेह।

इतनी बात के सुनतेही सब यादव बोल उठे कि महाराज, आपने सच कहा। यह बात हमारे भी जी मे आई, क्योकि अक्रूर के पिता को सुफलक नाम है, वह भी बड़ा साध, सतबादी धर्मात्मा है। जहाँ वह रहता है तहाँ कभी दुख दरिद्र औ नही होता है अकाल, सदा समय पर बरसता है मेह तिससे होता हैं सुकाल। और सुनिये कि एक समै काशीपुरी में बड़ा दुरभिक्ष पड़ा, तब काशी का राजा सुफलक को बुलाय ले गया। महाराज, सुफलक के जातेही उस देस मे मेह मन मानता बरसा, समा हुआ औ सब का दुख गया। पुनि काशी पुरी के राजा ने अपनी लड़की सुफलक को ब्याह दी, ये आनंद से वहाँ रहने लगे। विस राजकन्या का नाम गादिनका*[] था, तिसी का पुत्र अक्रूर है।

इतना कह सब यादो बोले कि महाराज, हुमतो थह बात आगे से जानते थे अब जो आप आज्ञा कीजे सो करें। श्रीकृष्णचंद बोले कि अब तुम अति आदर मान कर, अक्रूरजी को जहाँ पाओ तहाँ से ले आओ। यह बचन प्रभु के मुख से निकलतेही जब यादव मिल अक्रूर को ढूंढ़न निकले औ चले चले बारानसी पुरी मे पहुँचे, अक्रूर जी से भेटकर, भेट दे, हाथ जोड़ सिरनाय, सनमुख खड़े हो बोले––

चलौ नाथ, बोलत बल स्याम। तुम बिन पुरवासी हैं बिराम॥
जितहीं तुम तितही सुख बास। तुम बिन कष्ट दरिद्र निवास॥
यद्यपि पुर मे श्रीगोपाल। तऊ कष्ट दै पर्‌यौ अकाल॥
साधनि के बस श्रीपति रहै। तिनते सब सुख संपति लहै॥

महाराज, इतनी बात के सुनते ही अकूरजी वहाँ से अति आतुर हो कुटुँब समेत कृतवर्मा को साथ ले, सब यदुबंसियो को लिये बाजे गाजे से चल खड़े हुए और कितने एक दिनों के बीच आ सब समेत द्वारकापुरी में पहुँचे। इनके आने की समाचार पा श्रीकृष्णजी औ बलराम आगे बढ़ आय, इन्हें अति मान सनमान से नगर में लिवाय ले गए। हे राजा, अक्रूरजी के पुरी में प्रवेश करतेही मेह बरसा औ समा हुआ, सारे नगर का दुख दरिद्र बह गया, अक्रूरजी की महिमा हुई, सब द्वारकाबासी आनंद मंगल से रहने लगे। आगे एक दिन श्रीकृष्णचंद आनंदकंद ने अक्रूरजी को निकट बुलाय एकांत ले जायके कहा कि तुमने सत्राजीत की मनि ले क्या की। वह बोला––महाराज, मेरे पास है। फिर प्रभु ने कहा––जिसकी वस्तु तिसे दीजे, औ वह न होय तो विसके पुत्र को सौपिये, पुत्र न होय तो उसकी स्त्री को दीजिये, स्त्री न होय तो उसके भाई को दीजे, भाई न हो तो उसके कुटुंब को सौंपिये, कुटुंब भी न हो तो उसके गुरुपुत्र को दीजे, गुरुपुत्र न हो तो ब्राह्मन को दीजिये, पर किसी को द्रव्य आप न लीजिये, यह न्याय है। इससे अब तुम्हें उचित है कि सत्राजीत की मनि उसके नाती को दो औ जगत में बड़ाई लो।

महाराज, श्रीकृष्णचंद के मुख से इतनी बात के निकलतेही अक्रूरजी ने मनि लाय प्रभु के आगे धर, हाथ जोड़, अति विनती कर कहा कि दीनानाथ, यह मनि आप लीजे औ मेरा अपराध दूर कीजे, क्यौकि जो इस मनि से सोना निकला सो ले मैने तीरथ यात्रा में उठाया है। प्रभु बोले––अच्छा किया। यो कह मनि ले हरि ने सतिभामा को जाय दी औ उसके चित्त की सब चिंता दूर की।

 

  1. * (ख) में 'गादिनी' नाम लिखा है।