प्रेमसागर/५० अक्रूरहस्तिनापुरगमन

प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ १७२ से – १७५ तक

 
पचासवाँ अध्याय

श्रीशुकदेव मुनि बोले कि पृथीनाथ, जब ऐसे श्रीकृष्णजीने अक्रूर के मुख से सुना, तब उन्हें पंडु की सुधि लेने को बिदा किया। वे रथ पर बैठ चले चले कई एक दिन में मथुरा से हस्तिनापुर पहुंचे, औ रथ से उतर जहाँ राजा दुर्योधन अपनी सभा में सिहासन पर बैठा था तहाँ जाय जुहार कर खड़े हुए। इन्हें देखतेही दुर्योधन सभा समेत उठकर मिला, औ अति आदर मान से अपने पास बिठाय इनकी कुशल क्षेम पूछ बोला―

नीके सरसेन बसुदेव। नीके हैं मोहन बलदेव॥
उग्रसेन राजा किहि हेत। नाहिन काहू की सुधि लेत॥
पुत्रहि मार करत है राज। तिन्हे न काहू सो है काज॥

ऐसे जब दुर्योधन ने कहा तब अक्रूर सुन चुप हो रहा है औ मनहीं मन कहने लगा कि यह पापियो की सभा है, यहाँ मुझे रहना उचित नही, क्योकि जो मैं रहूँगा तो वह ऐसी अनेक बाते कहेगा सो मुझसे कब सुनी जायंगी, इससे यहाँ रहना भला नहीं।

यो विचार अक्रूर जी वहाँ से उठ विदुर को साथ ले पंडु के घर गये, तहाँ जाय देखै तो कुंती पति के सोक में महा व्याकुल हो रो रही है। उसके पास जा बैठे औ लगे समझाने कि माई, बिधना से कुछ किसी का बस नहीं चलता, औ सदा कोई अमर हो जीता भी नहीं रहता। देह धर जीव दुख सुख सहता है,
इससे मनुप को चिंता करनी उचित नहीं, क्यौकि चिंता किये से कुछ हाथ नहीं आता, केवल जित्त को दुख देना है।

महाराज, जद ऐसे समझाय बुझाय अक्रूरजी ने कुंती से कहा, तद वह सोच समझ चुप हो रही, औ इनकी कुशल पूछ बोली―कहो अक्रूरजी, हमारे माता पिता औ भाई बसुदेवजी कुटुम्ब समेत भले हैं, औ श्रीकृष्ण बलराम कभी भीम, युधिष्ठिर, अर्जुन, नकुल, सहदेव, इन अपने पाँचो भाइयो की सुध करते हैं? ये तो यहाँ दुखसमुद्र में पड़े हैं, वे इनकी रक्षा कब आय करेगे हमसे अब तो इस अन्ध धृतराष्ट्र का दुख सहा नहीं जाता, क्योंकि वह दुर्योधन की मति से चलता है। इन पॉचो को मारने के उपाय में दिन रात रहता है। कई बेर तो विष घोल दिया सो मेरे भीमसेन ने पी लिया।

इतना कह पुनि कुंती बोली कि कहो अक्रूरजी, जब सब कौरव यो बैर किये रहैं, तब ये मेरे बालक किसका मुँँह चहै। औ मीच से बच कैसे होयँ सयाने, यही दुख बड़ा है हम क्या बखाने। जो हरनी झुंड से बिछड़ करती है त्रास, तो मै भी सदा रहती हूँ उदास। जिन्होने कंसादिक असुर संहारे, सोई हैं मेरे रखवारे।

भीम युधिष्ठिर अर्जुन भाई। इनकौ दुख तुम कहियौ जाई॥

जब ऐसे दीन हो कुंती ने कहे बैन, तब सुनकर अक्रूर ने भर लिए नैन। औ समझाके कहने लगा कि माता तुम कुछ चिंता मत करो। ये जो पॉचो पुत्र तुम्हारे है, सो महाबली जसी होगे। शत्रु ओ दुष्टो को भार करेगे निकन्द, इनके पक्षी हैं श्रीगोविद। यो कह फिर अक्रूरजी बोले कि श्रीकृष्ण बलराम ने मुझे यह कह तुम्हारे पास भेजा है कि फूफी से कहियो किसी बात से दुख न पावे, हम वेग ही तुम्हारे निकट आते है।

महाराज, ऐसे श्रीकृष्ण की कही बाते कह अक्रूरजी कुंती को समझाय बुझाय आसा भरोसा दे बिदा हो बिदुर को साथ ले धृतराष्ट्र के पास गये, औ उससे कहा कि तुम पुरखा होय ऐसी अनीति क्यों करते हो, जो पुत्र के बस होय अपने भाई का राजपाट ले भतीजो को दुख देते हो। यह कहाँ का धर्म है जो ऐसा अधर्म करते हो।

लोचन गये न सूझे हिये। कुल बहि जाय पाप के किये।

तुमने भले चंगे बैठे बिठाये क्यों भाई का राज लिया, औ भीम युधिष्ठिर को दुख दिया। इतनी बात के सुनतेही धृतराष्ट्र अक्रूर का हाथ पकड़ बोला कि मैं क्या करूँ, मेरा कहा कोई नहीं सुनता, ये सब अपनी अपनी मत से चलते है, मैं तो इनके सोही मूरख ही रहा हूँ, इनसे इनकी बातो में कुछ नहीं बोलता, एकांत बैठ चुपचाप अपने प्रभु का भजन करता हूँ। इतनी बात जो धृतराष्ट्र ने कही तो अक्रूरजी दंडवत कर वहाँ से उठ रथ पर चढ़ हस्तिनापुर से चले चले मथुरा नगरी में आए।

उग्रसेन वसुदेव सो, कही पंडु की बात।
कुंती के सुत महा दुखी, भये छीन अति गात॥

यो उग्रसेन वसुदेवजी से हस्तिनापुर के सब समाचार यह अक्रूरज फिर श्रीकृष्ण बलरामजी के पास जा प्रनाम कर हाथ जोड़ बोले―महाराज, मैंने हस्तिनापुर में जाय देखा, आपकी फूफी औ पाँचो भाई कौरो के हाथ से महादुखी हैं। अधिक क्या कहूँगा, आप अन्तरजामी हैं, वहाँ की अवस्था औ विपरीत तुमसे
कुछ छिपी नहीं। यो कह अक्रूरजी तो कुंती का कहा संदेसा सुनाय विदा हो अपने घर गए औ सब समाचार सुन श्रीकृष्ण बलदेव जो हैं सब देवन के देव सो लोकरीति से बैट चिंता कर भूमि का भार उतारने का विचार करने लगे। इतनी कथा श्रीशुकदेव मुनि ने राजा परीक्षित को सुनायकर कहा कि हे पृथीनाथ, यह जो मैने ब्रजबन मथुरा का जस गाया, सो पूर्वार्ध कहाया। अब आगे उत्तरार्ध गाऊँगा, जो द्वारकानाथ का बल पाऊँगा।