प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ १४५ से – १५५ तक

 

छीआलीसवाँ अध्याय

श्रीशुकदेव मुनि बोले कि हे राजा, रानियाँ तो द्यौरानियो समेत वहाँ न्हाय धोय रोय राजमंदिर को गई औ श्रीकृष्ण बलराम बसुदेव देवकी के पास आय, उनके हाथ पाँव की हथकड़ियाँ बेड़ियाँ काट दंडवत कर हाथ जोड़ कर सनमुख खड़े हुए। तिस समै प्रभु का रूप देख वसुदेव देवकी को ज्ञान हुआ तो उन्होने अपने जी में निहचै कर जाना कि ये दोनों विधाता हैं। असुरो को मार भूमि का भार उतारने को संसार में औतार ले आए है।

जब बेसुदेव देवकी ने यो जी में जाना तब अंतरजामी हरि ने अपनी माया फैलाय दी, उसने उनकी वह मति हर ली। फिर तो विन्होंने इन्हें पुत्र कर समझा कि इतने में श्रीकृष्णचंद अतिदीसत्ता कर बोले―

तुम बहु दिवस लह्यो दुख भारी। करत रहे अति सुरत हमारी॥

इसमें हमारा कुछ अपराध नहीं क्योंकि जबसे आप हमें गोकुल में नंद के यहाँ रख आए तब से परबस थे, हमारा बस न था, पर मन में सदा यह आता था कि जिसके गर्भ में दस महीने रह जन्म लिया, विसे न कभी कुछ सुख दिया, न हम ही माता पिता का सुख देखा वृथा जन्म पराये यहाँ खोया, विन्होंने हमारे लिये अति बिपति सही, हमसे कुछ विनकी सेवा न भई, संसार में सामर्थी वेई हैं जो मा बाप की सेवा करते हैं। हम विनके ऋनी रहे, दहल न कर सके। पृथ्वीनाथ, जब श्रीकृष्णजी ने अपने मन का खेद यो कह सुनाया तब अति आनंद कर उन दोनो ने इन दोनों को हितकर कंठ लगाया औ सुख मान पिछला दुख सब गँवाया। ऐसे मात पिता को सुख दे दोनों भाई वहाँ से चले चले उग्रसेन के पास आए और हाथ जोड़कर बोले―

नानाजू अब कीजे राज। शुभ नक्षत्र नीकौ दिन आज।

इतना हरिमुख से निकलतेही राजा उग्रसेन उठकर आ श्रीकृष्णचंद के पाओ पर गिर कहने लगे, कि कृपनाथ मेरी विनती सुन लीजिये, जैसे आपने सब असुरो समेत कंस महादुष्ट को मार भक्तों को सुख दिया तैसेही सिहासन पै बैठ अब मधुपुरी का राज कर प्रजापालन कीजिये। प्रभु बोले―महाराज, यदुबंसियो को राज का अधिकार नहीं, इस बात को सब कोई जानता है, जब राजा जजाति बूढ़े हुए तब अपने पुत्र यदु को उन्होंने बुलाकर कहा कि अपनी तरुन अवस्था मुझे दे और मेरा बुढ़ापा तू ले। यह सुन उसने अपने जी में बिचारा कि जो मैं पिता को युवा अवस्था दूँगा तो यह तरुन हो भोग करैगा, इसमें मुझे पाप होगा, इससे नहीं करनाही भला है। ये सोच समझके उसने कहा कि पिता, यह तो मुझसे न हो सकेगा। इतनी बात के सुनतेही राजा जजाति ने क्रोध कर यदु को श्राप दिया कि जा तेरे बंस में राजा कोई न होगा।

इसी बीच पुर नाम उनका छोटा बेटा सनमुख आ हाथ जोड़ बोला-पिता, अपनी बृद्ध अवस्था मुझे दो और मेरी तरुनाई तुम लो। यह देह किसी काम की नहीं, जो आपके काम आवै तो इससे उत्तम क्या है। जब पुर ने यी कहा तब राजा जजाति प्रसन्न हो अपनी बृद्ध अवस्था दे उसकी युवा अवस्था ले बोले, कि तेरे कुल में राजगादी रहेगी। इससे नाना जी, हम यदुबंसी है हमें राज करना उचित नहीं।

करो बैठ तुम राज, दूर करहु संदेह सब।
हम करिहैं सब काज, जो आयसु दैहो हमें॥

जो न मानिहै आन तुम्हारी। ताहि दंड करिहैं हम भारी।
और कछू चित सोच न कीजै। नीति सहित परजहि सुख दीजै॥
यादव जितने कंस के त्रास। नगर छांड़ि कै गये प्रवास॥
तिनको अब कर खोज मॅगाओ। सुख दै मथुरा मांझ बसाओ॥
विप्र धेनु सुर पूजन कीजै। इनकी रक्षा में चित दीजै॥

इतनी कथा कह श्रीशुकदेव मुनि बोले कि धर्मावतार, महाराजाधिराज भक्तहितकारी श्रीकृष्णचंद ने उग्रसेन को अपना भक्त जान ऐसा समझाय सिहासन पर बिठाय राजतिलक दिया, औ छत्र फिरवाय दोनों भाइयों ने अपने हाथो चँवर किया।

उस काल सब नगर के बासी अति आनंद में मगन हो धन्य धन्य कहने लगे, और देवता फूल बरसावने। महाराज, यो उग्रसेन को राज पाट पर बिठाय दोनो भाई बहुत से वस्र आभूषन अपने साथ लिवाये वहाँ से चले चले नंदरायजी के पास आए, और सनमुख हाथ जोड़ खड़े हो अति दीनती कर बोले―हम तुम्हारी क्या वड़ाई करे जो सहस्र जीभ होय तौ भी तुम्हारे गुन का बखान हम से न हो सके। तुमने हमें अति प्रीति कर अपने पुत्र की भाँति पाला, सब लाड़ प्यार किया और जसोदा मैया भी वड़ा स्नेह करतीं, अपना हित हमही पर रखतीं, सदा निज पुत्र समान जानती, कभी मन से भी हमें पराया कर न मानतीं। ऐसे कह फिर श्रीकृष्णचंद बोले कि हे पिता, तुम यह बात सुन कर कुछ बुरा मत मानो, हम अपने मन की बात कहते हैं, कि माता पिता तो तुम्हैही कहेंगे पर अब कुछ दिन मथुरा में रहेगे, अपने जात भाइयो को देख यदुकुल की उत्पत्ति सुनेंगे, और अपने माता पिता से मिल उन्हें सुख देगे। क्यौकि विन्होंने हमारे लिये बड़ा दुख सहा है जो हमें तुम्हारे यहाँ न पहुँचा आते तो वे दुख न पाते। इतना कह वस्त्र आभूषन नंद महर के आगे धर प्रभु ने निरमोही हो कहा―

मैया सों पालागन कहियो। हम पै प्रेम करै तुम रहियो॥

इतनी बात श्रीकृष्ण के मुँह से निकलतेही नंदराय तो अति उदास हो लगे लंबी साँसे लेने, औ ग्वालबाल बिचारकर मनहीं मन यो कहने कि यह क्या अचंभे की बात कहते है, इससे ऐसा समझ में आता है कि अब ये कपट कर जाया चाहते है, नहीं तो ऐसे निठुर बचन न कहते। महाराज, निदान उसमे से सुदामा नाम सखा बोला, भैया कन्हैया, अब मथुरा मे तेरा क्या काम है, जो निठुराई कर पिता को छोड़ यहाँ रहता है। भला किया कंस को मारा, सब काम सँवारा, अब नंद के साथ हो लीजिये, औ बृंदावन में चल राज कीजिये, यहाँ का राज देख मन में मत ललचाओ, वहाँ का सुख न पाओगे।

सुनौ, राज देख मूरख भूलते है औ हाथी घोड़े देख फूलते है। तुम बूंदाबन छोड़ कहीं मत रहो, वहाँ बसंत ऋतु रहती है, सघन बन औ यमुना की सोभा मन से कभी नहीं बिसरती। भाई, जो वह सुख छोड़ हमारा कहा न मान, भात पिता की माया तज यहाँ रहोगे, तो इसमें तुम्हारी क्या बड़ाई होगी। उग्रसेन की सेवा करोगे औ रात दिन चिंता में रहोगे, जिसे तुमने राज दिया विसी के अधीन होना होगा। इससे अब उत्तम यही है कि नंदराय को दुख न दीजे, इनके साथ ही लीजे।

प्रज बन नदी बिहार बिचारौ। गायन को मन ते न बिसारी॥
नहीं छॉड़िहै हेम ब्रजनाथ। चलिहै सबै तिहारे साथ॥

इतनी कथा कथ श्रीशुकदेव मुनि ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, ऐसे कितनी एक बातें कह दस बीसेक सखा श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ रहे, औ विन्होने नंदराय से बुझाकर कहा कि आप सब को ले निस्संदेह आगे बढ़िये, पीछे से हम भी इन्हें साथ लिये चले आते है। इतनी बात के सुनतेही हुए―

व्याकुल सबै अहीर, मानहुँ पन्नग के डसे।
हरिमुख लखत अधीर, टाढे काढ़े चित्र से॥

उस समै बलदेवजी नंदराय को अति दुखित देख समझाने लगे कि पिता, तुम इतना दुख क्यौ पाते हो, थोड़े एक दिनों में यहाँ का काज कर हम भी आते हैं, आपको आगे इस लिये बिदा करते है कि माता हमारी अकेली ब्याकुल होती होगी, तुम्हारे गये से विन्हें कुछ धीरज होगा। नंदजी बोले कि बेटा, एक बार तुम मेरे साथ चलो, फिर मिलकर चले आइयो।

ऐसे कह अति विकल हो, रहे नंद गहि पाय।
भई छीन दुति मंद मति, नैनन जल न रहाय॥

महाराज, जब माया रहित श्रीकृष्णचंदजी ने ग्वालबालो समेत नंद महर को महा व्याकुल देखा, तब मन में विचारा कि ये मुझसे बिछड़ेगे तो जीते न बचेगे, तोही उन्होने अपनी उस माया को छोड़ा जिसने सारे संसार को भुला रक्खा है, उनने आतेही नंदजी को सब समेत अज्ञान किया। फिर प्रभु बोले कि पिता, तुम इतना क्यौ पछताते हो, पहले यही बिचारी जो मथुरा औ बृंदावन में अंतर ही क्या है, तुमसे हम कहीं दूर तो नहीं जाते जो इतना दुख पाते हो, बृंदावन के लोग दुखी होगे, इस लिये तुम्हें आगे भेजते हैं।

जद ऐसे प्रभु ने नंद महर को समझाया तद वे धीरज धर हाथ जोड़ बोले—प्रभु, जो तुम्हारे ही जी में यो आया तो मेरा क्या बस है, जाता हूँ, तुम्हारा कहा दाल नहीं सकता। इतना बचन नैदजी के मुख से निकलते ही, हरि ने सब गोप ग्वालबालों समेत नंदराय को तो बृंदाबन बिदा किया औ आप कई एकसखाओ समेत दोनो भाई मथुरा में रहे। उस काल नंद सहित गोप ग्वाल

चले सकल मरा सोचत भारी। हारे सर्बसु भनहुँ जुआरी॥
काहू सुधि काहू चुधि नाहीं। लपत चरन परत मागमाही॥
जात बृंदावन देखत मधुबन। बिरह बिथा बाढ़ी व्याकुल तन॥

इसी रीति से जो तो कर बूंदाबन पहुँचे। इनका आना सुनतेही जसोदा रानी अति अकुलाकर दौड़ी आईं, और राम कृष्ण को न देख महा व्याकुल हो नंदजी से कहने लगीं―

अहो कंत सुत कहाँ गँवाए। बसन अभूषन लीने आए॥
कंचन फैंक काच घर राख्यौ। अमृत छाँड़ि मूढ विष चाख्यौ॥
पारस पाय अंध जो डारे। फिरि गुन सुनहि कपारहि मारै॥

ऐसे तुमने भी पुत्र गँवाए औ बसन आभूषन उनके पलटे ले आए। अब विन विन धन ले क्या करोगे। हे मूरख कंत, जिनके पलक ओट भये छाती फटे, कहो विन बिन दिन कैसे करे। जब उन्होंने तुमसे बिछड़ने को कहा, तब तुम्हारा हिया कैसे रहा। इतनी बात सुन नंदजी ने बड़ा दुख पाया औ नीचा सिर कर यह वचन सुनाया, कि सच है, ये वस्त्र अलंकार श्रीकृष्ण ने दिये, पर मुझे यह सुध नहीं जो किसने लिये, और मै कृष्ण की बात क्या कहूँगा, सुन कर तू भी दुख पावेगी।

कंस मार मो पै फिर आए। प्रीति हरन कहि बचन सुनाए॥
वसुदेव के पुत्र वे भए। कर मनुहार हमारी गए॥
हो तब महरि अचंभे रह्यो। पोषन भरने हमारी कह्यो॥

अब न महरि हरि सो सुत कहिये। ईश्वर जानि भजन करि रहिये॥

विसे तो हमने पहलेही नारायन जाना था, पर माया बस पुत्र कर माना। महराज, जद नंदरायजी ने सच सच बाते श्रीकृष्ण की कही कह सुनाई, तिस समै माया बस हो जसोदा रानी कभी तो प्रभु को अपना पुत्र जान मनहीं मन पछताय ब्याकुल हो हो रोती थीं, और इसी रीति से सब बृंदाबनबासी क्या स्त्री क्या पुरुष हरि के प्रेम रंग राते, अनेक अनेक प्रकार की बाते करते थे, सो मेरी सामर्थ नहीं जो मैं बरनन करूँ, इससे अब मथुरा की लीला कहता हूँ, तुम चित दे सुनो।

जब हलधर औ गोविंद नंदराय को बिदा कर वसुदेव देवकी के पास आए तब विन्होने इन्हें देख दुख भुलाय ऐसे सुख माना, कि जैसे तपी तप कर अपने तप का फल पाय सुख माने। आगे बसुदेवजी ने देवकी से कहा कि कृष्ण बलदेव पराये यहाँ रहे है, इन्होने विनके साथ खाया पिया है औ अपनी जात को ब्योहार भी नहीं जानते, इससे अब उचित है कि पुरोहित को बुलाय पूछें, जो वह कहे सो करे। देवकी बोली―बहुत अच्छा।

तद बसुदेवजी ने अपने कुलपूज गर्ग मुनिजी को बुला भेजा।
वे आए। उनसे इन्होने अपने मन का संदेह सब कहके पूछा, कि महाराज, अब हमें क्या करना उचित है सो दुयो कर कहिये। गर्ग मुनि बोले―पहले सब जात भाइयो को नौत बुलाइये, पीछे जात कर्म कर राम कृष्ण का जनेऊ दीजे ।

इतना बचन पुरोहित के मुख से निकलतेही वसुदेवजी ने नगर मे नौता भेज सब ब्राह्मन औ यदुबंसियों को नौत बुलाया, वे आए, तिन्हें अति आदर मान कर बिठाया।

उस काल पहले तो वसुदेवजी ने विधि से जात कर्म कर जन्म पत्री लिखवाय, दुस सहस्र गौ, सोने के सींग, तांबे की पीठ, रूपे के खुर समेत, पाटंबर उढ़ाय, ब्राह्मनो को दीं, जो श्रीकृष्ण जी के जन्म समै संकल्पी थी। पीछे मंगलाचार करवाय बेद की विधि से सब रीति भॉति कर राम कृष्ण का यज्ञोपवीत किया, औ उन दोनो भाइयो को कुछ दे विद्या पढ़ने भेज दिया।

वे चले चले अवंतिकापुरी का एक सांदीपन नाम ऋषि महा पंडित औ बड़ा ज्ञानवान काशीपुरी में था, उसके यहॉ आए। दंडवत कर हाथ जोड़ सनमुख खड़े हो अति दीनता कर बोले―

हम पर कृपा करौ ऋषि राय। विद्या दान देहु मन लाय।।

महाराज, जब श्रीकृष्ण बलरामजी ने सांदीपन ऋषि से यो दीनता कर कहा, तब तो विन्ह ने इन्हें अति प्यार से अपने घर में रक्खा औ लगे बड़ी कृपा कर पढ़ावने। कितने एक दिनो में ये चार वेद, उपवेद, छः शास्त्र, नौ व्याकरन, अठारह पुरान, मंत्र, जंत्र, तंत्र, आगम, ज्योतिष, वैदक, कोक, संगीत, पिंगल पढ़ चौदह विधा निधान हुए। तब एक दिन दोनों भाइयों ने हाथ जोड़ अति बिनती कर गुरु से कहा कि महाराज, कहा है जो
अनेक जन्म औतार ले बहुतेरा कुछ दीजिये तौ भी विद्या का पलटा न दिया जाय, पर आप हमारी शक्ति देख गुरु दक्षिाना की आज्ञा कीजे, तो हम यथाशक्ति दे असीस ले अपने घर जायँ।

इतनी बात श्रीकृष्ण बलराम के मुख से निकलते ही, सांदीपन ऋषि वहाँ से उठ सोच विचार करता घर भीतर गया, औ विसने अपनी स्त्री से इनका भेद यो समझा कर कहा, कि ये राम कृष्ण जो दोनो बालक हैं सो आदिपुरुष अविनाशी है, भक्तो के हेतु अवतार ले भूमि का भार उतारने को संसार में आए हैं, मैने इनकी लीला देख यह भेद जाना क्योकि जो पढ़ पढ़ फिर फिर जन्म लेते हैं, सो भी विद्यारूपी सागर की थाह नहीं पाते, औ देखो इस बाल अवस्था से थोड़ेही दिनो मे ये ऐसे अगम अपार समुद्र के पार हो गये। ये जो किया चाहै सो पल भर में कर सकते है। इतना कह फिर बोले

इन पै कहा मोंगिये नारि। सुन के सुंदरि कहै विचारि॥
मृतक पुत्र मॉगौ तुम जाय। जो हरि हैं तो दैहैं ल्याय॥

ऐसे घर में से बिचारकर, सांदीपन ऋषि स्त्री सहित बाहर जय श्री कृष्ण बलदेवजी के सनमुख कर जोड़ दीनता कर बोले―महाराज, मेरे एक पुत्र था, तिसे साथ ले मैं कुटुंब समेत एक पर्व मे समुद्र न्हान गया था, जो वहाँ पहुँच कपड़े उतार सब समेत तीर में नहाने लगा, तो सागर की एक बड़ी लहर आई, विसमें मेरा पुत्र बह गया, तो फिर न निकला, किसी मगर मच्छ ने निगल लिया, विसको दुख मुझे बड़ा है। जो आप गुरुदक्षिना दिया चाहते है तो वही सुत ला दीजे, औ हमारे मन का दुख दूर कीजे।
यह सुन श्रीकृष्ण बलराम गुरुपत्नी औ गुरु को प्रनाम कर, रथ पर चढ़ उनके पुत्र लाने के निमित्त समुद्र की ओर चले, औ चले चले कितनी एक बेर में तीर पर जा पहुँँचे। इन्हे क्रोधवान आते देख सागर भयमान हो मनुष शरीर धारन कर बहुत सी भेट ले नीर से निकल तीर पर डरता काँपता सोही आ खड़ा हुआ, औ भेंट रख दंडवत कर हाथ जोड़ सिर नवाय अति विनती कर बोला―

बड़ौ भाग प्रभु दरसन दयौ। कौन काज इत आवन भयौ॥

श्रीकृष्णचंद बोले―हमारे गुरुदेव यहाँ कुनबे समेत नहाने आए थे, तिनके पुत्र कौ जो तू तरंग से बहाय ले गया है, तिसे ला दे, इसी लिये हम यहाँ आए है।

सुन समुद्र बोल्यौ सिर नाय। मैं नहिं लीनौं वाहि बहाय॥
तुम सबहीं के गुरु जगदीश। राम रूप बाँध्यौ हो ईस॥

तभी से मै बहुत डरता हूँ, औ अपनी मर्यादा से रहता हूँ। हरि बोले―जो तूने नहीं लिया तो यहाँ से और कौन उसे ले गया। समुद्र ने कहा―कृपानाथ, मैं इसका भेद बताता हूँ कि एक संखासुर नाम असुर संख रूप मुझ में रहता है, सो सब जलचर जीवों को दुख देता है, औ जो कोई तीर पै न्हाने को आता है विसे पकड़ कर ले जाता है। कदाचित वह आपके गुरु सुत को ले गया होय तो मैं नहीं जानता, आप भीतर पैठ देखिये।

यो सुन कृष्ण धसे मन लाय। माँझ समुंदर पहुँचे जाय॥
देखत ही संखासुर मार्यो। पेट फाड़कै आहर डायो॥
तामें गुरु को पुत्र न पायौ। पछताने बलभद्र सुनायौ॥

कि भैया, हमने इसे बिन काज मारा। बलरामजी बोले―
कुछ चिन्ता नहीं, अब आप इसे धारन कीजे। यह सुन हरि ने उस संख को अपना आयुध किया। आगे दोनो भाई वहाँ से चले चले यम की पुरी में जा पहुँचे, जिसका नाम है संयमनी, औ धर्मराज जहाँ का राजा है।

इनको देखतेही धर्मराज अपनी गादी से उठ आगे आय अति आवभगति कर ले गया। सिहासन पर बैठाय पाँव धो चरनामृत ले बोला―धन्य यह ठौर, धन्य यह पुरी, जहाँ आकर प्रभु ने दरशन दिया औ अपने भक्तो को कृतारथ किया, अब कुछ आज्ञा कीजे जो सेवक पूरन करैं। प्रभु ने कहा कि हमारे गुरुपुत्र को लादे।

इतना बचन हरि के मुख से निकलतेही धर्मराज उठ जाकर बालक को ले आया, और हाथ जोड़ विनती कर बोला कि कृपानाथ आपकी कृपा से यह बात मैंने पहलेही जानी थी कि आप गुरुसुत के लेने को आवेगे, इसलिये मैने यत्र कर रखा है, इस बालक को आज तक जन्म नही दिया। महाराज, ऐसे कह धर्मराज ने बालक हरि को दिया। प्रभु ने ले लिया औ तुरन्त उसे रथ पर बैठाय वहॉ से चल कितनी एक बेर में जा गुरु के सोहीं खड़ा किया, और दोनो भाइयो ने हाथ जोड़के कहा―गुरुदेव, अब क्या आज्ञा होती है।

इतनी बात सुन औ पुत्र को देख, सांदीपन ऋषि ने अति प्रसन्न हो श्रीकृष्ण बलरामजी को बहुत सी आसीसे देकर कहा―

अब हौ मॉगो कहा मुरारी। दीनौ मोहि पुत्र सुख भारी।।
अति जस तुम सौ सिष्य हमारौ। कुशल क्षेम अब घरहि पधारौ।

जब ऐसे गुरु ने आज्ञा की तब दोनो भाई बिदा हो, दंडवत कर, रथपर बैठ वहॉ से चले चले मथुरापुरी के निकट आए। इनका