प्रेमसागर/३९ अक्रूर वृंदावन गमन

प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ १२० से – १२१ तक

 

श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, कार्त्तिक बदी द्वादशी को तो केसी औ ब्योमासुर मारा गया और त्रयोदशी को भोर के तड़केही, अक्रूर कंस के पास आय बिदा हो रथपर चढ़ अपने मन में यो विचारता बृंंदाबन को चला कि ऐसा मैने क्या जप, तप, यज्ञ, दान, तीरथ, व्रत किया है, जिसके पुन्य से यह फल पाऊँँगा। अपने जाने तो इस जन्म भर कभी हरि का नाम नहीं लिया, सदा कंस की संगति में रहा, भजन का भेद कहाँ पाऊँ। हाँ अगले जन्म कोई बड़ा पुन्य किया हो, उस धर्म के प्रताप का यह फल हो तो हो जो कंस ने मुझे श्रीकृष्णचंद आनंदकंद के लेने को भेजा है, अब जाय उनका दरसन पाय जन्म सुफल करूँगा।

हाथ जोरि कै पायन परिहौ। पुनि पगरेनु सीस पर धरिहौ॥
पाप हरन जेई पग आहि। सेवत श्रीब्रह्मादिक ताहि॥
जे पग काली के सिर परे। जे पग कुच चंदन सी भरे॥
नाचे रास मंडली आछे। जे पग डोले गायन पाछै॥
जा पगरेनु अहिल्या तरी। जो पग में गंगा निसरी॥
बलि छलि कियौ इंद्र को काज। ते पग हौ देखौगो आज॥
मौ कौ सगुन होते हैं भले। मृग के झुंड दाहने चले॥

महाराज, ऐसे विचार फिर अक्रूर अपने मन में कहने लगा कि कहीं मुझे वे कंस का दूत तो न समझे। फिर आपही सोचा कि जिनका नाम अंतरजामी है, ऐसा कभी न समझेगे, बरन मुझे देखतेही गले लगाय दया कर अपना कोमल, कंवल सा कर मेरे सीस पर धरेगे। तब मै उस चंद्र बदन की शोभा इकटक निरख अपने नैन चकोरो को सुख दूँगा, कि जिस का ध्यान ब्रह्मा, इंद्र, आदि सब देवता सदा करते है।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, इसी भाँति सोच विचार करते रथ हाँके इधर से तो अक्रर जी गये औ उधर बन से गौ चराय, ग्वाल-बाल समेंत कृष्ण बलदेव भी आए, तो इनसे उनसे वृंदावन के बाहरही भेट भई। हरि छबि दूर से देखते ही अक्रूर रथ से उतर अति अकुलाय दौड़ उनके पाँओ पर जा गिरा, औ ऐसा मगन हुआ कि मुँह से बोल न आया, महा आनंद कर नैनो से जल बरसावने लगा, तब श्रीकृष्णजी उसे उठाय अति प्यार से मिल हाथ पकड़ घर लिवाय ले गये। वहाँ नंदराय अक्रूरजी को देखतेही प्रसन्न हो उठकर मिले औ बहुत सा दर मान किया, पाँव धुलवाय आसन दिया।

लिये तेल मरदनियाँ आए। उबटि सुगंध चुपरि अन्याए।
चौका पटा जसोदा दियो। षटरस रुचि सो भोजन कियौ॥

जब अचायके पान खाने बैठे तब नंदजी उनसे कुशल क्षेम पूछ बोले, कि तुम तो यदुवंशियों में बड़े साध हो औं वहाँ के लोगों की क्या गति है, सो सब भेद कहो। अक्रूरजी बोले―

जबते केस मधुपुरी भयौ। तबते सुबह कौ दुख दुयौ॥
पूछौ कहा नगर कुशलात। परजी दुखी होत है गात॥
जौ लौ है मथुरा में कंस। तौ लौ कहाँ बचे यदुबंस॥
पशु मेढे छेरीन कौ, ज्यौ खटीक रिपु होइ।
त्यो परजी को कंस है, दुख पावे सब कोइ॥

इतना कह फिर बोले कि तुम तो कंस का व्योहार जानते हो। हम अधिक क्या कहेंगे।

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