प्रेमसागर/३५ विद्याधरमोक्ष, शंखचूड़वध

प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ १०७ से – १०९ तक

 

श्रीशुकदेव मुनि कहने लगे कि राजा, जैसे श्रीकृष्णजी ने विद्याधर को तारा औ शंखचूड़ को मारा सो प्रसंग कहता हूँ, तुम जी लगाय सुनौ। एक दिन नन्दजी ने सब गोप ग्वालों को बुलायके कहा कि भाइयो जब कृष्ण का जन्म हुआ था, तब मैंने कुलदेवी अम्बिका की यह मानता करी थी कि जिस दिन कृष्ण बारह बरस का होगा तिस दिन नगर समेत बाजे गाजे से जाकर पूजा करूँगा, सो दिन उनकी कृपा से आज देखा, अब चलकर पूजा किया चाहिए।

इतना बचन नन्दजी के मुख से सुनतेही सब गोप ग्वाल उठ धाए औ झटपटही अपने अपने घरों से पूजा की सामग्री ले आए। तद तो नन्दराय भी पुजापा औ दूध दही माखन सगड़ो बहँ गियों में रखवाय, कुटुम्ब समेत उनके साथ हो लिये औ चले चले अंबिका के स्थान पर पहुँचे। वहाँ जाय सरस्वती नदी में न्हाय, नंदजी ने पुरोहित बुलाय, सब को साथ ले देवी के मंदिर में जाय शास्त्र की रीति से पूजा की। औ जो पदारथ चढ़ाने को ले गये थे सो आगे घर, परिक्रमा दे, हाथ जोड़, बिनती कर कहा कि मा आपकी कृपा से कान्ह बारह बरस का हुआ।

ऐसे कह दंडवत कर मंदिर के बाहर आय, सहस्र ब्राह्मन जिमाए। इसमे अबेंर जो हुई तो ब्रजवासियों समेत, नंदु तीरथ व्रत कर वहाँही रहे। रात को सोते थे कि एक अजगर ने आय नंदराय का पाँव पकड़ा औ लगा निगलने, तब तो वे देखते ही भय खाय घबरायके लगे पुकारने, हे कृष्ण, हे कृष्णा, वेग सुध ले, नहीं तो यह मुझे निगले जाता है। उनका शब्द सुनते ही सारे ब्रजवासी स्त्री या पुरुष नींद से चौंक नंदजी के निकट जाय, उजाला कर देखें तो एक अजगर उनको पाँव पकड़े पड़ा है। इतने में श्रीकृष्णचंदजी ने पहुँच सबके देखते ही जो उसकी पीठ में चरन लगाया तोही वह अपनी देह छोड़ सुंदर पुरुष हो प्रनान कर सनमुख हाथ जोड़ खड़ा हुआ। तब श्रीकृष्ण ने उससे पूछा कि तू कौन है औ किस पाप से अजगर हुआ था सो कह। वह सिर झुकाय विनती कर बोला-अंतरजामी, तुम सब जानते हो मेरी उतपति कि मैं सुदरसन नाम विद्याधर हूँ। सुरपुर में रहता था औ अपने रूप गुन के आगे गर्व से किसी को कुछ न गिनती थी।

एक दिन बिमान में बैठ फिरने को निकला तो जहाँ अंगिरा ऋषि बैठे तप करते थे, तिनके ऊपर हो सौ बेर आया गया। एक बेर जो उन्होने बिमान की परछांंई देखी तो ऊपर देख क्रोध कर मुझे श्राप दिया कि रे अभिमानी, तू अजगर सॉप हो।

इतनी बचन उनके मुख से निकला कि मैं अजगर हो नीचे गिरी। तिस समै ऋषि ने कहा था कि तेरी मुक्ति श्रीकृष्णचंद के हाथ होगी। इसीलिये मैंने नंदरायजी के चरन आन पकड़े थे जो आप आयके मुझे मुक्त करे। सो कृपानाथ, आपने आये कृपा कर मुझे मुक्ति दी। ऐसे कह विद्याधर तो परिक्रमा दे, हरि से आज्ञा ले, दंडवत कर, बिदा हो, बिमान पर चढ़ सुर लोक को गया और यह चरित्र देख सब ब्रजवासियों को अचरज हुआ। निदान भोर होतेही देवी का दरसन कर सब मिल बृंदावन आए।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेव मुनि बोले कि पृथ्वीनाथ, एक दिन हलधर औ गोबिंद गोपियो समेत चाँदनी रात को आनंद से बन में गाय रहे थे कि इस बीच कुबेर की सेवक शंखचूड़ नाम यक्ष, जिसके सीस मैं मनि औ जो अति बलवान था, सो आ निकला। देखे तो एक ओर सब गोपियाँ कुतूहल कर रही है, औ एक ओर कृष्ण बलदेव मगन हो मत्तवत गाय रहे हैं। कुछ इसके जी में जो आई तो सब ब्रज युवतियों को घेर आगे धर ले चला, तिस समै भय खाय पुकारीं ब्रजबाम, रक्षा करो कृष्ण बलराम।

इतना बचन गोपियों के मुख से निकलतेही सुनकर दोनों भाई रूख उखाड़ हाथ में ले यो दौड़ आए कि मानौ गज माते सिह पर उठ धाए। औ वहाँ जाय गोपियों से कहा कि तुम किसी से मत डरो हम आन पहुँचे। इनको काल समान देखतेही यक्ष भर्थमान हो गोपियों को छोड़ अपनी प्रान ले भागा। उस काल नंदलाल ने बलदेवजी को तो गोपियो के पास छोड़ा औ आप जाय उसके झोटे पकड़ पछाड़ा, निदान तिरछा हाथ कर उसका सिर काट मनि ले नि बलरामजी को दिया।

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