प्रेमसागर/२८ इंद्रस्तुति

प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ८४ से – ८५ तक

 

श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, भोर होते ही सब गाये औ ग्वाल बालों को संग कर अपनी अपनी छाक ले कृष्ण बलराम बैन बजाते औ मधुर सुर से गाते जो धेनु चरावन बन को चले तो राजा इन्द्र सकल देवताओं को साथ लिये कामधेनु को आगे किये, ऐरावत हाथी पर चढ़ा, सुरलोक से चला चला बृंदावन में आय, बन की बाट रोक खड़ा हुआ। जद श्रीकृष्णचंद उसे दूर से दिखाई दिये तद गज से उतर, नंगे पाओ, गले में कपड़ा डाले, थर थर काँपता आ श्रीकृष्ण के चरनो पर गिरा और पछताय पछताय रो रो कहने लगा कि हे अजनाथ, मुझ पर दया करो।

मैं अभिमान गर्न अति किया। राजस तामस में मन दिया॥
धन मद कर संपति सुख माना। भेद न कुछ तुम्हारा जाना॥
तुम परमेश्वर सब के ईस। और दूसरों को जगदीस॥
ब्रह्मा रुद्र आदि बरदाई। तुम्हरी दुई संपदा पाई॥
जगत पिता तुम निरामनिवासी। सेचत नित कमला भई दासी॥
जन के हेत लेत औतार। तब तब हरत भूमि कौ भार॥
दूर करौ सब चूक हमारी। अभिमानी मूरख हौ भारी॥

जब ऐसे दीन हो इन्द्र ने स्तुति करी तब श्रीकृष्णचंद दयाल ह बोले कि अब तो तू कामधेनु के साथ आया इससे तेरा अपराध क्षमा किया, पर फिर गर्व मत कीजो क्योकिं गर्व करने से ज्ञान जाता है औ कुमति बढ़ती है, उससे अपमान होता है। इतनी बात श्रीकृष्ण के मुख से सुनते ही इन्द्र ने उठकर वेद की विधि से पूजा की और गोविंद नाम धर चर्चामृत ले परिक्रमा करी । तिस समय गंधर्व भाँति भाँति के बाजे बजा बजा श्रीकृष्ण का जस गाने लगे औ देवता अपने विमानों में बैठे आकाश से फूल बरसावने । उस काल ऐसा समां हुआ कि मानो फेरकर श्रीकृष्ण ने जन्म लिया । जब पूजा से निचंत हो इंद्र हाथ जोड़ सनमुख खड़ा हुआ तब श्रीकृष्ण ने आज्ञा दी कि अब तुम कामधेनु समेत अपने पुर को जाओ । आज्ञा पाते ही कामधेनु औ इंद्र बिदा होय दंडवत कर इंद्रलोक को गये । और श्रीकृष्णचंद-गौ चराय साँझ हुए सब ग्वाल बालो को लिये बृंदावन आए । उन्होने अपने अपने घर जाय जाय कहा―आज हमने हरिप्रताप से इंद्र का दरसन बन में किया ।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा―राजा यह जो श्रीगोबिंद कथा मैने तुम्हें सुनाई इसके सुनने औ सुनाने से संसार में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चारो पदारथ मिलते हैं ।


_______