प्रेमसागर/२० दावाग्निमोचन

प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ६२ से – ६३ तक

 

बीसवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले―हे राजा, जब प्रलंब को मारके चले बलराम तभी सोहीं से सखाओ समेत आन मिले घनस्याम। और जो ग्वाल बाल बन में गाये चराते थे, वे भी असुर मारा सुन गायें छोड़ उधर देखने को गये, तौलों इधर गायें चरती चरती डाभ काँस से निकल मूँज बन में बड़ गई। वहाँ से आय दोनों भाई, यहाँ देखे तो एक भी गाय नहीं।

बिछुरी गैयाँ बिछरे ग्वाल। भूले फिरे मूंज बन ताल।
रूखनि चढ़े परस्पर टेरे। लै लै नाम पिछौरी फेरे॥

इसमें किसी सखा ने आय हाथ जोड़ श्रीकृष्ण से कहा कि महाराज, गाये सब मूंज बन में पैठ गईं, तिनके पीछे ग्वाल बाल न्यारे ढूँढ़ते भटकते फिरते है। इतनी बात के सुनतेही श्रीकृष्ण ने कदम पर चढ़ ऊँचे सुर से जो बंसी बजाई, तो सुन ग्वाल बाल औ सब गाये मूँज बन को फाड़ कर ऐसे आन मिलीं, जैसे सावन भादो की दी तुंग तरंग को चीर समुद्र में जा मिले। इस बीच देखते क्या हैं कि बन चारो ओर से दुहड़ दुहड़ जलता चला आता है। यह देख ग्वाल बाल औ सखा अति घबराय भय खाय कर पुकारे—हे कृष्ण, हे कृष्ण, इस आग से बेग बचाओ, नहीं तो अभी क्षन एक में सब जल मरते हैं। कृष्ण बोले—तुम सुच अपनी आँखें मूंदो। जद विन्होंने नैन मूंदे तद श्रीकृष्णजी ने पल भर में आग बुझाय एक और माया करी कि गायो समेत सब ग्वाल बालों को भेडीर बन में ले यि कहा कि अब आँँखे खोल दो।

ग्वाल खोल दृग कहत निहारि । कहाँ गई वह अग्नि मुरारि ।
कब फिर आये बन भंडीर । होत अचंभौ यह बलबीर ॥

ऐसे कह गाये ले सत्र मिल कृष्ण बलराम के साथ श्रृंदावन आए, और सबने अपने अपने घर जाय कहा कि आज बन में बलराम जी ने प्रलंब नाम राक्षस को मारा और मुंज बन में आग लगी थी सो भी हरि के प्रताप से बुझ गई।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने कहा--हे राजा, ग्वाल बालो के मुख से यह बात सुन सब ब्रजबासी देखने को तो गये पर विन्होने कृष्णचरित्र का कुछ भेद न पाया ।