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सत्रहवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले―महाराज, ऐसे सबकी रक्षा कर श्रीकृष्ण ग्वाल बालों के साथ गेंदतड़ी खेलने लगे, और जहाँ काली था तहाँ चार कोस तक जमुना का जल विसके बिष से खौलता था, कोई पशु पंछी वहाँ न जा सकता, जो भूलकर जाता सो लपट से झुलस दृह में गिर पचता, औं तीर में कोई रूख भी न उपजता। एक अबिनासी कदम तट पर था, सोई था। राजा ने पूछा—महाराज, वह कदम कैसे बचा। मुनि बोले―किसी समै अमृत चोच में लिये गरुड़ विस पेड़ पर आ बैठा था, तिसके मुँह से एक बूँँद गिरी थी इसलिये वह रूख बचा।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा से कहा―महाराज, श्रीकृष्णचंद्रजी काली का मारना जी में ठान, गेंद खेलते खेलते कदम पर जा चढ़े औ जो नीचे से सखा ने गेद चलाई तो जमुना में गिरी, विसके साथ श्रीकृष्ण भी कूदे। इनके कूदने का शब्द आँख से सुनकर वह लग विष उगलने औ अग्नि सम फुकारें मारे मार कहने, कि यह ऐसा कौन है जो अब लग दह में जीता है। कहीं अखै वृक्ष तो मेरा तेज न सहिके टूट पड़ा, कै कोई बड़ा पशु पंछी आया है जो अब तक जल में आहट होता है।

यो कह वह एक सौ दस फनो से विष उगलता था औ


१―(ख) कान। पर यहाँ आँख ही ठीक जान पड़ता है, क्योकि सर्प को कान नहीं होते। वह आँख से ही सुनता है ऐसी प्रसिद्धि है। [ ५५ ]श्रीकृष्ण पैरते फिरते। तिस समै सखा रो रो हाथ पसार पसार पुकारते थे। गाये मुँह बाये चारो ओर राँभती हूँकती फिरती थीं। ग्वाल न्यारे ही कहते थे, स्याम, बेग निकल आइये, नहीं तुम बिन घर जाय हम क्या उत्तर देगे। ये तो यहाँ दुखित हो यो कह रहे थे, इसमें किसी ने बृंदावन में जा सुनाया कि श्रीकृष्ण कालीदह में कूद पड़े। यह सुन रोहनी जसोदा औ नंद गोपी गोप समेत रोते पीटते उठ धाये, और सबके सब गिरते पडते कालीदह आये। तहाँ श्रीकृष्ण को न देख ब्याकुल हो नंदरानी दररानी गिरन चली पानी में, तब गोपियो ने बीच ही जा पकड़ा औ ग्वाल बाल नंदजी को थांभे ऐसे कह रहे थे।

छाँड़ महा बन या बन आये। तौहू दैत्यनि अधिक सताए॥
बहुत कुशल असुरन तें परी। अब क्यो दह ते निकसे हरी॥

कि इतने में पीछे से बलदेवजी भी वहाँ आए औ सब ब्रजबासियो को समझाकर बोले―अभी आवेगे कृष्ण अबिनासी, तुम काहे को होते हो उदासी। आज साथ आयो मै नाहीं। मो बिन हरि पैठे दह माहीं।

इतनी कथा कथ श्रीशुकदेवजी राजा परीक्षित से कहने लगे कि महराज, इधर तो बलरामजी सबको यो आसा भरोसा देते थे औ उधर श्रीकृष्ण जो पैरकर उसके पास गये तो वह आ इनके सारे शरीर से लिपट गया। तब श्रीकृष्ण ऐसे मोटे हुए कि विसे छोड़ते ही बन आया। फिर जो जो फुंकारे मार मार इनपर फन चलाता था, तो तो ये अपने को बचाते थे। निदान ब्रजबासियो को अति दुखित जान श्रीकृष्ण एकाएकी उचक उसके सिर पर जा चढ़े। [ ५६ ]

तीन लोक कौ बोझ ले, भारी भये मुरारि।
फन फन पर नाचत फिरे, बाजे पग पट तारि॥

तब तो मारे बोझ के काली मरने लगा औ फन पटक पटक उसने जीभें निकाल दीं, तिनसे लोहू की धारे बह चलीं। जद विष औ बल का गर्व गया तद उनने मन में जाना कि अदि पुरुष ने औतार लिया, नहीं इतनी किसमें सामर्थ है जो मेरे विष से बचे। यह समझ जीव की आस तज सिथिल हो रहा, तई नागपत्नी ने आय हाथ जोड़ सिर नवाय विनती कर श्रीकृष्णचंद से कहा—महाराज, आपने भला किया जो इस दुखदाई, अति अभिमानी की गर्व दूर किया। अब इसके भाग जागे, जो तुम्हारा दर्शन पाया। जिन चरन को ब्रह्मा आदि सब देवता जब तप कर ध्यावते है, सोई पद काली के सीस पर बिराजते हैं।

इतना कह फिर बोली―सहाराज, गुभ, पर दया कर इसे छोड़ दीजे, नही तो इसके साथ मुझे भी बध कीजे, क्योंकि स्वामी बिन स्त्री को मरना ही भला है औ जो विचारिये तो इसका भी कुछ दोष नहीं, यह जाति स्वभाव है कि दूध पिलायें विष बढ़े।

इतनी बाल नागपत्नी से सुन श्रीकृष्णचंद उसपर से उतर पड़े। तब प्रणाम कर हाथ जोड़ काली बोला―नाथ, मेरा अपराध क्षमा कीजे, मैने अनजाने आप पर फन चलाये। हम अधम जाति सर्प, हमें इतना ज्ञान कहां जो तुम्हें पहचानें। श्रीकृष्ण बोले―जो हुआ सो हुआ पर अब तुम यहाँ न रहो, कुटुंब समेत रौनक दीप में जा बसो।

थह सुन झाली ने डरते काँपते कही―कृपानाथ, वहाँ जाऊँ सो गरुड़ मुझे खा जायगा, विसीके भय से मैं यहाँ भाग आया [ ५७ ]
हूँ। श्रीकृष्ण बोले―अब तू निरभय चला जा, हमारे पद के चिह्न तेरे सिर पर देख तुझसे कोई न बोलेगा। ऐसे कह श्रीकृष्णचंद्र ने तिस समै गरुड़ को बुलाय काली के मन का भय, मिटाय दिया। तब काली ने धूप दीप, नैवेद्य, समेत विधि से पूजा कर बहुत सी भेंट श्रीकृष्ण के आगे धर, हाथ जोड़ बिनती केर बिदा होय कहा―

चार घरी नाचे मो माथा। यह मन प्रीति राखियो नाथा।

यो कह दंडवत कर काली तो कुटुंब समेत रौनक दीप को गया और श्रीकृष्णचंद जल से बाहर आये।


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