प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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हंसी आती थी। किसी जवान को भी रमा ने यों हंसते न देखा था। इतनी ही देर में उसने अपनी सारी जीवन-कथा कह सुनाई। कितने ही लतीफे याद थे। मालूम होता था, रमा से वर्षों की मुलाकात है। रमा को भी अपने विषय में एक मनगढंत कथा कहनी पड़ी।

देवीदीन–तो तुम भी घर से भाग आए हो? समझ गया। घर में झगड़ा हुआ होगा। बहू कहती होगी–मेरे पास गहने नहीं, मेरा नसीब जल गया। सास-बहू में पटती न होगी। उनका कलह सुन-सुन जी और खट्टा हो गया होगा।

रमानाथ–हां बाबा, बात यही है, तुम कैसे जान गए?

देवीदीन हंसकर बोला-यह बड़ा भारी मंत्र है भैया ! इसे तेली की खोपड़ी पर जगाया जाता है। अभी लड़के-बाले नहीं हैं न?

रमानाथ-नहीं, अभी तो नहीं हैं।

देवीदीन-छोटे भाई भी होंगे?

रमा चकित होकर बोला—हां दादा, ठीक कहते हो। तुमने कैसे जाना?

देवीदीन फिर ठट्टा मारकर बोला-यह सब मंत्रों का खेल है। ससुराल धनी होगी, क्यों?

रमानाथ-हां दादा, है तो।

देवीदीन-मगर हिम्मत न होगी।

रमानाथ- बहुत ठीक कहते हो, दादा। बड़े कम-हिम्मत हैं। जब से विवाह हुआ अपनी लड़कीं तक को तो बुलाया नहीं।

देवीदीन-समझ गया भैया, यही दुनिया का दस्तूर है। बेटे के लिए कहो चोरी करें, भीख मांगें , बेटी के लिए घर में कुछ है ही नहीं।

तीन दिन से रमा को नींद न आई थी। दिनभर रुपये के लिए मारा-मारा फिरती, रात-भर चिंता में पड़ा रहता। इस वक्त बातें करते-करते उसे नींद आ गई। गरदन झुकाकर झपकी लेने लगा। देवीदीन से तुरंत अपनी गठरी खोली; उसमें से एक दरी निकाली, और तख्त पर बिछाकर बोला-तुम यहां आकर लेट रहो, भैया ! मैं तुम्हारी जगह पर बैठ जाता हूं।

रमा लेटा रहा। देवीदीन बार-बार उसे स्नेह-भरी आंखों से देखा था, मानो उसका पुत्र कहीं परदेश से लौटा हो।

बाईस

जब रमा कोठे से धम-धम नीचे उतर रहा था, उस वक्त जालपा को इसका जरा भी शंका न हुई कि वह घर से भागा जा रहा है। पत्र तो उसने पद ही लिया था। जो ऐसा झुंझला रहा था कि चलकर रमा को खूब खरी-खरी सुनाऊं। मुझसे यह छल-कपट ! पर एक ही क्षण में उसके भाव बदल गए। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ है, सरकारी रुपये खर्च कर डाले हों। यही बात है, रतन के रुपये सराफ को दिए होंगे। उस दिन रतन को देने के लिए शायद वे सरकारी रुपये उठा लाए थे। यह सोचकर उसे फिर क्रोध आया-यह मुझसे इतना परदा क्यों करते हैं? क्यों मुझसे बढ़-बढ़कर बातें करते थे? क्या मैं इतना भी नहीं जानती कि संसार में अमीर-गरीब दोनों ही होते हैं? क्या सभी स्त्रियां गहनों से लदी रहती हैं? गहने न पहनना क्या कोई पाप है? जब और [ १०२ ]
जरूरी कामों से रुपये बचते हैं, तो गहने भी बन जाते हैं। पेट और तन काटकर, चोरी या बेईमानी करके तो गहने नहीं पहने जाते ! क्या उन्होंने मुझे ऐसी गई-गुजरी समझ लिया !

उसने सोचा, रमा अपने कमरे में होगा, चलकर पूछूं, कौन से गहने चाहते हैं। परिस्थिति की भयंकरता का अनुमान करके क्रोध की जगह उसके मन में भय का संचार हुआ। वह बड़ी तेजी से नीचे उतरी। उसे विश्वास था, वह नीचे बैठे हुए इंतजार कर रहे होंगे। कमरे में आई तो उनका पता न था। साइकिल रक्खी हुई थी, तुरंत दरवाजे से झांका। सड़क पर भी नहीं। कहां चले गए? लड़के दोनों पढ़ने स्कूल गए थे, किसको भेजे कि जाकर उन्हें बुला लाए। उसके हृदय में एक अज्ञात संशय अंकुरित हुआ। फौरन ऊपर गई, गले का हार और हाथ का कंगन उतारकर रूमाल में बांधा, फिर नीचे उतरी, सड़क पर आकर एक तांगा लिया, और कोचवान से बोली-चुंगी कचहरी चलो। वह पछता रही थी कि मैं इतनी देर बैठी क्यों रही। क्यों न गहने उतारकर तुरंत दे दिए। रास्ते में वह दोनों तरफ बड़े ध्यान से देखती जाती थी । क्यों इतनी जल्द इतनी दूर निकल आए? शायद देर हो जाने के कारण वह भी तांगे ही पर गए हैं, नहीं तो अब तक जरूर मिल गए होते। तांगे वाले से बोली-क्यों जी, अभी तुमने किसी बाबूजी को तांगे परे जाते देखा?

तांगे वाले ने कहा-हो माईजी, एक बाबू अभी इधर ही से गए हैं।

जालपा को कुछ ढाढस हुआ, रमा के पहुंचते-पहुंचते वह भी पहुंच जाएगी। कोचवान से बार-बार घोड़ा तेज करने को कहती। जब वह दफ्तर पहुंची, तो ग्यारह बज गए थे। कचहरी में सैकड़ों आदमी इधर-उधर दौड़ रहे थे। किससे पूछे? न जाने वह कहां बैठते हैं।

सहसा एक चपरासी दिखलाई दिया। जालपा ने उसे बुलाकर कहा--सुनो जी, जरा बाबू रमानाथ को तो बुला लाओ।

चपरासी बोला—उन्हीं को बुलाने जा रहा हूं। बड़े बाबू ने भेजा है। आप क्या उनके घर ही से आई हैं।

जालपा–हां, मैं तो घर ही से आ रही हूं। अभी दस मिनट हुए वह घर से चले हैं। चपरासी-यहां तो नहीं आए।

जालपा बड़े असमंजस में पड़ी। वह यहां भी नहीं आए, रास्ते में भी नहीं मिले, तो फिर गए कहां? उसका दिल बांसों उछलने लगा। आंखें भर-भर आने लगीं। वहां बड़े बाबू के सिवा वह और किसी को न जानती थी। उनसे बोलने का अवसर कभी न पड़ा था, पर इस समय उसका संकोच गायब हो गया। भय के सामने मन के और सभी भाव दब जाते हैं। चपरासी से बोली-जरा बड़े बाबू से कह दो नहीं चलो, मैं ही चलती हूं। बड़े बाबू से कुछ बातें करती हैं।

जालपा का ठाट-बाट और रंग-ढंग देखकर चपरासी रोब में आ गया, उल्टे पांव बड़े बाबू के कमरे की ओर चला। जालपा उसके पीछे-पीछे हो ली। बड़े बाबू खबर पाते ही तुरंत बाहर निकल आए।

जालपा ने कदम आगे बढ़ाकर कहा-क्षमा कीजिए, बाबू साहब, आपको कष्ट हुआ। यह पंद्रह-बीस मिनट हुए घर से चले, क्या अभी तक यहां नहीं आए?

रमेश-अच्छा आप मिसेज रमानाथ हैं। अभी तो यहां नहीं आए। मगर दफ्तर के वक्त सैर-सपाटे करने की तो उसकी आदत न थी। जालपा ने चपरासी की ओर ताकते हुए कहा-मैं आपसे कुछ अर्ज करना चाहती हूं। [ १०३ ]रमेश-तो चलो अंदर बैठो, यहां कब तक खड़ी रहोगी। मुझे आश्चर्य है कि वह गए कहां ! कहीं बैठे शतरंज खेल रहे होंगे।

जालपा–नहीं बाबूजी, मुझे ऐसा भय हो रहा है कि वह कहीं और न चले गए हों। अभी दस मिनट हुए, उन्होंने मेरे नाम एक पुरजा लिखा था। (जेब से टटोलकर) जी हां, देखिए वह पुरजा मौजूद है। आप उन पर कृपा रखते हैं, तो कोई परदा नहीं। उनके जिम्मे कुछ सरकारी रुपये तो नहीं निकलते !

रमेश ने चकित होकर कहा-क्यों, उन्होंने तुमसे कुछ नहीं कहा?

जालपा-कुछ नहीं। इस विषय में कभी एक शब्द भी नहीं कहा।

रमेश-कुछ समझ में नहीं आता। आज उन्हें तीन सौ रुपये जमा करना है। परसों की आमदनी उन्होंने जमा नहीं की थी? नोट थे, जेब में डालकर चल दिए। बाजार में किसी ने नोट निकाल लिए। (मुस्कराकर) किसी और देवी की पूजा तो नहीं करते?

जालपा का मुख लज्जा से नत हो गया। बोली-अगर यह ऐब होता, तो आप भी उस इल्जाम से न बेचते। जेब से किसी ने निकाल लिए होंगे। मारे शर्म के मुझसे कहा न होगा। मुझसे जरा भी कहा होता, तो तुरंत रुपये निकालकर दे देती, इसमें बात ही क्या थी।

रमेश बाबू ने अविश्वास के भाव से पूछा-क्या घर में रुपये हैं? जालपा ने नि:शंक होकर कहा–तीन सौ चाहिए न, मैं अभी लिए आती हूँ।

रमेश-अगर वह घर पर आ गए हों, तो भेज देना।

जालपा आकर तांगे पर बैठी और कोचवान से चौक चलने को कहा। उसने अपना हार बेच डालने का निश्चय कर लिया। यों उसकी कई सहेलियां थीं, जिनसे उसे रुपये मिल सकते थे। स्त्रियों में बड़ा स्नेह होता है। पुरुषों की भांति उनकी मित्रता केवल पान-पत्ते तक ही समाप्त नहीं हो जाती; मगर अवसर नहीं था। सराफे में पहुंचकर वह सोचने लगी; किस दुकान पर जाऊं। भय हो रहा था, कहीं ठगी न जाऊं। इस सिरे से उस सिरे तक चक्कर लगा आई, किसी दुकान पर जाने की हिम्मत न पड़ी। उधर वक्त भी निकला जाता था। आखिर एक दुकान पर एक बूढे सराफ को देखकर उसका संकोच कुछ कम हुआ। सराफ बड़ा घाघ था, जालपा की झिझक और हिचक देखकर समझ गया, अच्छा शिकार फंसा।

जालपा ने हार दिखाकर कहा-आप इसे ले सकते हैं?

सराफ ने हार को इधर-उधर देखकर कहा-मुझे चार पैसे की गुंजाइश होगी, तो क्यों न ले लूंगा। माल चोखा नहीं है।

जालपा–तुम्हें लेना है, इसलिए माल चोखा नहीं है, बेचना होता, तो चोखा होता। कितने में लोगे?

सराफ-आप ही कह दीजिए। | सराफ ने साढ़े तीन सौ दाम लगाए, और बढ़ते-बढ़ते चार सौ तक पहुंचा। जालपा को देर हो रही थी; रुपये लिए और चले खड़ी हुई। जिस हार को उसने इतने चाव से खरीदा था, जिसकी लालसा उसे बाल्यकाल ही में उत्पन्न हो गई थी, उसे आज आधे दामों बेचकर उसे जरी भी दु:ख नहीं हुआ, बल्कि गर्वमय हर्ष का अनुभव हो रहा था। जिस वक्त रमा को मालूम होगा कि उसने रुपये दे दिए हैं, उन्हें कितना आनंद होगा। कहीं दफ्तर पहुंच गए हों तो बड़ा मजा हो। यह सोचती हुई वह फिर दफ्तर पहुंची। रमेश बाबू [ १०४ ]उसे देखते हुए बोले-क्या हुआ, घर पर मिले?

जालपा-क्या अभी तक यहां नहीं आए? घर तो नहीं गए। यह कहते हुए उसने नोटों का पुलिंदा रमेश बाबू की तरफ बढ़ा दिया।

रमेश बाबू नोटों को गिनकर बोले-ठीक है, मगर वह अब तक कहां हैं। अगर न आना था, तो एक खत लिख देते। मैं तो बड़े संकट में पड़ा हुआ था। तुम बड़े वक्त से आ गईं। इस वक्त तुम्हारी सूझ-बूझ देखकर जो खुश हो गया। यही सच्ची देवियों का धर्म है।

जालपा फिर तांगे पर बैठकर घर चली तो उसे मालूम हो रहा था, मैं कुछ ऊंची हो गई हैं। शरीर में एक विचित्र स्फूर्ति दौड़ रही थी। उसे विश्वास था, वह आकर चिंतित बैठे होंगे। वह जाकर पहले उन्हें खूब आड़े हाथों लेगी, और खूब लज्जित करने के बाद यह हाल कहेगीं, लेकिन जब घर में पहुंची तो रमानाथ का कहीं पता न था।

जागेश्वरी ने पूछा-कहां चली गई थीं इस धूप में?

जालपा–एक काम से चली गई थी। आज उन्होंने भोजन नहीं किया, न जाने कहां चले गए।

जागेश्वरी-दफ्तर गए होंगे।

जालपा-नहीं, दफ्तर नहीं गए। वहां से एक चपरासी पूछने आया था।

यह कहती हुई वह ऊपर चली गई, बचे हुए रुपये संदूक में रखे और पंखा झलने लगी। मारे गरमी के देह फुकी जा रही थीं, लेकिन कान द्वार की ओर लगे थे। अभी तक उसे इसकी जरा भी शंका न थी कि रमा ने विदेश की राह ली है।

चार बजे तक तो जालपा को विशेष चिंता न हुई लेकिन ज्यों-ज्यों दिन ढलने लगा, उसकी चिंता बढ़ने लगी। आखिर वह सबसे ऊंची छत पर चढ़ गई, हालाँकि उसके जीर्ण होने के कारण कोई ऊपर नहीं आता था, और वहां चारों तरफ नजर दौड़ाई, लेकिन रमा किसी तरफ से आता दिखाई न दिया।

जब संध्या हो गई और रमा घर न आया, तो जालपा का जी घबराने लगा। कहां चले गए? वह दफ्तर से घर आए बिना कहीं बाहर न जाते थे। अगर किसी मित्र के घर होते, तो क्या अब तक न लौटते? मालूम नहीं, जेब में कुछ है भी या नहीं। बेचारे दिनभर से न मालूम कहां भटक रहे होंगे। वह फिर पछताने लगी कि उनका पत्र पढ़ते ही उसने क्यों न हार निकालकर दे दिया। क्यों दुविधे में पड़ गई। बेचारे शर्म के मारे घर न आते होंगे। कहां जाय? किससे पूछे?

चिराग जल गए, तो उससे न रहा गया। सोचा, शायद रतन से कुछ पता चले। उसके बंगले पर गई तो मालूम हुआ, आज तो वह इधर आए ही नहीं।

जालपा ने उन सभी पार्कों और मैदानों को छान डाला, जहां रमा के साथ वह बहुधा घूमने आया करती थी, और नौ बजते-बजते निराश लौट आई। अब तक उसने अपने आंसुओं को रोका था, लेकिन घर में कदम रखते ही जब उसे मालूम हो गया कि अब तक वह नहीं आए, तो वह हताश होकर बैठ गई। उसकी यह शंका अब दृढ़ हो गई कि वह जरूर कहीं चले गए। फिर भी कुछ आशा थी कि शायद मेरे पीछे आए हों और फिर चले गए हों। जाकर जागेश्वरी से पूछा-वह घर आए थे, अम्माजी?

जागेश्वरी–यार-दोस्तों में बैठे कहीं गपशप कर रहे होंगे। घर तो सराय है। दस बजे घर से निकले थे, अभी तक पता नहीं। [ १०५ ]जालपा-दफ्तर से घर आकर तब वह कहीं जाते थे। आज तो आए नहीं। कहिए तो गोपी बू को भेज दें। जाकर देखें, कहां रह गए।

जागेश्वरी-लड़के इस वक्त कहां देखने जाएंगे। उनका क्या ठीक है। थोड़ी देर और देख । फिर खाना उठाकर रख देना। कोई कहां तक इंतजार करे।

जालपा ने इसका कुछ जवाब न दिया। दफ्तर की कोई बात उनसे न कहीं। जागेश्वरी सुनकर घबड़ा जाती, और उसी वक्त रोना-पीटना मच जाता। वह ऊपर जाकर लेट गई और पने भाग्य पर रोने लगी। रह-रहकर चित्त ऐसा विकल होने लगा, मानो कलेजे में शूल उठ रहा । बार-बार सोचती, अगर रातभर न आए तो कल क्या करना होगा? जब तक कुछ पता न ले कि वह किधर गए, तब तक कोई जाय तो कहां जाय ! आज उसके मन ने पहली बार वीकार किया कि यह सब उसी की करनी का फल है। यह सच है कि उसने कभी आभूषणों लिए आग्रह नहीं किया, लेकिन उसने कभी स्पष्ट रूप से मना भी तो नहीं किया। अगर गहने चोरी हो जाने के बाद इतनी अधीर न हो गई होती, तो आज यह दिन क्यों आता। मन की इस दुर्बल अवस्था में जालपा अपने भार से अधिक भाग अपने ऊपर लेने लगी; वह जानती थी, रमा रिश्वत लेता हैं, नोच-खसोटकर रुपये लाता है। फिर भी कभी उसने मन नहीं किया। उसने खुद क्यों अपनी कमली के बाहर पांव फैलाया? क्यों उसे रोज सैर-सपाटे की सूझती थीं? उपहारों को ले-ले- वह क्यों फूली न समाती थी? इस जिम्मेदारी को भी इस वक्त जालपा अपने ही ऊपर ले रही थी। रमानाथ ने प्रेम के वश होकर उसे प्रसन्न करने के लिए ही तो सब कुछ करते थे। युवकों को यही स्वभाव है। फिर उसने उनकी रक्षा के लिए क्या किया? क्यों उसे वह समझ न आई कि आमदनी से ज्यादा खर्च करने का दंड एक दिन भोगना पड़ेगा। अब उसे ऐसी कितनी ही बातें याद आ रही थीं, जिनसे उसे रमा के मन को विकलता का परिचय पा लेना चाहिए था; पर उसने कभी उन बातों की ओर ध्यान न दिया।

जालपा इन्हीं चिंताओं में डूबी हुई न जाने कब तक बैठी रही। जब चौकीदारों की सीटियों की आवाज़ उसके कानों में आई, तो वह नीचे जाकर जागेश्वरी से बोली-वह तो अब के नहीं आए। आप चलकर भोजन कर लीजिए।

जागेश्वरी बैठे-बैठे झपकियां ले रही थी। चौंककर बोली-कहां चले गए थे? जालपा-वह तो अब तक नहीं आए।

जागेश्वरी-अब तक नहीं आए? आधी रात तो हो गई होगी। जाते वक्त तुमसे कुछ कहा कि नहीं?

जालपा-कुछ नहीं। जागेश्वरी-तुमने तो कुछ नहीं कहा?

जालपा-मैं भला क्यों कहती। जागेश्वरी-तो मैं लालाजी को जगाऊँ?

जालपा-इस वक्त जगाकर क्या कीजिएगा? आप चलकर कुछ खा लीजिए न।

जागेश्वरी-मुझसे अब कुछ न खाया जायगा। ऐसा मनमौजी लड़का है कि कुछ कहा न सुना, न जाने कहां जाकर बैठ रहा। कम-से-कम कहला तो देता कि मैं इस वक्त न आऊंगा। | जागेश्वरी फिर लेट रही, मगर जालपा उसी तरह बैठी रही। यहां तक कि सारी रात गुजर गई-पहाड़-सी रात जिसका एक-एक पल एक-एक वर्ष के समान कर रहा था। [ १०६ ]

तेईस


एक सप्ताह हो गया, रमा का कहीं पता नहीं। कोई कुछ कहता है, कोई कुछ। बेचारे रमेश बाबू दिन में कई-कई बार आकर पूछ जाते हैं। तरह-तरह के अनुमान हो रहे हैं। केवल इतना ही पता चलता है कि रमानाथ ग्यारह बजे रेलवे स्टेशन की ओर गए थे। मुंशी दयानाथ का खयाल है, यद्यपि वे इसे स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं करते कि रमा ने आत्महत्या कर ली। ऐसी दशा में यही होता है। इसकी कई मिसालें उन्होंने खुद आंखों से देखी हैं। सास और ससुर दोनों ही जालपा पर सारा इल्जाम थोप रहे हैं। साफ-साफ कह रहे हैं कि इसी के कारण उसके प्राण गए। इसने उसके नाकों दम कर दिया। पूछो, थोड़ी-सी तो आपकी आमदनी, फिर तुम्हें रोज सैर-सपाटे और दावत-तवाजे की क्यों सूझती थी। जालपा पर किसी को दया नहीं आती। कोई उसके आंसू नहीं पोंछता। केवल रमेश बाबू उसकी तत्परता और सद्बुद्धि की प्रशंसा करते हैं, लेकिन मुंशी दयानाथ की आंखों में उस कृत्य की कुछ मूल्य नहीं। आग लगाकर पानी लेकर दौड़ने से कोई निर्दोष नहीं हो जाता है।

एक दिन दयानाथ वाचनालय से लौटे, तो मुंह लटका हुआ था। एक तो उनकी सूरत यों ही मुहर्रमी थी, उस पर मुंह लटका लेते थे तो कोई बच्चा भी कह सकता था कि इनका मिजाज बिगड़ा हुआ है।

जागेश्वरी ने पूछा-क्या है, किसी से कहीं बहस हो गई क्या?

दयानाथ–नहीं जी, इन तकाजों के मारे हैरान हो गया। जिधर जाओ, उधर लोग नोचने दौड़ते हैं, न जाने कितना कर्ज ले रक्खा है। आज तो मैंने साफ कह दिया, मैं कुछ नहीं जानता। मैं किसी का देनदार नहीं हूं। जाकर मेमसाहब से मांगो। | इसी वक्त जालपा आ पड़ी। ये शब्द उसके कानों में पड़ गए। इन सात दिनों में उसकी सूरत ऐसी बदल गई थी कि पहचानी न जाती थी। रोते-रोते आंखें सूज आई थीं। ससुर के ये कठोर शब्द सुनकर तिलमिला उठी, बोली-जी हां। आप उन्हें सीधे मेरे पास भेज दीजिए, मैं उन्हें या तो समझा दूंगी, या उनके दाम चुका दून्गी । दयानाथ ने तीखे होकर कहा-क्या दे दोगी तुम, हजारों का हिसाब है, सात सौ तो एक ही सराफ के हैं। अभी कै पैसे दिए हैं तुमने?

जालपा-उसके गहने मौजूद हैं, केवल दो-चार बार पहने गए हैं। वह आए तो मेरे पास भेज दीजिए। मैं उसकी चीजें वापस कर दूंगी। बहुत होगा दस-पांच रुपये तावान के ले लेगा।

यह कहती हुई वह ऊपर जा रही थी कि रतन आ गई और उसे गले से लगाती हुई बोली-क्या अब तक कुछ पता नहीं चला?

जालपा को इन शब्दों में स्नेह और सहानुभूति का एक सागर उमड़ता हुआ जान पड़ा। यह गैर होकर इतनी चिंतित है, और यहां अपने ही सास और ससुर हाथ धोकर पीछे पड़े हुए हैं। इन अपनों से गैर ही अच्छे। आंखों में आंसू भरकर बोली-अभी तो कुछ पता नहीं चला बहन।

रतन—यह बात क्या हुई, कुछ तुमसे तो कहा-सुनी नहीं हुई?

जालपा-जरा भी नहीं, कसम खाती हूं। उन्होंने नोटों के खो जाने का मुझसे जिक्र ही