प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/नौ
रमानाथ-कल नहीं,मैं इसी वक्त जाकर दो-तीन चिट्ठियां लिखता हूं।
जालपा–पान तो खाते जाओ।
रमानाथ ने पान खाया और मर्दाने कमरे में आकर खत लिखने बैठे।
मगर फिर कुछ सोचकर उठ खड़े हुए और एक तरफ को चल दिए। स्त्री का सप्रेम आग्रह पुरुष से क्या नहीं करा सकता।
नौ
रमा के परिचितों में एक रमेश बाबू म्यूनिसिपल बोर्ड में हेड क्लर्क थे। उम्र तो चालीस के ऊपर थी; पर थे बड़े रसिक। शतरंज खेलने बैठ जाते, तो सवेरा कर देते। दफ्तर भी भूल जाते। न आगे नाथ न पीछे पगहा। जवानी में स्त्री मर गई थी, दूसरा विवाह नहीं किया। उस एकांत जीवन में सिवा विनोद के और क्या अवलंब था। चाहते तो हजारों के वारे-न्यारे करते, पर रिश्वत की कौड़ी भी हराम समझते थे। रमा से बड़ा स्नेह रखते थे। और कौन ऐसा निठल्ला था, जो रात-रात भर उनसे शतरंज खेलता। आज कई दिन से बेचारे बहुत व्याकुल हो रहे थे। शतरंज की एक बाजी भी न हुई। अखबार कहां तक पढ़ते। रमा इधर दो-एक बार आया अवश्य; पर बिसात पर न बैठा। रमेश बाबू ने मुहरे बिछा दिए। उसको पकड़कर बैठाया,पर वह बैठा नहीं। वह क्यों शतरंज खेलने लगा। बहू आई है,उसका मुंह देखेगा,उससे प्रेमालाप करेगा कि इस बूढे के साथ शतरंज खेलेगा! कई बार जी में आया, उसे बुलवाएं, पर यह सोचकर कि वह क्यों आने लगा, रह जाए। कहां जायं? सिनेमा ही देख आवें? किसी तरह समय तो कटे। सिनेमा से उन्हें बहुत प्रेम न था;पर इस वक्त उन्हें सिनेमा के सिवा और कुछ न सूझी। कपड़े पहने और जाना ही चाहते थे कि रमा ने कमरे में कदम रखा।
रमेश उसे देखते ही गेंद की तरह लुढ़ककर द्वार पर जा पहुंचे और उसका हाथ पकड़कर बोले-आइए,आइए बाबू रमानाथ साहब बहादुर ! तुम तो इस बुड्ढे को बिल्कुल भूल ही गए। हां भाई, अब क्यों आओगे? प्रेमिका की रसीली बातों का आनंद यहां कहां? चोरी का कुछ पता चला?
रमानाथ-कुछ भी नहीं।
रमेश–बहुत अच्छा हुआ, थाने में रपट नहीं लिखाई। नहीं सौ-दो सौ के मत्थे और जाते। बहू को तो बड़ा दु:ख हुआ होगा?
रमानाथ कुछ पूछिए मत, तभी से दाना-पानी छोड़ रक्खा है? मैं तो तंग आ गया। जी में आता है, कहीं भाग जाऊं। बाबूजी सुनते नहीं।
रमेश-बाबूजी के पास क्या कारू का खजाना रक्खा हुआ है? अभी चार-पांच हजार खर्च किए हैं, फिर कहां से लाकर गहने बनवा दें? दस-बीस हजार रुपये होंगे, तो अभी तो बच्चे भी तो सामने हैं और नौकरी का भरोसा ही क्या। पचास रु० होती ही क्या है?
रमानाथ-मैं तो मुसीबत में फंस गया। अब मालूम होता है, कहीं नौकरी करनी पड़ेगी। चैन से खाते और मौज उड़ाते थे, नहीं तो बैठे-बैठाए इस मायाजाल में फंसे। अब बतलाइए, है।
कहीं नौकरी-चाकरी का सहारा?
रमेश ने ताक पर से मुहरे और बिसात उतारते हुए कहा–आओ एक बाजी हो जाए, फिर इस मसले को सोचें। इसे जितना आसान समझ रहे हो, उतना आसान नहीं है। अच्छे-अच्छे
धक्के खा रहे हैं।
रमानाथ- मेरा तो इस वक्त खेलने को जी नहीं चाहता। जब तक यह प्रश्न हल न हो जाय, मेरे होश ठिकाने नहीं लेंगे।
रमेश बाबू ने शतरंज के मुहरे बिछाते हुए कहा-आओ बैठो। एक बार तो खेल लो, फिर सोचें, क्या हो सकता है।
रमानाथ–जरा भी जी नहीं चाहता, मैं जानता कि सिर मुड़ाते ही ओले पड़ेंगे, तो मैं विवाह के नज़दीक ही न जाता।
रमेश-अजी, दो-चार चालें चलो तो आप-ही जी लग जायगा। जरा अक्ल की गांठ तो खुले।
बाजी शुरू हुई। कई मामूली चालों के बाद रमेश बाबू ने रमा का रुख़ पीट लिया।
रमानाथ-ओह, क्या गलती हुई।
रमेश बाबू की आंखों में नशे की-सी लाली छाने लगी। शतरंज उनके लिए शराब से कम मादक न था। बोले-बोहनी तो अच्छी हुई । तुम्हारे लिए मैं एक जगह सोच रहा हूं। मगर वेतन बहुत कम है,केवल तीस रुपये। वह रंगी दाढ़ी वाले खां साहब नहीं हैं, उनसे काम नहीं होता। कई बार बता चुका है। सोचता था, जब तक किसी तरह काम चले, बने रहें। बाल-बच्चे वाले आदमी हैं। वह तो कई बार कह चुके हैं, मुझे छुट्टी दीजिए। तुम्हारे लायक तो वह जगह नहीं है,चाहो तो कर लो।
यह कहते-कहते रमा का फीला मार लिया।
रमा ने फीले को फिर उठाने की चेष्टा करके कहा-आप मुझे बातों में लगाकर मेरे मुहरे उड़ाते जाते हैं, इसकी सनद नहीं, लाओ मेरा फीला।
रमेश—देखो भाई, बेईमानी मत करो। मैंने तुम्हारा फीला जबरदस्ती तो नहीं उठाया। हां,तो तुम्हें वह जगह मंजूर है?
रमानाथ-वेतन तो तीस है।
रमेश-हां, वेतन तो कम है, मगर शायद आगे चलकर बढ़ जाय। मेरी तो राय है, कर लो।
रमानाथ-अच्छी बात है, आपकी सलाह है तो कर लूंगा।
रमेश- जगह आमदनी की है। मियां ने तो उसी जगह पर रहते हुए लड़कों को एम० ए०,एल. एल. बी० करा लिया। दो कॉलेज में पढ़ते हैं। लड़कियों की शादियां अच्छे घरों में कीं। हां,जरा समझ-बूझकर काम करने की जरूरत है।
रमानाथ-आमदनी की मुझे परवा नहीं, रिश्वत कोई अच्छी चीज तो है नहीं।
रमेश–बहुत खराब,मगर बाल-बच्चों के आदमी क्या करें। तीस रुपयों में गुजर नहीं हो सकती। मैं अकेला आदमी हूं। मेरे लिए डेढ़ सौ काफी हैं। कुछ बचा भी लेता हूं,लेकिन जिस घर में बहुत से आदमी हों, लड़कों की पढ़ाई हो, लड़कियों की शादियां हों, वह आदमी क्या कर सकता है। जब तक छोटे-छोटे आदमियों का वेतन इतना न हो जाएगा कि वह भलमनसी के साथ निर्वाह कर सकें, तब तक रिश्वत बंद न होगी। यही रोटी-दाल, घी-दूध तो वह भी
खाते हैं। फिर एक को तीस रुपये और दूसरे को तीन सौ रुपये क्यों देते हो?
रमा का फर्जी पिट गया, रमेश बाबू ने बड़े जोर से कहकहा मारा।
रमा ने रोष के साथ कहा-अगर आप चुपचाप खेलते हैं तो खेलिए,नहीं मैं जाता हूं। मुझे बातों में लगाकर सारे मुहरे उड़ा लिए।
रमेश–अच्छा साहब, अब बोलू तो जबान पकड़ लीजिए। यह लीजिए शह | तो तुम कल अर्जी दे दो। उम्मीद तो है, तुम्हें यह जगह मिल जाएगी; मगर जिस दिन जगह मिले, मेरे साथ रात भर खेलना होगा।
रमानाथ-आप तो दो ही मातों में रोने लगते हैं।
रमेश-अजी वह दिन गए, जब आप मुझे मात दिया करते थे। आजकल चन्द्रमा बलवान हैं। इधर मैंने एक मंत्र सिद्ध किया है। क्या मजाल कि कोई मात दे सके। फिर शह।
रमानाथ जी तो चाहता है, दूसरी बाजी मात देकर जाऊं, मगर देर होगी।
रमेश—देर क्या होगी। अभी तो नौ बजे हैं। खेल लो, दिल का अरमान निकल जाय। यह शह और मात !
रमानाथ-अच्छा कल की रहीं। कल ललकार कर पांच मानें न दी हों तो कहिएगा।
रमेश-अजी जाओ भी, तुम मुझे क्या मात दोगे । हिम्मत हो, तो अभी सहीं ।
रमानाथ-अच्छा आइए, आप भी क्या कहेंगे, मगर मैं पांच बाजियों से कम न खेलूंगा।
रमेश–पांच नहीं, तुम दस खेलो जी। रात तो अपनी है। तो चलो फिर खाना खा लें। तब निश्चित होकर बैठे। तुम्हारे घर कहलाए देता हूं कि आज यहीं सोएँगे, इंतजार न करें।
दोनों ने भोजन किया और फिर शतरंज पर बैठे। पहली बाजी में ग्यारह बज गए। रमेश बाबू की जीत रही। दूसरी बाजी भी उन्हीं के हाथ रही। तीसरी बाजी खत्म हुई तो दो बज गए।
रमानाथ-अब तो मुझे नींद आ रही है।
रमेश–तो मुंह धो डालो, बरफ रक्खी हुई है। मैं पांच बाजियां खेले बगैर सोने न देंगी।
रमेश बाबू को यह विश्वास हो रहा था कि आज मेरा सितारा बुलंद है। नहीं तो रमा को लगातार तीन मात देना आसान न था। वह समझ गए थे, इम वक्त चाहे जितनी बाजियां खेलूं,जीत मेरी ही होगी, मगर जब चौथी बाजी हार गए, तो यह विश्वास जाता रहा। उलटे यह भय हुआ कि कहीं लगातार हारता न जाऊं।
बोले-अब तो सोना चाहिए।
रमानाथ-क्यों, पांच बाजियां पूरी न कर लीजिए?
रमेश-कले दफ्तर भी तो जाना है।
रमा ने अधिक आग्रह न किया। दोनों सोए।
रमा यों ही आठ बजे से पहले न उठता था, फिर आज तो तीन बजे सोया था। आज तो उसे दस बजे तक सोने का अधिकार था। रमेश नियमानुसार पांच बजे उठ बैठे, स्नान किया, संध्या की, घूमने गए और आठ बजे लौटे, मगर रमा तब तक सोता ही रहा। आखिर जब साढ़े नौ बजे गए तो उन्होंने उसे जगाया।
रमा ने बिगड़कर कहा-नाहक जगा दिया, कैसी मजे की नींद आ रही थी।
रमेश-अजी वह अर्जी देना है कि नहीं तुमको?
रमानाथ-आप दे दीजिएगा।
रमेश-और जो कहीं साहब ने बुलाया,तो मैं ही चला जाऊंगा?
रमानाथ-ऊंह,जो चाहे कीजिएगा,मैं तो सोता हूँ।
रमा फिर लेट गया और रमेश ने भोजन किया,कपड़े पहने और दफ्तर चलने को तैयार हुए। उसी वक्त रमानाथ हड़बड़ाकर उठा और आंखें मलता हुआ बोला-मैं भी चलूंगा!
रमेश-अरे मुंह-हाथ तो धो ले,भले आदमी।
रमानाथ-आप तो चले जा रहे हैं।
रमेश-नहीं,अभी पंद्रह-बीस मिनट तक रुक सकता हूँ,तैयार हो जाओ।
रमानाथ-मैं तैयार हूं। वहां से लौटकर घर भोजन करूंगा।
रमेश-कहता तो हूं,अभी आधे घंटे तक रुका हुआ हूँ।
रमा ने एक मिनट में मुंह धोया,पांच मिनट में भोजन किया और चटपट रमेश के साथ दफ्तर चला।
रास्ते में रमेश ने मुस्कराकर कहा-घर क्या बहाना करोगे,कुछ सोच रक्खा है?
रमानाथ-कह दूंगा,रमेश बाबू ने आने नहीं दिया।
रमेश–मुझे गालियां दिलाओगे और क्या। फिर कभी न आने पाओगे।
रमानाथ-ऐसा स्त्री-भक्त नहीं हूं। हां,यह तो बताइए,मुझे अर्जी लेकर तो साहब के पास न जाना पड़ेगा?
रमेश- और क्या तुम समझते हो,घर बैठे जगह मिल जायेगी? महीनों दौड़ना पड़ेगा,महीनों । बीसों सिफारिशें लानी पड़ेगी। सुबह-शाम हाजिरी देनी पड़ेगी। क्या नौकरी मिलना आसान है?
रमानाथ-तो मैं ऐसी नौकरी से बाज आया। मुझे तो अर्जी लेकर जाते ही शर्म आती है। खुशामदें कौन करेगा? पहले मुझे क्लर्कों पर बड़ी हंसी आती थी;मगर वही बला मेरे सिर पड़ी। साहब डांट-वांट तो न बताएंगे?
रमेश-बुरी तरह डांटता है,लोग उसके सामने जाते हुए कांपते हैं।
रमानाथ-तो फिर मैं घर जाता हूं। यह सब मुझसे न बर्दाश्त होगा।
रमेश–पहले सब ऐसे ही घबराते हैं, मगर सहते-सहते आदत पड़ जाती है। तुम्हारा दिल धड़क रहा होगा कि न जाने कैसी बीतेगी। जब मैं नौकर हुआ, तो तुम्हारी ही उम्र मेरी भी थी,और शादी हुए तीन ही महीने हुए थे। जिस दिन मेरी पेशी होने वाली थी, ऐसा घबराया हुआ था मानो फांसी पाने जा रहा हूं,मगर तुम्हें डरने का कोई कारण नहीं हैं। मैं सब ठीक कर दूंगा।
रमानाथ-आपको तो बीस-बाईस साल नौकरी करते हो गए होंगे।
रमेश–पूरे पच्चीस हो गए, साहब बीस बरस तो स्त्री का देहांत हुए हो गए। दस रुपये पर नौकर हुआ था।
रमानाथ-आपने दूसरी शादी क्यों नहीं की? तब तो आपकी उम्र पच्चीस से ज्यादा न रही होगी।
रमेश ने हंसकर कहा-बरफी खाने के बाद गुड़ खाने को किसका जी चाहता है? महल का सुख भोगने के बाद झोंपड़ा किसे अच्छा लगता है? प्रेम आत्मा को तृप्त कर देता है। तुम तो मुझे जानते हो, अब तो बूढ़ा हो गया हूं, लेकिन मैं तुमसे सच कहता हूं, इस विधुर-जीवन में मैंने किसी स्त्री की ओर आंख तक नहीं उठाई। कितनी ही सुंदरियां देखीं,कई बार लोगों ने विवाह के लिए घेरा भी; लेकिन कभी इच्छा ही न हुई। उस प्रेम की मधुर स्मृतियों में मेरे प्रेम का सजीव आनंद भरा हुआ है। यों बातें करते हुए, दोनों आदमी दफ्तर पहुंच गए।
दस
दफ्तर से घर पहुंचा,तो चार बज रहे थे। वह दफ्तर ही में था कि आसमान पर बादल घिर आए। पानी आया ही चाहता था; पर रमा को घर पहुंचने की इतनी बेचैनी हो रही थी कि उससे रुका न गया। हाते के बाहर भी न निकलने पाया था कि जोर की वर्षा होने लगी। आषाढ़ का पहला पानी था, एक ही क्षण में वह लथपथ हो गया। फिर भी वह कहीं रुका नहीं। नौकरी मिल जाने का शुभ समाचार सुनाने का आनंद इस दौंगड़े की क्या परवाह कर सकता था? वेतन तो केवल तीस ही रुपये थे, पर जगह आमदनी की थी। उसने मन-ही-मन हिसाब लगा लिया था। कि कितना मासिक बचत हो जाने से वह जालपा के लिए चन्द्रहार बनवा सकेगा। अगर पचास-साठ रुपये महीने भी बच जाये, तो पांच साल में जालपा गहनों से लद जाएगी। कौन-सा आभूषण कितने का होगा, इसका भी उसने अनुमान कर लिया था। घर पहुंचकर उसने कपड़े भी न उतारे, लथपथ जालपा के कमरे में पहुंच गया।
जालपा उसे देखते ही बोली-यह भीग कहां गए, रात कहां गायब थे?
रमानाथ-इसी नौकरी की फिक्र में पड़ा हुआ हूं। इस वक्त दफ्तर से चला आती हूँ।
म्युनिसिपैलिटी के दफ्तर में मुझे एक जगह मिल गई।
जालपा ने उछलकर पूछा-सच। कितने की जगह है?
रमा को ठीक-ठीक बतलाने में संकोच हुआ। तीस की नौकरी बताना अपमान की बात थी। स्त्री के नेत्रों में तुच्छ बनना कौन चाहता है। बोला-अभी तो चालीस मिलेंगे, पर जल्दतरक्की होगी। जगह आमदनी की है।
जालपा ने उसके लिए किसी बड़े पद की कल्पना कर रक्खी थी। बोली-चालीस में क्या होगा? भला साठ-सत्तर तो होते!
रमानाथ-मिल तो सकती थी सौ रुपये की भी, पर यहां रौब है, और आराम है। पचास-साठ रुपये उपर से मिल जाएंगे।
जालपा–तो तुम घूस लोगे, गरीबों का गला काटोगे?
रमा ने हंसकर कहा-नहीं प्रिये, वह जगह ऐसी नहीं कि गरीबों का गला काटना पड़े।
बड़े-बड़े महाजनों से रकमें मिलेंगी और वह खुशी से गले लगावेंगे। मैं जिसे चाहूं दिनभर दफ्तर में खड़ा रक्खू। महाजनों का एक-एक मिनट एक-एक अशरफी के बराबर है। जल्द-से-जल्द अपना काम कराने के लिए वे खुशमद भी करेंगे, पैसे भी देंगे।
जालपा संतुष्ट हो गई, बोली-हां, तब ठीक है। गरीबों का काम यों ही कर देना।
रमानाथ-वह तो करूंगा ही।
जालपा-अभी अम्मांजी से तो नहीं कहा? जाकर कह आओ। मुझे तो सबसे बड़ी खुशी