प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/दो
दो
महाशय दीनदयाल प्रयाग के छोटे-से गांव में रहते थे। वह किसान न थे; पर खेती करते थे। वह जमींदार न थे; पर जमींदारी करते थे। थानेदार न थे; पर थानेदारी करते थे। वह थे जमींदार के मुख्तार। गांव पर उन्हीं की धाक थी। उनके पास चार चपरासी थे, एक घोड़ा, कई गाएं-भैंसें। वेतन कुल पांच रुपये पाते थे, जो उनके तंबाकू के खर्च को भी काफी न होता था। उनकी आय के और कौन से मार्ग थे, यह कौन जानता है। जालपा उन्हीं की लड़की थी। पहले उसके तीन भाई और थे; पर इस समय वह अकेली थी। उससे कोई पूछता--तेरे भाई क्या हुए, तो वह बड़ी सरलता से कहती-बड़ी दूर खेलने गए हैं। कहते हैं, मुख्तार साहब ने एक गरीब आदमी को इतना पिटवाया था कि वह मर गया था। उसके तीन वर्ष के अंदर तीनों लड़के जाते रहे। तब से बेचारे बहुत संभलकर चलते थे। फूक-फूककर पांव रखते, दूध के जले थे, छाछ भी फूक-फूककर पीते थे। माता और पिता के जीवन में और क्या अवलंब ।
दीनदयाल जब कभी प्रयाग जाते, तो जालपा के लिए कोई-न-कोई आभूषण जरूर लाते। उनकी व्यावहारिक बुद्धि में यह विचार ही न आता था कि जालपा किसी और चीज से अधिक प्रसन्न हो सकती है। गुड़ियां और खिलौने वह व्यर्थ समझते थे; इसलिए जालपा आभूषणों से ही खेलती थी। यही उसके खिलौने थे। वह बिल्लौर का हार, जो उसने बिसाती से लिया था, अब उसका सबसे प्यारी खिलौना था। असली हार की अभिलाषी अभी उसके मन में उदय ही नहीं हुई थी। गांव में कोई उत्सव होता, या कोई त्योहार पड़ता, तो वह उसी हार को पहनती। कोई दूसरा गहना उसकी आंखों में जंचना ही न था।
एक दिन दीनदयाल लौटे तो, मानकी के लिए एक चन्द्रहार लाए। मानकी को यह साध बहुत दिनों से थी। यह हार पाकर वह मुग्ध हो गई।
जालपा को अब अपना हार अच्छा न लगता, पिता से बोली-बाबूजी, मुझे भी ऐसा ही हार ला दीजिए।
दीनदयाल ने मुस्कराकर कहा-ला दूंगा, बेटी।
'कब ला दीजिएगा?'
'बहुत जल्द।'
बाप के शब्दों से जालपा का मन न भरा। उसने माता से जाकर कहा-अम्माजी, मुझे भी अपना-सा हार बनवा दो।
मां-वह तो बहुत रुपयों में बनेगा, बेटी।
जालपा-तुमने अपने लिए बनवाया है, मेरे लिए क्यों नहीं बनवातीं?
मां ने मुस्कराकर कहा-तेरे लिए तेरे ससुराल से आएगा।
यह हार छ: सौ में बना था। इतने रुपये जमा कर लेना, दीनदयाल के लिए आसान न था। ऐसे कौन बड़े ओहदेदार थे। बरसों में कहीं यह हार बनने की नौबत आई। जीवन में फिर कभी इतने रुपये आयेंगे इसमें उन्हें संदेह था।
जालपा लजाकर भाग गई, पर यह शब्द उसके हृदय में अंकित हो गए। ससुराल उसके लिए अब उतनी भयंकर न थी। ससुराल से चन्द्रहार आएगा, वहां के लोग उसे माता-पिता से अधिक प्यार करेंगे। तभी तो जो चीज ये लोग नहीं बनवा सकते, वह वहां से आएगी।
लेकिन ससुराल से न आए तो। --उसके सामने तीन लड़कियों के विवाह हो चुके थे, किसी की ससुराल से चन्द्रहार न आया था। कहीं उसकी ससुराल से भी न आया तो? उसने सोचा-तो क्या माताजी अपनी हार मुझे दे देंगी? अवश्य दे देंगी।
इस तरह हंसते-खेलते सात वर्ष कट गए। और वह दिन भी आ गया, जब उसकी चिरसंचित अभिलाषा पूरी होगी।
तीन
तीन
मुंशी दीनदयाल की जान-पहचान के आदमियों में एक महाशय दयानाथ थे, बड़े ही सज्जन और सहृदय। कचहरी में नौकर थे और पचास रुपये वेतन पाते थे। दीनदयाल अदालत के कीड़े थे। दयानाथ को उनसे सैकड़ों ही बार काम पड़ चुका था। चाहते, तो हजारों वसूल करते, पर कभी एक पैसे के भी रवादार नहीं हुए थे। कुछ दीनदयाल के साथ ही उनका यह सलूक न था, यह उनका स्वभाव था। यह बात भी न थी कि वह बहुत ऊंचे आदर्श के आदमी हों, पर रिश्वत को हराम समझते थे। शायद इसलिए कि वह अपनी आंखों से इसके कुफल देख चुके थे। किसी को जेल जाते देखा था, किसी को संतान से हाथ धोते, किसी को कुव्यसनों के पंजे में फंसते। ऐसी उन्हें कोई मिसाल न मिलती थी, जिसने रिश्वत लेकर चैन किया हो। उनकी यह दृढ धारणा हो गई थी कि हराम की कमाई हराम ही में जाती है। यह बात वह कभी न भूलते। |