प्रेमचंद रचनावली ५
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती-प्रेस, पृष्ठ १४८ से – १५२ तक

 


पीसने लगी। जागेश्वरी ने जाकर जालपा से कहा--बहू, वह जांत पर बैठी गेहूं पीस रही हैं। उठाती हूं, उठती ही नहीं। कोई देख ले तो क्या कहे।

जालपा ने मुंशीजी के कमरे से निकलकर सास की घबराहट का आनंद उठाने के लिए कहा-यह तुमने क्या गजब किया, अम्मांजी ! सचमुच, कोई देख ले तो नाक ही कट जाय । चलिए, जरा देखें।

जागेश्वरी ने विवशता से कहा-क्या करूं, मैं तो समझा के हार गई, मानती ही नहीं।

जालपा ने जाकर देखा, तो रतन गेहूं पीसने में मग्न थी। विनोद के स्वाभाविक आनंद से उसका चेहरा खिला हुआ था। इतनी ही देर में उसके माथे पर पसीने की बूंदें आ गई थीं। उसके बलिष्ठ हाथों में जांत लट्टू के समान नाच रहा था।

जालपा ने हंसकर कहा-ओ री, आटा महीन हो, नहीं पैसे न मिलेंगे।

रतन को सुनाई न दिया। बहरों की भांति अनिश्चित भाव से मुस्कराई। जालपा ने और जोर से कहा-आटा खूब महीन पीसना, नहीं पैसे न पाएगी।

रतन ने भी हंसकर कहा-जितना महीन कहिए उतना महीन पीस दें, बहूजी। पिसाई अच्छी मिलनी चाहिए।

जालपा-धेले सेर।

रतन-धेले सेर सही।

जालपा-मुंह धो आओ। धेले सेर मिलेंगे।

रतन-मैं यह सब पीसकर उठूँगी। तुम यहां क्यों खड़ी हो?

जालपा-आ जाऊं, मैं भी खींच दूँ।

रतन-जी चाहता है, कोई जांत का गीत गाऊं।

जालपा-अकेले कैसे गाओगी । (जागेश्वरी से) अम्मां आप जरा दादाजी के पास बैठ जायं, मैं अभी आती हूँ।

जालपा भी जांत पर जा बैठी और दोनों जांत का यह गीत गाने लगी।

मोही जोगिन बनाके कहां गए रे जोगिया।

दोनों के स्वर मधुर थे। जांत की घुमुर-घुमुर उनके स्वर के साथ साज का काम कर रही थी। जब दोनों एक कड़ी गाकर चुप हो जातीं, तो जांत का स्वर मानो कठ-ध्वनि से रंजित होकर और भी मनोहर हो जाता था। दोनों के हृदय इस समय जीवन के स्वाभाविक आनंद से पूर्ण थे? न शोक का भार था, न वियोग का दुःख। जैसे दो चिड़ियां प्रभात की अपूर्व शोभा से मग्न होकर चहक रही हों।

तैंतीस

रमानाथ की चाय की दुकान खुल तो गई, पर केवल रात को खुलती थी। दिन-भर बंद रहती थी। रात को भी अधिकतर देवीदीन ही दुकान पर बैठता, पर बिक्री अच्छी हो जाती थी। पहले ही दिन तीन रुपये के पैसे आए, दूसरे दिन से चार-पांच रुपये का औसत पड़ने लगा। चाय

इतनी स्वादिष्ट होती थी कि जो एक बार यहां चाय पी लेता फिर दूसरी दुकान पर न जाता। रमा ने मनोरंजन की भी कुछ सामग्री जमा कर दी। कुछ रुपये जमा हो गए, तो उसने एक सुंदर मेज ली। चिराग जलने के बाद साग-भाजी की बिक्री ज्यादा न होती थी। वह उन टोकरों को उठाकर अंदर रख देता और बरामदे में वह मेज लगा देता। उस पर ताश के सेट रख देता। दो दैनिक-पत्र भी मंगाने लगा। दुकान चल निकली। उन्हीं तीन-चार घंटों में छ:-सात रुपये आ जाते थे और सब खर्च निकालकर तीन-चार रुपये बच रहते थे।

इन चार महीनों की तपस्या ने रमा को भोग-लालसा को और भी प्रचंड कर दिया था। जब तक हाथ में रुपये न थे, वह मजबूर था। रुपये आते ही सैर-सपाटे की धुन सवार हो गई। सिनेमा की याद भी आई। रोज के व्यवहार की मामूली चीजें, जिन्हें अब तक वह टालता आया था, अव अबाध रूप से आने लगीं। देवीदीन के लिए वह एक सुंदर रेशमी चादर लाया। जग्गो के सिर में पीड़ा होती रहती थी। एक दिन सुगंधित तेल की शीशियां लाकर उसे दे दीं। दोनों निहाल हो गए। अब बुढिया कभी अपने सिर पर बोझ लाती तो डांटता-काकी, अब तो मैं भी चार पैसे कमाने लगा हूं, अब तू क्यों जान देती है? अगर फिर कभी तेरे सिर पर टोकरी देखी तो कहे देता हूं, दुकान उठाकर फेंक दूंगा। फिर मुझे जो सजा चाहे दे देना। बुढिया बेटे की डांट सुनकर गद्गद हो जाती।मंडी से बोझ लाती तो पहले चुपके से देखती, रमा दुकान पर नहीं है। अगर वह बैठा होता तो किसी कली को एक-दो पैसा देकर उसके सिर पर रख देती। वह न होता तो लपकी हुई आती और जल्दी से बोझ उतारकर शांत बैठ जाती, जिससे रमा भांप न सके।

एक दिन 'मनोरमा थियेटर' में राधेश्याम का कोई नया ड्रामा होने वाला था। इस ड्रामे की बड़ी धूम थी। एक दिन पहले से ही लोग अपनी जगहें रक्षित करा रहे थे। रमा को भी अपनी जगह रक्षित करा लेने की धुन सवार हुई। सोचा, कहीं रात को टिकट न मिला तो टापते रह जायेंगे। तमाशे की बड़ी तारीफ है। उस वक्त एक के दो देने पर भी जगह न मिलेगी। इसी उत्सुकता ने पुलिस के भय को भी पीछे डाल दिया। ऐसी आफत नही आई है कि घर से निकलते ही पुलिस पकड़ लेगी। दिन को न सही, रात को तो निकलता ही हूं। पुलिस चाहती तो क्या रात को न पकड़ लेती। फिर मेरा वह हुलिया भी नहीं रहा। पगड़ी चेहरा बदल देने के लिए काफी है। यों मन को समझाकर वह दस बजे घर से निकला। देवीदीन कहीं गया हुआ था। बुढिया ने पूछा- कहां जाते हो बेटा? रमा ने कहा- कहीं नहीं काकी, अभी आता हूँ।

रमा सड़क पर आया, तो उसका साहस हिम की भांति पिघलने लगा। उसे पग-पग पर शंका होती थी, कोई कांस्टेबल न आ रहा हो। उसे विश्वास था कि पुलिस का एक-एक चौकीदार भी उसको हुलिया पहचानता है और उसके चेहरे पर निगाह पड़ते ही पहचान लेगा। इसलिए वह नीचे सिर झुकाए चल रहा था। सहसा उसे ख़याल आया, गुप्त पुलिस वाले सादे कपड़े पहने इधर-उधर घूमा करते हैं। कौन जाने, जो आदमी मेरे बगल में आ रहा है, कोई जासूस ही हो। मेरी ओर ध्यान से देख रहा है। यों सिर झुकाकर चलने से ही तो नहीं उसे संदेह हो रहा है। यहां और सभी सामने ताक रहे हैं। कोई यों सिर झुकाकर नहीं चल रहा है। मोटरों की
इस रेल-पेल में सिर झुकाकर चलना मौत को नेवता देना है। पार्क में कोई इस तरह चहलकदमी करे, तो कर सकता है। यहां तो सामने देखना चाहिए। लेकिन बगल वाला आदमी अभी तक मेरी ही तरफ ताक रहा है। है शायद कोई खुफिया ही। उसका साथ छोड़ने के लिए वह एक तंबोली की दुकान पर पान खाने लगा। वह आदमी आगे निकल गया। रमा ने आराम की लंबी सांस ली।

अब उसने सिर उठा लिया और दिल मजबूत करके चलने लगा। इस वक्त ट्राम का भी कहीं पता न था, नहीं उसी पर बैठ लेता। थोड़ी ही दूर चला होगा कि तीन कांस्टेबल आते दिखाई दिए। रमा ने सड़क छोड़ दी और पटरी पर चलने लगा। ख्वामख्वाह सांप के बिल में उंगली डालना कौन-सी बहादुरी है। दुर्भाग्य की बात, तीनों कांस्टेबलों ने भी सड़क छोड़कर वहीं पटरी ले ली। मोटरों के आने-जाने से बार-बार इधर-उधर दौड़ना पड़ता था। रमा का कलेजा धक्-धक् करने लगा। दूसरी पटरी पर जाना तो संदेह को ओर भी बढ़ा देगा। कोई ऐसी गली भी नहीं जिसमें घुस जाऊं। अब तो सब बहुत समीप आ गए। क्या बात है, सब मेरी ही तरफ देख रहे हैं। मैंने बड़ी हिमाकत की कि यह पग्गड़ बांध लिया और बंधी भी कितनी बेतुकी। एक टीले-सा ऊपर उठ गया है। यह पगड़ी आज मुझे पकड़ावेगी। बांधी थी कि इससे सूरत बदल जाएगी। यह उल्टे और तमाशा बन गई। हां, तीनों मेरी ही ओर ताक रहे हैं। आपस में कुछ बातें भी कर रहे हैं। रमा को ऐसा जान पड़ा, पैरों में शक्ति नहीं है। शायद सब मन में मेरा हुलिया मिला रहे हैं। अब नहीं बच सकता। घर वालों को मेरे पकड़े जाने की खबर मिलेगी, तो कितने लज्जित होंगे। जालपा तो रो-रोकर प्राण ही दे देगी। पांच साल से कम सजा न होगी। आज इस जीवन का अंंत हो रहा है।

इस कल्पना ने उसके ऊपर कुछ ऐसा आतंक जमाया कि उसके औसान जाते रहे। जब सिपाहियों का दल समीप आ गया, तो उसका चेहरा भय से कुछ ऐसा विकृत हो गया, उसकी आंखें कुछ ऐसी सशंक हो गईं और अपने को उनकी आंखों से बचाने के लिए वह कुछ इस तरह दूसरे आदमियों की आड़ खोजने लगा कि मामूली आदमी को भी उस पर संदेह होना स्वाभाविक था, फिर पुलिस वालों की मंजी हुई आंखें क्यों चूकतीं! एक ने अपने साथी से कहा-यो मनई चोर न होय, तो तुमरी टांगन ते निकर जाई। कस चोरन की नाईं ताकत है। दूसरा बोला-कुछ संदेह तो हमऊ का हुय रहा है। फुरै कह्यो पांडे, असली चोर है।

तीसरा आदमी मुसलमान था, उसने रमानाथ को ललकारा-ओ जी ओ पगड़ी, जरा इधर आना, तुम्हारा क्या नाम है?

रमानाथ ने सीनाजोरी के भाव से कहा-हमारा नाम पूछकर क्या करोगे? मैं क्या चोर हूं?

'चोर नहीं, तुम साह हो, नाम क्यों नहीं बताते?'

रमा ने एक क्षण आगा-पीछा में पड़कर कहा-हीरालाल।

'घर कहां है?'

'घर।'

'हां, घर ही पूछते हैं।'

'शाहजहांपुर।'
‘कौन मुहल्ला?'

रमा शाहजहांपुर न गया था, न कोई कल्पित नाम ही उसे याद आया कि बता दे। दुस्साहस के साथ बोला-तुम तो मेरा हुलिया लिख रहे हो।

कांस्टेबल ने भभकी दो-तुम्हारा हुलिया पहले से ही लिखा हुआ है ! नाम झूठ बताया,सकूनत झूठ बताई, मुहल्ला पूछी तो बगलें झांकने लगे। महीनों से तुम्हारी तलाश हो रही है,आज जाकर मिले हो। चलो थाने पर।

यह कहते हुए उसने रमानाथ का हाथ पकड़ लिया। रमा ने हाथ छुड़ाने की चेष्टा करके कहा-वारंट लाओ तब हम चलेंगे। क्या मुझे कोई देहाती समझ लिया है?

कांस्टेबल ने एक सिपाही से कहा-पकड़ लो जो इनका हाथ, वहीं थाने पर वारंट दिखाया जाएगा।

शहरों में ऐसी घटनाएं मदारियों के तमाशों से भी ज्यादा मनोरंजक होती हैं। सैकड़ों आदमी जमा हो गए। देवीदीन इसी समय अफीम लेकर लौटा आ रहा,यह जमाव देखकर वह भी आ गया। देखा कि तीन कांस्टेबल रमानाथ को घसीटे लिए जा रहे हैं। आगे बढ़कर बोला-हैं-हैं, जमादार | यह क्या करते हो? यह पडतजी तो हमारे मिहमान हैं, कहीं पकड़े लिए जाते हो?

तीनों कांस्टेबल देवीदीन से परिचित थे। रुक गए। एक ने कहा-तुम्हारे मिहमान हैं यह,कब से?

देवीदीन ने मन में हिसाब लगाकर कहा--चार महीने से कुछ बेशी हुए होंगे। मुझे प्रयाग में मिल गए थे। रहने वाले भी वहीं के हैं। मेरे साथ ही तो आए थे।

मुसलमान सिपाही ने मन में प्रसन्न होकर कहा-इनका नाम क्या है?

देवीदीन ने सिटपिटाकर कहा–नाम इन्होंने बताया न होगा?

सिपाहियों का संदेह दृढ़ हो गया। पांडे ने आखें निकालकर कहा- जोन परत है तुमहू मिले हौ, नांव काहे नाहीं बतावत हो इनका? देवीदीन ने आधारहीन साहस के भाव से कहा-मुझसे रोब ने जाना पांडे, समझे। यहां धमकियों में नहीं आने के।

मुसलमान सिपाही ने मानो मध्यस्थ बनकर कहा–बूढे बाबा, तुम तो ख्वामख्वाह बिगड़ रहे हो। इनका नाम क्यों नहीं बतला देते?

देवीदीन ने कातर नेत्रों से रमा की ओर देखकर कहा-हम लोग तो रमानाथ कहते हैं। असली नाम यही है या कुछ और, यह हम नहीं जानते।

पांडे ने आंखें निकालकर हथेली को सामने करके कहा-बोलो पंडितजी,क्या नाम है तुम्हारा? रमानाथ या हीरालाल? या दोनों-एक घर का एक ससुराल का।

तीसरे सिपाही ने दर्शकों को संबोधित करके कहा-नांव है रमानाथ,बतावत है। हीरालाल। सबूत हुय गवा। दर्शकों में कानाफूसी होने लगी। शुबहे की बात तो है।

‘साफ है, नाम और पता दोनों गलत बता दिया।'

एक मारवाड़ी सज्जन बोले-उचक्को सो है।
एक मौलवी साहब ने कहा-कोई इश्तिहारी मुलजिम है।

जनता को अपने साथ देखकर सिपाहियों को और भी जोर हो गया। रमा को भी अब उनके साथ चुपचाप चले जाने ही में अपनी कुशल दिखाई दी। इस तरह सिर झुका लिया, मानो उसे इसकी बिल्कुल परवा नहीं है कि उस पर लाठी पड़ती है या तलवार। इतना अपमानित वह कभी न हुआ था। जेल की कठोरतम यातना भी इतनी ग्लानि न उत्पन्न करती।

थोड़ी देर में पुलिस स्टेशन दिखाई दिया। दर्शकों की भीड़ बहुत कम हो गई थी। रमा ने एक बार उनकी ओर लज्जित आशा के भाव से ताका। देवीदीन का पता न था। रमा के मुंह से एक लंबी सांस निकल गई। इस विपत्ति में क्या यह सहारा भी हाथ से निकल गया?

चौंतीस

पुलिस स्टेशन के दफ्तर में इस समय बड़ी मेज के सामने चार आदमी बैठे हुए थे। एक दारोगा थे, गोरे से, शौकीन, जिनकी बड़ी-बड़ी आंखों में कोमलता की झलक थी। उनकी बगल में नायब दारोगा थे। यह सिक्ख थे, बहुत हंसमुख, सजीवता के पुतले, गेहुआ रंग, सुडौल,सुगठित शरीर। सिर पर केश था, हाथों में कड़े; पर सिगार से परहेज न करते थे। मेज की दूसरी तरफ इंस्पेक्टर और डिप्टी सुपरिंटेंडेंट बैठे हुए थे। इंस्पेक्टर अधेड़, सांवला, लंबा आदमी था,कौड़ी की-सी आंखें, फूले हुए गाल और ठिगना कद। डिप्टी सुपरिटेंडेंट लंबा छरहरा जवान था,बहुत ही विचारशील और अल्पभाषी। इसकी लंबी नाक और ऊंचा मस्तक उसकी कुलीनता के साक्षी थे।

डिप्टी ने सिगार की एक कश लेकर कहा-बाहरी गवाहों से काम नहीं चल सकेगा। इनमें से किसी को एप्रूवर बनना होगा। और कोई अल्टरनेटिव नहीं है।

इंस्पेक्टर ने दारोगा की ओर देखकर कहा-हम लोगों ने कोई बात उठा तो नहीं रक्खी,हलफ से कहता हूं। सभी तरह के लालच देकर हार गए। सबों ने ऐसी गुट कर रखी है कि कोई टूटता ही नहीं। हमने बाहर के गवाहों को भी आजमाया, पर सब कानों पर हाथ रखते हैं।

डिप्टी-उस मारवाड़ी को फिर आजमाना होगा। उसके बाप को बुलाकर खूब धमकाइए। शायद इसका कुछ दबाव पड़े।

इंस्पेक्टर हलफ से कहता हूं, आज सुबह से हम लोग यही कर रहे हैं। बेचारी बाप लड़के के पैरों पर गिरा, पर लड़का किसी तरह राजी नहीं होता।

कुछ देर तक चारों आदमी विचारों में मग्न बैठे रहे। अंत में डिप्टी ने निराशा के भाव से कहा-मुकदमा नहीं चल सकता। मुफ्त की बदनामी हुई।

इंस्पेक्टर-एक हफ्ते की मुहलत और लीजिए, शायद कोई टूट जाय।

यह निश्चय करके दोनों आदमी यहां से रवाना हुए। छोटे दारोगा भी उसके साथ ही चले गए। दारोगाजी ने हुक्का मंगवाया कि सहसा एक मुसलमान सिपाही ने आकर कहा–दारोगाजी,लाइए कुछ इनाम दिलवाइए। एक मुलजिम को शुबहे पर गिरफ्तार किया है। इलाहाबाद का