प्रेमचंद रचनावली ५
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती-प्रेस, पृष्ठ १३८ से – १४१ तक

 

'माताजी को मेरा प्रणाम कहना।'

पत्र लिखकर रतन बरामदे में आई। शीतल समीर के झोंके आ रहे थे। प्रकृति मानो रोग-शय्या पर पड़ी सिसक रही थी।उसी वक्त वकील साहब की सांस वेग से चलने लगी।

तीस

रात के तीन बज चुके थे। रतन आधी रात के बाद आरामकुर्सी पर लेटे ही लेटे झपकियां ले रही थी कि सहसा वकील साहब के गले का खर्राटा सुनकर चौंक पड़ी। उल्टी सांसें चल रही थीं। वह उनके सिरहाने चारपाई पर बैठ गई और उनका सिर उठाकर अपनी जांघ पर रख लिया। अभी न जाने कितनी रात बाकी है। मेज पर रखी हुई छोटी घड़ी की ओर देखा। अभी तीन बजे थे। सबेरा होने में चार घंटे की देर थी। कविराज कहीं नौ बजे आवेंगे | यह सोचकर वह हताश हो गई। अभागिनी रात क्या अपना काला मुंह लेकर विदा न होगी । मालूम होता है, एक युग हो गया ।

कई मिनट के बाद वकील साहब की सांस रुकी। सारी देह पसीने में तर थी। हाथ से रतन को हट जाने का इशारा किया और तकिए पर सिर रखकर फिर आखें बंद कर ली।

एकाएक उन्होंने क्षीण स्वर में कहा–रतन, अब विदाई का समय आ गया। मेरे अपराध उन्होंने दोनों हाथ जोड़ लिए और उसकी ओर दीन याचना की आंखों से देखा। कुछ कहना चाहते थे, पर मुंह से आवाज न निकली।

रतन ने चीखकर कहा-टीमल, महराज, क्या दोनों मर गए?

महराज ने आकर कहा-मैं सोया थोडे ही था बहूजी, क्यों बाबूजी ?

रतन ने डांटकर कहा–बको मत, जाकर कविराज को बुला लागे, कहना अभी चलिए।

महराज ने तुरंत अपना पुराना ओवरकोट पहना, सोटा उठाया और चल दिया। रतन उठकर स्टोव जलाने लगी कि शायद सैंक से कुछ फायदा हो। उसकी सारी घबराहट, सारी दुर्बलता, सारा शोक मान लुप्त हो गया। उसकी जगह एक प्रबल आत्मनिर्भरता का उदय हुआ। कठोर कर्तव्य ने उसके सारे अस्तित्व को सचेत कर दिया।

स्टोव जलाकर उसने रुई के गले से छाती को सेंकना शुरू किया। कोई पंद्रह मिनट तक ताबड़तोड़ सेंकने के बाद वकील साहब की सांस कुछ थमी। आवाज काबू में हुई। रतन के दोनों हाथ अपने गालों पर रखकर बोले-तुम्हें बड़ी तकलीफ हो रही है, मुन्नी। क्या जानता था, इतनी जल्द यह समय आ जाएगा। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है, प्रिये ! ओह कितना बड़ा अन्याय । मन की सारी लालसा मन में रह गई। मैंने तुम्हारे जीवन का सर्वनाश कर दिया-क्षमा करना।

यही अंतिम शब्द थे जो उनके मुख से निकले। यही जीवन का अंतिम सूत्र था, यही मोह का अंतिम बंधन था। रतन ने द्वार की ओर देखा। अभी तक महराज का पता न था। हां, टीमल खड़ा था और सामने अथाह अंधकार जैसे अपने जीवन की अंतिम वेदना से मूर्छित पड़ा था।

रतन ने कहा-टीमल, जरा पानी गरम करोगे?

टीमल ने वहीं खड़े-खड़े कहा-पानी गरम करके क्या करोगी बहुजी, गोदान करा दो। दो बूंद गंगाजल मुंह में डाल दो।

रतन ने पति की छाती पर हाथ रखा। छाती गरम थी। उसने फिर द्वार की ओर ताका। महराज न दिखाई दिए। वह अब भी सोच रही थी, कविराजजी आ जाते तो शायद इनकी हालत संभल जाती। पछता रही थी कि इन्हें यहां क्यों लाई? कदाचित् रास्ते की तकलीफ और जलवायु ने बीमारी को असाध्य कर दिया। यह भी पछतावा हो रहा था कि मैं संध्या समय क्यों घूमने चली गई शायद उतनी ही देर में इन्हें ठंड लग गई। जीवन एक दीर्घ पश्चात्ताप के सिवा और क्या है !

पछतावे की एक-दो बात थी ! इस आठ साल के जीवन में मैंने पति को क्या आराम पहुंचाया? वह बारह बजे रात तक कानूनी पुस्तकें देखते रहते थे, मैं पी सोती रहती थी। वह संध्या समय भी मुवक्किलों से मामले की बातें करते थे, मैं पार्क और सिनेमा की सैर करती थी, बाजारों में मटरगश्ती करती थी। मैंने इन्हें धनोपार्जन के एक यंत्र के सिवा और क्या समझा ! यह कितना चाहते थे कि मैं इनके साथ बैटू और बातें करू; पर मैं भागती फिरती थी। मैंने कभी इनके हृदय के समीप जाने की चेष्टा नहीं की, कभी प्रेम की दृष्टि से नहीं देखा। अपने घर में दीपक न जलाकर दूसरों के उजाले घर का आनंद उठाती फिरी–मनोरंजन के सिवा मुझे और कुछ सूझता ही न था। विलास और मनोरंजन, ही मेरे जीवन के दो लक्ष्य थे। अपने जले हुए दिल को इस तरह शांत करके मैं संतुष्ट थी। खीर और मलाई की थाली क्यों न मुझे मिली, इस क्षोभ में मैंने अपनी रोटियों को लात मार दी।

आज रतन को उस प्रेम का पूर्ण परिचय मिला, जो इसे विदा होने वाली आत्मा को उससे था—वह इस समय भी उसी की चिंता में मग्न थी। रतन के लिए जीवन में फिर भी कुछ आनंद था, कुछ रुचि थी. कुछ उत्साह था। इनके लिए जीवन में कौन-सा सुख था! न खाने-पीने की सुख, न मेले-तमाशे का शौक! जीवन क्या, एक दीर्घ तपस्या थी, जिसका मुख्य उद्देश्य कर्तव्य का पालन था? क्या रतन उनका जीवन सुखी न बना सकती थी? क्या एक क्षण के लिए कठोर कर्तव्य की चिंताओं से उन्हें मक्त न कर सकती थी? कौन कह सकता है कि विराम और विश्राम से यह बुझने वाला दीपक कुछ दिन और न प्रकाशमान रहता। लेकिन उसने कभी अपने पति के प्रति अपना कर्तव्य ही न समझा। उसकी अंतरात्मा सदैव विद्रोह करती रही, केवल इसलिए कि इनसे मेरा संबंध क्यों हुआ? क्या उस विषय में सारा अपराध इन्हीं का था ! कौन कह सकता है कि दरिंद्र माता-पिता ने मेरी और भी दुर्गति न की होती जवान आदमी भी सब-के-सब क्या आदर्श ही होते हैं? उनमें भी तो व्यभिचारी, क्रोधी, शराबी सभी तरह के होते हैं। कौन कह सकता है, इस समय मैं किस दशा में होती। रतन का एक-एक रोआं इस समय उसका तिरस्कार कर रहा था। उसने पति के शीतल चरणों पर सिर झुका लिया और बिलख-बिलखकर रोने लगी। वह सारे कठोर भाव जो बराबर उसके मन में उठते रहते थे, वह सारे कटु वचन जो उसने जल-जलकर उन्हें कहे थे, इस समय सैकड़ों बिच्छुओं के समान उसे डंक मार रहे थे। हाय ! मेरी यह व्यवहार उस प्राणी के साथ था, जो सागर की भांति गंभीर था। इस हृदय में कितनी कोमलता थी, कितनी उदारता ! मैं एक बीड़ा पान दे देती थी, तो कितना प्रसन्न हो जाते थे। जरा हंसकर बोल देती थी, तो कितने तृप्त हो जाते थे, पर मुझसे इतना भी न होता था। इन बातों को याद कर-करके उसका हृदय फय जाता था। उन चरणों पर सिर रक्खे हुए उसे प्रबल आकांक्षा हो रही थी कि मेरे प्राण इसी क्षण निकल जायें। उन चरणों को मस्तक से स्पर्श करके उसके हृदय में कितना अनुराग उमड़ा आता था, मानो एक युग की संचित निधि को वह आज ही, इसी क्षण, लुटा देगी। मृत्यु की दिव्य ज्योति के सम्मुख उसके अंदर का सारा मालिन्य, सारी दुर्भावना, सारा विद्रोह मिट गया था।

वकील साहब की आंखें खुली हुई थीं; पर मुख पर किसी भाव का चिह्न न था। रतन की विहलता भी अब उनकी बुझती हुई चेतना को प्रदीप्त न कर सकती थी। हर्ष और शोक के बंधन से वह मुक्त हो गए थे, कोई रोए तो गम नहीं, हंसे तो खुशी नहीं।

टीमल ने आचमनी में गंगाजल लेकर उनके मुंह में डाल दिया। आज उन्होंने कुछ बाधा ने दी। वह जो पाखंडों और रूढ़ियों का शत्रु थी, इस समय शांत हो गया था, इसलिए नहीं कि उसमें धार्मिक विश्वास का उदय हो गया था, बल्कि इसलिए कि उसमें अब कोई इच्छा न थी। इतनी ही उदासीनता से वह विष का घूंट पी जाता।

मानव-जीवन की सबसे महान् घटना कितनी शांति के साथ घटित हो जाती है। वह विश्व का एक महान् अंग, वह महत्वाकांक्षाओं का प्रचंड सागर, वह उद्योग का अनंत भंडार,वह प्रेम और द्वेष, सुख और दुःख का लीला-क्षेत्र, वह बुद्धि और बल की रंगभूमि न जाने कब और कहां लीन हो जाती है, किसी को खबर नहीं होती। एक हिचकी भी नहीं, एक उच्छ्वास भी नहीं, एक आह भी नहीं निकलती । सागर को हिलोरों का कहां अंत होता है, कौन बता सकता है। ध्वनि कहां वायु-मग्न हो जाती है, कौन जानता है। मानवीय जीवन उस हिलोर के सिवा, उस ध्वनि के सिवा और क्या है। उसका अवसान भी उतना ही शव, उतना ही अदृश्य हो तो क्या आश्चर्य है। भूतों के भक्त पूछते हैं, क्या वस्तु निकल गई? कोई विज्ञान का उपासक कहता है, एक क्षण ज्योति निकल जाती है। कपोल-विज्ञान के पुजारी कहते हैं, आंखों से प्राण निकले, मुंह से निकले, ब्रह्मांड से निकले। कोई उनसे पूछे, हिलोर लय होते समय क्या चमक उठती है? ध्वनि लीन होते समय क्या भूर्तिमान हो जाती है? यह उस अनंत यात्रा का एक विश्राम मात्र है, जहां यात्रा का अंत नहीं, नया उत्थान होता है।

कितना महान् परिवर्तन वह जो मच्छर के डंक को सहन न कर सकता था, अब उसे चाहे मिट्टी में दबा दो, चाहे अग्नि-चिता पर रख दो, उसके माथे पर बले तक न पड़ेगा।

टीमल ने वकील साहब के मुख की ओर देखकर कहा-बहूजी, आइए खाट से उतार दें। मालिक चले गए।

यह कहकर वह भूमि पर बैठ गया और दोनों आंखों पर हाथ रखकर फूट-फूटकर रोने लगा। आज तीस वर्ष का साथ छूट गया। जिसने कभी आधी बात नहीं कहीं, कभी तू करके नहीं पुकारा, वह मालिक अब उसे छोड़े चला जा रहा था।

रतन अभी तक कविराज की बाट जोह रही थी। टीभल के मुख से यह शब्द सुनकर उसे धक्का-सा लगा। उसने उठकर पति की छाती पर हाथ रखा। साठ वर्ष तक अविश्राम गति से चलने के बाद वह अब विश्राम कर रही थी। फिर उसे माथे पर हाथ रखने की हिम्मत न पड़ी। उस देह को स्पर्श करते हुए, उस मरे हुए मुख की ओर ताकते हुए, उसे ऐसा विराग हो रहा था,
जो ग्लानि से मिलती थी। अभी जिन चरणों पर सिर रखकर वह रोई थी, उसे छूते हुए उसकी उंगलियां कटी-सी जाती थीं। जीवन-सूत्र इतना कोमल है, उसने कभी न समझा था। मौत का खयाल कभी उसके मन में न आया था। उस मौत ने आंखों के सामने उसे लूट लिया।

एक क्षण के बाद टीमल ने कहा-बहूजी, अब क्या देखती हो, खाट के नीचे उतार दो। जो होना था हो गया।

उसने पैर पकड़ा, रतन ने सिर पकड़ा और दोनों ने शव को नीचे लिटा दिया और वहीं जमीन पर बैठकर रतन रोने लगी, इसलिए नहीं कि संसार में अब उसके लिए कोई अवलंबन था, बल्कि इसलिए कि वह उसके साथ अपने कर्तव्य को पूरा न कर सकी।

उसी वक्त मोटर की आवाज आई और कविराजजी ने पदार्पण किया।

कदाचित् अब भी रतन के हृदय में कहीं आशा की कोई बुझती हुई चिनगारी पड़ी हुई थी उसने तुरंत आंखें पोंछ डालीं, सिर का अंचल संभाल लिया, उलझे हुए केश समेट लिए और खड़ी होकर द्वार की ओर देखने लगी। प्रभात ने आकाश को अपनी सुनहली किरणों से रंजित कर दिया था। क्या इस आत्मा के नव-जीवन का यही प्रभात था।

इकतीस

उसी दिन शव काशी लाया गया। यहीं उसकी दाह-क्रिया हुई। वकील साहब के एक भतीजे मालवे में रहते थे। उन्हें तार देकर बुला लिया गया। दाह-क्रिया उन्होंने की। रतन को चिता के दृश्य की कल्पना ही से रोमांच होता था। वहां पहुंचकर शायद वह बेहोश हो जाती।

जालपा आजकल प्राय: सारे दिन उसी के साथ रहती। शोकातुर रतन को न घर-बार की सुधि थी, न खाने-पीने की। नित्य ही कोई-न-कोई ऐसी बात याद आ जाती जिस पर वह घंटों रोती। पति के साथ उसका जो धर्म था, उसके एक अंश का भी उसने पालन किया होता, तो उसे बोध होता। अपनी कर्त्तव्यहीनता, अपनी निष्ठुरता, अपनी श्रृंगार-लोलुपता की चर्चा करके वह इतना रोती कि हिचकियां बंध जातीं। वकील साहब के सद्गुणों की चर्चा करके ही वह अपनी आत्मा को शांति देती थी। जब तक जीवन के द्वार पर एक रक्षक बैठा हुआ था, उसे कुत्ते या बिल्ली या चोर-चकार की चिंता न थी, लेकिन अब द्वार पर कोई रक्षक न था, इसलिए वह सजग रहती थी-पति का गुणगान किया करती। जीवन का निर्वाह कैसे होगा, नौकरों-चाकरों में किन-किन को जवाब देना होगा, घर का कौन-कौन-सा खर्च कम करना होगा, इन प्रश्नों के विषय में दोनों में कोई बात न होती। मानो यह चिंता मृत आत्मा के प्रति अभक्ति होगी। भोजन करना, साफ वस्त्र पहनना और मन को कुछ पढ़कर बहलाना भी उसे अनुचित जान पड़ता था। श्राद्ध के दिन उसने अपने सारे वस्त्र और आभूषण महापात्र को दान कर दिए। इन्हें लेकर अब वह क्या करेगी? इनका व्यवहार करके क्या वह अपने जीवन को कर्लोकित करेगी। इसके विरुद्ध पति की छोटी से छोटी वस्तु को भी स्मृति-चिह्म समझकर वह देखती-भालती रहती थी। उसका स्वभाव इतना कोमल हो गया था कि कितनी ही बड़ी हानि हो जाय, उसे क्रोध न आता था। टीमल के हाथ से चाय का सेट छूटकर गिर पड़ा; पर रतन के माथे पर बल तक न