प्रेमचंद रचनावली ५
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती-प्रेस, पृष्ठ ११६ से – १२४ तक

 

'अरे वही, जिसकी वह बड़ी लाल कोठी है।'

रमा कोई बहाना न कर सका। बोला-हां, मुनीमजी ने पिंड ही न छोड़ा। बड़ा धर्मात्मा जीव हैं।

देवीदीन ने मुस्कराकर कहा-बड़ा धर्मात्मा । उसी के थामे तो यह धरती थमी है, नहीं तो अब तक मिट गई होती !

रमानाथ-काम तो धर्मात्माओं ही के करता है, मन का हाल ईश्वर जाने। जो सारे दिन पूजापाठ और दान-व्रत में लगा रहे, उसे धर्मात्मा नहीं तो और क्या कहा जाय।

देवीदीन-उसे पापी कहना चाहिए; महापापी। दया तो उसके पास से होकर भी नहीं निकली। उसकी जूट की मिल है। मजूरों के साथ जितनी निर्दयता इसकी मिल में होती है, और कहीं नहीं होती। आदमियों को हंटरों से पिटवाता है, हंटरों से चर्बी-मिली घी बेचकर इसने लाखों कमा लिए। कोई नौकर एक मिनट की भी देर करे तो तुरंत तलब काट लेता है। अगर साल में दो-चार हजार दान न कर दे, तो पाप का धन पचे कैसे | धर्म-कर्म वाले ब्राह्मण तो उसके द्वार पर झांकते भी नहीं। तुम्हारे सिवा वहां कोई पंडित था?

रमा ने सिर हिलाया।

'कोई जाता ही नहीं। हां, लोभी-लंपट पहुंच जाते हैं। जितने पुजारी देखे, सबको पत्थर हीं पाया। पत्थर पूजते-पूजते इनके दिल भी पत्थर हो जाते हैं। इसके तीन तो बड़े-बड़े धरमशाले हैं, मुदा है पाखंडी। आदमी चाहे और कुछ न करे, मन में दया बनाए रखे। यही सौ धरम का एक धरम है।'

दिन की रक्खी हुई रोटियां खाकर जब रमा कंबल ओढ़कर लेटा, तो उसे बड़ी ग्लानि होने लगी। रिश्वत में उसने हजारों रुपये मारे थे; पर कभी एक क्षण के लिए भी उसे ग्लानि ने आई थी। रिश्वत बुद्धि से, कौशल से, पुरुषार्थ से मिलती है। दान पौरुषहीन, कर्महीन या पाखंडियों का आधार है। वह सोच रहा था-मैं अब इतना दीन हूँ कि भोजन और वस्त्र के लिए मुझे दान लेना पड़ता है। वह देनीदीन के घर दो महीने से पड़ा हुआ था, पर देवीदीन उसे भिक्षुक नहीं मेहमान समझता था। उसके मन में कभी दान का भाव आया ही न था। रमा के मन में ऐसा उद्वेग उठा कि इसी दम थाने में जाकर अपना सारा वृत्तांत कह सुनाए। यही न होगा, दो- तीन साल की सजा हो जाएगी, फिर तो यों प्राण सूली पर न टंगे रहेंगे। कहीं डूब ही क्यों न मरूं इस तरह जीने से फायदा ही क्या ! ने घर का हूँ न घाट का दूसरों को भार तो क्यों उठाऊंगा, अपने ही लिए दूसरों का मुंह ताकता हूं। इस जीवन से किसका उपकार हो रहा है? धिक्कार है। मेरे जीने को ।

रमा ने निश्चय किया, कल निःशंक होकर काम की टोह में निकलूंगा। जो कुछ होना है, हो।

छब्बीस

अभी रमा हाथ- मुंह धो रहा था कि देवीदीन प्राइमर लेकर आ पहुंचा और बोला-भैया, यह तुम्हारी अंगरेजी बड़ी विकट है। एस-आई-अर'सर' होता है, तो पी-आई-टी'पिट' क्यों हो
जाता है? बी-यू-टी 'बट' है; लेकिन पी-यू-टी 'पुट' क्यों होता है? तुम्हें भी बड़ी कठिन लगती होगी।

रमा ने मुस्कराकर कहा-पहले तो कठिन लगती थी, पर अब तो आसान मालूम होती है।

देवीदीन-जिस दिन पराइमर ख़तम होगी, महाबीरजी को सवा सेर लड्डू चढ़ाऊंगा। पराई-मर का मतलब है, पराई स्त्री मर जाय। मैं कहता हूं, हमारी-मर। पराई के मरने से हमें क्या सुख ! तुम्हारे बाल-बच्चे तो हैं न, भैया?

रमा ने इस भाव से कहा, मानो हैं, पर न होने के बराबर हैं-हां, हैं तो ।

'कोई चिट्टी-चपाती आई थी?'

'और न तुमने लिखी? अरे ! तीन महीने से कोई चिट्टी ही नहीं भेजी? घबड़ाते न होंगे लोग?'

'जब तक यहां कोई ठिकाना न लग जाये, क्या पत्र लिखूं।'

'अरे भले आदमी, इतना तो लिख दो कि मैं यहां कुशल से हूं। घर से भाग आए थे, उन लोगों को कितनी चिंता हो रही होगी। मां-बाप तो हैं न?

'हां, हैं तो।'

देवीदीन ने गिड़गिड़ाकर कहा-तो भैया, आज ही चिट्टी डाल दो, मेरी बात मानो।

रमा ने अब तक अपना हाल छिपाया था। उसके मन में कितनी ही बार इच्छा हुई कि देवीदीन से कह दें पर बात होंठो तक आकर रुक जाती थी। वह देवीदीन आलोचना सुनना चाहता था। वह जानना चाहता था कि यह क्या सलाह देता है। इस समय देवीदीन के सद्भाव ने उसे पराभूत कर दिया। बोला-घर से भाग आया हूं, दादा ।

देवीदीन ने मूंछों में मुस्कराकर कहा-यह तो मैं जानता हूं, क्या बाप से लड़ाई हो गयी?'

'नहीं।'

'मां ने कुछ कहा होगा?'

'यह भी नहीं ।

'तो घरवाली से ठन गई होगी। वह कहती होगी, मैं अलग रहूंगी. तुम कहते होगे मैं अपने मां-बाप से अलग न रहूंगा। या गहने के लिए जिद करती होगी। नाक में दम कर दिया होगा। क्यों?

रमा ने लज्जित होकर कहा-कुछ ऐसी बात थी, दादा । वह तो गहनों की बहुत इच्छुक न थी, लेकिन पा जाती थी, तो प्रसन्न हो जाती थी, और मैं प्रेम की तरंग में आगा-पोछा कुछ ने सोचता था।

देवीदीन के मुंह से मानो आप-ही-आप निकल आया-सरकारी रकम तो नहीं उड़ा दी।

रमा को रोमांच हो आया। छाती धक-से हो गई, वह सरकारी रकम की बात उससे छिपाना चाहता था। देवीदीन के इस प्रश्न ने मानो उस पर छापा मार दिया। वह कुशल सैनिक की भांति अपनी सेना को घाटियों से, जासूसों की आंख बचाकर, निकाल ले जाना चाहता था; पर इस छापे ने उसकी सेना को अस्त-व्यस्त कर दिया। उसके चेहरे का रंग उड़ गया। वह एकाएक कुछ निश्चय न कर सका कि इसका क्या जवाब दें। देवीदीन ने उसके मन का भाव भांपकर कहा-प्रेम बड़ा बेढब होता है, भैया । बड़े-बड़े चूक जाते हैं, तुम तो अभी लड़के हो। गबन के हजारों मुकदमे हर साल होते हैं। तहकीकात की जाय, तो सबका कारण एक ही होग-गहना। दस-बीस वारदात तो मैं आंखों देख चुका हूं। यह रोग ही ऐसा है। औरत मुंह से तो यही कहे जाती है कि यह क्यों लाए, वह क्यों लाए, रुपये कहां से आयेंगे; लेकिन उसका मन आनंद से नाचने लगता है। यहीं एक डाक-बाबू रहते थे। बेचारे ने छुरी से गला काट लिया। एक दूसरे मियां साहब को मैं जानता हूं, जिनको पांच साल की सजा हो गई. जेहल में मर गए। एक तीसरे पंडित जी को जानता हूं, जिन्होंने अफीम खाकर जान दे दी। बुरा रोग है। दूसरों को क्या कहूं, मैं ही तीन साल की सजा काट चुका हूं। जवानी की बात हैं, जब इस बुढ़िया पर जोबन था, ताकती थी तो मानो कलेजे पर तीर चला देती थी। मैं डाकिया था। मनीआर्डर तकसीम किया करता था। यह कानों के झुमको के लिए जान खा रही थी। कहती थी, सोने ही के लूंगी। इसका बाप चौधरी था। मेवे की दुकान थी। मिजाज बढ़ा हुआ था। मुझ पर प्रेम का नसा छाया हुआ था। अपनी अमदनी की डींगें मारती रहता था। कभी फूल के हार लाता, कभी मिठाई, कभी अतर-फुलेल। सहर का हलका था। जमाना अच्छा था। दुकानदारों से जो चीज मांग लेता, मिल जाती थी। आखिर मैंने एक मनीआर्डर पर झूठे दस्तख़त बनाकर रुपये उड़ा लिए। कुल तीस रुपये थे। झुमके लाकर इसे दिए। इतनी खुश हुई, इतनी खुश हुई, कि कुछ न पूछो, लेकिन एक ही महीने में चोरी पकड़ ली गई। तीन साल की सजा हो गई। सजा काटकर निकला तो यहां भाग आया। फिर कभी घर नहीं गया। यह मुंह कैसे दिखा। हां, घर पत्र भेज दिया। बुढिया खबर पाते ही चली आई। यह सब कुछ हुआ, मगर गहनों से उसका पेट नहीं भरा। जब देखो, कुछ-न-कुछ बनता ही रहता है। एक चीज आज बनवाई, कल उसी को तुड़वाकर कोई दूसरी चीज बनवाई। यहीं तार चला जाता है। एक सोनार मिल गया है, मजूरी में साग- भाजी ले जाती है। मेरी तो सलाह है, घर पर एक ख़त लिख दो, लेकिन पुलिस तो तुम्हारी टोह में होगी। कहीं पता मिल गया, तो काम बिगड़ जायगा। मै न किसी से एक खत लिखाकर भेज दें?

रमा ने आग्रहपूर्वक कहा-नहीं, दादा ! दया करो। अनर्थ हो जायगा। पुलिस से ज्यादा तो मुझे घरवालों का भय है।

देवीदीन-घर वाले खबर पाते ही आ जाएंगे। यह चर्चा ही न उठेगी। उनकी कोई चिंता नहीं। डर पुलिस ही का है।

रमानाथ-मैं सजा से बिल्कुल नहीं डरता। तुमसे कहा नहीं, एक दिन मुझे वाचनालय में जान-पहचान की एक स्त्री दिखाई दी। हमारे घर बहुत आती-जाती थी। मेरी स्त्री से बड़ी मित्रता थी। एक बड़े वकील की पत्नी है। उसे देखते ही मेरी नानीं मर गई। ऐसा सिटपिट गया कि उसकी ओर ताकने की हिम्मत न पड़ी। चुपके से उठकर पीछे के बरामदे में जा छिपा। अगर उस वक्त उससे दो-चार बातें कर नेता, तो घर का सारा समाचार भालूम हो जाता और मुझे यह विश्वास है कि वह इस मुलाकात की किसी से चर्चा भी न करते। मेरी पत्नी से भी न कहती, लेकिन मेरी हिम्मत ही न पड़ी। अब अगर मिलना भी चाहूं, तो नहीं मिल सकता। उसका पताठिकाना कुछ भी तो नहीं मालूम।

देवीदीन-तो फिर उसी को क्यों नहीं एक चिट्ठी लिखते? रमानाथ-चिट्ठी तो मुझसे न लिखी जाएगी। देवीदीन-तो कब तक चिट्ठी न लिखोगे?

रमनाथ–देखा चाहिए।

देवीदीन-पुलिस तुम्हारी टोह में होगी।

देवीदीन चिंता में डूब गया। रमा को भ्रम हुआ, शायद पुलिस का भय इसे चिंतित कर रहा है। बोला-हां, इसकी शंका मुझे हमेशा बनी रहती है। तुम देखते हो, मैं दिन को बहुत कम घर से निकलता हूं, लेकिन मैं तुम्हें अपने साथ नहीं घसीटना चाहता। मैं तो जाऊंगा ही, तुम्हें क्यों उलझन में डालें। सोचता हूं, कहीं और चला जाऊं, किसी ऐसे गांव में जाकरे रहूं, जहां पुलिस की गंध भी न हो।

देवीदीन ने गर्व से सिर उठाकर कहा-मेरे बारे में तुम कुछ चिंता न करो भैया, यहां पुलिस से डरने वाले नहीं हैं। किसी परदेशी को अपने घर ठहराना पाप नहीं है। हमें क्या मालूम किसके पीछे पुलिस है? यह पुलिस का काम है, पुलिस जाने। मैं पुलिस का मुखबिर नहीं, जासूस नहीं, गोइंदा नहीं। तुम अपने को बचाए रहो, देखो भगवान् क्या करते हैं। हां, कहीं बुढिया से न कह देना, नहीं तो उसके पेट में पानी न पचेगी।

दोनों एक क्षण चुपचाप बैठे रहे। दोनों इस प्रसंग को इस समय बंद कर देना चाहते थे।

सहसा देवीदीन ने कहा-क्यों भैया, कहो तो मैं तुम्हारे घर चला जाऊं। किसी को कानोंकान खबर न होगी। मैं इधर उधर से सारा ब्योरा पूछ आऊंगा। तुम्हारे पिता से मिलूंगा, तुम्हारी माता को समझाऊंगा, तुम्हारी घरवाली से बातचीत करूंगा। फिर जैसा उचित जान पड़े, वैसा करना।

रमा ने मन ही-मन प्रसन्न होकर कहा-लेकिन कैसे पूछोगे दादा, लोग कहेंगे न कि तुमसे इन बातों से क्या मतलब?

देवीदीन ने ठट्टा मारकर कहा-भैया, इससे सहज तो कोई काम ही नहीं। एक जनेऊ गले में डाला और ब्राह्मण बन गए। फिर चाहे हाथ देखो, चाहे, कुंडली बांचो, चाहे सगुन विचारों, सब कुछ कर सकते हो। बुढ़िया भिक्षा लेकर आवेगी। उसे देखते ही कहूंगा, माता तेरे को पुत्र के परदेस जाने का बड़ा कष्ट है, क्या तेरा कोई पुत्र विदेस गया है? इतना सुनते ही घर-भर के लोग आ जाएंगे। वह भी आवेगी। उसका हाथ देखूंगा। इन बातों में में पक्का हूं भैया, तुम निश्चित रहो। कुछ कमा लाऊंगा, देख लेना। माघ-मेला भी होगा। स्नान करता आऊंगा।

रमा की आंखें मनोल्लास से चमक उठीं। उसका मन मधुर कल्पनाओं के संसार में जा पहुंची। जालपा उसी वक्त रतन के पास दौड़ी जायगी। दोनों भाति-भांति के प्रश्न करेंगी-क्यों बाबा, वह कहां गए हैं? अच्छी तरह हैं न? कब तक घर आवेंगे? कभी बाल-बच्चों की सुधि आती है उनको? वहां किसी कामिनी के माया-जाल में तो नहीं फंस गए? दोनों शहर का नाम भी पूछेगी। कहीं दादा ने सरकारी रुपये चुका दिए हों, तो मजा आ जाय। तब एक ही चिंता रहेगी।

देवीदीन बोला-तो है न सलाह?

रमानाथ-कहां जायगे दादा, कष्ट होगा।

'माघ का स्नान भी तो करूंगा। कष्ट के बिना कहीं पुन्न होता है। मैं तो कहता हूं, तुम भी चलो। मैं वहां सब रंग-ढंग देख लूंगा। अगर देखना कि मामला टिचन है, तो चैन से घर चले जाना। कोई खटका मालूम हो, तो मेरे साथ ही लौट आना।'

रमा ने हंसकर कहा-कहां की बात करते हो, दादा ! मैं यों कभी न जाऊंगा। स्टेशन पर
उतरते ही कहीं पुलिस का सिपाही पकड़ ले, तो बस ।

देवीदीन ने गंभीर होकर कहा-सिपाही क्या पकड़ लेगा, दिल्लगी है । मुझसे कहो, मैं प्रयागराज के थाने में ले जाकर खड़ा कर दें। अगर कोई तिरछी आंखों से भी देख ले तो मूछ मुड़ा लें । ऐसी बात भली । सैकड़ों खूरियों को जानता हूं जो यहां कलकत्ते में रहते हैं। पुलिस के अफसरों के साथ दावतें खाते हैं, पुलिस उन्हें जानती है, फिर भी उनका कुछ नहीं कर सकती । रुपये में बड़ा बल है, भैया ।

रमा ने कुछ जवाब न दिया। उसके सामने यह नया प्रश्न आ खड़ा हुआ। जिन बातों को वह अनुभव न होने के कारण महाकष्ट्र-साध्य समझता था, उन्हें इस बूढ़े ने निर्मूल कर दिया, और बूढी शेखीबाजों में नहीं है, वह मुंह से जो कहता है, उसे पूरा कर दिखाने की सामर्थ्य रखता है। उसने सोचा, तो क्या मैं सचमुच देवीदीन के साथ घर चला जाऊं? यहां कुछ रुपये मिल जाते, तो नए सूट बनवा लेता, फिर शान में जाता। वह उस अवसर की कल्पना करने लगा, जब वह नया सूट पहने हुए घर पहुंचेगा। उसे देखते ही गोपी और विश्वम्भर दौड़ेंगे-भैया आए,भैया आए ! दादा निकल आयंगे। अम्मां को पहले विश्वास न आयगा, मगर जब दादा जाकर कहेंगे—हां, आ तो गए, तब वह रोती हुई द्वार की ओर चलेंगी। उसी वक्त मैं पहुंचकर उनके पैरों पर गिर पडूंगा। जालपा वहां न आएगी। वह मान किए बैठी रहेगी। रमा ने मन-ही-मन वह वाक्य भी सोच लिए, जो वह जालपा को मनाने के लिए कहेगा। शायद रुपये की चर्चा ही न आए। इस विषय पर कुछ कहते हुए सभी को संकोच होगा। अपने प्रियजनों से जब कोई अपराध हो जाता है, तो हम उघटकर उसे दुखी नहीं करते। चाहते हैं कि उस बात का उसे ध्यान ही न आए, उसके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं कि उसे हमारी ओर से जरा भी भ्रम न हो, वह भूलकर भी यह न समझे कि मेरी अपकीर्ति हो रही है।

देवीदीन ने पूछा- क्या सोच रहे हो? चलोगे न?

रमा ने दबी ज़बान से कहा-तुम्हारी इतनी दया है, तो चलूंगा, मगर पहले तुम्हें मेरे घर जाकर पूरा-पूरा समाचार लाना पड़ेगा। अगर मेरा मन न भरा, तो मैं लौट आऊंगा।

देवीदीन ने दृढ़ता से कहा-मंजूर।

रमा ने संकोच से आंखें नीची करके कहा-एक बात और है?

देवीदीन-क्या बात है? कहो।

'मुझे कुछ कपडे बनवाने पड़ेंगे।'

'बन जायेंगे।'

'मैं घर पहुंचकर तुम्हारे रुपये दिला दूंगा ।'

'और मैं तुम्हारी गुरु-दक्षिणा भी वहीं दे दूंगा।'

'गुरु-दक्षिणा भी मुझी को देनी पड़ेगी। मैंने तुम्हें चार हरफ अंग्रेजी पढ़ा दिए, तुम्हारा इससे कोई उपकार न होगा। तुमने मुझे पाठ पढ़ाए हैं, उन्हें मैंउम्र भर नहीं भूल सकता। मुंह पर बड़ाई करना खुशामद है, लेकिन दादा, माता-पिता के बाद जितना प्रेम मुझे तुमसे है, उतना और किसी से नहीं। तुमने ऐसे गाढ़े समय मेरी बांह पकड़ी, जब मैं बीच धार में बहा जा रहा था। ईश्वर ही जाने, अब तक मेरी क्या गति हुई होती, किस घाट लगा होता ।'

देवीदीन ने चुहल से कहा-और जो कहीं तुम्हारे दादा ने मुझे घर में न घुसने दिया तो?

रमा ने हंसकर कहा-दादा तुम्हें अपना बड़ा भाई समझेंगे, तुम्हारी इतनी खातिर करेंगे
कि तुम ऊब जाओगे। जालपा तुम्हारे चरण धो-धो पिएगी, तुम्हारी इतनी सेवा करेगी कि जवान हो जाओगे।

देवीदीन ने हंसकर कहा-तब तो बुढ़िया डाह के मारे जल मरेगी। मानेगी नहीं, नहीं तो मेरा जी चाहता है कि हम दोनों यहां से अपना डेरा-डंडा लेकर चलते और वहीं अपनी सिरकी तानते। तुम लोगों के साथ जिंदगी के बाकी दिन आराम से कट जाते; मगर इस चुडैल से कलकत्ता न छोड़ा जायगा। तो बात पक्की हो गई न?

'हां, पक्की ही है।'

'दुकान खुले तो चलें, कपड़े लावें। आज ही सिलने को दे दें।'

देवीदीन के चले जाने के बाद रमा बड़ी देर तक आनंद-कल्पनाओं में मग्न बैठा रहा। जिन भावनाओं को उसने कभी मन में आश्रय न दिया था, जिनकी गहराई और विस्तार और उद्वेग से वह इतना भयभीत था कि उनमें फिसलकर डूब जाने के भय से चंचल मन को उधर भटकने भी न देता था, उसी अथाह और अछोर कल्पना-सागर में वह आज स्वच्छंद रूप से क्रीड़ा करने लगा। उसे अब एक नौका मिल गई थी। वह त्रिवेणी की सैर, वह अल्फ्रेड पार्क की बहार, वह खुसरो बाग का आनंद, वह मित्रों के जलसे, सब याद आ-आकर हृदय को गुदगुदाने लगे। रमेश उसे देखते ही गले लिपट जायेगे। मित्रगण पूड़ेंगे, कहां गए थे, यार? खूब सैर की? रतन उसकी खबर पाते ही दौड़ी आएगी और पूछेगी-तुम कहां ठहरे थे, बाबूजी? मैंने सारा कलकत्ता छान मारा। फिर जालपा की मान-प्रतिमा सामने आ खड़ी हुई।

सहसा देवीदीन ने आकर कहा-भैया, दस बज गए, चलो बाजार होते आवें।

रमा ने चौंककर पूछा--क्या दस बज गए?

देवीदीन-दसे नहीं, ग्यारह का अमल होगा।

रमा चलने को तैयार हुआ, लेकिन द्वार तक आकर रुक गया।

देवीदीन ने पूछा-'क्यों खड़े कैसे हो गए?'

तुम्हीं चले जाओ, मैं जाकर क्या करूंगा !'

'क्या डर रहे हो?'

'नहीं, डर नहीं रही हैं, मगर क्या फायदा?'

'मैं अकेले जाकर क्या करूगा । मुझे क्या मालूम, तुम्हें कौन कपड़ा पसंद है। चलकर अपनी पसंद से ले लो। वहीं दरजी को दे देंगे।'

'तुम जैसी कपड़ा चाहे ले लेना। मुझे सब पंसद है।'

'तुम्हें डर किस बात का है। पुलिस तुम्हारा कुछ नहीं करेगी। कोई तुम्हारी तरफ ताकेगा भी नहीं।'

'मैं डर नहीं रहा हूँ दादा। जाने की इच्छा नहीं है।'

'डर नहीं रहे हो, तो क्या कर रहे हो। कह रहा हूं कि कोई तुम्हें कुछ न कहेगा, इसका मेरा जिम्मा, मुदा तुम्हारी जान निकली जाती है।'

देवीदीन ने बहुत समझाया, आश्वासन दिया; पर रम जाने पर राजी न हुआ। वह डरने से कितना ही इंकार करे; पर उसकी हिम्मत घर से बाहर निकलने की न पड़ती थी। वह सोचता था, अगर किसी सिपाही ने पकड़ लिया, तो देवीदीन क्या करे लेगा। माना सिपाही से इसकी परिचय भी हो, तो यह आवश्यक नहीं कि वह सरकारी मामले में मैत्री का निर्वाह करे। यह
मिन्नत-खुशामद करके रह जाएगा, जाएगी मेरे सिर। कहीं पकड़ा जाऊं, तो प्रयाग के बदले जेल जाना पड़े। आखिर देवीदीन लाचार होकर अकेला ही गया।

देवीदीन घंटे-भर में लौटा, तो देखा, रमा छत पर टहल रहा है। बोला-कुछ खबर है, कै बज गए? बारह का अमल है। आज रोटी न बनाओगे क्या? घर जाने की खुशी में खाना-पीना छोड़ दोगे?

रमा ने झेंपकर कहा–बना लुंगा दादा, जल्दी क्या है।

यह देखो, नमूने लाया हूं, इनमें जौन-सा पसंद करो,ले लें।"

यह कह कर देवीदीन ने ऊनी और रेशमी कपड़ों के सैकड़ों नमूने निकालकर रख दिए। पांच-छ: रुपये गज से कम का कोई कपड़ा न था।

रमा ने नमूनों को उलट-पलटकर देखा और बोला—इतने महंगे कपड़े क्यों लाए, दादा? और सस्ते न थे?

'सस्ते थे, मुदा विलायती थे।'

'तुम विलायती कपड़े नहीं पहनते?'

‘इधर बीस साल से तो नहीं लिए, उधर की बात नहीं कहता। कुछ बेसी दाम लग जाता है, पर रुपया तो देस ही में रह जाता है।

रमा ने लजाते हुए कहा-तुम नियम के बड़े पक्के हो, दादा !

देवीदीन की मुद्रा सहसा तेजवान हो गई। उसकी बुझी हुई आंखें चमक उठीं। देह की नसें तन गई। अकड़कर बोला-जिस देस में रहते हैं, जिसका अन्न-जल खाते हैं, उसके लिए इतना भी न करें तो जीने को धिक्कार है। दो जवान बेटे इसी सुदेसी की भेंट कर चुका , भैया ! ऐसे-ऐसे पट्टे थे, कि तुमसे क्या कहें। दोनों बिदेसी कपड़ों की दुकान पर तैनात थे। क्या मजाल थी कोई हक दुकान पर आ जाय। हाथ जोड़कर, घिघियाकर, धमकाकर, लवाकर सबको फेर लेते थे। बजाजे में सियार लोटने लगे। सबों ने जाकर कमिसनर से फरियाद की। सुनकर आग हो गया। बीस फौजी गोरे भेजे कि अभी जाकर बाजार से पहरे उठा दो। 'गोरों ने दोनों भाइयों से कहा-यहां से चले जाव, मुदा वह अपनी जगह से जौ-भर न हिले। भीड़ लग गई। गोरे उन पर घोड़े चढ़ा लाते थे; पर दोनों चट्टान की तरह डटे खड़े थे। आखिर जब इस तरह कुछ बस न चला तो सबों ने इडों से पीटना सुरू किया। दोनों ओर डंडे खाते थे, पर जगह से न हिलते थे। जब बड़ा भाई गिर पड़ा तो छोटा उसकी जगह पर आ खड़ा हुआ। अगर दोनों अपने डंडे सभांल लेते तो भैया उन बोसों मार भगाते; लेकिन हाथ उठाना तो बड़ी बात है, सिर तक न उठाया। अन्त में छोटा भी वहीं गिर पड़ा। दोनों को लोगों ने उठाकर अस्पताल भेजा। उसी रात को दोनों सिधार गए। तुम्हारे चरन छूकर कहता हूं भैया, उस बखत ऐसा जान पड़ता था कि मेरी छाती गज-मर की हो गई है, पांव जमीन पर ने पड़ते थे, यही उमंग आती थी कि भगवान ने औरों को पहले न उठा लिया होता, तो इस समय उन्हें भी भेज देता। जब अर्थी चली है, तो एक साख आदमी साथ थे। बेटों को गंगा में सौंपकर मैं सीधे बजाजे पहुंचा और उसी जगह खड़ा हुआ; जहां दोनों बीरों की लहास गिरी थी। गाहक के नाम चिड़िए का पूत तक न दिखाई दिया। आठ दिन वहां से हिला तक नहीं। बस भोर के समय आध घंटे के लिए घर आता था और नहा-धोकर कुछ जलपान करके चला जाता था। नर्वे दिन दुकानदारों ने कसम खाई कि बिलायती कपड़े अब ने मंगायेंगे। तब पहरे
उठा लिए गए। तब से बिदेसी दियासलाई तक घर में नहीं लाया।

रमा ने सच्चे दिल से कहा-दादा, तुम सच्चे वीर हो, और वे दोनों लड़के भी सच्चे योद्धा थे। तुम्हारे दर्शनों से आंखें पवित्र होती हैं।

देवीदीन ने इस भाव से देखा मानो इस बड़ाई को वह बिल्कुल अतिशयोक्ति नहीं समझता। शहीदों की शान से बोला-इन बड़े-बड़े आदमियों के किए कुछ न होगा। इन्हें बस रोना आता है, छोकरियों की भांति बिसूरने के सिवा इनसे और कुछ नहीं हो सकता। बड़े-बड़े देस-भगतों को बिना बिलायती सराब के चैन नहीं आता। उनके घर में जाकर देखो, तो एक भी देसी चीज न मिलेगी। दिखाने को दस-बीस कुरते गाढे के बनवा लिए, घर का और सब सामान बिलायती है। सब-के-सब भोग-बिलास में अंधे हो रहे हैं, छोटे भी और बड़े भी। उस पर दावा यह है कि देस का उद्धार करेंगे। अरे तुम क्या देस का उद्धार करोगे। पहले अपना उद्धार तो कर लो। गरीबों को लूटकर बिलायत का घर भरना तुम्हारा काम है। इसीलिए तुम्हारा इस देस में जनम हुआ है। हां, रोए जाव, बिलायती सराबें उड़ाओ, बिलायती मोटरें दौड़ाओ, बिलायती मुरब्बे और अचार चक्खो, बिलायती बरतनों में खाओ, बिलायती दवाइयां पियो, पर देस के नाम को रोये जाव। मुदा इस रोने से कुछ न होगा। रोने से मां दूध पिलाती है, सेर अपना सिकार नहीं छोड़ती। रोओ उसके सामने, जिसमें दया और धरम हो। तुम धमकाकर ही क्या कर लोगे? जिस धमकी में कुछ दम नहीं है, उस धमकी की परवाह कौन करता है। एक बार यहां एक बड़ा भारी जलसा हुआ। एक साहब बहादुर खड़े होकर खूब उछले-कूदे, जब वह नीचे आए, तब मैंने उनसे पूछा-साहब, सच बताओ, जब तुम सुराज का नाम लेते हो, तो उसका कौन-सा रूप तुम्हारी आंखों के सामने आता है। तुम भी बड़ी-बड़ी तलब लोगे; तुम भी अंगरेजों की तरह बंगलों में रहोगे, पहाड़ों की हवा खाओगे, अंगरेजी ठाठ बराए घूमोगे, इस सुराज से देस का क्या कल्यान होगा। तुम्हारी और तुम्हारे भाई-बंदों की जिंदगी भले आराम और ठाठ से गुजरे; परदेस का तो कोई भला न होगा। बस, बगलें झांकने लगे। तुम दिन में पांच बेर खाना चाहते हो, और वह भी बढ़िया माल; गरीब किसान को एक जून सूखा चबेना भी नहीं मिलता। उसी का रक्त धसकर तो सरकार तम्हें हई देती है। तुम्हारा ध्यान कभी उनकी ओर जाता है। अभी तुम्हारा राज नहीं है, तब तो तुम भोग-बिलास पर इतना मरते हो, जब तुम्हारा राज हो जायगातब तो तुम गरीबों को पीसकर पी जाओगे।

रमा भद्र-समाज पर यह आक्षेप न सुन सका। आखिर वह भी तो भद्र-समाज का हो एक अंग था। बोला-यह बात तो नहीं है दादा, कि पढ़े-लिखे लोग किसानों का ध्यान नहीं करते। उनमें से कितने ही खुद किसान थे, या हैं। उन्हें अगर विश्वास हो जाय कि हमारे कष्ट उठाने से किसानों का कोई उपकार होगा और जो बचत होगी, वह किसानों के लिए खर्च की जायगी, तो वह खुशी से कम वेतन पर काम करेंगे, लेकिन जब वह देखते हैं कि बचत दूसरे हड़प जाते हैं, तो वह सोचते हैं, अगर दूसरों को ही खाना है, तो हम क्यों न खाएं।

देवीदीन-तो सुराज मिलने पर दस-दस, पांच-पांच हजार के अफसर नहीं रहेंगे? वकीलों की लूट नहीं रहेगी? पुलिस की लूट बंद हो जाएगी?

एक क्षण के लिए रमा सिटपिटा गया। इस विषय में उसने खुद कभी विचार न किया था; मगर तुरंत ही उसे जवाब सूझे गया। बोला-दादा, तब तो सभी काम बहुमत से होगा। अगर बहुमत कहेगा कि कर्मचारियों के वेतन घटा दिए जाएं; तो घट जाएंगे। देहातों के संगठनों के
लिए भी बहुमत जितने रुपये मांगेगा, मिल जाएंगे। कुंजी बहुमत के हाथ में रहेगी, और अभी दस-पांच बरस चाहे न हो लेकिन आगे चलकर बहुमत किसानों और मजूरों ही का हो जाएगा।

देवीदीन ने मुस्कराकर कहा–भैया, तुम भी इन बातों को समझते हो। यही मैंने भी सोचा था। भगवान करें, कुछ दिन और जिऊं। मेरा पहला सवाल यह होगा कि बिलायती चीजों पर दुगुना महसूल लगया जाय और मोटरों पर चौगुन्ना। अच्छा अब भोजन बनाओ। सांझ को चलकर कपड़े दरजी को दे देंगे। मैं भी जब तक खा लें।

शाम को देवीदीन ने आकर कहा- चलो भैया, अब तो अंधेरा हो गया।

रमा सिर पर हाथ धरे बैठा हुआ था। मुख पर उदासी छाई हुई थी। बोला-दादा, मैं घर न जाऊंगा।

देवीदीन ने चकित होकर पूछा-क्यों क्या बात हुई?

रमा की आंखें सजल हो गईं। बोला—कौन-सा मुंह लेकर जाऊं, दादा ! मुझे तो डूब मरना चाहिए था।

यह कहते-कहते वह खुलकर रो पड़ा। वह वेदना जो अब तक मूर्छित पड़ी थी, शीतल जल के यह छींटे पाकर सचेत हो गई और उसके क्रंदन ने रमा के सारे अस्तित्व को जैसे छेद डाला। इसी क्रंदन के भय से वह उसे छेड़ता न था, उसे सचेत करने की चेष्टा न करता था। संयत विस्मृति से उसे अचेत ही रखना चाहता था, मानो कोई दु:खिनी माता अपने बालक को इसलिए जगाते डरती हो कि वह तुरंत खाने को मांगने लगेगा।

सत्ताईस

कई दिनों के बाद एक दिन कोई आठ बजे रमा पुस्तकालय से लौट रहा था कि मार्ग में उसे कई युवक शतरंज के किसी नक्शे की बातचीत करते मिले। यह नक्शा वहां के एक हिंदी दैनिक पत्र में छपा था और उसे हल करने वाले को पचास रुपये इनाम देने का वचन दिया गया था। नक्शा असाध्य-सा जान पड़ता था। कम-से-कम इन युवकों की बातचीत से ऐसा ही टपकता था। यह भी मालूम हुआ कि वहां के और भी कितने ही शतरंजबाजों ने उसे हल करने के लिए भरपूर जोर लगाया; पर कुछ पेश न गई। अब रमा को याद आया कि पुस्तकालय में एक पत्र पर बहुत- से आदमी झुके हुए थे और उस नक्शे की नकल कर रहे थे। जो आता था, दो-चार मिनट तक वह पत्र देख लेता था। अब मालूम हुआ, यह बात थी।

रमा को इनमें से किसी से भी परिचय न था; पर वह यह नक्शा देखने के लिए इतना उत्सुक हो रहा था कि उससे बिना पूछे न रहा गया। बोला-आप लोगों में किसी के पास यह नक्शा है?

युवकों ने एक कंबलपोश आदमी को नक्शे की बात पूछते सुना तो समझे कोई अताई होगा। एक ने रुखाई से कहा- हां, है तो, मगर तुम देखकर क्या करोगे, यहां अच्छे-अच्छे गोते खा रहे हैं। एक महाशय, जो शतरंज में अपना सानी नहीं रखते, उसे हल करने के लिए सौ रुपये अपने पास से देने को तैयार है।