प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/अड़तालीस

प्रेमचंद रचनावली ५
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती-प्रेस, पृष्ठ २०७ से – २१८ तक

 


रमा ने कड़ककर कहा-जी हां, मैंने पट्टा लिखा लिया है।

दारोगा--तो आपका पट्टा खारिज !

रमानाथ-मैं कहता हूं, यहां से चले जाइए।

दारोगा—अच्छा ! अब तो मेंढकी को भी जुकाम पैदा हुआ ! क्यों न हो । चलो जोहरा, इन्हें यहां बकने दो।

यह कहते हुए उन्होंने जोहरा का हाथ पकड़कर उठाया।

रमा ने उनके हाथ को झटका देकर कहा-मैं कह चुका, आप यहां से चले जाएं। जोहरा इस वक्त नहीं जा सकती। अगर वह गई, तो मैं उसकी और आपका-दोनों का खून पी जाऊंगा। जोहरा मेरी है, और जब तक मैं हूँ, कोई उसकी तरफ आंख नहीं उठा सकता।

यह कहते हुए उसने दारोगा साहब का हाथ पकड़कर दरवाजे के बाहर निकाल दिया और दरवाजा जोर से बंद करके सिटकनी लगा दी। दारोगाजी बलिष्ठ आदमी थे, लेकिन इस वक्त नशे ने उन्हें दुर्बल बना दिया था । बाहर बरामदे में खड़े होकर वह गालियां बकने और द्वार पर ठोकर मारने लगे।

रमा ने कहा-कहो तो जाकर बचा को बरामदे के नीचे ढकेल दें। शैतान का बच्चा ।

जोहरा–बकने दो, आप ही चला जायगा।

रमानाथ–चला गया।

जोहरा ने मगन होकर कहा-तुमने बहुत अच्छा किया, सुअर को निकाल बाहर किया। मुझे ले जाकर दिक करता। क्या तुम सचमुच उसे मारते?

रमानाथ-मैं उसकी जान लेकर छोड़ता। मैं उस वक्त अपने आपे में न था। न जाने मुझमें उस वक्त कहां से इतनी ताकत आ गई थी।

जोहरा-और जो वह कल से मुझे न आने दे तो?

रमानाथ-कौन, अगर इस बीच में उसने जरा भी भांजी मारी, तो गोली मार दूंगा । वह देखो, ताक परे पिस्तौल रक्खा हुआ है। तुम अब मेरी हो, जोहरा । मैंने अपना सब कुछ तुम्हारे कदमों पर निसार कर दिया और तुम्हारा सब कुछ पाकर ही मैं संतुष्ट हो सकता हूं। तुम मेरी हो, मैं तुम्हारा हूं। किसी तीसरी औरत या मर्द को हमारे बीच में आने का मजाज नहीं है जब तक मैं मर न जाऊं।

जोहरा की आंखें चमक रही थीं । उसने रमा की गरदन में हाथ डालकर कहा-ऐसी बात मुंह से न निकालो, प्यारे !

अड़तालीस

सारे दिन रमा उद्वेग के जंगलों में भटकता रहा। कभी निराशा की अंधकारमय घाटियां सामने आ जातीं, कभी आशा की लहराती हुई हरियाली । जोहरा गई भी होगी ? यहां से तो बड़े लंबे-चौड़े वादे करके गई थी। उसे क्या गरज है? आकर कह देगी, मुलाकात ही नहीं हुई। कहीं

धोखा तो न देगी? जाकर डिप्टी साहब से सारी कथा कह सुनाए। बेचारी जालपा पर बैठे-बिठाए आफत आ जाय। क्या जोहरा इतनी नीच प्रकृति की हो सकती है? कभी नहीं, अगर जोहरा इतनी बेवफा, इतनी दगाबाज है, तो यह दुनिया रहने के लायक ही नहीं। जितनी जल्द आदमी मुंह में कालिख लगाकर डूब मरे, उतना ही अच्छा। नहीं, जोहरा मुझसे दगा न करेगी।

उसे वह दिन याद आए, जब उसके दफ्तर से आते ही जालपा लपककर उसकी जेब टटोलती थी और रुपये निकाल लेती थी। वही जालपा आज इतनी सत्यवादिनी हो गई । तब वह प्यार करने की वस्तु थी, अब वह उपासना की वस्तु है। जालपा ! मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूं। जिस ऊंचाई पर तुम मुझे ले जाना चाहती हो, वहां तक पहुंचने की शक्ति मुझमें नहीं है। यहां पहुंचकर शायद चक्कर खाकर गिर पडूं। मैं अब भी तुम्हारे चरणों में सिर झुकाता हूं। मैं जानता हूं, तुमने मुझे अपने हृदय से निकाल दिया है, तुम मुझसे विरक्त हो गई हो, तुम्हें अब मेरे डूबने का दुःख है न तैरने की खुशी; पर शायद अब भी मेरे मरने या किसी घोर संकट में फंस जाने की खबर पाकर तुम्हारी आंखों से आंसू निकल आएंगे। शायद तुम मेरी लाश देखने आओ। हा! प्राण ही क्यों नहीं निकल जाते कि तुम्हारी निगाह में इतना नीच तो न रहूँ।

रमा को अब अपनी उस गलती पर घोर पश्चात्ताप हो रहा था, जो उसने जालपा की बात न मानकर की थी। अगर उसने उसके आदेशानुसार जज के इजलास में अपना बयान बदल दिया होता, धमकियों में न आता, हिम्मत मजबूत रखता, तो उसकी यह दशा क्यों होती? उसे विश्वास था, जालपा के साथ वह सारी कठिनाइयां झेल जाता। उसकी श्रद्ध्य और प्रेम का कवच पहनकर वह अजेय हो जाता। अगर उसे फांसी भी हो जाती, तो वह हंसते-खेलते उस पर चढ़ जाता।

मगर पहले उससे चाहे जो भूल हुई, इस वक्त तो वह भूल से नहीं, जालपा की खातिर ही यह कष्ट भोग रहा था। कैद जब भोगना ही है, तो उसे रो-रोकर भोगने से तो यह कहीं अच्छा है कि हंस-हंसकर भोगा जाय। आखिर पुलिस-अधिकारियों के दिल में अपना विश्वास जमाने के लिए वह और क्या करता ! यह दुष्ट जालपा को सताते, उसका अपमान करते, उस पर झूठे मुकदमे चलाकर उसे सजा दिलाते। वह दशा तो और भी असह्य होती। वह दुर्बल था, सब अपमान सह सकता था, जालपा तो शायद् प्राण ही दे देती।

उसे आज ज्ञात हुआ कि वह जालपा को छोड़ नहीं सकता, और जोहरा को त्याग देना भी उसके लिए असंभव-सा जान पड़ता था। क्या वह दोनों रमणियों को प्रसन्न रख सकता था? क्या इस दशा में जालपा उसके साथ रहना स्वीकार करेगी? कभी नहीं। वह शायद उसे कभी क्षमा न करेगी। अगर उसे यह मालूम भी हो जाये कि उसी के लिए वह यह यातना भोग रहा है, तो वह उसे क्षमा न करेगी। वह कहेगी, मेरे लिए तुमने अपनी आत्मा को क्यों कलंकित किया? मैं अपनी रक्षा आप कर सकती थी।

वह दिन-भर इसी उधेड़-बुन में पड़ा रहा। आंखें सड़क की ओर लगी हुई थीं। नहाने का समय टल गया, भोजन का समय टल गया । किसी बात की परवा न थी। अखबार से दिल बहलाना चाहा, उपन्यास लेकर बैठा; मगर किसी काम में भी चित्त न लगा। आज दारोगाजी भी

नहीं आए। या तो रात की घटना से रुष्ट या लज्जित थे। या कहीं बाहर चले गए। रमा ने किसी से इस विषय में कुछ पूछा भी नहीं।

सभी दुर्बल मनुष्यों की भांति रमा भी अपने पतन से लज्जित था। वह जब एकांत में बैठता, तो उसे अपनी दशा पर दुःख होता—क्यों उसकी विलासवृत्ति इतनी प्रबल है? यह इतना विवेक-शून्य न था कि अधोगति में भी प्रसन्न रहता; लेकिन ज्योहीं और लोग आ जाते, शराब की बोतल आ जाती, जोहरा सामने आकर बैठ जाती, उसका सारा विवेक और धर्म-ज्ञान भ्रष्ट हो जाता।

रात के दस बज गए; पर जोहरा का कहीं पता नहीं। फाटक बंद हो गया। रमा को अब उसके आने की आशा न रही ; लेकिन फिर भी उसके कान लगे हुए थे। क्या बात हुई? क्या जालपा उसे मिली ही नहीं या वह गई ही नहीं? उसने इरादा किया अगर कल जोहरा न आई, तो उसके घर पर किसी को भेजेंगे। उसे दो-एक झपकियां आईं और सबेरा हो गया। फिर वहीं विकलता शुरू हुई। किसी को उसके घर भेजकर बुलवाना चाहिए। कम-से-कम यह तो मालूम हो जाय कि वह घर पर है या नहीं।

दारोगा के पास जाकर बोला-रात तो आप आपे में न थे।

दारोगा ने ईर्ष्या को छिपाते हुए कहा-यह बात न थी। मैं महज आपको छेड़ रहा था।

रमानाथ--जोहरा रात आई नहीं । जरा किसी को भेजकर पता तो लगवाइए, बात क्या है। कहीं नाराज तो नहीं हो गई?

दारोगा ने बेदिली से कहा-उसे गरज होगा खुद आएगी। किसी को भेजने की जरूरत नहीं है।

रमा ने फिर आग्रह न किया। समझ गया, यह हज़रत रात बिगड़ गए। चुपके से चला आया। अब किससे कहे? सबसे यह बात कहना लज्जास्पद मालूम होता था। लोग समझेंगे, यह महाशय एक ही रसिया निकले। दारोगा से तो थोड़ी-सी घनिष्ठता हो गई थी।

एक हफ्ते तक उसे जोहरा के दर्शन न हुए। अब उसके आने की कोई आशा न थी। रमा ने सोचा, आखिर बेवफा निकली। उससे कुछ आशा करना मेरी भूल थी। या मुमकिन है, पुलिस अधिकारियों ने उसके आने की मनाही कर दी हो। कम-से-कम मुझे एक पत्र तो लिख सकती थी। मुझे कितना धोखा हुआ। व्यर्थ उससे अपने दिल की बात कही। कहीं इन लोगों से न कह दे, तो उल्टी आंतें गले पड़ जायं; मगर जोहरा बेवफाई नहीं कर सकती। रमा की अंतरात्मा इसकी गवाही देती थी । इस बात को किसी तरह स्वीकार न करती थी। शुरु के दस-पांच दिन तो जरूर जोहरा ने उसे लुब्ध करने की चेष्टा की थी। फिर अनायास ही उसके व्यवहार में परिवर्तन होने लगा था। वह क्यों बार-बार सजल-नेत्र होकर कहती थी, देखो बाबूजी, मुझे भूल न जाना। उसकी वह हसरत भरी बात याद आ-आकर कपट की शंका को दिल से निकाल देतीं। जरूर कोई न कोई नई बात हो गई है। वह अक्सर एकांत में बैठकर जोहरा की याद करके बच्चों की तरह रोता। शराब से उसे घृणा हो गई। दारोगाजी आते, इंस्पेक्टर साहब आते पर, रमा को उनके साथ दस-पांच मिनट बैठना भी अखरता। वह चाहता था, मुझे कोई न छेड़े, कोई न बोले। रसोइया खाने को बुलाने आता, तो उसे घुड़क देता। कहीं घूमने या सैर करने

की उसकी इच्छा ही न होती। यहां कोई उसका हमदर्द न था, कोई उसका मित्र न था, एकांत में मन-मारे बैठे रहने में ही उसके चित्त को शांति होती थी। उसकी स्मृतियों में भी अब कोई आनंद न था। नहीं, वह स्मृतियां भी मानो उसके हृदय से मिट गईं थीं। एक प्रकार का विराग उसके दिल पर छाया रहता था।

सातवां दिन था। आठ बज गए थे। आज एक बहुत अच्छा फिल्म होने वाला था। एक प्रेम-कथा थी। दारोगाजी ने आकर रमा से कहा, तो वह चलने को तैयार हो गया। कपड़े पहन रहा था कि जोहरा आ पहुंची। रमा ने उसकी तरफ एक बार आंख उठाकर देखा, फिर आईने में अपने बाल संवारने लगा। न कुछ बोला, न कुछ कहा। हां, जोहरा का वह सादा, आभरणहीन स्वरूप देखकर उसे कुछ आश्च़र्य अवश्य हुआ। यह केवल एक सफेद साड़ी पहने हुए थी। आभूषण की एक तार भी उसकी देह पर न था। होंठ मुरझाए हुए और चेहरे पर क्रीडामय चंचलता की जगह तेजमय गंभीरता झलक रही थी। वह एक मिनट खड़ी रही, तब रमा के पास जाकर बोली-क्या मुझसे नाराज हो? बेकसूर, बिना कुछ पूछे-गछे?

रमा ने फिर भी कुछ जवाब न दिया। जूते पहनने लगा। जोहरा ने उसका हाथ पकड़कर कहा-क्या यह खफगी इसलिए है कि मैं इतने दिनों आई क्यों नहीं ।

रमा ने रूग्वाई से जवाब दिया-अगर तुम अब भी न आतीं, तो मेरा क्या अख्तियार था।

तुम्हारी दया थी कि चली आई।

यह कहने के साथ उसे खयाल आया कि मैं इसके साथ अन्याय कर रहा हूँ। लज्जित नेत्रों से उसकी ओर ताकने लगा।

जोहरा ने मुस्कराकर कहा-यह अच्छी दिल्लगी है। आपने ही तो एक काम सौंपा और जब वह काम करके लौटी तो आप बिगड़ रहे हैं। क्या तुमने वह काम इतना आसान समझा था कि चुटकी बजाने में पूरा हो जाएगा। तुमने मुझे उस देवी से वरदान लेने भेजा था, जो ऊपर से फूल है, पर भीतर से पत्थर, जो इतनी नाजुक होकर भी इतनी मजबूत है। रमा ने बेदिली से पूछा-है कहां? क्या करती है? जोहरा–उसी दिनेश के घर हैं, जिसको फांसी की सजा हो गई है। उसके दो बच्चे हैं, औरत है और मां है। दिन-भर उन्हीं बच्चों को खिलाती है, बुढ़िया के लिए नदी से पानी लाती है। घर का सारा काम-काज करती है और उनके लिए बड़े-बड़े आदमियों से चंदा मांग लाती है। दिनेश के घर में न कोई जायदाद थी, न रुपये थे। लोग बड़ी तकलीफ में थे। कोई मददगार तक न था, जो जाकर उन्हें ढाढस तो देता। जितने साथी-सोहबती थे, सब-के-सब मुंह छिपा बैठे। दो-तीन फाके तक हो चुके थे। जालपा ने जाकर उनको जिला लिया।

रमा की सारी बेदिली काफूर हो गई। जूता छोड़ दिया और कुर्सी पर बैठकर बोले-तुम खड़ी क्यों हो, शुरू से बताओ, तुमने तो बीच में से कहना शुरू किया। एक बात भी मत छोड़ना। तुम पहले उसके पास कैसे पहुंची? पता कैसे लगा?

जोहरा–कुछ नहीं, पहले उसी देवीदीन खटिक के पास गई। उसने दिनेश के घर का पता बता दिया। चटपट जा पहुंची।

रमानाथ-तुमने जाकर उसे पुकारा? तुम्हें देखकर कुछ चौंकी नहीं? कुछ झिझकी तो जरूर होगी!

जोहरा मुस्कराकर बोली- मैं इस रूप में न थी। देवीदीन के घर से मैं अपने घर गई और ब्रह्म-समाजी लेडी का स्वांग भरा। न जाने मुझमें ऐसी कौन-सी बात है, जिससे दूसरों को फौरन पता चल जाता है कि मैं कौन हूं, या क्या हूं। और ब्रह्मो लेड़ियों को देखती हूं, कोई उनकी तरफ आंखें तक नहीं उठाता। मेरा पहनावा-ओढावा वही है, मैं भड़कीले कपड़े या फिजूल के गहने बिल्कुल नहीं पहनती। फिर भी सब मेरी तरफ आंखें फाड़-फाड़कर देखते हैं। मेरी असलियत नहीं छिपती। यही खौफ मुझे था कि कहीं जालपा भांप न जाय; लेकिन मैंने दांत खूब साफ कर लिए थे। पान का निशान तक न था। मालूम होता था किसी कॉलेज की लेडी टीचर होगी। इस शक्ल में मैं वहां पहुंची। ऐसी सूरत बना ली कि वह क्या, कोई भी न भांप सकता था। परदा ढंका रह गया। मैंने दिनेश की मां से कहा-मैं यहां यूनिवर्सिटी में पढ़ती हूं।  अपना घर मुंगेर बतलाया। बच्चों के लिए मिठाई ले गई थी। हमदर्द का पार्ट खेलने गई थी, और मेरा खयाल है कि मैंने खूब खेला। दोनों औरतें बेचारी रोने लगी। मैं भी जब्त न कर सकी। उनसे कभी-कभी मिलते रहने का वादा किया। जालपा इसी बीच में गंगाजल लिए पहुंची। मैंने दिनेश की मां से बंगला में पूछा-क्या यह कहारिन है? उसने कहा, नहीं, यह भी तुम्हारी ही तरह हम लोगों के दुःख में शरीक होने को आई है। यहां इनका शौहर किसी दफ्तर में नौकर है। और तो कुछ नहीं मालूम। रोज सबेरे आ जाती हैं और बच्चों को खेलाने ले जाती हैं। मैं अपने हाथ से गंगाजल लाया करती थी। मुझे रोक दिया और खुद लाती हैं। हमें तो इन्होंने जीवन-दान दिया। कोई आगे-पीछे न था। बच्चे दाने-दाने को तरसते थे। जब से यह आ गई हैं, हमें कोई कष्ट नहीं है। न जाने किस शुभ कर्म का यह वरदान हमें मिला है।

उस घर के सामने ही एक छोटा-सा पार्क है। मोहल्ले भर के बच्चे वहीं खेला करते हैं।

शाम हो गई थी, जालपा देवी ने दोनों बच्चों को साथ लिया और पार्क की तरफ चलीं। मैं जो मिठाई ले गई थी, उसमें से बूढी ने एक-एक मिठाई दोनों बच्चों को दी थी। दोनों कूद-कूदकर नाचने लगे। बच्चों की इस खुशी पर मुझे रोना आ गया। दोनों मिठाइयां पाते हुए जालपा के साथ हो लिए। जब पार्क में दोनों बच्चे खेलने लगे, तब जालपा से मेरी बातें होने लगीं।

रमा ने कुर्सी और करीब खींच ली, और आगे को झुक गया। बोला-तुमने किस तरह बातचीत शुरू की।

जोहरा-कह तो रही हूं। मैंने पूछा-जालपा देवी, तुम कहां रहती हो? घर की दोनों औरतों से तुम्हारी बड़ाई सुनकर तुम्हारे ऊपर आशिक हो गई हूं।

रमानाथ–यही लफ्ज़ कहा था तुमने?

जोहरा–हां, जरा मजाक करने की सूझी। मेरी तरफ ताज्जुब से देखकर बोली-तुम तो बंगालिन नहीं मालूम होतीं। इतनी साफ हिंदी कोई बंगालिन नहीं बोलती। मैंने कहा-मैं मुंगेर की रहने वाली हूं और वहां मुसलमानी औरतों के साथ बहुत मिलती-जुलती रही हूं। आपसे कभी-कभी मिलने का जी चाहता है। आप कहां रहती हैं। कभी-कभी दो घड़ी के लिए चली आऊंगी। आपके साथ घड़ी भर बैठकर मैं भी आदमीयत सीख जाऊंगी।
जालपा ने शरमाकर कहा—तुम तो मुझे बनाने लगीं । कहां तुम कॉलेज की पढ़ाने वाली,कहां मैं अपढ़ गंवार औरत। तुमसे मिलकर मैं अलबत्ता आदमी बन जाऊंगी। जब जी चाहे, यहीं चले आना। यही मेरा घर समझो।

मैंने कहा-तुम्हारे स्वामीजी ने तुम्हें इतनी आजादी दे रक्खी है। बड़े अच्छे खयालों के आदमी होंगे। किस दफ्तर में नौकर है?

जालपा ने अपने नाखूनों को देखते हुए कहा-पुलिस में उम्मेदवार हैं।

मैंने ताज्जुब से पूछा-पुलिस के आदमी होकर वह तुम्हें यहां आने की आजादी देते हैं?

जालपा इस प्रश्न के लिए तैयार न मालूम होती थी। कुछ चौंककर बोली-वह मुझसे कुछ नहीं कहते,मैंने उनसे यहां आने की बात नहीं कही वह घर बहुत कम आते हैं। वहीं पुलिस वालों के साथ रहते हैं।

उन्होंने एक साथ तीन जवाब दिए। फिर भी उन्हें शक हो रहा था कि इनमें से कोई जवाब इत्मीनान के लायक नहीं है। वह कुछ खिसियानी-सी होकर दूसरी तरफ ताकने लगी।

मैंने पूछा-तुम अपने स्वामी से कहकर किसी तरह मेरी मुलाकात उस मुखबिर से करा सकती हो, जिसने इन कैदियों के खिलाफ गवाही दी है?

रमानाथ की आंखें फैल गई और छाती धक्-धक् करने लगी।

जोहरा बोली- यह सुनकर जालपा ने मुझे चुभती हुई आंखों से देखकर पूछा- तुम उनसे मिलकर क्या करोगी?

मैंने कहा-तुम मुलाकात करा सकती हो या नहीं, मैं उनसे यही पूछना चाहती हूं कि तुमने इतने आदमियों को फंसाकर क्या पाया? देखूंगी वह क्या जवाब देते हैं?

जालपा का चेहरा सख्त पड़ गया। बोली-वह यह कह सकता है, मैंने अपने फायदे के लिए किया | सभी आदमी अपना फायदा सोचते हैं। मैंने भी सोचा। जब पुलिस के सैकड़ों आदमियों से कोई यह प्रश्न नहीं करता, तो उससे यह प्रश्न क्यों किया जाय? इससे कोई फायदा नहीं।

मैंने कहा-अच्छा,मान लो तुम्हारा पति ऐसी मुखबिरी करता,तो तुम क्या करतीं?

जालपा ने मेरी तरफ सहमी हुई आंखों से देखकर कहा—तुम मुझसे यह सवाल क्यों करती हो, तुम खुद अपने दिल में इसका जवाब क्यों नहीं ढूंढतीं?

मैंने कहा-मैं तो उनसे कभी न बोलती, न कभी उनकी सूरत देखती।

जालपा ने गंभीर चिंता के भाव से कहा- शायद मैं भी ऐसा ही समझती-या न समझती-कुछ कह नहीं सकती। आखिर पुलिस के अफसरों के घर में भी तो औरतें हैं, वे क्यों नहीं अपने आदमियों को कुछ कहतीं? जिस तरह उनके हृदय अपने मरदों के-से हो गए हैं,संभव है, मेरा हृदय भी वैसा ही हो जाता।

इतने में अंधेरा हो गया। जालपादेवी ने कहा-मुझे देर हो रही है। बच्चे साथ हैं। कल हो सके तो फिर मिलिएगा। आपकी बातों में बड़ा आनंद आता है।

मैं चलने लगी,तो उन्होंने चलते-चलते मुझसे कहा-जरूर आइएगा। वहीं मैं मिलूंगी। आपका इंतजार करती रहूंगी।

लेकिन दस ही कदम के बाद फिर रुककर बोलीं-मैंने आपका नाम तो पूछा ही नहीं। अभी तुमसे बातें करने से जी नहीं भरा। देर न हो रही हो तो आओ; कुछ देर गपशप करें।

मैं तो यह चाहती ही थी। अपना नाम जोहरा बतला दिया।

रमा ने पूछा-सच।

जोहरा-हां, हरज क्या था। पहले तो जालपा भी जरा चौंकी, पर कोई बात न थी। समझ गई, बंगाली मुसलमान होगी। हम दोनों उसके घर गईं। उस जरा-से कठघरे में न जाने वह कैसे बैठती हैं। एक तिल भी जगह नहीं। कहीं मटके हैं, कहीं पानी, कहीं खाट, कहीं बिछावन। सौल और बदबू से नाक फटी जाती थी। खाना तैयार हो गया था। दिनेश की बहू बरतन धो रही थी जालपा ने उसे उठा दिया-जाकर बच्चों को खिलाकर सुला दो, मैं बरतन धोए देती हूं। और खुद बरतन मांजने लगीं। उनकी यह खिदमत देखकर मेरे दिल पर इतना असर हुआ कि मैं भी वहीं बैठ गई और मांजे हुए बरतनों को धोने लगी। जालपा ने मुझे वहां से हट जाने के लिए कहा; पर मैं न हटी। बराबर बरतन धोती रही। जालपा ने तब पानी का मटका अलग हटाकर कहा-मैं पानी न दूंगी,तुम उठ जाओ, मुझे बड़ी शर्म आती है,तुम्हें मेरी कसम,हट जाओ,यहां आना तो तुम्हारी सजा हो गई,तुमने ऐसा काम अपनी जिंदगी में क्यों किया होगा |मैंने कहा-तुमने भी तो कभी नहीं किया होगा,जब तुम करती हो,तो मेरे लिए क्या हरज है।

जालपा ने कहा-मेरी और बात है।

मैंने पूछा-क्यों? जो बात तुम्हारे लिए है, वही मेरे लिए भी है। कोई महरी क्यों नहीं रख लेती हो?

जालपा ने कहा-महरियां आठ-आठ रुपये मांगती हैं।

मैं बोली- मैं आठ रुपये महीना दे दिया करूंगी।

जालपा ने ऐसी निगाहों से मेरी तरफ देखा, जिसमें सच्चे प्रेम के साथ सच्चा उल्लास,सच्चा आशीर्वाद भरा हुआ था। वह चितवन । आह!कितनी पाकीजा थी,कितनी पाक करने वाली।उनकी इस बेगरज खिदमत के सामने मुझे अपनी जिंदगी कितनी जलन, कितनी काबिले नफरत मालूम हो रही थी। उन बरतनों के धोने में मुझे जो आनंद मिला, उसे मैं बयान नहीं कर सकती।

बरतन धोकर उठीं, तो बुढ़िया के पांव दबाने बैठ गईं। मैं चुपचाप खड़ी थी। मुझसे बोलीं- तुम्हें देर हो रही हो तो जाओ, कल फिर आना।

मैंने कहा-नहीं, मैं तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचाकर उधर ही से निकल जाऊंगी।

गरज नौ बजे के बाद वह वहां से चलीं। रास्ते में मैंने कहा-जालपा, तुम सचमुच देवी हो।

जालपा ने छूटते ही कहा-जोहरा,ऐसा मत कहो। मैं खिदमत नहीं कर रही हूं,अपने पापों का प्रायश्चित कर रही हूं। मैं बहुत दु:खी हूं। मुझसे बड़ी अभागिनी संसार में न होगी।

मैंने अनजान बनकर कहा-इसका मतलब मैं नहीं समझी।

जालपा ने सामने ताकते हुए कहा—कभी समझ जाओगी। मेरा प्रायश्चित इस जन्म में न पूरा होगा। इसके लिए मुझे कई जन्म लेने पड़ेंगे।

मैंने कहा--तुम तो मुझे चक्कर में डाले देती हो, बहन ! मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। जब तक तुम इसे समझा न दोगी, मैं तुम्हारा गला ने छोडूंगी।

जालपा ने एक लंबी सांस लेकर कहा-जोहरा, किसी बात को खुद छिपाए रहना इससे ज्यादा आसान है कि दूसरों पर वह बोझ रखें।

मैंने आर्त कंठ से कहा-हां, पहली मुलाकात में अगर आपको मुझ पर इतना एतबार न हो, तो मैं आपको इल्जाम न दूंगी; मगर कभी न कभी आपको मुझ पर एतबार करना पड़ेगा। मैं आपको छोडूगी नहीं।

कुछ दूर तक हम दोनों चुपचाप चलती रहीं। एकाएक जालपा ने कांपती हुई आवाज में कहा-जोहरा, अगर इस वक्त तुम्हें मालूम हो जाय कि मैं कौन हूं, तो शायद तुम नफरत से मुंह फेर लोगी और मेरे साए से भी दूर भागोगी।

इन लफ्जों में न मालूम क्या जादू था कि मेरे सारे रोएं खड़े हो गए। यह एक रंज और शर्म से भरे हुए दिल की आवाज़ थी और इसने मेरी स्याह जिंदगी की सूरत मेरे सामने खड़ी कर दी। मेरी आंखों में आंसू भर आए। ऐसा जी में आया कि अपना सारा स्वांग खोल दें। न जाने उनके सामने मेरा दिल क्यों ऐसा हो गया था। मैंने बड़े-बड़े काइए और छूटे हुए शोहदों और पुलिस अफसरों को चपर-गटू बनाया है; पर उनके सामने मैं जैसे भीगी बिल्ली बनी हुई थी। फिर मैंने जाने कैसे अपने को संभाल लिया।

मैं बोली तो मेरा गला भी भरा हुआ था—यह तुम्हारा खयाल गलत है देवी ! शायद तब मैं तुम्हारे पैरों पर गिर पड़ूँगी। अपनी या अपनों की बुराइयों पर शर्मिंदा होना सच्चे दिलों को काम है।

जालपा ने कहा–लेकिन तुम मेरा हाल जानकर करोगी क्या। बस, इतना ही समझ लो कि एक गरीब अभागिन औरत हैं, जिसे अपने ही जैसे अभागे और गरीब आदमियों के साथ मिलने-जुलने में आनंद आता है।

'इसी तरह वह बार-बार टालती रही, लेकिन मैंने पीछा न छोड़ा। आखिर उसके मुंह से बात निकाल ही ली।'

रमा ने कहा—यह नहीं, सब कुछ कहना पड़ेगा।

जोहरा-अब आधी रात तक की कथा कहां तक सुनाऊ। घंटों लग जाएंगे। जब मैं बहुत पीछे पड़ी, तो उन्होंने आखिर में कहा-मैं उसी मुखबिर की बदनसीब औरत हूं, जिसने इन कैदियों पर यह आफत ढाई है। यह कहते-कहते वह रो पड़ीं। फिर जरा आवाज को संभालकर बोलीं-हम लोग इलाहाबाद के रहने वाले हैं। एक ऐसी बात हुई कि इन्हें वहां से भागना पड़ा। किसी से कुछ कहा न सुना, भाग आए। कई महीनों में पता चला कि वह यहां हैं।

रमा ने कहा—इसका भी किस्सा हैं। तुमसे बताऊंगा कभी। जालपा के सिवा और किसी को यह न सूझती।

जोहरा बोली-यह सब मैंने दूसरे दिन जान लिया। अब मैं तुम्हारे रग-रग से वाकिफ हो गई। जालपा मेरी सहेली है। शायद ही अपनी कोई बात उन्होंने मुझसे छिपाई हो। कहने लगीं-जोहरा, मैं बड़ी मुसीबत में फंसी हुई हूं। एक तरफ तो एक आदमी की

जान और कई खानदानों की तबाही है, दूसरी तरफ अपनी तबाही है। मैं चाहूं, तो आज इन सबों की जान बचा सकती हूं। मैं अदालत को ऐसा सबूत दे सकती हूं कि फिर मुखबिर की शहादत की कोई हकीकत ही न रह जायगी, पर मुखबिर को सजा से नहीं बचा सकती। बहन, इस दुविधे में मैं पड़ी नरक का कष्ट झेल रही हूं। न यही होता है कि इन लोगों को मरने दें, और न यही हो सकता है कि रमा को आग में झोंक दें। यह कहकर वह रो पड़ीं और बोलीं-बहन, मैं खुद मर जाऊंगी, पर उनका अनिष्ट मुझसे न होगा। न्याय पर उन्हें भेंट नहीं कर सकती। अभी देखती हूं, क्या फैसला होता है। नहीं कह सकती, उस वक्त मैं क्या कर बैठूं। शायद वहीं हाईकोर्ट में सारा किस्सा कह सुनाऊं, शायद उसी दिन जहर खाकर सो रहूं।

इतने में देवीदीन का घर आ गया। हम दोनों विदा हुईं। जालपा ने मुझसे बहुत इसरार किया कि कल इसी वक्त फिर आना। दिन-भर तो उन्हें बात करने की फुरसत नहीं रहती। बस वहीं शाम को मौका मिलता था। वह इतने रुपये जमा कर देना चाहती हैं कि कम-से-कम दिनेश के घर वालों को कोई तकलीफ न हो। दो सौ रुपये से ज्यादा जमा कर चुकी हैं। मैंने भी पांच रुपये दिए। मैंने दो-एक बार जिक्र किया कि आप इन झगड़ों में न पड़िए, अपने घर चली जाइए, लेकिन मैं साफ-साफ कहती हु, मैंने कभी जोर देकर यह बात न कही। जब-जब मैंने इसका इशारा किया उन्होंने ऐसा मुंह बनाया, गोया वह यह बात सुनना भी नहीं चाहतीं। मेरे मुंह से पूरी बात कभी न निकलने पाई। एक बात है, कहो तो कहूं?

रमा ने मानो ऊपरी मन से कहा-क्या बात है?

जोहरा–डिप्टी साहब से कह दूं, वह जालपा को इलाहाबाद पहुंचा दें। उन्हें कोई तकलीफ न होगी। बस दो औरतें उन्हें स्टेशन तक बातों में लगा ले जाएंगी। वहां गाड़ी तैयार मिलेंगी, वह उसमें बैठा दी जाएंगी, या कोई और तदबीर सोचो।

रमा ने जोहरा की आंखों से आंख मिलाकर कहा-क्या यह मुनासिब होगा?

जोहरा ने शरमाकर कहा-मुनासिब तो न होगा।

रमा ने चटपट जूते पहन लिए और जोहरा से पूछा-देवीदीन के ही घर पर रहती है न?

जोहरा उठ खड़ी हुई और उसके सामने आकर बोली-तो क्या इस वक्त जाओगे?

रमानाथ–हां जोहरा, इसी वक्त चला जाऊंगा। बस, उनसे दो बातें करके उस तरफ चला जाऊंगा जहां मुझे अब से बहुत पहले चला जाना चाहिए था।

जोहरा-मगर कुछ सोच तो लो, नतीजा क्या होगा।

रमानाथ-सब सोच चुका, ज्यादा से ज्यादा तीन-चार साल की कैद दरोगबयानी के जुर्म में। बस अब रुखसते। भूल मत जाना जोहरा, शायद फिर कभी मुलाकात हो।

रमा बरामदे से उतरकर सहन में आया और एक क्षण में फाटक के बाहर था। दरबान ने कहा-हुजूर ने दारोगाजी को इत्तला कर दी है?

रमानाथ-इसकी कोई जरूरत नहीं।

चौकीदार-मैं जरा उनसे पूछ लूँ। मेरी रोजी क्यों ले रहे हैं, हुजूर?

रमा ने कोई जवाब न दिया। तेजी से सड़क पर चल खड़ा हुआ। जोहरा निस्पंद खड़ी उसे हसरत-भरी आंखों से देख रही थी। रमा के प्रति ऐसा प्यार, ऐसा विकल करने वाला प्यार

उसे कभी न हुआ था। जैसे कोई वीरबाला अपने प्रियतम को समरभूमि की ओर जाते देखकर गर्व से फूली न समाती हो।

चौकीदार ने लपककर दारोगा से कही। वह बेचारे खाना खाकर लेटे ही थे। घबराकर निकले, रमा के पीछे दौड़े और पुकारा–बाबू साहब, जरा सुनिए तो, एक मिनट रुक जाइए, इससे क्या फायदा-कुछ मालूम तो हो, आप कहां जा रहे हैं? आखिर बेचारे एक बार ठोकर खाकर गिर पड़े। रमा ने लौटकर उन्हें उठाया और पूछा-कहीं चोट तो नहीं आई?

दारोगा कोई बात न थी, जरा ठोकर खा गया था। आखिर आप इस वक्त कहां जा रहे हैं? सोचिए तो इसका नतीजा क्या होगा?

रमानाथ-मैं एक घंटे में लौट आऊंगा। जालपा को शायद मुखालिफों ने बहकाया है कि हाईकोर्ट में एक अर्जी दे दे। जरा उसे जाकर समझाऊंगा।

दारोगा—यह आपको कैसे मालूम हुआ?

रमानाथ–जोहरा कहीं सुन आई है।

दारोगा-बड़ी बेवफा औरत है। ऐसी औरत का तो सिर काट लेना चाहिए।

रमानाथ-इसीलिए तो जा रहा हूं। या तो इसी वक्त उसे स्टेशन पर भेजकर आऊंगा, या इस बुरी तरह पेश आऊंगा कि वह भी याद करेगी। ज्यादा बातचीत का मौका नहीं है। रात भर के लिए मुझे इस कैद से आजाद कर दीजिए।

दारोगा-मैं भी चलता हूँ, जरा ठहर जाइए।

रमानाथ-जी नहीं, बिल्कुल मामला बिगड़ जाएगा। मैं अभी आता हूं।

दारोगा लाजवाब हो गए। एक मिनट तक खड़े सोचते रहे, फिर लौट पड़े और जोहरा से बातें करते हुए पुलिस स्टेशन की तरफ चले गए। उधर रमा ने आगे बढ़कर एक तांगा किया और देवीदीन के घर जा पहुँचा। जालपा दिनेश के घर से लौटी थी और बैठी जग्गों और देवीदीन से बातें कर रही थी। वह इन दिनों एक ही वक्त खाना खाया करती थी। इतने में रमा ने नीचे से आवाज दी। देवीदीन उसकी आवाज पहचान गया। बोला–भैया हैं सायत।

जालपा-कह दो, यहां क्या करने आए हैं। वहीं जायें।

देवीदीन-नहीं बेटी, जरा पूछ तो लें, क्या कहते हैं। इस बखत कैसे उन्हें छुट्टी मिली?

जालपा-मुझे समझाने आए होंगे और क्या ! मगर मुंह धो रक्खें।

देवीदीन ने द्वार खोल दिया। रमा ने अंदर आकर कहा-दादा, तुम मुझे यहाँ देखकर इस वक्त ताज्जुब कर रहे होंगे। एक घंटे की छुट्टी लेकर आया हूँ। तुम लोगों से अपने बहुत से अपराधों को क्षमा कराना था। जालपा ऊपर है?

देवीदीन बोला-हां, हैं तो। अभी आई हैं, बैठो, कुछ खाने को लाऊं !

रमानाथ—नहीं, मैं खाना खा चुका हूं। बस, जालपा से दो बातें करना चाहता हूं।

देवीदीन-वह मानेंगी नहीं, नाहक शर्मिंदा होना पड़ेगा। मानने वाली औरत नहीं है।

रमानाथ–मुझसे दो-दो बातें करेंगी या मेरी सूरत ही नहीं देखना चाहती? जरा जाकर पूछ लो।

देवीदीन-इसमें पूछना क्या है, दोनों बैठी तो हैं, जाओ। तुम्हारा घर जैसे तब था वैसे अब भी है।

रमानाथ–नहीं दादा, उनसे पूछ लो। मैं यों न आऊंगा।

देवीदीन ने ऊपर जाकर कहा-तुमसे कुछ कहना चाहते हैं, बहू !

जालपा मुंह लटकाकर बोली-तो कहते क्यों नहीं, मैंने कुछ जबान बंद कर दी है?

जालपा ने यह बात इतने जोर से कही थी कि नीचे रमा ने भी सुन ली। कितनी निर्ममता थी ! उसकी सारी मिलन-लालसा मानो उड़ गई। नीचे ही से खड़े-खड़े बोला-वह अगर मुझसे नहीं बोलना चाहतीं, तो कोई जबरदस्ती नहीं। मैंने जज साहब से सारा कच्चा चिट्ठा कह सुनाने का निश्चय कर लिया है। इसी इरादे से इस वक्त चला हूं। मेरी वजह से इनको इतने कष्ट हुए, इसकी मुझे खेद है। मेरी अक्ल पर परदा पड़ा हुआ था। स्वार्थ ने मुझे अंधा कर रखा था। प्राणों के मोह ने, कष्टों के भय ने बुद्धि हर ली थी। कोई ग्रह सिर पर सवार था। इनके अनुष्ठानों ने उस ग्रह को शांत कर दिया। शायद् दो-चार साल के लिए सरकार की मेहमानी खानी पड़े। इसका भय नहीं। जीता रहा तो फिर भेंट होगी। नहीं मेरी बुराइयों को माफ करना और मुझे भूल जाना। तुम भी देवी दादा और दादी, मेरे अपराध क्षमा करना। तुम लोगों ने मेरे ऊपर जो दया की है, वह मरते दम त न भूलूंगा। अगर जीता लौटा, तो शायद तुम लोगों की कुछ सेवा कर सकें। मेरी तो जिंदगी सत्यानाश हो गई। न दीन का हुआ न दुनिया का। यह भी कह देना कि उनके गहने मैंने ही चुराए थे। सर्राफ को देने के लिए रुपये न थे। गहने लौटाना जरूरी था इसीलिए वह कुकर्म करना पड़ा। उसी का फल आज तक भोग रहा हूं और शायद जब तक प्राण न निकल जाएंगे, भोगता रहूंगा। अगर उसी वक्त सफाई से सारी कथा कह दी होती, तो चाहे उस वक्त इन्हें बुरा लगता, लेकिन यह विपत्ति सिर पर न आती। तुम्हें भी मैंने धोखा दिया था। दादा, मैं ब्राह्मण नहीं हूं, कायस्थ हूं, तुम-जैसे देवता से मैंने कपट किया। न जाने इसका क्या दंड मिलेगा। सब कुछ क्षमा करना। बस, यही कहने आया था।

रमा बरामदे के नीचे उतर पड़ा और तेजी से कदम उठाता हुआ चल दिया। जालपा भी कोठे से उतरी, लेकिन नीचे आई तो रमा का पता न था। बरामदे के नीचे उतरकर देवीदीन से बोली-किधर गए हैं दादा? देवीदीन ने कहा-मैंने कुछ नहीं देखा, बहू मेरीआंखें आंसू से भरी हुई थीं। वह अब न मिलेंगे। दौड़ते हुए गए थे।

जालपा कई मिनट तक सड़क पर निस्पंद-सी खड़ी रही। उन्हें कैसे रोक लूं! इस वक्त वह कितने दुखी हैं, कितने निराश हैं ! मेरे सिर पर न जाने क्या शैतान सवार था कि उन्हें बुला न लिया। भविष्य का हाल कौन जानता है। न जाने कब भेंट होगी। विवाहित जीवन के इन दो-ढाई सालों में कभी उसका हृदय अनुराग से इतना प्रकंपित न हुआ था। विलासिनी रूप में वह केवल प्रेम आवरण के दर्शन कर सकती थी। आज त्यागिन'बनकर उसने उसका असली रूप देखा, कितना मनोहर, कितना विशुद्ध, कितना विशाल, कितना तेजोमय। विलासिनी ने प्रेमोद्यान की दीवारों को देखा था, वह उसी में खुश थी। त्यागनी बनकर वह उस उद्यान के भीतर पहुंच गई थी-कितना रम्य दृश्य था, कितनी सुगंध, कितना वैचित्र्य, कितना विकास इसकी सुगंध में, इसकी रम्यता का देवत्व भरा हुआ था। प्रेम अपने उच्चतर स्थान पर पहुंचकर

देवत्व से मिल जाता है। जालपा को अब कोई शंका नहीं है, इस प्रेम को पाकर वह जन्म-जन्मांतरों तक सौभाग्यवती बनी रहेगी।इस प्रेम ने उसे वियोग, परिस्थिति और मृत्यु के भय से मुक्त कर दिया—उसे अभय प्रदान कर दिया। इस प्रेम के सामने अब सारा संसार और उसका अखंड वैभव तुच्छ है।

इतने में जोहरा आ गई। जालपा को पटरी पर खड़े देखकर बोली-वहां कैसे खड़ी हो, बहन। आज तो मैं न आ सकी। चलो, आज मुझे तुमसे बहुत-सी बातें करनी हैं।

दोनों ऊपर चली गई।

उनचास

दारोगा को भला कहां चैन? रमा के जाने के बाद एक घंटे तक उसका इंतजार करते रहे, फिर घोड़े पर सवार हुए और देवीदीन के घर जा पहुंचे। वहां मालूम हुआ कि रमा को यहां से गए आधा घंटे से ऊपर हो गया। फिर थाने लौटे। वहां रमा का अब तक पता न था। समझे देवीदीन ने धोखा दिया। कहीं उन्हें छिपा रक्खा होगा। सरपट साइकिल दौड़ाते हुए फिर देवीदीन के घर पहुंचे और धमकाना शुरू किया। देवीदीन ने कहा—विश्वास न हो, घर की खाना-तलाशी ले लीजिए और क्या कीजिएगा। कोई बहुत बड़ा घर भी तो नहीं है। एक कोठरी नीचे है,एक ऊपर।

दारोगा ने साइकिल से उतरकर कहा-तुम बतलाते क्यों नहीं, वह कहां गए?

देवीदीन–मुझे कुछ मालूम हो तब तो बताऊं साहब । यहां आए, अपनी घरवाली से तकरार की और चले गए।

दारोगा—वह कब इलाहाबाद जा रही हैं?

देवीदीन-इलाहाबाद जाने की तो बाबूजी ने कोई बातचीत नहीं की। जब तक हाईकोर्ट का फैसला न हो जायगा, वह यहां से न जाएंगी।

दारोगा-मुझे तुम्हारी बातों का यकीन नहीं आता।

यह कहते हुए दारोगा नीचे की कोठरी में घुस गए और हर एक चीज को गौर से देखा। फिर ऊपर चढ़ गए। वहां तीन औरतों को देखकर चौंके। जोहरा को शरारत सूझी, तो उसने लंबा-सा घूंघट निकाल लिया और अपने हाथ साड़ी में छिपा लिए। दारोगाजी को शक हुआ। शायद हजरत यह भेस बदले तो नहीं बैठे हैं।

देवीदीन से पूछा-यह तीसरी औरत कौन है?

देवीदीन ने कहा-मैं नहीं जानता। कभी-कभी बहू से मिलने आ जाती है।

दारोगा-मुझी से उड़ते हो बचा साड़ी पहनाकर मुलजिम को छिपाना चाहते हो ! इनमें कौन जालपा देवी हैं। उनसे कह दो, नीचे चली जायं। दूसरी औरत को यहीं रहने दो।

जालपा हट गई, तो दारोगाजी ने जोहरा के पास जाकर कहा-क्यों हजरत, मुझसे यह चालें ! क्या कहकर वहां से आए थे और यहां आकर मजे में आ गए। सारा गुस्सा हवा हो गया। अब यह भेस उतारिए और मेरे साथ चलिए, देर हो रही है।