गोदान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ३४९ ]

चार

मन्नकुमार यहां म । चले तो उनका हृदय कारा में था। इतनी जन्द देवा से उन्हें वरदान मिन्नेगा इसकी उन्होंने आशा न की थी। कुछ कदीर ने हो जोर मारा, नहीं तो जो युवती अच्छे अच्छों को उंगनियों पर अचाती हैउन पर क्यो इतनी भक्ति करनी। अब उन्हें विलंब न करना चाहिए। क्रोन जाने कब तक के विरुद्ध हो जाय। और यह दो ही चार मुलाकातों में होने वाला है। तन्वी उन्हें कार्य क्षेत्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा करेगी और वह पीछे हटेंगे। वहीं मतभेद हो जाएगा। यहां से वह सीधे मि सिन्हा के घर पहुंचे। शाम हो 7 थी। कुहरा पड़ना शुरू हो गया था। मि सिन्हा सजे सजाए कaजाने को तैयार खड़े थे। इन्हें देखते ही

किधर से?

-वहीं से। आज तो रंग जम गया। [ ३५० ]-सव । -हां जी। उस पर नो जैसे मैंने जादू को लकड़ी फेर दी हो।

फिर क्या, बाजी मार ली है। अपने फादर से आज ही जिक्र छेड़ो

-आपको भी मेरे साथ चलना पड़ेगा।

-हां, हां, मैं तो चलूगा ही। मगर तुम तो बड़े खुशनसीब निकले-यह मिस कामत ता मुझसे सचमुच आशिकी कराना चाहती है। मैं तो स्वांग रचता हूं और वह समझती है, मैं उसका सच्चा प्रेमी हूं। जरा आजकल उसे देखो, मारे गरूर के जमीन पर पांच ही नहीं रखता। मगर एक बात है, औरत समझदार है। उसे बराबर यह चिंता रहती है मैं उसके हाथ से निकलन न जाऊंइसलिए मेरी बड़ी खातिरदारी करती है, और बनावसिंगार से कुदरत की कमी जितनी पूरी हो सकती है उतनी करती हैं। और अगर कोई अच्छी रकम मिल जाय तो शादी कर लेने ही में क्या हरज है।

सन्तकुमार को आश्चर्य हुआ -तुम तो उसकी सूरत से बेजार थे।

-हां, अब भी हूं, लेकिन रुपये की जो शर्त है। डाक्टर साहब बीस पच्चीस हजार मेरी नजर कर दें, शादी कर लू। शादी कर लेने से मैं उसके हाथ में विका तो नहीं जाता।

दूसरे दिन दोनों मित्रों ने देवक्रमार के सामने सारे मंसूबे रख दिए। देवकुमार को एक क्षण तक तो अपने कानों पर विश्वासन हुआ। उन्होंने स्वच्छंदनिर्धक, निष्कपट जिदगी ब्रतान की थी। कलाकारों में एक तरह का जो आत्माभिमान होता है, उसने सदैव उनको ढारस दिग्गा था। उन्होंने तकली उठाई थीं, फनके भी किए थे, अपमान सहे थे लेकिन कभी अपनी आग को कलुषित न किया था। जिंदगी में कभी अदालत के द्वार तक ही नहीं गएबोने मून खेद होता है कि तुम मुझसे यह प्रस्ताव कैसे कर सके। और इससे ज्यादा दु:इस यान का है कि ऐसी कुटिल चाल तुम्हारे मन में आई क्योंकर।

सन्तरमार ने निस्सकाच भाव से कहा- जरूरत सब ब्छ सिखा दती है।स्त्र का प्रतिर का पहला नियम हैं। वह जायदाद जो अपने बीस हजार में दे दो, आज दो लाख़ स म ? नहीं है।

-बह दो लाख की नहीं, दस लाख की हो। मेरे लिए बह अन्म को बेचने का प्रश्न है। में थोड़े से रुपयों क लिए अपनी आत्मा नहीं बेच सकता ।

दानों मित्रों ने एक-दूसरे की ओर देखा और मुस्कराए। कितनी पुरानी दलील है अन कितनी लचर। आत्मा जैसी चीज है कहा? और जब सारा संसार धोखेधड़ी पर चत्न रह हैं त आत्मा कहां रहीअगर सौ रुपये कर्ज देकर एक हजार वसूल करना अधर्म नह है, अगर एक लाख तमनामफाक्रकश मजदूरों की कमाई पर एक संठ का चैन करना अधर्म नहीं है तो एक पुसनो कागजी कार्रवाई को रद कराने का प्रयत्न क्यों अधर्म हो?

संचंतकुमार ने तीखे स्वर में कहा- अगर आप इसे आत्मा का बेचना कहते हैं तो यवा पडेगा: झुमके सिवा दूसरा उपाय नहीं है। और आप इस दृष्टि से इस मामले को देखते हैं। क्यों हैं? धर्म वह है जिससे समाज का हित हो, अधर्म वह है जिससे समाज का अहित हो। इसम समाज का कौन-सा अहित हो जायगा, यह आप बता सकते हैं।

देवकुमार ने सतर्क होकर कहा-समाज अपनी मर्यादाओं पर टिका हुआ है। उन मर्यादाओं को तोड़ दो और रमाज का अत हो जाएगा। [ ३५१ ]दोनां तरफ से शास्त्रार्थ होने लगे। देवकुमार मर्यादाओं और सिद्धांतों और धर्म-बंधनों को आड़ ले रहे थे, पर इन दोनों नौजवानों की दलीलों के सामने उनकी एव न चलती थी। वह अपनी सुफेद दाढ़ी पर हाथ फेर-फेरकर और रल्वाट रिसर खुजा-रह्ज कर जो प्रमाण देते थे उसको यह दोनों युवक चुटकी बजात तून डालते थे, ध्रुनकर उड़ा देते थे।

सिन्हा कहा ने निर्दयता के साथ -बाबूजी, आप न जाने किस जमाने की बातें कर रहे । हैं। कानून से हम जितना फायदा उठा सकेंहमें उठाना चाहिए। उन दफों का मंशा ही यह है कि उनसे फायदा उठाया जाय। अभी आपने देखा जमींदारों की जान महाजन से बचाने के लिए सरकार ने कानून बना दिया है और कितनी मिल्कियतें जमींदारों को वापस मिल गई। क्या आप इसे अधर्म कहेंगे? व्यावहारिकना का अर्थ यही है कि हम जिन कानूनी साध , नों से अपना काम निकाल सकें, निकालें। मुझे कुछ लेना-देना नहीं, न मेरा कोई स्वार्थ है। सन्तकुमार मेरे मित्र हैं और इसी बाम्ते में आपसे यह निवेदन कर रहा हूं। मानें या न मानें आपको अख्तियार है।

देवकुमार ने लाचार होकर कहा—तो आख़िर तुम लोग मुझे क्या करने को कहते हो?

कुछ नहीं, केवल इतना ही कि हम जो कुछ करें आप उस विरुद्ध कोई कार्रवाई न कर .

म सत्य का हत्या ही नहा दरव सक्ला।

जानकमार ने आंखें निकाल कर उनंजित वर में कहा-तो फिर आपको मेरी हत्या देखनी

सिन्हा ने मन्तकुमार का डाटा -क्या फजूल की बातें करते हो सन्तकुमार ' बाबू जी को दो चार दिन सोचने का मौका दो तुम 9भी किसी बच्चे के बाप नहीं हो। तुम क्या जानो बाप को वटा कितना प्यारा होता है। वह अ९ से कितना ही विरोध करेंलेकिन जब नालिश दायर हो जाय तो देख़ुना वह क्या करते हैं। हमारा दावा यह होगा कि जिस वक्त आपने यह बैनामा लिखाआपके होश-हवस ठीक न थे और अब भी आपको कभी-कभी जुनून का दौरा हो जाता है। हिन्दुस्तान जैसे गर्म मुल्क में यह मरज बहुतों को होता है, और आपको भी हो गया । तो कोई आश्चर्य नहीं। हम मिबल सर्ज इसकी तसदीक कर र" देंगे।

देवकुमार ने हिकारत के साथ कहा- मेरे जीते-जी यह ध” , "नहीं हो सकती। हरगिज नहीं। मैंने जो कुछ किया सोच-समझकर और परिस्थितियों के दबाव से कियामुझे उसका बिल्कुल अफसोस नहीं हैं। अगर तुमने इस तरह का कोई दावा किया तो उसका सबसे बड़ा विरोध मेरी ओर से होगा. मैं कह देता हूं।

और वह अवश में आकर कमरे में टहलने नगे।

सन्तकुमार भी खड़े धमकाते हुए कहा -तो मेरा भी आपको चैलेंज । या तां ने होकर है आप अपने धर्म ही की रक्षा करेंगे या मेरी। आप फिर मेरी सूरत न देखेंगे।

-मुझम अपना , पत्नी और पुत्र सबसे प्यारा है।

सिन्हा ने सन्तकुमार को आदेश किया-तुम आज दख़रत दे दो कि आपके होश-हवास में फर्क आ गया और मालूम नहीं आप क्या ५र । आपको हिरासत में ले लिया जाय।

देवकुमार ने मुट्ठी तानकर क्रोध के आवेश में पूछा- मैं पागल हूं?

-जी हां, आप पागल हैं। आपके होश बना नहीं हैं। ऐसी बातें पागल ही किया करते [ ३५२ ]
हैं। पागल वही नहीं है जो किसी को काटने दौड़े। आम आदमी जो व्यवहार करते हों उसके विरुद्ध व्यवहार करना भी पागलपन है।

-तुम दोनों खुद पागल हो।

-इसका फैसला तो डाक्टर करेगा।

-मैंने बीसों पुस्तकें लिख डालीं, हजारों व्याख्यान दे डालेयह पागलों का काम है ?

-जी हां, यह पक्के सिरफिरों का काम है। कल ही आप इस घर में रस्सियों से बांध लिये जायेंगे।

-तुम मेरे घर से निकल जाओ, नहीं तो मैं गोली मार देंगा। बिल्कुल पागलों की-सी धमकी। सन्तकुमार उस दर्द्धस्त में यह भी लि देना कि आपकी बंदूक छीन ली जाय, वरना जान का खतरा है। और दोनों मित्र उठ खड़े हुए देवकुमार कभी कानून के जाल में न फंसे थे। प्रकाशकों और बुकसेलरों नेउन्हें बारहा धोखे दिएमगर उन्होंने कभी कानून की शरण न ली।उनके जीवन की नीति थी-आप भला तो जग भलाऔर उन्होंने हमेशा इस नीति का पालन किया था। मगर वह दब्बू या डरपोक न थे। खासकर सिद्धांत के मुआमले में तो वह समझौता करना जानते ही न थे। वह इस षड्यंत्र में कभी शरीक न होंगेचाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय। मगर क्या यह सब सचमुच उन्हें पागल साबित कर देंगे? जिस दृढ़ता से सिन्हा ने धमकी दी श्री वह उपेक्षा के योग्य न थी। उसकी ध्वनि से तो ऐसा मालूम होता था कि वह इस तरह के दांव-पेंच में अध्यस्त है, और शायद डाक्टरों को मिलाकर सचमुच उन्हें सनकी साबित कर दे।उनका आत्माभिमान गरज उठा- नहींवह असत्य की शरण न लेंगे चाहे इसके लिए कुछ भी सहना पड़े: डाक्टर भी क्या अंधा है? उनसे कुछ पूछेगाकुछ बातचीत करेगा या योंही कलम उठाकर उन्हें पागल लिख देगा। मगर कहीं ऐसा तो नहीं है कि उनके होश हवास में फितूर पड़ गया हो। हुश । वह भी इन छोकरों की बातों में आए जाते हैं। उन्हे अपने व्यवहार में कोई अंतर नहीं दिखाई देता। उनकी बुद्धि सूर्य के प्रकाश की भांति निर्मल हैं। कमी नहीं। वह इन गुंडों के धौंस में न आयेंगे।

लेकिन यह विचार उनके हृदय को मथ रहा था कि सन्तकुमार की यह मनोवृत्ति कैसे हो गई।उन्हें अपने पिता की याद आती थी। वह कितने सौम्य, कितने सत्यनिष्ठ थे। उनके ससुर वकोल जरूर थे, पर कितने धर्मात्मा पुरुष थे। अकेले कमाते थे और सारी गृहस्थी का पालन करते थे। पांच भाइयों और उनके बालबच्चों का बोझ खुद संभाले हुए थे। क्या मजाल कि अपने बेटेबेटियों के साथ उन्होंने किसी तरह का पक्षपात किया हो। जब तक बड़े भाई को भोजन न करा लें खुद न खाते थे। ऐसे खानदान में सन्तकुमार जैसा दगाबाज क हां में धंस पड़ा? उन्हें कम ऐसी कोई बात याद न आती थी जब उन्होंने अपनी नीयत बिगाड़ी हो।

लेकिन यह बदनामी कैसे सहो जायगी। वह अपने ही घर में जब जागृति म ला सके तां एक प्रकार से उनका सारा जीवन नष्ट हो गया। जो लोग उनके निकटतम संसर्ग में थे, जब उन्ह वह आदमी न बना सके तो जीवनपर्यन्त की साहित्य-सेवा से किसक कल्याण हुआ? और जब यह मुकदमा दायर होगा उस वक्त वह किसे मुंह दिखा सकेंगे? उन्होंने धन न कमाया पर यश त संचय किया ही। क्या वह भी उनके हाथ से छिन जायगा? उनको अपने संतोष के लिए इतना भी न मिलेगा ऐसी आत्मवेदना उन्हें कभी न हुई थी।
[ ३५३ ]शैया से कहकर वह उसे भी क्यों दुखी करें? उसके कोमल हृदय को क्यों चोट पहुंचावें वह सब कुछ खुद झेल लेंगेऔर दुखी होने की बात भी क्यों हो? जीवन तो अनुभूतियों का नाम है। यह भी एक अनुभव होगा। जरा इसकी भी सैर कर लें।

यह भाव आते ही उनका मन हल्का हो गया। घर में जाकर पंकजा में चाय बनाने को

शैव्या ने पूछा-सन्तकुमार क्या कहता था।

उन्होंने सहज मुस्कान के साथ कहाकुछ नहीं, वही पुराना बब्त।

-तुमने तो हामी नहीं भरी न? देवकुमार स्त्री से एकात्मता का अनुभव कर धोने - कभी नहीं।

-न जाने इसके सिर यह भूत कैसे सवार हो गया ।

सामाजिक संस्कार हैं और क्या?

-इसके यह संस्कार क्यों ऐसे हो गए साधु भी तो हैपंजा भी तो है, दुनिया में क्या धर्म ही नहीं?

-मगर कसरत ऐसे ही आदमियों को हैं, यह समझ लो।

उस दिन से देनकुमार ने सैर करने जाना ड़ दिया। दिन-रात घर में मुंह छिपाए बैठे रहते। जैसे सारा कक उनके माथे पर लगा हो। नगर और प्रांत सभी प्रतिष्ठितविचारवान आदमयों से उनका दोस्ताना श्रा , सब उनकी सन्ननता का आदर करते थे। मानो वह मुकदमा दायर होने पर भी शायद कुछ न कहेंगे। लेकिन उनके अतर में जैसे चोर-सा बंटा हुआ था। वह अपने -। पिछल अहंकार में अपने को आत्मीयों की भलाईबुराई का जिम्मेदार समझते थे दिनों जब सूर्यग्रहण के अवसर पर साधूकुमार ने बढ़ी हुई नदी में आदमी कूदकर एक डूबते हुए की जान बचाई थी उस वक्त उन्हें उससे कहीं ज्यादा खुशी हुई थी जितनी खुद सारा यश पाने भ होती। उनकी आंखों में आंसू भर आए थे, ऐसा लगा था । मानो उनका सस्तक कुछ ऊंचा हो गया है, मानो मुख पर तेज आ गया है। वही लोग जब सन्तकुमार की चितकवरी आलोचना करेंगे तो वह कैसे सुनेंगे

इस तरह एक महीना गुजर गया और सन्तकुमार ने मुकदमा दाय- - कियाउधर सिविल सर्जन को गांठना था. इधर मि: मलिक को।शहादतें भो तेयार करनी थीं1इन्हीं तैयारियों में सारा दिन गुजर जाता था। र रुपये का इंतजाम भी करना ही धा। देवकुमार सहयोग करते तो यह सबसे बड़े गार्ड हट जातां! पर उनके विरोध ने समस्या को और जटिल कर दिया था।सन्तकुमार कभी कभी निराश हो जाता: कुछ समझ में न आता ऋया करे। दोनों मित्र देवकुमार पर दांत पीस-पोसकर रह जाते !

सन्तकुमार कहता- जी चाहता है इन्हें गोली मार दू। मेंइन्हें अपना बाप नहींशत्रु समझता

सिन्हा समझाता -मेरे दिल में तां , उनकी इज्जत होती है। अपने स्वार्थ लिए आदमी। नीचे से नीचा काम कर बैठता है पर यागियों औ ,त्यवादियों का आदर त दिल में होता ही। है। न जाने तुम्हें उन पर कैसे गुस्सा आता है। जो व्यक्त सत्य के के लिए बड़े से बड़ा कष्ट सहने को तैयार हो वह पूजने के लायक है।

-ऐसी बातों से मेरा जी न जला सिन्हा तुम चाहते तो वह हजरत अब तक पागलखाने [ ३५४ ]
में होते। मैं न जानता था तुम इतने भावुक हो। -उन्हें पागलखाने भेजना इतना आसान नहीं जितना तुम समझते हो। और इसकी कोई जरूरत भी तो नहीं हम यह साबित करना चाहते हैं कि जिस वक्त बैनामा हुआ वह अपने होश हवास में न थे। इसके लिए शहादतों की जरूरत है। वह अब भी उसी दशा में हैं इसे साबित करने के लिए डाक्टर चाहिए और मि• कामत भी यह लिखने का साहस नहीं रखते देवकुमार को धमकियों से झुकाना तो असंभव था मगर तर्क के सामने उनकी गर्दन आपही-आष झुक जाती थी। इन दिनों वह यही सोचते रहते थे कि संसार की कुव्यवस्था क्यों है? कर्म और संस्कार का अश्रय लेकर वह कहीं न पहुंच पाते थे। सर्वात्मवाद से भी उनकी गुत्थी न सुलझती थी। अगर सारा विश्व एकात्म है तो फिर यह भेद क्यों है? क्यों एक आदमी जिंदगी -भर बड़ी-से- बड़ी मेहनत करके भी भूखों मरता है, और दूसरा आदमी हाथ-पांव न हिलाने पर भी फूलों की सेज पर सोता है। यह सर्वोत्प है या घोर अनात्म? वृद्धि जवाब देती-यहां सभी स्वाधीन हैं, सभी को अपनी शक्ति और सा धना के हिसाब से उन्नत करने का अवसर है। मगर शंका पूछती - सबको समान अवसर कहां हैं? बाजार लगा हुआ है। जो चाहे वहां से अपनी इच्छा की चीज खरीद सकता हैं। मगर खरीदेगा तो वही जिसके पास पैसे हैं। और जब सब पास पैसे नहीं हैं तो सबका बराबर का अधिकार कैसे मना जाय? इस तरह का आत्ममंथन उनके जीवन में कभी न हुआ था। उनकी साहित्यिक बु. ऐसी व्यवस्था से संतुष्ट तो हो ही न सकती थी, पर उनके सामने ऐसी कोई गुत्थी न पो थी जो इस प्रश्न को वैयक्तिके अंत तक ले जातो इस वक्त अनकी दशा उस आदमी क। सी थी जो रोज मार्ग में ईटें पड़े देखता हैं और बचकर निकल जाता है। रात व निन लग? को ठोकर लगती होगी कितनों के हाथ-पैर टूटने होंगे, इसका ध्यान उस नई अता" एक दिन जब वह खुद रात को ठोकर खाकर अपने घुटने पट्टे नेता है तो उनकी किताब शक्ति हठ करने लगती है और वह उस सारे ढेर को मार्ग से हटाने पर तैयार हो जाता देवकुमार को बढी ठोकर लगी थी। कहां है न्याय कहां हैं? एवं गरीब आदमी किसी रार से बातें तोचकर खा लेना है, कानून उसे सजा देता है। इमरा अमीर आदमी दिन दहाड़े इस को लूटता है और उसे पदवी मिन्नती है, सम्मान मिलता है। कुछ आदमी तरह तरह के नियम बांधकर आते हैं और निरीह, दुर्बल मजदूरों पर आतंक बनाकर अपना गुलाम बना तलने के लगान और टैक्स और महल और किनने ही नामों से उसे लटना शुरू करते हैं, आर आ बावा वेतन 7त है, शकार खेलते हैं, नाचते हैं, रंगरलिया मनाते हैं। यह है ईश्वन का रचा हुआ संसार? यही न्याय है

हां, देवता हमेशा रहेंगे और हमेशा रहे हैं। उन्हें अब भी सखार धर्म और नीति पर चर हुआ नजर आता है। वे अपने जीवन की आहुति देकर संसार से विदा हो जाते हैं। लेकिन उन्न देवता क्यों कह?कया , स्वार्थो कहा, भनभनेत्री कहा देवता वह है जो न्याय की मा कर और इसके लिए प्राण दे दे। अगर वह जानकर अनजान बनना है से है। अगर ती भम गिरता उसकी आंतों में यह कुयवस्था चटकती ही नहीं तो वह अंधा भी है और मूर्ख भी देवता । तरह नहीं और यहां देवता बनने की जरूरत भी नहीं देवन औों ने ही भाग्य और ईश्वर से भक्ति को मिथ्याएं फैलाकर इस अनोनि को अमर बनाया है। मनुष्य ने अब तक इसका । कर दिया होता या समाज का ही अंत कर दिया होता जो इस दशा में जिंदा रहने से जहां से किए। [ ३५५ ]
होता। नहींमनुष्यों में मनुष्य बनना पड़ेगा। दरिंदों के बीच में सनम नड़ने के लिए हथियार बांधना पटे!। उनके का शिकार बनना चंबापन नहीं, जूझता है। आज जो इनने टाःनुकदार और राजे । हैं वह अपने पूर्वजों की लूट का ही आनंद तो उठा रहे हैं। और क्या उन्होंने जगह 'जायदान बेच कर पागलपन नहीं किया? पितरों को पिंडा देने लिए गया आकर पिंडा दना और यहां आकर हजारों रुपये खर्च करना क्या जरूरी था और रातों को मित्रों के साथ मुज सुनना और नाटक मंडली रट्रोलकर हजारों रुपये उसमें डाना अनिवयं था? वह अवश्यू पगनएन था। उन्हें क्यों अपने बाल बच्चों की निन्दा नहीं हुई? अगर उन्हें मुफ्त की संपत्ति मिली और उन्होंने उड़ाया तो उनके लड़के क्यों न मुफ्त की संपनि भाग ? अगर वह जान अं। उमग की नहा रा स ला न लड़न क्या तपस्या कर !

और अंत में उनकी शंकाओं को इस धारणा से तस्क्रीन हुई कि इस अनीति भरे संसार में धर्म अधर्म का विचार गलन है, अन्मयान है। और जुआ खेलकर या दूसरों के लोभ और आसक्त से फायदा टाकर संपत्ति खड़ी करना शुनना ही दुग या अा है जितना कानूनी दांव-पेंच से।णेश वंद महाजन के बीस हजार के कर्जदा हैं।नीति | कहना है कि उस जायदाद को बेचकर गके बीस हजार दे दिये जायं। क्री उन्हें मिल जायअगर कान कर्जदारों के साथ इतना न्याय भी भे नहीं करता तो कर्जदार कानून में जितनी रचतान हो सकें करके महजन से अपना व वापस लेने की चं' ट रने भ , न से धर्म का दोषी नहीं ठहर सकतीइस -417द निष्कर्ष पर होने शास्त्र और नीति के हरेक पट्टन में विचार किया और वह उनके मन में जभ । अब किसी तरह नहीं हिल के नाऔर अदृदि इससे उनके चिर- संचित संस्कारों गया। की आघात लगता था, पर वह एम प्रमन्द और पहने हुए थे माना उन्हें कोई नया जीवन में त्र मिल गया था।

क दिन उन्होंने संड गिधर दास के पास जाकर संप-साफ कह दिया- अगर आप मरी जायदाद वाप१ न कर ता भर ाTपद ऊ ' , वा कर।

गिरधर दाम नये जमाने व आगदन ११ अंग्रेजी में कुशल कानून में चतुर, राजनीति में में भाग लेने वाले , कानों में हिम्स लेते 4. और । 7र अच्ा देन जैचदत थ, एक शक्कर : मन खुद चलात थसार कगार अगर ज" ढ़ग बने थे। उनक यंता संट मक्कृलान भा यही सब करन थे, पर पूजा- पाल, दान -दक्षिण से प्रायश्चित करने रहते थे, गिरधर दास पक्के जवादी थे. हरेक काम व्यापार के वायदे से करते थे: कर्मचारियों का वेतन पहली तारीख को देते थे, मगर बोन में किसी को जरूरत पड़े तो खुद पर रुपये देते थे. मक्कलान जो रान साल भर वेतन न देते थे पर कर्मचारियों को बरबर पेशगी देते रहते थे।हिसाब होने पर उनको कुछ देने के बदले कुछ मिल जाता था। मक्कलात्न सन में द!-च ' बार अमरों का सलाम करने जाते थे. डालियां देते थे. जूते उतार कर कमरे में जाते थे और हाथ बांधे खड़े रहते थे। चलते वक्त आदमियों को दो-चार रुपये इनाम दे आते थे?गिरधर दास म्युनिसिपल कमिश्नर थे, सूट-बूट पहन कर अफसरों के पास जाते थे। को बराबरी का व्यवहार कर: ५.और आदमियों के साथ केवल इतनी रिआयत करते थे कि त्योहारों में त्योहारी दे देते थे, वह भी खूब खुशामद करा का अपने हकों के लिए लड़ना और आंदोलन करना जानते थे.मगर उन्हें ठगना असंभव

दकुमार का कथन यह सुनकर चकरा गये। उनकी बड़ी इज्जत करते थे। उनकी कई [ ३५६ ]
पुस्तकें पढ़ी थीं, और उनकी रचनाओं का पूरा सेट उनके पुस्तकालय में था। हिंदी भाषा के प्रेमी थे और नागरीप्रचार सभा को कई बार अच्छी रकमें दान दे चुके थे। पंडा-पुजारियों के नाम से चिढते , दूषित दान प्रथा पर एक पैम्पलेट भी छपवाया था। लिबरल विचारों के लिए नगर में उनकी ख्याति थी। मक्यूलाल मारे मोटापे के जगह से हिल न सकते थे, गिरधर दास गठीले आदमी थे और नगर-व्यायामशाला के प्रधान ही न थे, अच्छे शहसवार और निशानेबाज थे।

एक क्षण तो बह देवकुमार के मुंह की ओर देखते रहे। उनका आशय क्या है, यह समझ में ही न आयाफिर ख्याल आया बेचारे अर्थिक संकट में होंगेइससे बुद्धि भ्रष्ट हो गई। है। बेतुकी बातें कर रहे हैं। देवकुमार के मुख पर विजय का गर्व देखक्रर उनका यह बयान और मजबूत हो गया।

सुनहरी ऐनक उतारकर मेज पर रखकर विनोद भात्र से बोने कहिए, घर में तो सत्र कुशल तो हैं?

देवकुमार ने विद्रोह के भाव से कहा- जी हां, सब आपकी कृपा है।

बड़ा लड़का तो वकालत कर रहा है न?

- जी हां

-मगर चन्ननी & होगी और आपकी पुस्तक भी आजकल कम बिकत होंगी।यह देश का दुर्भाग्य है कि आप जैसे सरस्वती के पुत्रों का यह अनादर ' आप यूरोप में होते तो औr लालों क स्वामी नरात!

-आप जानते हैं, मैं लदी के उपासकों में नहीं हूं।

-धन संकट में तो हमें हो। मुझन से जो कुछ सेवा आप कहेंउसके लिए तैयार हूं। मुझे तो गर्व है कि आप जैसे प्रतिभाशाली पुरुप से मेरा परिचय है। आपकी कुछ सेवा कर," मेरे लिए गौरव की बात होगी।

देवकुमार ऐसे अवसरों पर नम्रता के पुतले बन जाने थे। भक्ति और प्रशंसा देकर फो: उनका सर्वस्व ले सकता था। एक लग्नपती आदमी और वह भी स्माहित्य का प्रेमी जब कर इतना सम्मान करता है तो ‘उससे जायदाद या लेन-देन की बात करना उन्हें लन्जाजनक : मा1 हुआ। बोले-आपकी उदारता है जो मुझे इस योग्य समझते हैं।

-मैंने सपझा नहीं अप किस जायदाद की बात कह रहे थे।

देवकुमार मकुचाते हुए बोन्ने- अजो वही, जो सेट मलाल ने मुझसे रिलठाई भी।

अन्छा ना उपक विषय में कोई नयी बात है ?

-उसी मामले में लड़के आपके ऊपर कोई दावा करने वाने हैं। मैंने बहुत समझाया.मगर मानते नहीं आपके पास इसीलिए आया था कि कुछ न - देकर समझौता कर लीजिएमामला अदालत में क्यों जाय: नाहक दोनों जेरबार होंगे।

गिरधर दास का जहीन.मुरौवतदार चेहग कठोर हो गया। जिन महाजनी नखों को उन्होंने भद्रता की नर्म गद्दी में छिपा रखा था, वह यह टूटका पाते ही पैने और उग्र होकर बाहर निक आये

क्रोध को दन्बाने हुए बोले आपको मुझे समझाने के लिए यहां आने की तकलीफ उठाने की कोई जरूरत न थी। उन लड़कों ही को समझाना चाहिए था। [ ३५७ ]-उन्हें तो मैं समझा चुका।

तां जाकर शांत बैटिए । मैं अपने हकों के लिए लड़ना जानता हूं। अगर उन लांगों के दिमाग में कानून की गर्मी का असर हो गया है तो उसकी दवा मेर पास है।


अब देवकुमार की साहित्यिक नम्रता भी अविचलित न रह सकी। का गम लड!इ स्वीकार करते हुए बोले-मगर आपको मालूम होना चाहिर वह मिल्कियत आज दो लाख से कम की नहीं है।

-दो लाख नहीं, दस लाख की हां, आपसे सराकार नहीं।

-आपने मझा बीस ह जार ही ना दिये थे।

अपको इतना कानून तो मालूम ही हागा, हालांकि कभी अप अदालत में नहीं गए कि जो ची बिक जाती है वह कानूनन किसी दरम पर भी वापस नहीं की जाती। अगर इस नये कायदे को मान लिया जाय तो इस शहर में महाजन न नजर ।

कुछ देर तक सवालजवाब होता रहा और लड़ने वाले भों की तरह दोनों भले आदमी गर्राते, दांत निकालनेबौखियाते रहे। आखिर दोनों लड़ ही गए

गिरधर दास ने प्रचंड होकर कहा- मुझे आपसे एसा आशा नहीं थी।

देवकुमार ने भी ट्टिी उठाकर कहा- मुझे भी न मालूम था कि आपके स्वार्थ का पंट

-आप अपना सर्वनाश करने जा रहे हैं ।

-कुछ परवाह नह!!

देवकुमार वहां से चले तो मय कम उन्न अधरी गत की निर्देश ठंड में भी उन्हें पसीना हा हा थ71 विजय का ऐसा गवं अपने जीवन में उन सभी न हुआ था। उन्होंने तर्क में तो बहुतों पर विजय पाई थी। यह विजय श्री जीवन में एक नई प्रेरणा, हुक नई शक्ति का उदय।

उसी रात को सिन्हा और सन्तकुमार ने एक बार फिर देवकुमार पर जोर डालनेका निश्चय किया। दोनों आकर खड़े ही थे कि देवकुमार ने प्रोत्साहन भरे हुए भव से कहा-तुम लोगों ने अभी तक मुआमला दायर नहा कियानाइक ‘कर रहे है।

सन्नकुमार के सूखे हुए निराश मन में अन्ना की आधी सा अर्थ गई। क्या सचमुच कहीं ईश्वर है जिस पर उसे कभी विश्वास नहीं आ जरूर कोई देवी शक्ति है। भांख मांगने आए थे, वरदान मिल गया।

बोला -आप ही की अनुमति का इंतजार था।

में बड़ी खुशी से अनुमति देता हूं। मेरे आशीर्वेद तुम्हारे साथ हैं।

उन्होंने गिरधर दास से जो बातें हुई वह कह सुनाई।

सिन्हा ने नाक फुलाकर कहा- जब आपकी दुआ है तो हमारी फतह है। उन्हें अपने धन का घमंड होगा, मगर यहां भी कच्चो गोलियां नहीं खेली हैं।

सन्तकुमार ऐसा खुश था गोया आधी मंजर तय हो गईबोला-आपरे व उचित जवाब दिया

सिन्हा ने तनी हुई ढोलकी-सी आवाज में वोट मा- ऐसेऐसे सेठों को उगलियों पर नचाते हैं यहां।

सन्तकुमार स्वप्न देखने लगे-यही हम दोनों के बंगले बनेंगे दोस्त। [ ३५८ ]-यहां क्यों, सिविल लाइन्स में बनवायेंगे।

-अंदाज से कितने दिन में फैसला हो जायगा?

- छ: महीने के अंदर।

- बाबू जी के नाम से सरस्वती मंदिर बनवायेंगे।

मगर समस्या भी रुपये कहां से। देवकुमार निस्पृह आदमी थे। धन की कभी उपासना नहीं की। कभी इतना ज्यादा मिला ही नहीं कि संचय करते। किसी महीने में पचास जमा होते तो दूसरे महीने में खर्च हो जाते। अपनी सारी पुस्तकों का कॉपीराइट बेचकर उन्हें पांच हजार मिले थे। वह उन्होंने पंकजा के विवाह के लिए रख दिए थे1 अब ऐसी कोई सूरत नहीं थी जहां से कोई बड़ी रकम मिलती। उन्होंने समझा था सन्तकुमार घर का खर्च रा लगा और वह कुछ दिन आराम से बैठेगे या घूमेंगे। लेकिन इतना बड़ा मंसूबा बांधकर वन अब शांत से बैठ सकते हैं? उनके भक्तों की काफी तादाद भी दो- चार राजे भी अन भक्तों में थे जिनकी यह पुरानी लालसा थी कि देवकुमार जो उनके घर को अपने चणों से पबिन्न करें और वह अपनी 4. या उनके चरणों में अपण करेंमगर देवकुमार थे कि कभी किसी दरार में कदम नहीं रत्रा, अवं अपने प्रेमियों और भक्तों से अधिक संकट का रोना रो रहे थे और टुन्ने शब्दों में सहायता की याचना कर रहे थे। वह अत्मगौरव जैसे किसी कत्र म सा गया हा।

और शीघ्र ही इसका परणाम निकलाएक भवन में प्रस्ताव किया कि देवकुमार जी की साठवों सल्लगरह धाम से मनाई जाय और उन्हें साहित्य प्रेमियों की ओर से एक सैन्नी भेंट की जाध! क्या यह नजा भर दुख की बात नहीं है कि जिम महारथी में अपने जीवन के चालीस वर्ष साहित्य , सत्रा पर अर्पण कर दिएवह इस वृद्धावस्था में भी आर्थिक - चिंताओं से मुक्त न हो? मगहिन्य ग्र न फल फूल सनाजब तक हम अपने ग्ग़ाहित्य मंचयों का ठोस सत्कार करना.न मोहेंग, स्मृषि की उन्नति न करेगा, और दरें समाचारपत्रों मन जह से इसका सर्धन कियाअचरज की बात यह थी कि वह नानुभाव भी जिनका देवर से पुराना साहित्यिक वैमनम्ध था, भी इस अवसर पर उदारता का परिचय देने में। वाले चल पड़ी' क कमे बन गई। एक गज़ा महत्र के प्रधान बन गये। मि सिन्हा ने भी देवकुमार की कोई पुस्तक न पढ़ो थी पर वह इस आंदोलन में प्रमुग्व भाग लेने थेमिस कान और मिस पन्सि की अश में गन या मटिा आंके को पस्त्रों से पीछे न रहना चाहिए। जेट में निधन हुई नगर के इंटरमीडिएट कॉल ज़ में इस त्प की खाग्यिा हांन लगा।

अगर वह न३ आ गयी। आज शाम को वह अतएव होगा। दूर दूर से सहल्य प्रेमी आए हैं, कोई क अभ भाढ़ व थैली भेंट करेंगे। अश से ज्यादा सज्जन जमा ! गए हैं। न्या"यान होंगे, गान होगा, ड्रामा खेला जायगा, प्रीति भोज होगा, कवि सम्मान होगा। शहर में दीवारों पर पोस्टर लगे हुए हैं। सभ्य -समाज में अच्छी हलचन है। राजा साहब सभापति हैं।

देवकुमार को तमा बनने से नफरत थी। पब्लिक जन्नसों में भी कम आते जाते थे। लेकिन आज नो वरात का इल्ज़ा बनना ही पड़ा।ज्यों- ईयों सभा में जाने का समय समीप अला था उनके मन पर एक तरह का अवसाद छथा जाता था। जिस बकत थैली उनको ट थे। [ ३५९ ]
जायगी और वह हाथ बढ़ाकर लेंगे वह दृश्य का लज्जाजनक होगा जिसने कभी धन के लिए हाथ नहीं फैला या वह इस आखरी वक्त में दस का दान ? यह दान ही है, और कल नहीं। एक क्षण के लिए उनक्रा आत्मसम्मान विद्रोही बन गया इस अवसर पर उनके लिए शोभा यही देता है कि वह थैली पाते ही उसी जगह किसी सार्वजनिक संस्था को दे दें। उनके जीवन के आदर्श के लिए यही अनुकूल होगा, लोग उनसे यही आशा रखते हैं, इसी में उनका गौरव है। वह पंडाल में पहुंचे तो उनके मुख पर उल्लास की झलक न थी। वह कुछ रियमियाये से लगने थे। नेकनामी की लालसा एक ओर खींची थी, लोभ दूसरी और मन को कैसे समझाएं कि यह दान दान नहींउनका हक्र है। लोग हंसेंगे , अखिर ऐसे पर टूट पड़ा। उनका जीवन बोडिक था, और वृद्धि जो कुछ करती है नीति पर कसकर करनी है। नीति का सहारा मिल जाय तो फिर वह दुनिया की परवाह नहीं करनी वह पहुंचे तो स्वागत हआ. मंगल-गान हुआ, व्याख्यान होने लगेfनमें उनकी कीर्ति गाई गई। मगर उनकी दशा उम आदमी की-सी हो रही थी जिसके सिर में दद हो रहा हो। उन्हें इस वक्त इस दद को दवा चाहिएकुछ अच्छा नहीं लग रहा है। सभी विद्वान् हैं, मगर उनकी आलोचना कितनी उथलीऊपरी है जैसे कई उनके संदेशों को समझा ही नहीं, जैसे यह सारी वाह-वाह और माग यद37, ध- भक्ति के सिवा और कुछ न था। कोई भी उन्हें नहीं समझाकिस प्रेरणा ने चालीस साल तक उन्हें संभाले रखाबह क्रोन-सा प्रकश था जिसको ज्योति की मंद नहीं हुई|

प' या उन्हे एक आश्रम मिल गया और इनऊ विचारशीलपीले मुख पर हान्की मी मुर्सी दौड़ गई। यह दान नहीं प्राविडेंट फंड है आज तक उनकी आमदनी से जा जी त टता रहा है। मकाक की नोकरी में लोग पंश पाते . क्या वह दान है? उन्हांने जनता की सेवा जी है. तन- मन से की है इस धुन में की है ज: बड़ेम-बड़े वेतन से भी न आ सकती थी। पंशन नन में क्या अनाज आये ।

गज साइब ने जब चेन्नई भेंट देखेमार के मुंह पर गव था, हर्ष था, विजय थीं। दे यां e n o