प्रेमचंद रचनावली ६/गोदान-३२
'नहीं, तुम बताओ।'
वेश्या के प्राण नखों में समा गए। कहां से कहां आशीर्वाद देने चली। जान बच गई थी, चुपके से अपनी राह लेनी चाहिए थी, दुआ देने की सनक सवार हुई। अब कैसे जान बचे?
डरती-डरती बोली-हुजूर का एकबाल बढ़े, नाम बढ़े।
मीनाक्षी मुस्करायी-हां, ठीक है।
वह आकर अपनी कार में बैठी, हाकिम-जिला के बंगले पर पहुंचकर इस कांड की सूचना दी और अपनी कोठी में चली आई। तब से स्त्री-पुरुष दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे थे। दिग्विजयसिंह रिवालवर लिए उसकी ताक में फिरा करते और वह भी अपनी रक्षा के लिए दो पहलवान ठाकुरों को अपने साथ लिए रहती थी। और रायसाहब ने सुख का जो स्वर्ग बनाया था, उसे अपनी जिंदगी में ही ध्वंस होते देख रहे थे। और अब संसार से निराश होकर उनकी आत्मा अंतमुर्खी होती जाती थी। अब तक अभिलाषाओं से जीवन के लिए प्रेरणा मिलती रहती थी। उधर का रास्ता बन्द हो जाने पर उनका मन आप ही आप भक्ति की ओर झुका, जो अभिलाषाओं से कहीं बढ़कर सत्य था। जिस नई जायदाद के आसरे कर्ज लिए थे, वह जायदाद कर्ज की पुरौती किए बिना ही हाथ से निकल गई थी और वह बोझ सिर पर लदा हुआ था। मिनिस्टरी से जरूर अच्छी रकम मिलती थी, मगर वह सारी की सारी उस मर्यादा का पालन करने में ही उड़ जाती थी और रायसाहब को अपना राजसी ठाट निभाने के लिए वही असामियों पर इजाफा और बेदखली और नजराना करना और लेना पड़ता था, जिससे उन्हें घृणा थी। वह प्रजा को कष्ट न देना चाहते थे। उनकी दशा पर उन्हें दया आती थी, लेकिन अपनी जरूरतों से हैरान थे। मुश्किल यह थी कि उपासना और भक्ति में भी उन्हें शान्ति न मिलती थी। वह मोह को छोड़ना चाहते थे, पर मोह उन्हें न छोड़ता था और इस खींच-तान में उन्हें अपमान, ग्लानि और अशान्ति से छुटकारा न मिलता था। और जब आत्मा में शान्ति नहीं, तो देह कैसे स्वस्थ रहती? निरोग रहने का सब उपाय करने पर भी एक न एक बाधा गले पड़ी रहती थी। रसोई में सभी तरह के पकवान बनते थे, पर उनके लिए वही मूंग की दाल और फुलके थे। अपने और भाइयों को देखते थे जो उनसे भी ज्यादा मकरूज, अपमानित और शोकग्रस्त थे, जिनके भोग-विलास में, ठाट-बाट में किसी तरह की कमी न थी, मगर इस तरह की बेहयाई उनके बस में न थी। उनके मन के ऊंचे संस्कारों का ध्वंस न हुआ था। पर-पीड़ा, मक्कारी, निर्लज्जता और अत्याचार को वह ताल्लुकेदारी की शोभा और रोब-दाब का नाम देकर अपनी आत्मा को सन्तुष्ट न कर सकते थे, और यही उनकी सबसे बड़ी हार थी।
बत्तीस
मिर्जा खुर्शेद ने अस्पताल से निकलकर एक नया काम शुरू कर दिया था। निश्चिंत बैठना उनके स्वभाव में न था। यह काम क्या था? नगर की वेश्याओं की एक नाटक-मंडली बनाना। अपने अच्छे दिनों में उन्होंने खूब ऐयाशी की थी और इन दिनों अस्पताल के एकांत में घावों की पीड़ाएं सहते-सहते उनकी आत्मा निष्ठावान् हो गई थी। उस जीवन की याद करके उन्हें गहरी
होती थी, उस वक्त अगर उन्हें समझ होती, तो वह प्राणियों का कितना उपकार कर सकते थे। कितनों के शोक और दरिद्रता का भार हल्का कर सकते थे, मगर वह धन उन्होंने ऐयाशी में उड़ाया। यह कोई नया आविष्कार नहीं है कि संकटों में ही हमारी आत्मा को जागृति मिलती है। बुढ़ापे में कौन अपनी जवानी की भूलों पर दु:खी नहीं होता? काश, वह समय ज्ञान या शक्ति के संचय में लगाया होता, सुकृतियों का कोष भर लिया होता, तो आज चित्त को कितनी शांति मिलती। वहीं उन्हें इसका वेदनामय अनुभव हुआ कि संसार में कोई अपना नहीं, कोई उनकी
मौत पर आंसू बहाने वाला नहीं। उन्हें रह-रहकर जीवन की एक पुरानी घटना याद आती थी। बसरे के गांव में जब वह कैंप में मलेरिया से ग्रस्त पड़े थे, एक ग्रामीण बाला ने उनकी तीमारदारी कितने आत्म-समर्पण से की थी। अच्छे हो जाने पर जब उन्होंने रुपये और आभूषणों से उसके एहसानों का बदला देना चाहा था, तो उसने किस तरह आंखों में आंसू भरकर सिर नीचा कर लिया था और उन उपहारों को लेने से इंकार कर दिया था। इन नसों की शुश्रुषा में नियम है, व्यवस्था है, सच्चाई है, मगर वह प्रेम कहां वह तन्मयता कहां जो उस बाला की अभ्यासहीन,अल्हड़ सेवाओं में थी? वह अनुरागमूर्ति कब की उनके दिल से मिट चुकी थी। वह उससे फिर आने का वादा करके कभी उसके पास न गए। विलास के उन्माद में कभी उसकी याद ही नही आई। आई भी तो उसमें केवल दया थी, प्रेम न था। मालूम नहीं उस बाला पर क्या गुजरी? मगर आजकल उसकी वह आतुर, नम्र, शांत, सरल मुद्रा बराबर उनकी आंखों के सामने फिरा करती थी। काश उससे विवाह कर लिया होता तो आज जीवन में कितना रस होता और उसके प्रति अन्याय के दु:ख ने उस संपूर्ण वर्ग को उनकी सेवा और सहानुभूति का पात्र बना दिया। जब तक नदी बाढ़ पर थी, उसके गंदी तेज फेनिल प्रवाह में प्रकाश की किरणें बिखरकर रह जाती थीं। अब प्रवाह स्थिर और शांत हो गया था और रश्मियां उसकी तह तक पहुंच रही थीं।
मिर्जा साहब बसंत की इस शीतल संध्या में अपने झोंपड़े के बरामदे में दो वारांगनाओं के साथ बैठे कुछ बातचीत कर रहे थे कि मिस्टर मेहता पहुंचे। मिर्जा ने बड़े तपाक से हाथ मिलाया और बोले-मैं तो आपकी खातिरदारी का सामान लिए आपकी राह देख रहा हूं।
दोनों सुंदरियां मुस्कराईं। मेहता कट गए।
मिर्जा ने दोनों औरतों को वहां से चले जाने का संकेत किया और मेहता को मसनद पर बैठाते हुए बोले-मैं तो खुद आपके पास आने वाला था। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि मैं जो काम करने जा रहा हूं, वह आपकी मदद के बगैर पूरा न होगा आप सिर्फ मेरी पीठ पर हाथ रख दीजिए और ललकारते जाइए-हां मिर्जा, बढ़े चल पठ्ठे।
मेहता ने हंसकर कहा-आप जिस काम में हाथ लगाएंगे, उसमें हम जैसे किताबी कीड़ों की जरूरत न होगी। आपकी उम्र मुझसे ज्यादा हैं। दुनिया भी आपने खूब देखी है और छोटे छोटे आदमियों पर अपना असर डाल सकने की जो शक्ति आप में है, वह मुझमें होती, तो मैंने खुदा जाने क्या किया होता।
मिर्जा साहब ने थोड़े-से शब्दों में अपनी नई स्कीम उनसे बयान की। उनकी धारणा थी कि रूप के में बाजार वही स्त्रियां आती हैं, जिन्हें या तो अपने घर में किसी कारण से सम्मानपूर्ण आश्रय नहीं मिलता, या जो आर्थिक कष्टों से मजबूर हो जाती हैं और अगर यह दोनों प्रश्न हल कर दिए जाएं, तो बहुत कम औरतें इस भांति पतित हों।
मेहता ने अन्य विचारवान् सज्जनों की भांति इस प्रश्न पर काफी विचार किया था और
उनका खयाल था कि मुख्यतः मन के संस्कार और भोग-लालसा ही औरतों को इस ओर खींचती है। इसी बात पर दोनों मित्रों में बहस छिड़ गई। दोनों अपने-अपने पक्ष पर अड़ गए।
मेहता ने मुट्ठी बांधकर हवा में पटकते हुए कहा-आपने इस प्रश्न पर ठंडे दिल से गौर नहीं किया। रोजी के लिए और बहुत से जरिए हैं। मगर ऐश की भूख रोटियों से नहीं जाती। उसके लिए दुनिया के अच्छे-से-अच्छे पदार्थ चाहिए। जब तक समाज की व्यवस्था ऊपर से नीचे तक बदल न डाली जाय, इस तरह की मंडली से कोई फायदा न होगा।
मिर्जा ने मूंछें खड़ी कीं-और मैं कहता हूं कि यह महज रोजी का सवाल है। हां, यह सवाल सभी आदमियों के लिए एक-सा नहीं हैं। मजदूर के लिए वह महज आटे-दाल और एक फूस की झोंपड़ी का सवाल है। एक वकील के लिए वह एक कार और बंगले और खिदमतगारों का सवाल है। आदमी महज रोटी नहीं चाहता और भी बहुत-सी चीजें चाहता है। अगर औरतों के सामने भी वह प्रश्न तरह-तरह की सूरतों में आता है तो उनका क्या कसूर?
डाक्टर मेहता अगर जरा गौर करते, तो उन्हें मालूम होता कि उनमें और मिर्जा में कोई भेद नहीं, केवल शब्दों का हेर-फेर है, पर बहस की गर्मी में गौर करने का धैर्य कहां? गर्म होकर बोले-मुआफ कीजिए, मिर्जा साहब, जब तक दुनिया में दौलत वाले रहेंगे, वेश्याएं भी रहेंगी। आपकी मंडली अगर सफल भी हो जाए, हालांकि मुझे उसमें बहुत संदेह है, तो आप दस-पांच औरतों से ज्यादा उनमें कभी न ले सकेंगे, और वह भी थोड़े दिनों के लिए। सभी औरतों में नाट्य करने की शक्ति नहीं होती, उसी तरह जैसे सभी आदमी कवि नहीं हो सकते। और यह भी मान लें कि वेश्याएं आपकी मंडली में स्थायी रूप से टिक जायंगी, तो भी बाजार में उनकी जगह खाली न रहेगी। जड़ पर जब तक कुल्हाडे़ न चलेंगे, पत्तियां तोड़ने से कोई नतीजा नहीं। दौलत वालों में कभी-कभी ऐसे लोगों निकल आते हैं, जो सब कुछ त्यागकर खुदा की याद में जा बैठते हैं, मगर दौलत का राज्य बदस्तूर कायम है। उसमें जरा भी कमजोरी नहीं आने पाई।
मिर्जा को मेहता की हठधर्मी पर दु:ख हुआ। इतना पढ़ा-लिखा विचारवान् आदमी इस तरह की बातें करे। समाज की व्यवस्था क्या आसानी से बदल जाएगी? वह तो सदियों का मुआमला है। तब तक क्या यह अनर्थ होने दिया जाय? उसकी रोकथाम न की जाय, इन अबलाओं को मर्दों की लिप्सा का शिकार होने दिया जाय? क्यों न शेर को पिंजरे में बंद कर दिया जाए कि वह दांत और नाखून होते हुए भी किसी को हानि न पहुंचा सके? क्या उस वक्त तक चुपचाप बैठा रहा जाए, जब तक शेर अहिंसा का व्रत न ले ले? दौलत वाले और जिस तरह चाहें अपनी दौलत उड़ाएं मिर्जा को गम नहीं। शराब में डूब जाएं, कारों की माला गले में डाल लें, किले बनवाएं, धर्मशाले और मस्जिदें खड़ी करें, उन्हें कोई परवा नहीं। अबलाओं की जिंदगी न खराब करें। यह मिर्जाजी नहीं देख सकते। वह रूप के बाजार को ऐसा खाली कर देंगे कि दौलत वालों की अशर्फियों पर कोई थूकनेवाला भी न मिले। क्या जिन दिनों शराब की दुकानों की पिकेटिंग होती थी, अच्छे-अच्छे शराबी पानी पी-पीकर दिल की आग नहीं बुझाते थे?
मेहता ने मिर्जा की बेवकूफी पर हंसकर कहा-आपको मालूम होना चाहिए कि दुनिया में ऐसे मुल्क भी हैं, जहां वेश्याएं नहीं हैं। मगर अमीरों की दौलत वहां भी दिलचस्पियों के सामान पैदा कर लेती है।
मिर्जाजी भी मेहता की जड़ता पर हंसे-जानता हूं मेहरबान, जानता हूं। आपकी दुआ से दुनिया देख चुका हूं, मगर यह हिन्दुस्तान है, यूरोप नहीं है।
'इंसान का स्वभाव सारी दुनिया में एक-सा है।'
मगर यह भी मालूम रहे कि हर एक कौम में एक ऐसी चीज है जिसे उसकी आत्मा कह सकते हैं। असमत (सतीत्व) हिन्दुस्तानी तहजीब की आत्मा है।'
'अपने मुंह मियां-मिट्ठू बन लीजिए।'
'दौलत की आप इतनी बुराई करते हैं, फिर भी खन्ना की हिमायत करते नहीं थकते। कहिएगा!'
मेहता का तेज विदा हो गया। नम्र भाव से बोले-मैंने खन्ना की हिमायत उस वक्त की है, जब वह दौलत के पंजे से छूट गए हैं, और आजकल आप उनकी हालत देखें तो आपको दया आएगी। और मैं क्या हिमायत करुंगा, जिसे अपनी किताबों और विद्यालय से छुट्टी नहीं, ज्यादा-से-ज्यादा सूखी हमदर्दी ही तो कर सकता हूं। हिमायत की है मिस मालती ने कि खन्ना को बचा लिया। इंसान के दिल की गहराइयों में त्याग और कुर्बानी में कितनी ताकत छिपी होती है, इसका मुझे अब तक तजरबा न हुआ था। आप भी एक दिन खन्ना से मिल आइए। फूला न समाएगा। इस वक्त उन्हें जिस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत है, वह हमदर्दी है।
मिर्जा ने जैसे अपनी इच्छा के विरुद्ध कहा-आप कहते हैं, तो जाऊंगा। आपके साथ जहन्नुम में जाने में भी मुझे उज्र नहीं, मगर मिस मालती से तो आपकी शादी होने वाली थी। बढ़ी गर्म खबर थी।
मेहता ने झेंपते हुए कहा-तपस्या कर रहा हूं। देखिए कब वरदान मिले।
'अजी, वह तो आप पर मरती थी।'
'मुझे भी यही वहम हुआ था, मगर जब मैंने हाथ बढ़ाकर उसे पकड़ना चाहा तो देखा वह आसमान पर जा बैठी है। उस ऊंचाई तक तो क्या मैं पहुंचूंगा, आरजू-मिन्नत कर रहा हूं कि नीचे आ जाय। आजकल तो वह मुझसे बोलती भी नहीं।'
यह कहते हुए मेहता जोर से रोती हुई हंसी हंसे और उठ खडे़ हुए।
मिर्जा ने पूछा-अब फिर कब मुलाकात होगी?
'अबकी आपको तकलीफ करनी पड़ेगी। खन्ना के पास जाइएगा जरूर।'
'जाऊंगा।'
मिर्जा ने खिड़की से मेहता को जाते देखा। चाल में वह तेजी न थी, जैसे किसी चिंता में डूबे हों।
डाक्टर मेहता परीक्षक से परीक्षार्थी हो गए हैं। मालती से दूर-दूर रहकर उन्हें ऐसी शंका होने लगी है कि उसे खो न बैठें। कई महीनों से मालती उनके पास न आई थी और जब वह विकल होकर उसके घर गए, तो मुलाकात न हुई। जिन दिनों रुद्रपाल और सरोज का प्रेमकांड चलता