प्रियप्रवास/शाब्दिक विकलांगता

प्रियप्रवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ ५५ से – ६० तक

 


शाब्दिक विकलांगता

इस ग्रन्थ में जायेगे, वैसाही, वैसीही इत्यादि के स्थान पर जायेंगे, वैसिही, वैसही इत्यादि भी कही-कही लिखा गया है। यह शाब्दिक विकलागता पद्य में इस सिद्धान्त के अनुसार अनुचित नहीं समझी जाती “अपि माष मप कुर्यात् छन्दोभड़़्ग न कारयेत्” । अतएव इस विषय में मै विशेष कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं समझता। केवल ‘जायँगे' के विषय में इतना कह देना चाहता हूँ कि अधिकांश लेखक गद्य में भी इस क्रिया को इसी प्रकार लिखते है। नीचे के वाक्यो को देखिये——

“अरे वेणुवेत्रक, पकड़ इस चन्दनदास को घरवाले आप ही रो पीट कर चले जायेंगे"

——भारतेंदु हरिश्चन्द्र (मुद्राराक्षस)

“धार्मिक अथवा सामाजिक विषयों पर विचार न किया जायगा, हिन्दी समाचार पत्रों में छापने के लिये भेज दी जाय"

——द्वि० हि० सा० स० वि० प्रथम भाग पृष्ट ५०-५१

अब इसके प्रतिकूल प्रयोगो को देखिये——

“कहीं भी इतने लाल नहीं होते कि वे बोरियो में भरे जावे ।"
“हिन्दी भाषा के उत्तमोत्तम लेखों के साथ गिना जावे।"
“धीरे धीरे अपने सिद्धान्त के कोसों दूर हो जावेंगे।'

——द्वि० हि० सा० स० वि० की भूमिका पृष्ठ १, २, ४,

"मेरे ही प्रभाव से भारत पायेगा परमोज्ज्वल ज्ञान ।"
"मिट अवश्य ही जायेगा यह अति अनर्थकारी अज्ञान ।"
"जिसमें इस अभागिनी का भी हो जावे अब वेड़ा पार ।"

——श्रीयुत् प० महावीरप्रसाद द्विवेदी

मेरा विचार है कि जायेंगे, जायगा, दी जाय इत्यादि के स्थान पर जायेंगे या जावेगे, जायेगा वा जावेगा, दी जाये वा दी जावे

इत्यादि लिखना अच्छा है, क्योकि यह प्रयोग ऐसी सब क्रियाओ में एक सा होता है, किन्तु प्रथम प्रयोग इस प्रकार की अनेक क्रियाओ में एक सा नहीं हो सकता । जैसे जाना धातु का रूप तो जायेंगे, जायगा इत्यादि वन जावेगा, परन्तु आना, पीना इत्यादि धातुओ का रूप इस प्रकार न बन सकेगा, क्योकि आयगा पीयगा, इत्यादि नहीं लिखा जाता। आयेगा या यावेगा, पीयेगा या पीवेगा इत्यादि ही लिखा जाता है।

विशेषण-विभिन्नता

हिन्दी भाषा के गद्य-पद्य दोनों में विशेषण के प्रयोग में विभिन्नता देखी जाती है । सुन्दर स्त्री या सुन्दरी स्त्री, शोभित लता या शोभिता लता, दोनो लिखा जाता है। निम्नलिखित गद्य-पद्य को दखिये——इनमें श्रापको दोनो प्रकार का प्रयोग मिलेगा——

"अभी जो इसने अपने कानो को छूनेवाली चञ्चल चितवन से मुझे देखा"

"जो स्त्रियां ऐसी सुन्दर हैं उन पर पुरुष को आसक्त कराने में कामदेव को अपना धनुष नहीं चढाना पडता"

——कर्पूरमंजरी पृष्ठ १० ११

"निरवलम्बा, शोकमागरमग्ना, अभागिनी अपनी जननी की दुरवस्था एक बार तो आँखें खोल कर देखो"

"तुम लोग अब एक वेर जगतविख्याता, ललनाकुलकमलकलिकाप्रकाशिका, राजनिचयपूजितपादपीठा, सरल्हृदया,आईचित्ता,प्रजारजनकारिणी, दयागीला, आर्यन्यामिनी, राजराजेश्वरी महारानी विक्टोरिया के चरणकमली में अपने दुस को निवेदन करो"

——भारत जननी पृष्ठ ९, ११

“धूनी तो आग की ज्वाला चञ्चल गिग्वा झलफती है"
“कोमल, मृदुल, मिष्टयाणी मे दुख का रेनु परसता है'
“अपनी अमृतमयी वाणी ने प्रेमसुधा वरमाता था'

——एकान्तमानी योगी (प.श्रीधर पाठक)

“जयति पतिप्रेमपनप्रानसीता ।

नेहनिधि रामपद प्रेमअवलम्बिनी सततसहवास पतिव्रत पुनीता"

——प० श्रीधर पाठक

“भृकुटी विकट मनोहर नासा"
“सोह नवल तन सुन्दर सारी"
“मोह नदी कहें सुन्दर तरनी"
“सकल परमगति के अधिकारी"
“पुनि देखी सुरसरी पुनीता"
“मम धामदा पुरी सुखरासी"
“नखनिर्गता सुरबन्दिता त्रयलोकपावन सुरसरी"

——महात्मा तुलसीदास

इस सवसम्मत प्रणाली पर दृष्टि रख कर ही इस ग्रन्थ में भी विशेषणों का प्रयोग उभय रीति से किया गया है।

हिन्दी-प्रणाली प्रस्तुत शब्द

कुछ शब्द इसमे ऐसे भी प्रयुक्त हुए है, जो सर्वथा हिन्दी प्रणाली पर निर्मित है। संस्कृत-व्याकरण का उनसे कुछ सम्बन्ध नहीं है। यदि उसकी पद्धति के अनुसार उनके रूपो की मीमांसा की जावेगी तो वे अशुद्ध पाये जावेगे, यद्यपि हिन्दी भाषा के नियम से वे शुद्ध हैं। ए शब्द मृगहगी, हगता इत्यादि हैं । मृगहगी का मृगहपी, धगता का धक्ता शुद्ध रूप है, परन्तु कवितागत सौकर्य-सम्पादन के लिये उनका वही रूप रखा गया है। हिन्दी भाषा के गद्य-पद्य दोनो मे इसके उदाहरण मिलेगे, एक यहाँ पर दिया जाता है——

“ऐसी रुचिर-दृगी मृगियों के आगे शोभित भले प्रकार" ।

बाबू मैथिलीशरण गुप्त ( सरस्वती भाग ८ संख्या ६ पृष्ठ २४४) शब्द-विन्यास विभिन्नता शब्द-विन्यास में भी विभिन्नता इस ग्रन्थ में आप लोगो को मिलेगी, ऐसा अधिकतर पद्य की भाषा का विचार कर के और कहीं कहीं छन्द की अवस्था पर दृष्टि रख कर हुआ है। ‘रोये बिना न छन भी मन मानता था',‘गेना महा अशुभ जान पयान वेला' यदि मैं इन चरणों में छन के स्थान पर क्षण, पयान के स्थान पर प्रयाण लिखता तो इनके लालित्य में कितना अन्तर पड़ जाता। इसी प्रकार यदि में ‘सचेष्ट होते भर वे क्षणेक थे, इस चरण में क्षणेक के स्थान पर छनेक लिख देता तो इसके ओज और रस में कितना विभेद होता, और यही कारण है कि आप इस ग्रन्थ में कही छन कही क्षण, कहीं-भाग कहीं भाग्य, कहीं पयान कहीं प्रयाण इत्यादि विभिन्न प्रयोग देखेंगे।

मैने इस विषय का पूर्ण ध्यान रखा है कि ग्रन्थ की भाषा एक प्रकार की हो, और यथाशक्य मैने ऐसा किया भी है, तथापि रस और अवसर के अनुसरण से आप इस ग्रन्थ की भाषा को स्थान स्थान पर परिवर्तित पावेंगे। मैंने ऊपर कहा है कि जिस पद्य में मुझको जिस प्रकार का शब्द रखना उचित जान पड़ा, मैंने उसमें वैसा ही शब्द रखा है, परन्तु नहीं कह सकता कि में अपने उद्देश्य में कहाँ तक कृतकार्य हुआ हूँ, और सहृदय कवि एव विद्वानों को मेरी यह परिपाटी कहाँ तक उचित जान पडेगी। मेरा यह भी विचार हुआ था कि मैं व्रज भाषा की प्रणाली के अनुसार ण, श इत्यादि को न, स इत्यादि से बदल कर इस ग्रंथ की भाषा का विशेष कोमल कर दूं । रमणीय, श्रवण, शोभा, शक्ति इत्यादि को रमनीय, स्त्रवन, सोभा, सक्ति कर के लिखूॅ । परन्तु ऐसा करने से प्रथम तो इस ग्रन्थ की भाषा वर्तमान-काल की गद्य की भाषा से अधिक भिन्न हो जाती, दूसरे इममें जो संस्कृत का यतकिंचिन् रंग

है वह न रहता और भदापन एवं अमनोहारित्व आ जाता। इस समय जितना ‘रमणीय' शब्द श्रुतिसुखद और प्यारा ज्ञात होता है उतना रमनीय नहीं, जो ‘शोभा' लिखने में सौन्दर्य और समादर है वह ‘सोभा' लिखने में नही । अतएव कोई कारण नहीं था कि मैं सामयिक प्रवृत्ति और प्रवाह पर दृष्टि न रख कर एक स्वतन्त्र पथ ग्रहण करता । किसी कवि ने कितना अच्छा कहा है——

“दधि मधुर मधु मधुर द्राक्षा मधुरा सितापि मधुरैव ।
तस्य तदेवहि मधुर यस्य मनोवाति यत्र सलग्नम् ।।"

इस ग्रन्थ में आप कही कही बहु वचन में भी यह और वह का प्रयोग देखेगे, इसी प्रकार कहीं कही यहाँ के स्थान पर.यॉ, वहाँ के स्थान पर वॉ, नहीं के स्थान पर न और वह के स्थान पर सो का प्रयोग भी आप को मिलेगा। उर्दू के कवि एक वचन और बहु वचन दोनों में यह और वह लिखते हैं, और यहाँ और वहॉ के स्थान पर प्राय यॉ और वॉ का प्रयोग करते है, परन्तु मैंने ऐसा संकीर्ण स्थलो पर ही किया है। हिन्दी भाषा के आधुनिक पद्य-लेखकों को भी ऐसा करते देखा जाता है। मेरा विचार है कि वहु वचन में ए और वे का प्रयोग ही उत्तम है और इसी प्रकार यहाँ और वहाँ लिखा जाना ही यथाशक्य अच्छा है, अन्यथा चरण सकीर्ण स्थलो पर अनुचित नही, परन्तु वही तक वह ग्राह्य है जहाँ तक कि मर्यादित हो। नही और वह के स्थान पर न और सो के विषय में भी मेरा यही विचार है। उक्त शब्दो के व्यवहार के उदाहरण स्वरूप कुछ पद्य और गद्य नीचे लिखे जाते है——

“जिन लोगो ने इस काम में महारत पैदा की है, वह लफजो को देखकर साफ पहचान लेते हैं"

“ख्यालात का मरतबा जबान से अव्वल है, लेकिन जब तक वह दिल में है, माँ के पेट में अधूरे बच्चे हैं"
“या यह दोनों जवानें एक जवान से इस तरह निकली होगी, जिस तरह एक बाप की दो बेटियों जुदा हो गई"

“वरना सानाबदोशी के आल्म मे खुशबाश जिन्दगी बसर करते हैं, यर जगलों के चरिन्द और पहाड़ो के परिन्द ऐसी बोलियों बोलते हैं।"

——सखुनदान फारस, सफहा २, ६, २५

“वह झाड़ियाँ चमन की वह मेरा आशियाना ।

बह आग की बहारें वह सबका मिलके गाना ।।"

(सरस्वती पत्रिक)


तो वाँ जरा जरा यह करता है एला।
हवा याँ की थी जिन्दगी बख्या दौरा ।।
कि आती हो वाँ से नजर सारी दुनिया ।
जमाना की गरदिश से है किसको चारा ।।

कभी यौँ सिकन्दर कभी याँ है दारा।"

——मुसद्दसहाली


धन्य वही परमातमा जो यों तक लाया हमें।"

——सरस्वती पत्रिका भाग ८ सख्या १ पृष्ठ २५

“जाद न बरनि मनोहर जोरी । दरस लालसा सकुच न थोरी ॥"

——महात्मा तुलसीदास

“रूप मुधा इकली ही पियै पिय को न आरसी देखन देत है" '

——भारतेन्दु हरिश्चंद्र

“न स्वर्ग भी सुसद जो परतन्त्रता है"

——पं० महावीरप्रसाद द्विवेदी

“सो तो कियो वायु सेवन को मानहुँ अपर प्रकारा है"

"सबै सो अहो एक तेरे निहोरे"

--पडित महावीरप्रसाद द्विवेदी

“और जो है तो है ही, किन्तु पाठक जरा इस कथन को ध्यानपूर्वक देखें"

——अभ्युदय, भाग ८ संख्या ३ पृष्ठ ३ कालम ३