प्रियप्रवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ ११४ से – १२७ तक

 
पंचम सर्ग
मन्दाक्रान्ता छन्द

तारे डूबे तम टल गया छा गई व्योम-लाली।
पक्षी बोले तमचुर जगे ज्योति फैली दिशा में।
शाखा डोली तरु निचय की कंज फूले सरों में।
धीरे-धीरे दिनकर कढ़े तामसी रात बीती॥1॥

फूली फैली लसित लतिका वायु में मन्द डोली।
प्यारी-प्यारी ललित-लहरें भानुजा में विराजीं।
सोने की सी कलित किरणें मेदिनी ओर छूटीं।
कूलों कुंजों कुसुमित वनों में जगी ज्योति फैली॥2॥

प्रात: शोभा ब्रज अवनि में आज प्यारी नहीं थी।
मीठा-मीठा विहग रव भी कान को था न भाता।
फूले-फूले कमल दव थे लोचनों में लगाते।
लाली सारे गगन-तल की काल-व्याली समा थी॥3॥

चिन्ता की सी कुटिल उठतीं अंक में जो तरंगें।
वे थीं मानो प्रकट करतीं भानुजा की व्यथायें।
धीरे-धीरे मृदु पवन में चाव से थी न डोली।
शाखाओं के सहित लतिका शोक से कंपिता थी॥4॥

फूलो पत्तो सकल पर है वारि बूँदे दिखाती ।
रोते है या विटप सब यो आँसुओ को दिखा के ।
रोई थी जो रजनि दुख से नंद की कामिनी के ।
ये बूंदें है, निपतित हुई या उसीके दृगो से ।।५।।

पत्रो पुष्पो सहित तरु की डालियाँ औ लताये ।
भीगी सी थी विपुल जल मे वारि-बूँदो भरी थी ।
मानो फूटी सकल तन मे शोक की अश्रुधारा ।
सर्वागो से निकल उनको सिक्तता दे वही थी ॥६॥

धीरे धीरे पवन ढिग जा फूलवाले द्रुमो के ।
शाखाओ से कुसुम - चय को थी धरा पै गिराती ।
मानो यो थी हरण करती फुल्लता पादपो की ।
जो थी प्यारी न व्रज-जन को आज न्यारी व्यथासे ।। ७ ॥

फूलो का यो अवनि-तल मे देख के पात होना ।
ऐसी भी थी हृदय-तल मे कल्पना आज होती ।
फूले फूले कुसुम अपने अक मे से गिरा के ।
बारी बारी सकल तरु भी खिन्नता है दिखाते ॥८॥

नीची ऊंँची सरित सर की बीचियाँ ओस बूँदे ।
न्यारी आभा बहन करती भानु की अंक मे थी ।
माना यो वे हृदय-तल के ताप को थी दिखाती ।
या दावा थी व्यथित उर मे दीप्तिमाना दुखो की ॥९॥

सारा नीला-सलिल सरि का शोक-छाया पगा था ।
कजो मे से मधुप कढ़ के घूमते थे भ्रमे से ।
मानो खोटी-विरह - घटिका सामने देख के ही ।
कोई भी थी अवनत - मुखी कान्तिहीना मलीना ॥१०॥



जो भूरि भूत जनता समवेत वॉ थी ।
सो कंस भूप भय से बहु कातरा थी ।
संचालिता विषमता करती उसे थी। ।
संताप की विविध - संशय की दुखो की॥१७॥

नाना प्रसंग उठते जन-संघ मे थे ।
जो थे सशंक सबको बहुश बनाते ।
था सूखता अधर औ कॅपता कलेजा ।
चिन्ता-अपार चित मे चिनगी लगाती ॥१८॥

रोना महा - अशुभ जान प्रयाण - काल ।
ऑसू न ढाल सकती निज नेत्र से थी ।
रोये बिना न छन भी मन मानता था ।
डूबी द्विधा जलधि मे जन-मण्डली थी ।।१९।।

मन्दाक्रान्ता छन्द
आई बेला हरि - गमन की छा गई खिन्नता सी ।
थोड़े ऊँचे नलिनपति हो जा छिपे पादपो मे ।
आगे सारे स्वजन करके साथ अक्रूर को ले ।
धीरे धीरे सजनक कढ़े सम मे से मुरारी ॥२०॥

आते ऑसू अति कठिनता से सँभाले हगो के ।
होती खिन्ना हृदय - तल के सैकडो संशयो से ।
थोड़ा पीछे प्रिय तनय के भूरि शोकाभिभूता ।
नाना वामा सहित निकली गेह मे से यशोदा ।।२१।।

द्वारे आया व्रज नृपति को देख यात्रा निमित्त ।
भोला भोला निरख मुखड़ा फूल से लाडिलों का ।
खिन्ना दीना परम लख के नन्द की भामिनी को ।
चिन्ता'डूबी सकल जनता हो उठी कम्पमाना ।।२२।।



बूढ़े के ए वचन सुनके नेत्र मे नोर आया ।
ऑसू रोके परम मृदुता साथ अकर बोले ।
क्यो होते है दुखित इतने मानिये बात मेरी ।
आ जावेगे विवि दिवस मे आप के लाल दोनो ॥२९॥

आई प्यारे निकट श्रम से एक वृद्धा-प्रवीणा ।
हाथो से छू कसल-मुख को प्यार से ली बलाये ।
पीछे बोली दुखित स्वर से तू कही जा न बेटा ।
तेरी माता अहह कितनी बावली हो रही है ॥३०॥

जो रूठेगा नृपति व्रज का बासही छोड़ दूंँगी ।
ऊँचे ऊँचे भवन तज के जंगलो मे वसूंगी ।
खाऊँगी फूल फल दल को व्यजनो को बनूंँगी ।
मै ऑखो से अलग न तुझे लाल मेरे करूँगी ॥३१॥

जाओगे क्या कुँवर मथुरा कंस का क्या ठिकाना ।
मेरा जी है बहुत डरता क्या न जाने करेगा ।
मानूॅगी मै न सुरपति को राज ले क्या करूँगी ।
तेरा प्यारा - वदन लख के स्वर्ग को मै तजूॅगी ॥३२॥

जो चाहेगा नृपति मुझ से दंड दुॅगी करोड़ो ।
लोटा थाली सहित तन के वस्त्र भी बेच दुॅगी ।
जो मॉगेगा हृदय वह तो काढ़ दुॅगी उसे भी ।
बेटा, तेरा गमन मथुरा मै न ऑखो लखूॅगी ॥३३॥

कोई भी है न सुन सकता जा किसे मैं सुनाऊँ ।
मै हूँ मेरा हृदयतल है है व्यथाये अनेको ।
बेटा, तेरा सरल मुखड़ा शान्ति देता मुझे है ।
क्यो जीऊँगी कुँवर, वतला जो चला जायगा तू ॥३४॥



पक्षी की औ सुरभि सब की देख ऐसी दशायें ।
थोड़ी जो थी अहह! वह भी धीरता दूर भागी ।
हा हा! शब्दो सहित इतना फूट के लोग रोये ।
हो जाती थी निरख जिसको भग्न छाती शिला की ॥४१॥

आवेगो के सहित बढ़ता देख संताप - सिधु ।
धीरे धीरे ब्रज - नृपति से खिन्न अक्रूर बोले ।
देखा जाता व्रज दुख नही शोक है पाता ।
आज्ञा देवे जननि पग छू यान पै श्याम बैठे ॥४२॥

आज्ञा पाके निज जनक की, मान अक्रूर वाते ।
जेठे भ्राता सहित जननी - पास गोपाल आये ।
छू माता के पग कमल को धीरता साथ बोले।
जो आज्ञा हो जननि अव तो यान पै बैठ जाऊँ ।।४३।।

दोनों प्यारे कुँवरवर के यो विदा मॉगते ही ।
रोके ऑसू जननि ढ्ढग में एक ही साथ आये ।
धीरे बोली परम दुख से जीवनाधार-जाओ ।
दोनो भैया विधुमुख हमे लौट आके दिखाओ ॥४४।।

धीरे धीरे सु - पवन बहे स्निग्ध हो अंशुमाली ।
प्यारी छाया विटप वितरे शान्ति फैले वनो मे ।
बाधायें हो शमन पथ की दूर हो आपदाये ।
यात्रा तेरी सफल सुत हो क्षेम से गेह आओ ॥४५॥

ले के माता- चरणरज को श्याम औ राम दोनो ।
आये विप्रो निकट उन के पॉव की वन्दना की ।
भाई - बन्दो सहित मिलके हाथ जोड़ा बड़ो को ।
पीछे बैठे विशद रथ में वोध दे के सबो को ।।४६।।

दोनो प्यारे कुँवर वर को यान पै देख बैठा ।
आवेगो से विपुल विवशा हो उठी नन्दरानी ।
ऑसू आते युगल दृग से वारिधारा बहा के ।
बोली दीना सदृश पति से दग्ध हो हो दुखो से ॥४७॥

मालिनी छन्द
अहह दिवस ऐसा हाय! क्यो आज अाया ।
निज प्रियसुत से जो मै जुदा हो रही हूँ ।
अगणित गुणवाली प्राण से नाथ प्यारी ।
यह अनुपम थाती मै तुम्हे सौपती हूँ ॥४८।।

सव पथ कठिनाई नाथ है जानते ही ।
अव तक न कहीं भी लाडिले है पधारे ।
मधुर फल खिलाना दृश्य नाना दिखाना ।
कुछ पथ - दुख मेरे वालको को न होवे ।।४९।।

खर पवन सतावे लाडिलो को न मेरे ।
दिनकर किरणो की ताप से भी बचाना ।
यदि उचित जॅचे तो छोह मे भी विठाना ।
मुख - सरसिज ऐसा म्लान होने न पावे ॥५०॥

विमल जल मॅगाना देख प्यासा पिलाना ।
कुछ क्षुधित हुए ही व्यजनो को खिलाना ।
दिन वदन सुतो का देखते ही विताना ।
विलसित अधरो को सूखने भी न देना ।।५१।।

युग तुरग सजीले वायु से वेग वाले ।
अति अधिक न दौडे यान धीरे चलाना ।
बहु हिल कर हाहा कष्ट कोई न देवे ।
परम मृदुल मेरे वालको का कलेजा ।।५२।।

प्रिय! सब नगरो मे वे कुवामा मिलेगी ।
न सुजन जिनकी है वामता बूझ पाते ।
सकल समय ऐसी सॉपिनो से बचाना ।
वह निकट हमारे लाडिलो के न आवे ॥५३॥

जब नगर दिखाने के लिये नाथ जाना ।
निज सरल कुमारो को खलो से बचाना ।
सँग सँग रखना औ साथ ही गेह लाना ।
छन सुअन गो से दूर होने न पावे ॥५४॥

धनुष मख सभा मे देख मेरे सुतो को ।
तनिक भृकुटि टेढ़ी नाथ जो कस की हो ।
अवसर लख ऐसे यत्न तो सोच लेना ।
न कुपित नृप होवे औ वचे लाल मेरे ।।५५।।

यदि विधिवश सोचा सूप ने और ही हो ।
यह विनय बड़ी ही दीनता से सुनाना ।
हम बस न सकेगे जो हुई दृष्टि मैली ।
सुअन युगल ही है जीवनाधार मेरे ॥५६।।

लख कर मुख सूखा सूखता है कलेजा ।
उर विचलित होता है विलोके दुखो के ।
शिर पर सुत के जो आपदा नाथ आई ।
यह अवनि फटेगी और समा जाउँगी मै ॥५७।।

जगकर कितनी ही रात मैने बिताई ।
यदि तनिक कुमारो को हुई बेकली थी ।
यह हृदय हमारा भग्न कैसे न होगा ।
यदि कुछ दुख होगा बालको को हमारे ॥५८।‌।

कब शिशिर निशा के शीत को शीत जाना।
थर थर कॅपती थी औ लिये अक मे थी।
यदि सुखित न यो भी देखती लाल को थी।
सव रजनि खडे औ घूमते ही विताती ॥५९।।

निज सुख अपने मै ध्यान मे भी न लाई।
प्रिय सुत सुख ही से मै सुखी हूँ कहाती ।
मुख तक कुम्हलाया नाथ मैने न देखा।
अहह दुखित कैसे लाडिले को ललूँगी ॥६०।।

यह समझ रही हूँ और हूँ जानती ही।
हृदय धन तुमारा भी यही लाडिला है।
पर विवश हुई हूँ जी नहीं मानता है।
यह विनय इसीसे नाथ मैने सुनाई ॥६१॥

अब अधिक कहूँगी आपसे और क्या मै।
अनुचित मुझसे है नाथ होता बड़ा ही।
निज युग कर जोडे ईश से हूँ मनाती।
सकुशल गृह लौटे आप ले लाडिलो को ।।६२।।

मन्दाक्रान्ता छन्द
सारी बाते प्रति दुखभरी नन्द-अर्द्धाङ्गिनी की।
लोगो को थी व्यथित करती औ महा कष्ट देती।
ऐसा रोई सकल-जनता खो वची धीरता को ।
भू मे व्यापी विपुल जिससे शोक उच्छ्वासमात्रा ॥६३॥

आविर्भता गगन-तल मे हो रही है निराशा ।
आशाओं मे प्रकट दुख की मूर्तियाँ हो रही है।
ऐसा जी मे ब्रज-दुख-दशा देख के था समाता।
भू-छिद्रो से विपुल करुणा-धार है फूटती सी ॥६४॥

सारी बाते सदुख सुन के नन्द ने कामिनी को ।
प्यारे प्यारे वचन कह के धीरता से प्रवोधा ।
आई थी जो सकल जनता धैर्य दे के उसे भी ।
वे भी बैठे स्वरथ पर जा साथ अक्रूर को ले ॥६५॥

घेरा आके सकल जन ने यान को देख जाता ।
नाना बाते दुखमय कहीं पत्थरो को रुलाया ।
हाहा खाया वहु विनय की और कहा खिन्न हो के ।
जो जाते हो कुँवर मथुरा ले चलो तो सभी को ।।६६।।

बीसो बैठे पकड़ रथ का चक्र दोनो करो से ।
रासे ऊँचे तुरग युग की थाम ली सैकड़ो ने ।
सोये भू मे चपल रथ के सामने आ अनेको ।
जाना होता अति अप्रिय था बालकां का सबो कां ॥६७॥

लोगो को यो परम-दुख से देख उन्मत्त होता ।
नीचे आये उतर रथ के नन्द औ यो प्रबोधा ।
क्यो होते हो विकल इतना यान क्यो रोकते हो ।
मै ले दोनो हृदय धन को दो दिनो मे फिरूँगा ॥६८॥

देखो लोगो, दिन चढ गया धूप भी हो रही है ।
जो रोकोगे अधिक अव तो लाल को कष्ट होगा ।
यो ही वाते मूदुल कह के औ हटा के सबो को ।
वे जा बैठे तुरत रथ मे औ उसे शीघ्र हॉका ॥६९।।

दोनो तीखे तुरग उचके औ उड़े यान को ले ।
आशाओ मे गगन-तल मे हो उठा शब्द हाहा ।
रोये प्राणी सकल ब्रज के चेतनाशून्य से हो ।
सज्ञा खो के निपतित हुई मेदिनी मे यशोदा ।।७०।।

जो आती थी पथरज उड़ी सामने टाप द्वारा ।
बोली जाके निकट उसके भ्रान्त सी एक बाला ।
क्यो होती है भ्रमित इतनी धूलि क्यो क्षिप्त तू है ।
क्या तू भी है विचलित हुई श्याम से भिन्न हो के ॥७१॥

आ आ, आके लग हृदय से लोचनो मे समा जा ।
मेरे अंगो पर पतित हो बात मेरी बना जा ।
मै पाती हूँ सुख रज तुझे आज छूके करो से ।
तू आती है प्रिय निकट से कुन्ति मेरी मिटा जा ।।७२।।

रत्नो वाले मुकुट पर जा बैठती दिव्य होती ।
जो छा जाती अलक पर तू तो छटा मंजु पाती ।
धूली तू है। निपट मुझ सी भाग्यहीना मलीना ।
आभा वाले कमल-पग से जो नहीं जा लगी तू ।।७३।।

जो तू जाके विशद रथ में बैठ जाती कही भी ।
किम्बा तू जो युगल तुरगो के तनो मे समाती ।
तो तू जाती प्रिय स्वजन के साथ ही शान्ति पाती ।
यो हो हो के भ्रमित मुझ सी भ्रान्त कैसे दिखाती ।।७४।।

हा! मैं कैसे निज हृदय की वेदना को बताऊँ ।
मेरे जी को मनुज तन से ग्लानि सी हो रही है ।
जो मैं होती तुरग अथवा यान ही या ध्वजा ही ।
तो मैं जाती कुँवर वर के साथ क्यो कष्ट पाती ॥७५॥

बोली बाला अपर अकुला हा! सखी क्या कहूँ मैं ।
आँखो से तो अब रथ ध्वजा भी नहीं है दिखाती ।
है धूली ही गगन - तल मे अल्प उड्डीयमाना ।
हा! उन्मत्ते! नयन भर तू देख ले धूलि ही को ॥७६।।

जी होता है विकल मुँह को पा रहा है कलेजा ।
ज्वाला सी है ज्वलित उर मे अवती मै महा हूँ ।
मेरी आली अब रथ गया दूर ले सॉवले को ।
हा! ऑखो से न अब मुझ को धूलि भी है दिखाती ।।७७।।

टापो का नाद जव तक था कान में स्थान पाता ।
देखी जाती जब तक रही यान ऊँची पताका ।
थोड़ी सी भी जब तक रही व्योम मे धूलि छाती ।
यो ही बाते विविध कहते लोग ऊबे खड़े थे ।।७८॥

द्रुतविलम्बित छन्द

तदुपरान्त महा दुख मे पगी ।
बहु विलोचन वारि विमोचती ।
महरि को लख गेह सिधारती ।
गृह गई व्यथिता जनमंडली ‌‌।।७९।।

मन्दाक्रान्ता छन्द

धाता द्वारा स्मृजित जग मे हो धरा मध्य आके ।
पाके खोये विभव कितने प्राणियो ने अनेको ।
जैसा प्यारा विभव व्रज ने हाथ से आज खोया ।
पाके ऐसा विभव वसुधा मे न खोया किसी ने ॥८०॥