प्रियप्रवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ ९० से – १०४ तक

 

द्रुतविलम्बित छन्द

समय था सुनसान निशीथ का ।
अटल भूतल मे तम - राज्य था ।
प्रलय - काल समान प्रसुप्त हो ।
प्रकृति निश्चल, नीरव, शान्त थी ।।१।।

परम - धीर समीर - प्रवाह था ।
वह मनो कुछ निद्रित था हुआ ।
गति हुई अथवा अति - धीर थी ।
प्रकृति को सुप्रसुप्त विलोक के ॥२॥

सकल - पादप नीरव थे खडे ।
हिल नहीं सकता यक पत्र था ।
च्युत हुए पर भी वह मौन ही ।
पतित था अवनी पर हो रहा ॥३॥

विविध - शब्द-मयी वन की धरा ।
अति - प्रशान्त हुई इस काल थी ।
ककुभ औ नभ - मण्डल में नहीं ।
रह गया रव का लवलेश था ॥४॥

सकल - तारक भी चुपचाप ही ।
वितरते अवनी पर ज्योति थे ।
विकटता जिस से तम - तोम की ।
कियत थी अपसारित हो रही ॥५॥

अवश तुल्य पड़ा निशि अंक मे ।
अखिल-प्राणि-समूह अवाक था ।
तरु - लतादिक बीच प्रसुप्ति की ।
प्रबलता प्रतिविम्बित थी हुई ।।६।।

रुक गया सब कार्य - कलाप था ।
वसुमती-तल भी अति - मूक था ।
सचलता अपनी तज के मनो ।
जगत था थिर हो कर सो रहा ।।७।।

सतत शब्दित गेह समूह मे ।
विजनता परिवर्द्धित थी हुई ।
कुछ विनिद्रित हो जिनमे कही ।
झनकता यक झीगुर भी न था ।।८।।

वदन से तज के मिष धूम के ।
शयन - सूचक श्वास- समूह को।
झलमलाहट - हीन - शिखा लिये ।
परम - निद्रित सा गृह - दीप था ।।९।।

भनक थी निशि - गर्भ तिरोहिता ।
तम - निमज्जित आहट थी हुई ।
निपट नीरवता सब ओर थी ।
गुण-विहीन हुआ जनु व्योम था ॥१०॥

इस तमोमय मौन निशीथ की ।
सहज-नीरवता क्षिति - व्यापिनी ।
कलुषिता व्रज की महि के लिये ।
तनिक थी न विरामप्रदायिनी ॥११॥

दलन थी करती उस को कभी ।
रुदन की ध्वनि दूर समागता ।
वह कभी बहु थी प्रतिघातिता ।
जन - विवोधक-कर्कश - शब्द से ॥१२॥

कल प्रयाण निमित्त जहाँ तहाँ ।
वहन जो करते बहु वस्तु थे ।
श्रम सना उनका रव-प्रायश ।
कर रहा निशि-शान्ति विनाश था ।।१३।।

प्रगटती बहु-भीपण मूर्ति थी ।
कर रहा भय ताण्डव नृत्य था ।
विकट - दन्त भयकर - प्रेत भी ।
विचरते तरु - मूल - समीप थे ॥१४॥

वदन व्यादन पूर्वक प्रेतिनी ।
भय - प्रदर्शन थी करती महा ।
निकलती जिससे अविराम थी ।
अनल की अति-त्रासकरी-शिखा ॥१५।।

तिमिर - लीन - कलेवर को लिये ।
विकट - दानव पादप थे बने ।
भ्रममयी जिनकी विकरालता ।
चलित थी करती पवि : चित्त को ।।१६।।

अति - सशकित और सभीत हो ।
मन कभी यह था अनुमानता ।
ब्रज समूल विनाशन को खडे ।
यह निशाचर है नृप - कंस के ॥१७।।



जब कभी बढती उर की व्यथा ।
निकट जा करके तब द्वार के ।
वह रहे नभ नीरव देखते ।
निशि - घटी अवधारण के लिये ॥२४॥

सब - प्रबन्ध प्रभात - प्रयाण के ।
यदिच थे रव - वर्जित हो रहे ।
तदपि रो पडती सहसा रहीं ।
विविध कार्य-रता गृहदासियाँ ।।२५।।

जब कभी यह रोदन कान मे ।
व्रज - धराधिप के पडता रहा ।
तड़पते तब यो वह तल्प पै ।
निशित-शायक - विद्धजनो यथा ॥२६॥

ब्रज - धरा - पति कक्ष समीप ही ।
निपट - नीरव कक्ष विशेप मे ।
समुद थे व्रज - वल्लभ सो रहे ।
अति - प्रफुल्ल मुखांबुज मंजु था ॥२७॥

निकट कोमल तल्प मुकुन्द के ।
कलपती जननी उपविष्ट- थी ।
हा. अति - असयत अश्रु - प्रवाह से ।
वदन - मण्डल प्लावित था हुआ ॥२८॥

हृदय मे उनके उठती रही ।
भय-भरी अति-कुत्सित-भावना ।
विपुल - व्याकुल वे इस काल थी ।
जटिलता - वश कौशल- जाल की।।२९।।



वरन कम्पित - शीश प्रदीप भी ।
कर रहा उनको बहु - व्यग्र था ।
अति-समुज्वल-सुन्दर - दीप्ति भी ।
मलिन थी अतिही लगती उन्हे ।।३६।।

जब कभी घटता दुख - वेग था ।
तव नवा कर वे निज - शीश को ।
महि विलम्बित हो कर जोड के ।
विनय यो करती चुपचाप थी ।।३७।।

सकल - मगल - मूल कृपानिधे ।
कुशलतालय हे कुल - देवता ।
विपद सकुल है कुल हो रहा ।
विपुल वाछित है अनुकूलता ॥३८॥

परम - कोमल - वालक श्याम ही ।
कलपते कुल का यक चिन्ह है ।
पर प्रभो! उस के प्रतिकूल भी ।
अति - प्रचड़ - समीरण है उठा ॥३९।।

यदि हुई न कृपा पद-कज की ।
टल नहीं सकती यह आपदा ।
मुझ सशकित को सव काल ही ।
पद - सरोरुह का अवलम्ब है ॥४०॥

कुल विवर्द्धन पालन ओर ही ।
प्रभु रही भवदीय सुदृष्टि है ।
यह सुमगल मृल सुटष्टि ही ।
अति अपेक्षित है इस काल भी ।।४१।।



द्रुतविलम्बित छन्द
यह प्रलोभन है न कृपानिधे ।
यह अकोर प्रदान न है प्रभो ।
वरन है यह कातर - चित्त की ,
परम - शान्तिमयी - अवतारणा ॥४८॥

कलुप - नाशिनि दुष्ट - निकंदिनी ।
जगत की जननी भव-वल्लभे ।
जननि के जिय की सकला व्यथा ।
जननि ही जिय है कुछ जानता ।।४९।।

अवनि मे ललना जन जन्म को ।
विफल है करती अनपत्यता ।
सहज जीवन को उसके सदा ।
वह सकटक है करती नहीं ।।५०।।

उपजती पर जो उर - व्याधि है ।
सतत संतति संकट - शोच से ।
वह सकंटक ही करती नहीं ।
वरन जीवन है करती वृथा ॥५१।।

बहुत चिन्तित थी पद - सेविका ।
प्रथम भी यक सतति के लिये ।
पर निरन्तर सतति - कष्ट से ।
हृदय है अव जर्जर हो रहा ।।५२।।

जननि जो उपजी उर मे दया ।
जरठता अवलोक - स्वदास की ।
बन गई यदि मै वडभागिनी ।
तव कृपावल पा कर पुत्र को ॥५३॥



कुबलया सम मत्त - गजेन्द्र से ।
भिड नहीं सकते दनुजात भी ।
वह महा सुकुमार कुमार से ।
रण - निमित्त सुसज्जित है हुआ ।।६०।।

विकट - दर्शन कजल - मेरु सा ।
सुर गजेन्द्र समान पराक्रमी ।
द्विरद क्या जननी उपयुक्त है ।
यक पयो - मुख बालक के लिये ॥६१।।

व्यथित हो कर क्यो विलखूॅ नहीं ।
अहह धीरज क्योकर मैं धरूँ ।
मृदु - कुरंगम शावक से कभी ।
पतन हो न सका हिम शैल का ॥६२॥

विदित है वल, वज्र -शरीरता ।
विकटता शल तोशल कूट की ।
परम है पटु मुष्टि - प्रहार में ।
प्रवल मुष्टिक सज्ञक मल्ल भी ॥६३॥

पृथुल - भीम - शरीर भयावने ।
अपर हैं जितने मल कस के ।
सव नियोजित है रण के लिये ।
यक किशोरवयस्क कुमार से ॥६४॥

विपुल वीर सजे बहु - अस्त्र से ।
नृपति - कंस स्वय निज शस्त्र ले ।
विवुध - वृन्द विलोडक शक्ति से ।
शिशु विरुद्ध समुद्यत है हुये ॥६५॥



जगत मे यक पुत्र विना कही।
विलटता सुर - वांछित राज्य है।
अधिक संतति है इतनी कही।
वसन भोजन दुर्लभ है जहाँ ॥७२॥

कलप के कितने वसुयाम भी।
सुअन - आनन हैं न विलोकते।
विपुलता निज सतति की कही।
विकल है करती मनु जात को ॥७३।।

सुअन का वदनांवुज देख के।
पुलकते कितने जन हैं सदा ।
बिलखते कितने मब काल है।
सुत मुखावुज देख मलीनता ।।७४।।

सुखित हैं कितनी जननी सदा ।
निज निरापद संतति देख के।
दुखित है मुझ सी कितनी प्रभो।
नित विलोक स्वसतति आपदा ।।७।।

प्रभु, कभी भवदीय विधान मे।
तनिक अन्तर हो सकता नहीं।
यह निवेदन सादर नाथ से।
तदपि है करती तव सेविका ।।७६।।

यदि कभी प्रभु - दृष्टि कृपामयी।
पतित हो सकती महि - मध्य हो।
इस घड़ी उसकी अधिकारिणी ।
मुझ अभागिन तुल्य न अन्य है ॥७७।।

अधिक और निवेदन नाथ से ।
कर नहीं सकती यह किंकरी ।
गति न है करुणाकर से छिपी ।
हृदय की मन की मम - प्राण की ।।८४।।

विनय या करती ब्रजपांगना ।
नयन से बहती जलधार थी ।
विकलतावश वस्त्र हटा हटा ।
वदन थी सुत का अवलोकती ॥८५।।

गार्दूलविक्रीडित छन्द
ज्यो ज्यो थी रजनी व्यतीत करती औं देखती व्योम को ।
त्यों ही त्यो उनका प्रगाढ दुख भी दुर्दान्त था हो रहा ।
आँखो से अविराम अश्नु वह के था शान्ति देता नहीं ।
बारम्बार अशक्त - कृष्ण - जननी थी मूर्छिता हो रही ।।८६।।

द्रुतविलम्बित् छन्द
विकलता उनकी अवलोक के ।
रजनि भी करती अनुताप थी ।
निपट नीरव ही मिप ओस के ।
नयन से गिरता बहु - वारि था ॥८७॥

विपुल - नीर वहा कर नेत्र से ।
मिप कलिन्द - कुमारि - प्रवाह के ।
परम - कातर हो रह मौन ही ।
रुदन थी करती ब्रज की धरा ।।८८।।

युग बने सकती न व्यतीत हो ।
अप्रिय था उसका क्षण बीतना ।
विकट थी जननी धृति के लिये ।
दुखभरी यह घोर विभावरी ।।८९।।

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