प्रसाद वाङ्मय द्वितीय खण्ड

प्रसाद वाङ्मय
जयशंकर प्रसाद, संपादक रत्नशंकर प्रसाद

वाराणसी: प्रसाद मंदिर, पृष्ठ १ से – १६ तक

 

प्रसाद वाङ्मय
(रचनावली)

 

द्वितीय खण्ड

 

पुण्यश्लोक श्री जयशङ्कर 'प्रसाद' के वाङ्मय का नाटक भाग
समायोजन एवम् सम्पादन
श्री रत्नशङ्कर प्रसाद

 

प्रसाद न्यास के तत्त्वावधान में
प्रसाद प्रकाशन

प्रसाद मन्दिर, गोवर्द्धनसराय, वाराणसी के द्वारा प्रकाशित

श्री जयशङ्कर 'प्रसाद' का समग्र नाटक साहित्य

 

सर्वस्वत्त्वाधिकारी
© प्रसाद न्यास

 

प्रसाद जन्मशती संवत्सर में संकल्पित

 

समस्त पाँचों खण्डों का सम्मिलित मूल्य सात सौ पचास रुपये मात्र

 

 

श्रीगोविन्ददास माहेश्वरी के द्वारा श्री माहेश्वरी प्रेस, भाट की गली,
गोलघर, वाराणसी में मुद्रित

अनुक्रमणी एवं अन्य विवरण
रचनाएँ पृष्ठांक ⁠ प्रथम प्रकाशन के वर्ष एवम् अन्य विवरण
सज्जन इन्दु मासिक पत्र की कला २ किरण ११ संवत् १९६७ फाल्गुन-ज्येष्ठ में प्रकाशित, चित्राधार में संकलित।
प्रायश्चित १९ इन्दु मासिक पत्र की कला ४ खण्ड १ किरण १ संवत् १९६९ माघ जनवरी १९१४ में प्रकाशित, चित्राधार में संकलित रूप।
कल्याणी परिणय ३१ नागरी प्रचारिणी पत्रिका में ई॰ १९१२ में सर्वप्रथम प्रकाशित, चन्द्रगुप्त में अंकस्थ।
करुणालय ५१ इन्दु कला ४, खण्‍ड १, किरण २, माघ सं॰ १९६९ में प्रकाशित रूप।
करुणालय ६९ ई॰ १९१५ की जनवरी में पुस्तकाकार प्रथमतः प्रकाशित।
राज्यश्री ८७ इन्दु कला ६ खण्ड १ किरण १ पौष १९७१ वि॰ जनवरी १९१५ में प्रकाशित रूप।
राज्यश्री ११५ पुस्तकाकार ई॰ १९१८ के पश्चात् प्रकाशित ग्रन्थ रूप।
विशाख १५७ ईसवी १९२१ में प्रथमतः प्रकाशित।
अजातशत्रु २०५ ईसवी १९२२ में प्रथमतः प्रकाशित।
जनमेजय का नागयज्ञ २८३ ईसवी १९२६ में प्रथमतः प्रकाशित।
कामना ३५३ ईसवी १९२७ में प्रथमतः प्रकाशित : कामायनी आरम्भ होने के पूर्व :
स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य ४२१ ईसवी १९२८ में प्रथमतः प्रकाशित।
चन्द्रगुप्त ५१९ ईसवी १९२९ में मुद्रणाधीन होकर १९३१ में प्रथमतः प्रकाशित।
एक घूँट ६५५ ईसवी १९२९ में प्रथमतः प्रकाशित।
ध्रुवस्वामिनी ६८१ ईसवी १९३३ में प्रथमतः प्रकाशित।
अग्निमित्र ७२३ ईसवी १९३५ में रचित।

पुरोवाक् V से XVI

पुरोवाक्

प्रसाद वाङ्मय के इस द्वितीय खण्ड (नाटक भाग) में भी पूर्ववर्ती प्रथम खण्ड (काव्य भाग) के अनुसार नाटकों को काल-क्रमानुसार रखा गया है। करुणालय और राज्यश्री पहले 'इन्दु' में प्रकाशित हो चुके थे इसलिए क्रमानुसार उन पूर्व रूपों को भी यहाँ संकलित किया गया है। 'कल्याणी परिणय' का प्रकाशन नागरी प्रचारिणी पत्रिका (अगस्त १९१२) में हुआ था, वहाँ से एकांकी संकलन 'अग्निमित्र' में उद्धृत किया गया है। इसे उसी रूप में रखा गया है। यह कल्याणी परिणय 'चन्द्रगुप्त' नाटक के अंगभूत हो गया (किंचित परिवर्तन पूर्वक)। किन्तु, शिल्प-विकास पर मनन के लिए इसको मूल रूप में रखना आवश्यक था। अतः कालानुरोधेन––सज्जन और प्रायश्चित्त के बाद इसे समावेशित किया गया है।

इन तीन नाटकों के बाद उस राज्यश्री का प्रणयन हुआ जिसे पूज्य पिताश्री ने अपना प्रथम ऐतिहासिक नाटक बताया है। सज्जन और प्रायश्चित्त में भी यद्यपि इतिहास के चरित्र और उसकी घटनाएँ हैं किन्तु वे रूपक––शिक्षा प्रधान है इसलिए अपने ऐतिहासिक नाटकों में उन्हें नहीं माना। इतिहास की वस्तुता उनकी दृष्टि में भिन्न थीं––जिसका उल्लेख आगे यथास्थल होगा। 'सज्जन' का कथानक पाण्डवों के बनवास से संबंधित है। जिसमें उनकी हत्या के उद्देश्य से आये दुर्योधन, कर्ण आदि का गंधर्व राज चित्रसेन से युद्ध होता है कौरव पक्ष परास्त होकर बन्दी होता है। कौरवों का उद्देश्य ज्ञात होने पर भी युधिष्ठिर अर्जुन को आदेश देते हैं। तदनुसार अर्जुन और चित्रसेन कौरवों को बाँधकर युधिष्ठिर के सम्मुख लाते हैं : यह स्पष्ट होने पर भी कि वे पाण्डवों की हत्या के लिए वे आये थे––युधिष्ठिर उन्हें शिक्षा देकर मुक्त कराते हैं। युधिष्ठिर में मानवीय गुण-धर्म के ऐसे उत्कर्ष ने उन्हें धर्मराज की पदवी दी––और, आगे चलकर 'यतोधर्मस्ततोजयः' अन्वित हुआ।

उसके पश्चात् 'प्रायश्चित्त' आता है। ये उभय नाटक इन्दु में प्रकाशित हो चुके हैं। उनमें और 'चित्राधार' में संकलित इनके रूपों में अधिक अन्तर नही है अतः यत्र तत्र के पाठान्तर पादटिप्पणियों में संकेतित हैं। यद्यपि 'रासो' में पृथ्वीराज को बन्दी बनाकर गजनी ले जाया जाना और वहाँ उसका वध होना वर्णित है––किन्तु ऐतिहासिक खोज ने तराइन के युद्ध में उसकी वीरगति को प्रमाणित किया। इस नाटक में उस ऐतिहासिकता की रक्षा की गई है। 'ट्रैजेडी' को पश्चिम की ही वस्तु मानने के उपक्रम में लोग भारतीय मनीषा के दो आलोक स्तंभों––रामायण और महाभारत से आँखे बन्द रखते हैं। हाँ, अभिनय देखने के बाद दर्शक के मन पर त्रास, भय और अवसाद की छाया न रहे इसका विचार यहाँ प्रमुख रहा। प्रायश्चित्त की वस्तुता भारत के जातीय पराभव के तीसरे आवर्त्त की देन है––और, वह आवर्त्त लेखन काल में भी विद्यमान रहा, जबकि राष्ट्रीयता अज्ञात हो गई थी और सांस्कृतिक वर्चस्व उपहत हो गया था––'प्रायश्चित्त' का आशय पाठकों का ध्यान इस ओर आकर्षित करना है।

इन्हीं तीन नाटकों के उपरान्त राज्यश्री का प्रणयन हुआ और ऐतिहासिक नाटकों की शृंखला चली––यद्यपि, इसी बीच दो आन्यापदेशिक (ऐलिगरिकल) नाटक 'कामना' और 'एक घूँट' भी लिखित हैं। इनमें समाज की वे ऐतिहासिक फलश्रुतियाँ हैं जिनकी वस्तुता कामना के अर्थान्ध समाज के चित्र में है और वैसे समाज के खोखलेपन पर 'एक घूँट' व्यंग करता है।

राज्यश्री में उस जातीय पराभव के दूसरे आवर्त्त के दृश्य हैं जो शकों हूणों के आक्रमण से प्रथित हुआ था। पहला आवर्त्त सिकन्दर के आक्रमण से चला किन्तु वह अधिक समय नहीं टिका। राज्यश्री में राष्ट्रीयता और शौर्य के साथ ही त्याग एवं तितिक्षा के मानवीय गुणों का भी उत्कर्ष है।

इसके पश्चात् 'विशाख' की रचना हुई जिसका कथानक राजतरंगिणी में वर्णित एक घटना है। किन्तु ऐतिहासिकता को ठीक रखने के लिए उस नाटक के 'परिचय' में कल्हण की उस भूल का सुधार किया गया है जो उन्होंने गोनर्दीय वंश की प्राचीनता दिखाने के लिए किया है।

अब, बुद्ध के जीवन काल के महाजनपदों के सन्धि विग्रह के निदर्शन करानेवाले 'अजातशत्रु' की रचना हुई। इसके 'कथा प्रसंग' में इतिहास के प्रति लेखकीय दृष्टि मिलती है। इतिहास में घटनाओं की पुनरावृत्ति के प्रसंग मे रूपक-दर्शन का मौलिक सूत्र वहाँ प्राप्त है। कथाप्रसंग का वह अंश यहाँ उद्धृत है––

'इतिहास में घटनाओं की प्रायः पुनरावृत्ति देखी जाती है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि कोई नई घटना होती ही नहीं, किन्तु असाधारण नई घटना भी भविष्यत् में फिर होने की आशा रखती है। मानव-समाज की कल्पना का भण्डार अक्षय है, क्योंकि वह 'इच्छा-शक्ति का विकास' है। इन कल्पनाओं का, इच्छाओं का मूल सूत्र बहुत ही सूक्ष्म और अपरिस्फुट होता है। जब वह इच्छा-शक्ति किसी व्यक्ति या जाति में केन्द्रीभूत होकर अपना सफल विकसित रूप धारण करती है, तभी इतिहास की सृष्टि होती है। विश्व में कल्पना जब तक इयत्ता को नहीं प्राप्त होती तब तक वह रूप परिवर्तन करती हुई पुनरावृत्ति करती ही जाती है। मानव-समाज की अभिलाषा अनन्त-स्रोत वाली है। पूर्व कल्पना के पूर्ण होते-होते एक नई कल्पना उसका विरोध करने लगती है और पूर्व कल्पना कुछ काल तक ठहर कर फिर होने के लिए अपना क्षेत्र प्रस्तुत करती है। इधर इतिहास का नवीन अध्याय खुलने लगता है। मानव-समाज के इतिहास का इसी प्रकार संकलन होता है।' (कथाप्रसंग––अजातशत्रु)

इन उद्धृत पंक्तियों से इतिहास के प्रति वह लेखकीय दृष्टि स्पष्ट है जो इतिहास के पदार्थ-सत्य और उसकी प्रति-कल स्फुरत्ता––भावसत्य का युगपत् स्पर्श करती है। इसी दृष्टि के प्रतिफलन में––पदार्थ-सत्य का स्पर्श करने वाली पंक्ति 'कामायनी' में मिलती है––'युगों के चट्टानों पर सृष्टि डाल पद चिह्न चली गम्भीर' : तथा, भाव-सत्य के प्रकटीकरण में––कामायनी में––जहाँ मानव इतिहास का आदि बिन्दु है, वे कहते हैं––'चेतना का सुन्दर इतिहास निखिल मानव भावों का सत्य, विश्व के हृदय पटल पर दिव्य अक्षरों से अंकित हो नित्य'। यद्यपि यह प्रसंग अधिक विस्तार चाहता है, किन्तु, त्वरागत बाध्यतावशात् संक्षिप्त-सा एक इंगितमात्र आवश्यक रहा। प्रसंगवशात् एक संक्षिप्त टिप्पणी पृष्ठ ४२१-४२३ पर स्कन्दगुप्त के आरंभ मे दी गई है।

तत्पश्चात 'जनमेजय का नागयज्ञ' रचित हुआ। भारतीय इतिहास के ज्ञात बिन्दु पर उसका कथानक अधिष्ठित है। इसके नायक (जनमेजय) के प्रपितामह अर्जुन को भारत-युद्ध में श्रीकृष्ण ने 'त्रैगुण्यो विषया वेदाः निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन' के द्वारा वैदिक कर्म-काण्ड के प्रतिकूल जो मन्त्र दिया वह ज्ञाताज्ञात किसी भी कारण से जनमेजय के माध्यम से सिद्ध हुआ और अश्वमेध––जो राष्ट्रीय वर्चस्व का सर्वोच्च प्रतिमान था––सहसा एक राजाज्ञा के द्वारा समाप्त हो गया। किन्तु राष्ट्रीय वर्चस्व जब विदेशी आक्रमणों से हीन हो उठा तब शुंग-काल में पतंजलि की प्रेरणा से अश्वमेध का पुनरुद्धार हुआ : और, गुप्तों – भारशिवों ने उसका अनुसरण भी किया।

अब, ऐतिहासिक नाटकों के क्रम में दो प्रमुख नाटक आते हैं––'स्कन्दगुप्त' जो लेखन की दृष्टि से 'कामायनी' का समकालीन है और भावदृष्टि से सजातीय भी है : तथा, वह 'चन्द्रगुप्त' है जिसका प्रकाशन १९३१ में हुआ किन्तु उस पर मनन-चिन्तन संवत् १९६६ अर्थात ईसवीय १९०८-९ से अग्रसर था। 'चन्द्रगुप्त' का कथानक भारत पर प्रथम विदेशी आक्रमण से सम्बन्धित है।

'सज्जन' के द्वारा आर्य जाति का उदात्त सामाजिक दर्शन द्योतित हुआ है, और 'प्रायश्चित' में आर्य जाति के पराभव के उस तीसरे आवर्त्त का चित्रण हुआ है जो आनुषंगिक हेतुओं के चलते अद्यापि आर्य-वर्चस्व को घर्षित करता सांस्कृतिक शून्यता का कारण बना है, उसी शून्य में आर्य-भाव और उसके रक्त का––मूल्य विलीन होता जा रहा है। इसके पूर्व पराभव का दूसरा आवर्त्त शक-हूण आक्रमण-काल में उठा और पहला आवर्त्त सिकन्दर के नेतृत्व वाले यवन (ग्रीक) आक्रमण के समय से प्रथित हुआ था। किन्तु उन दोनों आवर्तों में सांस्कृतिक क्षतियाँ उतनी न हो सकीं क्योंकि आक्रामकों ने यहाँ की संस्कृति को यथाशक्य आत्मसात् करने की चेष्टा की, यहाँ घुलमिल कर वे यहीं के हो गए। किन्तु, जातीय पराभव के इस तीसरे आवर्त्त की बात सर्वथा भिन्न है : तुर्क, मंगोल, तातार जातियों के आक्रामकों में दो प्रकार रहे। एक तो वे जो 'सोने की चिड़िया' के पंख नोच कर ले भागे, उन्होंने साम्पत्तिक क्षतियाँ ही पहुँचाईं : दूसरे वे रहे जिन्होंने यहाँ रहकर शासन करने की बात निश्चित कर ली थी, उनके लिए सम्पदा के आहरण के साथ-साथ अपने जीवन-दर्शन को आरोपित करने के लिए शस्य-श्यामला भारत-भूमि को वैसा मरुकान्तार बनाना आवश्यक हो गया जहाँ उनके जीवन-दर्शन की उत्पत्ति हुई थी। फिर तो सांस्कृतिक प्रदूषण ही नहीं विनाश भी अवश्यंभावी बन गया। 'प्रायश्चित्त' के नायक जयचन्द और अनुनायक मुहम्मदगोरी का द्वन्द्व एक कार्य भी है और कारण भी––वैसा कारण जो निरन्तर कार्यशील बना है।

ज्ञातव्य होगा कि प्रायश्चित्त में उठा प्रश्न अन्य नाटकों में अपना समाधान खोजता-उकेरता चल रहा है। यह खोज ही इस समग्र नाट्य-रचना-समुच्चय को प्रासंगिक बनाए हैं : यही नहीं अपितु वे दो नाटक––'कामना' तथा 'एक घूँट' भी जिन्हें आन्यापदेशिक कहा जाता है, जो इतिहास से सीधा तात्पर्य नहीं रखते वे––आज और भी प्रासंगिक बने है। समाज ने अपनी जो अच्छी-बुरी उपलब्धियाँ अतीत को सौंप दीं––उनसे इतिहास का निर्माण हुआ। किन्तु, वर्तमान की भोग-दशा को उद्भावित करने वाले प्रश्नों पर जो लेखकीय दृष्टि है वह कितनी सार्वायुषी अथवा अधुनापि प्रासंगिक है––यह कामना एवं एक घूँट से भलीभाँति उजागर है। 'कामना' में जो अर्थ प्रमुखता का विकसित होता बिन्दु है वह अपने विकास की उग्रदशा में एक शून्य बन गया किंवा एक सामाजिक खोखलापन प्रस्तुत हो गया उसी खोखलेपन का व्यंग्यात्मक निदर्शन 'एक घूँट' कराता है। अस्तु।

पाँचवें ऐतिहासिक नाटक स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य और कामायनी का लेखन समकालीन है। उभय कृतियों का आरंभ ईसवीय १९२७ में हुआ। स्कन्दगुप्त उसी वर्ष पूरा होकर १९२८ में प्रकाशित हो गया किन्तु कामायनी आठ वर्षों के बाद पूरी हो सकी। इसके दो कारण रहे : प्रथम तो इसी के बीच अवान्तर लेखन, कंकाल समाप्त हो रहा था और तितली का लेखन भी उसी आठ वर्षों के अन्तराल की बात है। आँधी, इन्द्रजाल, आकाशदीप की कहानियाँ 'एक घूँट' और ध्रुवस्वामिनी की रचना लहर के गीत और निबन्ध ये सभी तो उसी अष्ट-वर्षीय अन्तराल की देन हैं : उनके जीवन के उस कालखण्ड को कामायनी युग कहना होगा। जिसमें चेतना के उच्च शिखर से चली काव्य सरस्वती के प्रखर वेग से इन रचनाओं की शाखा-सरिताएँ बन गईं।

अन्य कारण था उनके क्रमशः गिरते स्वास्थ्य का। किन्तु, प्रतीत होता है कि उनके ध्रुव संकल्प में भगीरथ का पुरुषार्थ और दधीचि का अस्थि-बल दोनों ही एकायन रहे। अन्यथा, उन अवान्तर कृतियों के प्रकल्पन का सम्भार, क्षीण होता जा रहा स्वास्थ्य एवं पैतृक व्यवसाय को संभाले रहने की चिन्ता––इन सभी का सन्तुलन, समन्वयन और यथा-नियुक्त का नियोजन––कैसे शक्य था? अस्तु। स्कन्दगुप्त और कामायनी में समस्वरता के स्थल सुधीजन देख सकते हैं।

स्कन्दगुप्त से सम्बन्धित दो शिलालेख महत्त्वपूर्ण हैं––एक जूनागढ़ का गुप्त संवत् १३६-१३३-१३८ (ईसवीय ४५५-४५८) का है जिसकी छठवीं पंक्ति में टंकित है 'स्वभुज जनितवीर्यो राजराजाधिराजः', फिर आगे हैं "पितरि सुरसखित्वं प्राप्त वत्वात्मशक्त्या'। ज्ञातव्य है कि अपने पिता के जीवन काल में जब वह दक्षिणी मालव से पश्चिमी सौराष्ट्र पर्यन्त के क्षेत्र में राज-प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त रहा तभी उसे पिता (कुमार गुप्त) के निधन और अनन्त देवी के षड्यन्त्र-पूर्वक अपनी माता के कारावास, पुरुगुप्त की हूणों से दुरभिसन्धि और मगध की दुरवस्था तथा चुपके-चुपके हूणों का बौद्ध स्थविरों की सहायता से उत्तरापथ में दूर तक प्रवेश के––चिन्ताजनक समाचार मिले और वह तत्काल मगध की ओर चल पड़ा। यदि उस समय वह यहाँ पहुँच कर हूण-निष्कासनार्थ युद्ध न करता तो पाटलिपुत्र का सिंहासन हूणों के वशवर्ती[] पुरगुप्त से हूणों के हाथ लगने में बिलम्ब न होता। दूसरा भितरी (सैदपुर-गाजीपुर) का वह स्तंभ-लेख है जिसमें कहा गया है––'विचलित कुललक्ष्मी स्तंभनायोद्यतेन क्षितितल शयनीयेयेननीता त्रियामा'। फिर, 'हूणैर्यस्यसमागतस्य समरे दोर्भ्या धरा कम्पिता' 'जितामितिपरितोषान्मातरं सास्र-नेत्रां हतरिपुरिव कृष्णो देवकीमभ्युपेतः' (ईसवीय ४५५-४६७)।

जूनागढ़ स्तम्भ-लेख के 'स्वभुजजनितवीर्यो राज राजाधिराजः' से स्पष्ट होता है कि मालव-अवन्ति-सौराष्ट्र के क्षेत्र में अपने पुरुषार्थ से उसने शासन स्थापित किया था। किन्तु, उसी समय हूणों के कंटकशोधनार्थ उत्तरापथ को देखना पड़ा। भितरी का स्तम्भ हूण-प्रत्यावर्तन के स्थल की सूचना देता है। यही उसने यह संकल्प लिया कि जब तक भारत भूमि से हूणोच्छेद नहीं कर लूंगा शयनासन, धातुपात्र, भृत्यसेवा आदि से विरत रहूँगा। इसीलिए चटाई पर सोनेवाले अपने हाथ से पीने का पानी तुम्बी में भरकर लानेवाले स्कन्दगुप्त का वर्णन है। उसने मगध में कुसुमपुर पहुँच कर अपनी माता का उद्धार किया, पुरगुप्त को अनुशासित किया और शासन व्यवस्था, सैन्यसंगठन करके हूणों से युद्ध करके उन्हें कुभा के पार कर दिया। उसका निधन ४६७ ईसवीय में बताया जाता है। जिसके पूर्व उसने चाँदी के सिक्के ढलवाए, जिसमें से एक सिक्के का उल्लेख एलेन के कैटलाग में पृष्ठ १२२ पर ४५१ संख्या के अन्तर्गत है। इसमें अंकित है––'परम भागवत-श्री विक्रमादित्य-स्कन्दगुप्तः'। दक्षिण मालव-अवन्ति-सौराष्ट्र के क्षेत्र की व्यवस्था में जब वह लगा था––उसके पूर्व पुष्यमित्रों का दलन हो गया था। मध्य भारत की यह एक गणशासित दुर्द्धर्ष जाति थी। उसका सैन्य बल और अर्थ बल पुष्कल रहा। कुमार गुप्त के अन्तिम काल में वे सिर उठाने लगे थे इनके दमनार्थ स्कन्दगुप्त गए या भेजे गए थे। अनुभव सिक्त सेनानी पुष्यमित्र और उनके पुत्र चक्रपालित साथ रहे। उभय व्यक्ति ऐतिहासिक हैं जिनका उल्लेख सुदर्शन तटाक-ग्रन्थ में है जो जूनागढ़ प्रस्तर-अभिलेख में टंकित है।

इस प्रकार पाँचवें ऐतिहासिक नाटक की ऐतिहासिकता समृद्ध है। उसमें कवि कालिदास के सम्बन्ध में भी एक शोधपूर्ण उपपत्ति है (अवलोक्य स्कन्दगुप्त परिचय––प्रसाद वाङ्मय पंचम खण्ड) स्कन्दगुप्त में मातृगुप्त की आराध्या-प्रणायिनी को मालिनी कहा गया है। शारदादेश (कश्मीर––सतीसर) के म्लेच्छाक्रान्त होने से पूर्व प्रचलित वाङ्मय व्यवहार दूषित हो गया था। मातृगुप्त कहते हैं––'संस्कृत को कोई पूछता नहीं'। इधर मातृगुप्त के श्रीनगर छोड़ देने के बाद उनकी आराध्या-प्रणियिनी अनाशृत––और प्रदूषित हो गई––उसके उज्वल मुख पर मलिन छाया पड़ गई। मालिनी तो कोई ऐतिहासिक व्यक्तित्व नहीं फिर मातृगुप्त की प्रणयिनी को मालिनी संज्ञा ही क्यों मिली?

वर्णों की संहति को वर्णमाला कहते हैं और वर्णों की प्राणसत्ता मातृकाओं में निहित है सुतरां वाग्रूपा भगवती की आख्या मातृका-मालिनी है उसी का बोध मालिनी शब्द के द्वारा भी होता है। काश्मीरिक साधन परम्परा में श्रीपूर्वशास्त्र अथवा पूर्वाम्नाय का विशिष्ट स्थान है उसमें वर्णमाला का क्रम भी सामान्य से कुछ भिन्न है 'नादि फान्ता च मालिनी' कहा गया है वर्णों का क्रम 'न' से आरम्भ होकर 'फ' पर समाप्त होता है। इसकी परम्परा को 'मालिनी मतम्' कहा गया है। यह उत्तर मालिनी क्रम है और पूर्व मालिनी क्रम वह है जो सामान्य व्यवहार की वर्णमाला है। उत्तर मालिनी की वर्ण व्यवस्था रहस्य साधन के न्यासक्रम में और उसकी विशिष्ट शाखा में ही व्यवहृत होती रही, सुतरां अन्यथा व्यवहार्य नहीं। मालिनी विजयोतरतन्त्र के परिचय में विद्वान मधुसूदन कौल कहते हैं––"Malini is of greatest utility in infusing devine life into the practisers."

तब, क्या आश्चर्य कि मातृगुप्त पूर्वाम्नाय के साधक रहे हों। उनकी प्रखर साधना का बल अवश्य निहित रहा अन्यथा वसुबन्ध के परमगुरु मनोरथ को शास्त्रार्थ में परास्त करना क्या शक्य था।

शारदा देश (काश्मीर) को जब हूणों ने पादाक्रांत कर दिया, ब्राह्मणों के विद्या-केन्द्र और साधकों के आश्रय मठों-मठिकाओं को उन्होंने उजाड़ दिया, बौद्ध-विहारों को ध्वस्त कर दिया तब शारदा देश की संस्कृति की चिताएं––मठों और विहारों में जलने लगीं। वहाँ से लोगों के सामूहिक पलायन हुए। मातृगुप्त का कथन है 'काश्मीर मंडल में हूणों का आतंक है, शास्त्र और संस्कृत विद्या को कोई पूछने वाला नहीं। म्लेच्छाक्रान्त देश छोड़कर राजधानी में चला आया––काश्मीर, जन्मभूमि, जिसकी धूल में लोटकर खड़े होना सीखा, जिसमें खेल खेलकर शिक्षा प्राप्त की, जिसमें जीवन के परमाणु संगठित हुए थे वही छूट गया। और बिखर गया एक मनोहर स्वप्न आह वही जो मेरे इस जीवन पथ का पाथेय रहा।' (स्कंदगुप्त प्रथम अंक तृतीय दृश्य)। 'मैं आज तक तुम्हें पूजता था तुम्हारी पवित्र स्मृति को कंगाल की निधि की भाँति छिपाए रहा। मूर्ख मैं––आह मालिनी मेरे शून्य भाग्याकाश के मंदिर का द्वार खोल कर तुम्हीं ने उनींदी उषा के सदृश झाँका था और मेरे भिखारी संसार पर स्वर्ण बिखेर दिया था––तुम्हीं ने मालिनी।' (स्कन्दगुप्त चतुर्थ अंक तृतीय दृश्य)। स्कन्दगुप्त के द्वारा काश्मीर का शासक नियुक्त होकर लौटने पर––अपनी प्रदूषित-मालिनी को शारदा देश में पाने पर––मातृगुप्त का खिन्न होना स्वाभाविक रहा : किन्तु, इस पर भी उसने उद्बोधन-गीत गाया और देश को जगाया। आज भी यह स्कन्दगुप्त कितना और प्रासंगिक है––यह कहना न होगा। मातृगुप्त की प्रणयिनी को कोई और नाम भी मिल सकता था। कदाचित्, यहाँ परम्परा का स्पर्श रहस्यपूर्ण और कौशल से हुआ है। मातृगुप्त का यह प्रसंग इतिहास का पदार्थ पक्ष और चेतना का पक्ष उभय को युगपत स्पर्श कर रहा है।

इसके अनन्तर छठवाँ ऐतिहासिक नाटक वह चन्द्रगुप्त है जिस पर १९०८ ईसवीय से चिन्तन अग्रसर रहा। यद्यपि, इसका लेखन स्कन्दगुप्त से पहले हो चुका था। किन्तु, प्रकाशन संवत् १९८८ (ई॰ १९३१) में हुआ। दो वर्ष पूर्व इसे प्रेस में दे दिया गया था। सरस्वती प्रेस की दशा भी कुछ ऐसी नहीं थी कि वह बड़े काम शीघ्र कर दे दैनंदिन व्यय छोटी-छोटी छपाइयों से चलते थे इसलिए उन्हें पहले करने की बाध्यता रहती थी। वहाँ से अन्यत्र चन्द्रगुप्त को देना भी संभव न था क्योंकि वह मुंशी प्रेमचन्द का प्रेस था जिनसे लेखक और प्रकाशक भारती भण्डार के स्वामी रायकृष्णदास के निजी सम्बन्ध रहे। टाइप कुछ विशिष्ट प्रकार के संभवतः मद्रास की नार्टन टाइप फाउण्ड्री से मंगाने की बात थी। यतः, टाइप थोड़े परिमाण में आवश्यकतानुसार प्रेस लेना चाहता था और फाउण्ड्री का कहना था कि इस प्रकार के टाइप के और आदेश आ जायँगे तब ढलाई होगी, इसी कारण वहाँ पाण्डुलिपि १९२९ से दो वर्षों तक अमुद्रित पड़ी रही और १९३१ के मध्य में छप सकी। लेखन में भी पर्याप्त समय लगा संभव है कुछ नए तथ्यों के उजागर होने की प्रतीक्षा रही हो। एक निबन्ध सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य संवत् १९६६ में प्रकाशित हुआ था उसे प्रकाशकों ने 'मौर्यवंश' नाम से भूमिका के रूप में सम्मिलित कर लिया। निश्चय ही यदि चन्द्रगुप्त की कोई भूमिका लिखी गई होती तो वह कुछ भिन्न वस्तु होती।

चन्द्रगुप्त के पश्चात् ध्रुवस्वामिनी ई॰ १९३२ में लिखी गई––कलकत्ता-पुरी की यात्रा के बाद। वास्तविकता यह है कि कृतियों के अनेक प्राग्रूप अथवा उनके रेखांकन मनोमुकुर में मातृका-भूमि का स्पर्श करते रहते थे। अनुभूति-घट से उच्छलित बिन्दु कालान्तर में विधानियत होते थे। कोई बिन्दु-विशेष काव्य की रेखा बनेगा अथवा नाटक की या गद्यात्मक कथा में आधान ग्रहण करेगा यह कदाचित उस बिन्दु की लोलायित लीला पर निर्भर था। एक कृती जब अनुभूति की अभिव्यक्ति अनेकविध कर रहा हो तब विधा विशेष की अनुसारिणी अनुभूति न होगी प्रत्युत अनुभूति ही अनुकूल विधा का चयन करेगी। किन्तु पश्चिमीय दृष्टि (क्रोशे) जहाँ अनुभूति की आद्यता और स्वात्मसंवेद्यता देखी नहीं जा सकी––विश्व प्रपंच में अनुभूति की स्फुरत्ता को कोई स्थान नहीं दिया गया––वह अभिव्यक्त के पीछे कोई अनभिव्यक्त और अनुभूतिमात्र इयत्ता भी है––यह कैसे स्वीकार करेगी। किन्तु वहाँ भी इस प्रत्यक्ष-मात्रता-वाद के जाड्‌य से मुक्ति की व्याकुलता है।

अस्तु ध्रुवस्वामिनी की ऐतिहासिकता उसकी 'सूचना' में विवक्ष्य है (पंचमखण्ड अवलोक्य)। किन्तु, उसमें जातीय पराभव के दूसरे आवर्त्त में समुद्रगुप्त के दिग्विजय के बाद कृतकृत्यता जनित अकर्मण्य-भाव विलासिता और क्लैव्य में परिणत हो चला था। धन सम्पत्ति की भाँति स्त्रियों को भी विदेशी आक्रामकों से छिपा कर रखने की प्रवृत्ति ने स्त्रियों को पूर्णतः पशु-सम्पत्ति का रूप दे दिया था। ध्रुवस्वामिनी उपहार में मिली वस्तु है अत: उसे शकराज को उपहार में देना असंगत नहीं––तदानीतनसमाज के इस विकृत चित्र को ध्रुवस्वामिनी सम्मुख रखते नारी पक्ष के अधिवाचन में शास्त्रीय प्रमाण देती है। क्लैव्य और विलासिता की प्रतिमूर्त्तिरामगुप्त, प्रवंचना का अवतार शिखर स्वामी, दैन्य की प्रतिमा ध्रुवदेवी, मिथ्याशील का निचोल डाले वीर चन्द्रगुप्त––पराभव के दूसरे आवर्त्त मे उन बर्बर विदेशी आक्रमणों की फलश्रुतियाँ हैं। मन्दाकिनी, नारीवर्चस्व को––स्त्रीत्व को उसका उचित प्राप्य दिलाने और चन्द्रगुप्त में स्वाभिमान जगाने में उद्युक्त है। उसने अपने समय में अलका (चन्द्रगुप्त) और देवसेना (स्कन्दगुप्त) के समकक्ष कार्य किया है। इन्हीं प्रमुख चरित्रों से ध्रुवस्वामिनी का गठन हुआ है। उसमें महत्त्व का विषय पुनर्भूप्रसंग है।

पश्चिम में भी शोषित और शोषक के मीमांसन में नारी को आदि शोषित बताया गया है (फ्‌वेर बाख शोध प्रसंग में एंगल्स की टिप्पणी)। समाज के इस गंभीरतम प्रश्न पर कामायनी में समुचित मीमांसन हुआ है।

नारी समुदाय के आदि शोषित वर्ग वाले मानव समाज में दाम्पत्य केवल पुरुष की इच्छा पर निर्भर चला आ रहा है (जब से मातृ-सत्तात्मकता निरस्त हुई) इसका अकरुण और अमानवीय रूप ध्रुवस्वामिनी में प्रस्तुत हुआ और उसके प्रतिकरण में शास्त्रीय पक्ष भी प्रस्तुत हुआ (अवलोक्य ध्रुवस्वामिनी––सूचना, पंचम खण्ड)। पुनर्भूव्यवस्था सामाजिक सन्तुलन की वस्तु है जो अति प्राचीन काल से चलकर कुछ उप जातियों में अद्यावधि वर्तमान है : संयोगवश ध्रुवस्वामिनी के लेखक वैश्यों की एक उपजाति उस कान्यकुब्ज हलवाई वर्ग में उत्पन्न हुए जिसमें पुनर्भू प्रथा प्रचलित रही। कलकत्ता प्रवास में कुछ जातीय प्रसंग भी उभरे और उच्च वर्ण वाले महानुभाव ने किसी से इस पुनर्भू प्रसंग की व्यंग्यात्मक चर्चा की––उन्होंने आकर कहा––'प्रसादजी अमुक ऐसा कहते थे'। एक सामान्य स्मिति से उन्होंने कहा कि वे जाबालि, वसिष्ठ और कृष्ण द्वैपायन जैसे महर्षियों की कथा भूल गए? यह बात यद्यपि वहीं समाप्त हो गई : किन्तु कहावत है––कान्यकुब्ज और करैत सांप––भूलते नहीं। यदि ध्रुवस्वामिनी में वैसी कोई वस्तुता भी हो तो विस्मय नहीं। यद्यपि, यह एक संयोग की बात थी कि १९३२ की जनवरी में कलकत्ता प्रवास से उनके लौटने के बाद ही ध्रुवस्वामिनी की रचना हुई। प्रकाशन के बाद उनके जीवनकाल में ही इसकी भी वैसी रंगमंच-प्रस्तुतियाँ हुईं––जैसी चन्द्रगुप्त-स्कन्दगुप्त की।

ऐतिहासिक नाटकों की शृंखला की अन्तिम कड़ी––'अग्निमित्र' (अपरिसमाप्त) है जो इरावती उपन्यास में विधान्तरित हुआ। बारह और ऐतिहासिक नाटकों की लेखकीय योजना रही जिसका काल विस्तार शुंगकाल से मध्यकाल तक होता और सबके बाद उस महानाटक इन्द्र को लिखने की बात मन में रही जिसका सामग्री-संचयन प्रायः १९२२-२३ से ही वे कर रहे थे उसी के परिणाम रूप उनके दो निबन्ध हमें प्राप्त हैं––'आर्यावर्त्त और उसका प्रथम सम्राट इन्द्र' जो कोशोत्सव स्मारक संग्रह में सं॰ १९८५ में प्रकाशित हुआ दूसरा 'दाशराज्ञ युद्ध' जो गंगा के वेदांक में छपा। मेरु पर भी एक लेख त्याग भूमि छपा किन्तु वह इन्ही के अन्तर्भुक्त है। ऊपर लिखी बारह नाटकों की योजना बदल गई और नाटकों का स्थान उपन्यासों ने लिया, उसकी पहली कृति अधूरी इरावती के रूप में है। इस सन्दर्भ में 'अग्निमित्र' की 'अर्चिका' में विस्तार से लिखा गया है अत: यहाँ दुहराना आवश्यक नहीं।

'ध्रुवस्वामिनी' के प्रायः तीन वर्ष बाद 'अग्निमित्र' लिखा जाने लगा। बाहु पीड़ा (Writer's Cramp) के कारण स्वयं न लिख कर वे बोल कर इसे लिखाने लगे। यह बात १९३५ के ग्रीष्म काल की है। इस तीन वर्ष के अन्तराल में बारह नाटकों की योजना पर मनन सामग्री-अवलोकन होते रहे। उसी संभावित शृंखला का यह पहला नाटक अग्निमित्र आरंभ ही हुआ था कि योजना बदल गई और नाटकों के स्थान पर उपन्यास लिखना निश्चित हुआ। और, यह 'अग्निमित्र' तभी से विधान्तरित हो इरावती उपन्यास में परिणत होने लगा। किन्तु, उस बारह अंकों में रचित होने वाले महा नाटक इन्द्र के अनुभूति परक अनुभावन अभिव्यक्ति की सीमा को स्पर्श करने लगे थे। आचार्य केशव प्रसाद मिश्र की मार्फत विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से वे ग्रन्थ मँगा लिया करते थे। जब एक दिन उन्होंने वृहद्देवता लाने को कहा तब केशवजी ने पूछा 'अब इसकी क्या आवश्यकता कामायनी तो पूरी हो गई'। 'अब इन्द्र लिखना है बहुत दिनों से टलता आ रहा है उसी के कुछ प्रसंग देखने हैं'। 'और वह रूपक द्वादशी जिसकी योजना बन चुकी है?' 'उसके स्थान पर उपन्यास लिखूँगा प्रेमचन्द का भी कुछ ऐसा ही आग्रह है––' 'आग्रह है या चुनौती' 'चाहे जो हो लेकिन मुंशीजी की 'बहस काबिल मानने के रही', इन्द्र चलता रहेगा और संग संग ये भी चलेंगे मसाला तो पूरा तैयार है।' इससे प्रतीत होता है कि जैसे कामायनी के ८ वर्ष के लेखन काल में स्कन्दगुप्त प्रभृति अनेक रचनाएँ होती गईं वैसे ही इन्द्र नाटक के लेखन काल में भी प्रस्तावित योजना की अन्य कृतियाँ प्रस्तुत होती जातीं। किन्तु वाग्देवी को कामायनी के बाद और सेवा नहीं लेनी थी अतएव 'ऊधो मन की मन ही मो रही'।

पश्चिम से बढ़कर अयोध्या तक पहुँचे यवन दिमित्र (Demitrius) (अरुण द्यवन साकेत––महाभाष्य) और दक्षिण से बढ़कर शोण तट पर किंवा पाटलिपुत्र सुगाग प्रासाद के समीप तक कलिंगराज खारवेल की सेना पहुँच गई थी। ––"मागधाना चविपुलं भय जनयन् हस्त्यश्व गगाया पाययति" (खारवेल का हाथीगुम्फा लेख)। दोनों ही अवैदिक शक्तियाँ मगध के उस बौद्ध राजतन्त्र को निगलने के लिए प्रस्तुत रही जो मनुष्यता-हीन धर्माडम्बर में विलास-क्लीव राजन्य संस्कृति का वैसा छाया पुरुष था जो भीतर से अपनी शक्ति हीनता में अवसन्न और बाहर से दृप्ति की चेष्टा में व्यस्त था। वह भारतीय इतिहास की विषम घड़ी थी। किन्तु, उसी में आर्य संस्कृति के नवोत्थान का अवसर भी प्रतीक्षा कर रहा था। और भगवान पतंजलि उस अवसर को सावधानी से देख रहे थे। आर्य वर्चस्व के प्रतीक इन्द्र ध्वज की प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र को प्रेरणा दी। मगध की रक्षा ही नहीं हुई प्रत्युत पुष्यमित्र ने दो अश्वमेध भी किए 'द्विरश्वमेध याजिनः सेनापते पुष्यमित्रस्य' (अयोध्यास्तंभ लेख––धनदेव) अश्वमेधयाजी पुष्यमित्र अपने को सदैव सेनापति कहता है––राजा नहीं, क्योंकि उस समय सेना का महत्व सिंहासन से अधिक हो गया था।

पुष्यमित्र के द्वारा वृहद्रथ का सैन्य निरीक्षण के समय वध हर्षचरित और वायुपुराण में कहा गया है। इस परिवेश में अग्निमित्र की प्रस्तावना मात्र ही हुई थी कि उसने इरावती का रूप ग्रहण कर लिया किन्तु इतिहासगत वस्तुता वही रही, परन्तु बात अधूरी भी पूरी न हुई।

नर-नारी संबंध की कामायनी में जो प्रस्तावना हुई है उसकी फलश्रुति अग्निमित्र और ध्रुवस्वामिनी में है। वहाँ आदि नारी श्रद्धा मनु से पूछती है––'किन्तु बोली क्या समर्पण आजका हे देव बनेगा चिर बन्ध नारी हृदय हेतु सदैव?' जैसी उसकी आशंका रही पितृ सत्तात्मक समय में पुष्टतर होते होते हजारों वर्षों बाद ध्रुवस्वामिनी और इरावती में प्रत्यक्ष होती गई पुरुष का पौरुष-परुष-क्रूराचार एवं उसके अन्तर्जात वाक्‌छल से वह प्रवंचित होती आई। नारी 'अवयव की सुन्दर कोमलता लेकर सबसे हारी' किंवा छलित होती आई। यह प्रसंग युग भेद से प्रकार भिन्न होकर भी अपनी इयत्ता में यथावत रहा। ध्रुवस्वामिनी उपहार में मिली वस्तु है अतः रामगुप्त उसे शकराज को उपहार में दे सकता है। इरावती अनाशृत मालव कन्या है इसलिए छल पूर्वक हस्तगत करने के लिए वृहद्रथ उसे संघाराम में रक्षित कर सकता है।

इस शताब्दी के दूसरे तीसरे दशक में नारी समुदाय की प्रतारणा के विरुद्ध ऐसे मुखर स्वर विरल हैं।

रचनाओं के अनुक्रम से ज्ञात होगा कि इस रूपक शृंखला का आरम्भ और अन्त अश्वमेध पराक्रम वाले पुरुषों पर केन्द्रित है। युधिष्ठिर नायक है सज्जन के, जिनका अश्वमेध लोक विश्रुत है। अन्तिम नाटक है अग्निमित्र! वह पहली नाट्य-कृति है। और, यह अंतिम अग्निमित्र––अपने अश्वमेधयाजी पिता सेनानी पुष्यमित्र को दिग्विजय (विशेषतः शकों के उन्मूलन) के लिए मुक्त रखते देश की आन्तरिक व्यवस्था को बनाए है। पुष्यमित्र ने अन्तिम मौर्य सम्राट् बौद्ध बृहद्रथ को एक सैनिक सत्ता परिवर्तन में निहत कर उस पाटलिपुत्र का नियन्त्रण अब हाथ में लिया जिसके पश्चिम में यवनदिमित्र खड़ा था, दक्षिण पश्चिम से चेदिवंशी जैन खारवेल की सेना शोण के तट तक प्रायः सुगाग प्रासाद तक पहुँच रही थी। नन्द के द्वारा कलिंग से ले जाई गई जिन प्रतिभा को वापस लाने के बहाने मगध को आत्मसात कर उसे प्रति शोध लेना था, मगध के लिए यह भारी संकट-काल था वहाँ का अन्तिम मौर्य राजा बृहद्रथ बौद्ध था और असन्तुष्ट सेना ब्राह्मण सेनानी पुष्यमित्र के हाथों में थी। अन्ततः, सेना के सम्मुख सैन्य प्रदर्शन के बहाने बृहद्रथ को बुलाया गया था। दिमित्र और खारवेल की समस्या सम्मुख थी। कलिंग के दूतों का आवागमन तो जारी था ही उनकी सेना का एक अंश गोरथ गिरि तक जिन मूर्त्ति लाने के बहाने पहुँच गया था। आन्तरिक दुर्बलता और बाहरी दबाव से बृहद्रथ ने जिन मूर्त्ति की वापसी स्वीकार कर ली। उसे यह भी आशा थी कि दिमित्र के विरुद्ध कलिंग-बल से सहायता मिलेगी। ऐसी कुछ सन्धि था स्वीकृति न रहती तो कलिंग के लोग इतनी सरलता से गोरथ गिरि न पहुँच जाते, कुछ प्रतिरोधात्मक युद्ध तो होता ही। किन्तु वैसा कुछ न हुआ और पाटलिपुत्र से राजगृह का राजपथ कलिंग सेना से संकुल हो गया। जिन मूर्त्ति वापस लेकर खारवेल को तो लौटना ही था। दिमित्र के विरुद्ध सहायता का आश्वासन दे मगधराज से अपनी पाद वन्दना कराके खारवेल लौटे, किन्तु उसका सैन्य स्कन्धावार शोण के तट से हटा नहीं। मगध की इस वर्चस्व हीनता से क्षात्रधर्मा ब्राह्मण सेनानी और श्रौत समुदाय ने खिन्न होकर नन्द के बाद दूसरी बार विद्रोह किया। पहली बार भी ब्राह्मण चाणक्य विद्रोह का सूत्रधार था इस बार भी ब्राह्मण सेनानी पुष्यमित्र ने वैसा विप्लव प्रवर्त्तित किया जिसमें सेना के सम्मुख बृहद्रथ का वध हुआ। हर्षचरित में इस घटना को वर्णित करते कहा गया है––

'प्रतिज्ञा दुर्बलं च बल दर्शन व्यपदेश दर्शिताऽशेष सैन्यः सेनानीरनार्यों मौर्यं बृहद्रथं पिपेश पुष्यमित्रः स्वाभिनम्।' किन्तु, पुष्यमित्र ने कभी अपने को दो अश्वमेध करने पर भी सम्राट् नहीं कहा––वह अपने पूर्व पद सेनानी से अधिक सन्तुष्ट रहा। कदाचित, उस अस्थिर राष्ट्र दशा में सिंहासन से अधिक महत्त्व सेना का रहा। अवन्ति के समीपवर्त्ती विदिशा में उसका वंशमूल था। संवत् १९६२-६३ से संस्कृत नाटकों और काव्यों का पूज्य पिताश्री का सँकलन है, उसमें विक्रमोर्वशीय की निर्णय सागर द्वारा १८९० ई॰ में मुद्रित प्रति के पृष्ठ संख्या १०३ पर उनके द्वारा रेखाकित संवाद इस प्रकार है––राजा––(उपविश्य सोपचारं गृहीत्वा वाचयति।) स्वस्ति यज्ञ शरणात्सेनापति पुष्यमित्रो वैदिशस्तत्रत्यमायुष्यन्तमग्निमित्रं स्नेहात्परिष्वज्येदमनुदर्शयति। विदितमस्तु। योऽसौ राजयज्ञदीक्षितेन मया राजपुत्र शत परिवृतं वसुमित्रं गोप्तारमादिश्य वत्सरोपात्त नियमो निरर्गलस्तुरंगो विसृष्टः, स सिन्धोर्दक्षिणरोधसि चरन्नश्वानीकेन यवनेन प्रार्थित। तत उभयो सेनयोर्महानासीत्संमर्दः।) इससे प्रत्यक्ष है कि प्रायः तीन दशक पूर्व शुंग काल के इस पुष्यमित्र-अग्निमित्र प्रसंग पर, अग्निमित्र-इरावती के लेखक का ध्यान जा चुका था।

अपनी पुरी यात्रा में भी खारवेल के हाथीगुम्फा (उदयगिरि) वाले गुहा लेख को भी १९३२ के जनवरी में उन्होंने मोमबत्ती जला-जलाकर ध्यान से देखा था। आशा है ये तथ्यपरक सूचनाएँ अध्येताओं के काम की होगी।

—– रत्नशंकर प्रसाद

  1. अस्पष्ट शब्द।