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युद्ध और अहिंसा


मार्ग की उपयोगिता को सब आलोचक स्वीकार करते हैं। मगर वह खामखाह मान लेते हैं कि मनुष्य का स्वभाव ऐसा बना है कि वह अहिंसक तैयारी का बोझ नहीं उठायेगा। लेकिन यह तो प्रश्न को टालने की बात है। मैं कहता हूँ कि आपने यह तरीका़ अच्छी तरह आज़माया ही नहीं है। जहाँ तक आज़माया गया है, परिणाम आशाजऩक ही मिला है।

‘हरिजन-सेवक’ : २७ जुलाई, १६४०